Wednesday, 25 September 2024

ग्रीष्म ऋतु शहर में

 ग्रीष्म ऋतु शहर में

    

दबी आवाज़ों में बातें

और जल्दबाज़ी में

बालों को समेट कर ऊपर

सिर पर बनाया हुआ जूड़ा.

 

भारी कंघे के नीचे से

टोप वाली महिला देखती है

सिर को पीछे करके

अपनी चोटियों समेत.

 

बाहर गर्म रात

दे रही है बुरे मौसम का इशारा

और घिसटते हुए जा रहे हैं,

पैदल अपने अपने घरों को लोग.

 

सुनाई देती है अचानक बिजली की कड़क,

गूंजती हुई तेज़ी से,

और हवा से फ़ड़फ़ड़ाता है

खिड़की का परदा.

 

छा जाती है ख़ामोशी,

मगर होने लगती है पहले-सी उमस,

और पहले जैसी बिजलियाँ

मचाती हैं आसमान में उथल-पुथल.

 

और जब चमकती सुबह

फिर से उमस भरी

सुखाती है रास्ते के डबरे

रात की बारिश के बाद.

 

देखते हैं चिड़चिड़ेपन से

नींद पूरी न होने के कारण

सदियों पुरानेख़ुशबूदार,

सदाबहार लिंडन वृक्ष.

 

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*मेल्युज़ेयेवो में लारा के साथ गुज़ारे हुए समय की ओर इशारा करती है

Friday, 13 September 2024

कैफियत

 कैफ़ियत (व्याख्या)

                                                            बरीस पस्तरनाक 

                                                       अनुवाद: आ. चारुमति रामदास 



ज़िंदगी लौट आई उसी तरह अकारण,

जैसे कभी अजीब तरह से रुक गई थी

मैं हूँ उसी प्राचीन सड़क पर,

जैसे तब थाउसी गर्मियों वाले दिन और उसी समय.

     

वे ही हैं लोग और वही परेशानियाँ.

और सूर्यास्त की आग बुझी नहीं थी,

जब उसे मानेझ की दीवार से

मौत की शाम ने जल्दबाज़ी में कील से ठोंक दिया था.

 

     सस्ते फूहड़ कपड़ों में औरतें

उसी तरह रातों को जूते कुचलती हैं,

फिर उन्हें लोहे की छत पर

अटारियों में सूली पर चढ़ाती हैं.

 

थकी हुई चाल से एक औरत

धीरे-धीरे देहलीज़ पर आती है

और तहखाने से ऊपर आकर,

आँगन को तिरछा पार करती है.

मैं फिर से बहाने बनाता हूँ,

और फिर से हर चीज़ के प्रति लापरवाह हो जाता हूँ.

और पड़ोसन चक्कर लगाकर पिछवाड़े का,

हमें छोड़ देती है अकेला.

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रोओ नहींसूजे हुए होंठों को न सिकोड़ो,

उन्हें न भींचो.

बसंत के बुखार के छाले की

सूखी पपड़ी खुल जायेगी.

 

मेरे सीने से अपनी हथेली हटा लो,

हम हैं विद्युन्मय तार.

देखना, एक दूसरे से,

यूँ ही चिपक जायेंगे.

 

गुज़र जायेंगे सालबंध जाओगी शादी के बंधन में,

भूल जाओगी बेतरतीबियाँ.

औरत होना – एक महान कदम है,

पागल बना देना – वीरता.

 

और मैं औरतों की हाथों के,

पीठोंऔर कंधोंऔर गर्दनों के चमत्कार के सम्मुख

सेवकों जैसे स्नेह भाव से

ज़िंदगी भर सजदे में रहा हूँ.

 

मगर कितना ही क्यों न जकड़ ले रात

पीड़ादायक बंधन से मुझे,

सबसे तीव्र है चाहत दूर छिटकने की

और ललचाती है ख़्वाहिश बंधन तोड़ने की.

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* प्रेमिका (लारा) के बारे मेंजिससे कवि संबंध तोड़ना चाहता है.

Thursday, 12 September 2024

हैम्लेट

 

 

हैम्लेट  

बरीस पस्तरनाक 

डा. झिवागो से  

 

थम गया शोर. आया मैं रंगमंच पर.

झुककर दरवाज़े की चौखट पर ,

सुनता हूँ दूर की आवाज़

क्या हो रहा है मेरे ज़माने में.

 

रात का धुंधलका केंद्रित है मुझ पर

हज़ारों दूरबीनों से.

ख़ुदाई बापयदि संभव है,

तो ले जा इस प्याले को.

   

तुम्हारी ज़िद्दी योजना पसंद है मुझे

और तैयार हूँ मैं यह भूमिका निभाने के लिये.

मगर अभी चल रहा है नया नाटक,

और इस बार मुझे बख़्श दे.

 

मगर अंकों का क्रम निश्चित हो गया है,

और रास्ते का अंत अपरिवर्तनीय है.

मैं अकेलासब कुछ डूब रहा है पाखण्ड में.

ज़िंदगी जीना  – खेत में टहलने जैसा नहीं है.

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ग्रीष्म ऋतु शहर में

  ग्रीष्म ऋतु शहर में      दबी आवाज़ों में बातें और जल्दबाज़ी में बालों को समेट कर ऊपर सिर पर बनाया हुआ जूड़ा.   भारी कंघे के नीचे से टोप वाली ...