खण्ड
– 2
अध्याय
8
आगमन
1
झिवागो परिवार
को इस स्थान तक लाने वाली ट्रेन अभी भी पिछली पटरियों पर खड़ी थी, अन्य
ट्रेनों से ढँकी हुई,
मगर ऐसा महसूस हो रहा था
कि मॉस्को से संबंध,
जो पूरे रास्ते खिंचा
चला आ रहा था,
इस सुबह टूट गया, ख़त्म हो गया.
यहाँ
से एक दूसरा क्षेत्र आरंभ हो रहा था,
प्रांत की एक अलग दुनिया, जो एक अन्य, अपने, आकर्षण के केंद्र की ओर खिंची जा रही थी.
यहाँ
के लोग राजधानी के लोगों की अपेक्षा एक दूसरे को ज़्यादा नज़दीक से जानते थे. हालाँकि युर्यातिन-रज़्वील्ये रेल्वे ज़ोन
से बाहर के लोगों को हटा दिया गया था और उसके चारों ओर रेड आर्मी ने घेरा डाल दिया
था, मगर स्थानीय उपनगरों के मुसाफ़िर न जाने कैसे पटरियों
पर आ गये थे,
“घुस गये थे”, जैसा वे अभी कहते. वे डिब्बों में ठूँस-ठूँस कर भरे थे, दरवाज़ों के पास वाले गलियारे उन से भरे थे, वे ट्रेन के साथ-साथ पटरियों पर चल रहे थे और अपने
डिब्बों के दरवाज़ों के पास तटबंध पर खड़े थे.
ये
लोग एक दूसरे को अच्छी तरह जानते थे,
वे दूर से ही एक दूसरे
से बात करते,
पास आने पर एक दूसरे का
अभिवादन करते. राजधानियों की तुलना में उनकी वेशभूषा और बातचीत करने का ढंग कुछ
अलग था, उनका आहार भिन्न था, उनकी
आदतें भिन्न थीं.
दिलचस्प
था ये जानना कि ये लोग कैसे जीते हैं,
कौनसे नैतिक और भौतिक
संसाधन उन्हें ऊर्जा देते हैं,
मुश्किलों से कैसे लड़ते
हैं, कानूनों से कैसे बच निकलते हैं?
जवाब
फ़ौरन आ गया, एकदम जीवित स्वरूप में.
2
संतरी के साथ,
जो धरती पर अपनी राईफ़ल को घसीट रहा था और छड़ी की तरह उसका सहारा ले
लेता था, डॉक्टर अपनी ट्रेन की ओर वापस आ रहा था.
उमस थी. सूरज रेल की
पटरियों और डिब्बों की छतों को झुलसा रहा था. तेल से काली हो गई ज़मीन पीली चमक से
जल रही थी, जैसे उस पर सोने का मुलम्मा चढ़ा
हो.
संतरी राइफ़ल के हत्थे से
धूल में रेखाएँ बना रहा था, अपने पीछे रेत
में निशान छोड़ रहा था. बंदूक ‘स्लीपरों’ पर खड़खड़ाते हुए गुज़र रही थी. संतरी कह रहा था:
“अच्छा मौसम आ गया है.
बसन्त की फ़सल बोने का, जई, गर्मियों
का गेंहूँ या फिर, बाजरा, सबसे बढ़िया
समय है. मगर ‘बकव्हीट’ के लिये अभी
काफ़ी समय है. हमारे यहाँ ‘बकव्हीट’ संत
अकुलीना दिवस पर बोया जाता है. हम मर्शान्स्क के हैं, तंबोव
प्रान्त के, यहाँ के नहीं हैं. ऐह, कॉम्रेड
डॉक्टर! अगर अभी ये गृहयुद्ध का हाइड्रा (हाइड्रा – अनेक फनों वाला साँप –
अनु.), क्रांति विरोधी प्लेग न होता, तो क्या मैं ऐसे समय में अनजान प्रदेश में भटकता? वर्ग-संघर्ष
की काली बिल्ली हमारे बीच से गुज़र गई, और देख रहे हो,
क्या कर रही है!
3
“धन्यवाद.
मैं ख़ुद चढ़ जाऊँगा,”
यूरी अन्द्रेयेविच ने
पेश की गई सहायता से इनकार करते हुए कहा. डिब्बे से, लोग
झुककर उसकी ओर हाथ बढ़ा रहे थे,
जिससे उसे भीतर खींच
सकें. उसने अपने आप को थोड़ा सा खींचा और छलाँग लगाकर डिब्बे में चढ़ गया, खड़ा हो गया और बीबी को गले लगा लिया.
“आख़िरकार
आ ही गये. शुक्रिया,
शुक्रिया, ऐ ख़ुदा,
कि ये सब इस तरह से ख़त्म
हो गया,” अंतनीना अलेक्सान्द्रव्ना कहती रही. “मगर ये सुखान्त
हमारे लिये कोई नई ख़बर नहीं है.”
“नई
ख़बर कैसे नहीं है?”
“हमें
सब मालूम था.”
“कहाँ
से?”
“संतरी
खबर लाते रहे. वर्ना क्या हम
अनिश्चितता को बर्दाश्त कर सकते थे?
मैं और पापा तो बस पगला
ही गये थे. वैसे तो ऐसी नींद सोता है कि उठाना नामुमकिन हो जाता है. परेशानियों के
कारण गठरी की तरह धम्म से लुढ़क जाते हो – उठाना मुश्किल है. नये मुसाफ़िर आये हैं.
मैं अभी तुम्हारा किसी-किसी से परिचय करवाती हूँ. मगर पहले सुन लो, कि चारों ओर लोग क्या कह रहे हैं. पूरा डिब्बा
तुम्हारे सही-सलामत छूट कर आने पर बधाई दे रहा है. – ये है मेरा हीरो!” अचानक उसने
बात बदल दी, मुँह घुमाया – और कंधे के ऊपर से पति का एक नये आये
हुए मुसाफ़िर से परिचय करवाया,
जो पीछे, डिब्बे के भीतरी हिस्से में पड़ोसियों के बीच दब रहा था.
“सामदिव्यातव”-
वहाँ से सुनाई दिया,
अनजान सिरों के झुण्ड के
ऊपर एक मुलायम हैट ऊपर उठी और अपना नाम बताने वाला उसे दबा रहे जिस्मों की भीड़ को
धकेलते हुए डॉक्टर की ओर आने लगा.
‘सामदिव्यातव’ इस बीच यूरी अन्द्रेयेविच सोच रहा था. ‘मैं सोच रहा था कि, प्राचीन
रूसी नाम है,
लोककथाओं से, लहरियेदार दाढ़ी, किसानों
वाला कोट, सितारे जड़ा बेल्ट. मगर ये तो कला के प्रशंसकों का क्लब
निकला, सफ़ेद हो चले घुंघराले बाल, मूँछें, बकरी जैसी दाढ़ी’.
“क्या स्त्रेल्निकव ने
आपको डरा दिया? सही-सही बताइये.”
“नहीं,
किसलिये? बातचीत गंभीर किस्म की थी. वैसे वह
आदमी दृढ़ है, महत्वपूर्ण है.”
“ये लो. मेरी इस व्यक्ति
के बारे में कुछ कल्पना है. ये हमारे यहाँ का नहीं है. आपका,
मॉस्को वाला है. वैसा ही जैसे पिछले कुछ समय से हमारे यहाँ के नये
लोग हैं. आपके राजधानी वाले, स्थानांतरित हुए. अपनी बुद्धि
से सोच ही नहीं सकते.”
“यह अन्फीम एफीमविच है,
यूरच्का, - सब कुछ जानता है – सर्वज्ञानी.
तुम्हारे बारे में सुना था, तुम्हारे पिता के बारे में,
मेरे दादा जी को जानता है, सबको, सबको...
“मिलिये,” और अंतनीना अलेक्सान्द्रव्ना ने बिना किसी भाव के यूँ ही पूछ लिया:
“आप शायद यहाँ की शिक्षिका
अंतीपवा को भी जानते हैं?” जिसका जवाब
सामदिव्यातव ने उसी तरह भावहीनता से दिया:
“तुम्हें अंतीपवा से क्या
करना है?” यूरी अन्द्रेयेविच ने यह सुन लिया
और उसने बातचीत में भाग नहीं लिया, अंतनीना अलेक्सान्द्रव्ना
कहती रही:
“अन्फीम एफीमविच –
बोल्शेविक है. सावधान रहना, यूरच्का. उससे
सतर्क रहना.”
“अरे,
नहीं, क्या सच में? कभी
सोच भी नहीं सकता था. देखने से तो किसी कलाकार जैसा लगता है.”
“पिता सराय चलाते थे. सात
त्रोयकाएँ दौड़ती रहती थीं. मगर मैंने उच्च शिक्षा प्राप्त की है. और,
वाकई में सोशल-डेमोक्रेट हूँ.”
“सुनो,
यूरच्का, अन्फीम एफीमविच क्या कहते हैं. वैसे,
आप बुरा न मानें इसलिये कहती हूँ, आपका नाम और
कुलनाम – ज़बान को काफ़ी कसरत करनी पड़ती है. – हाँ, तो सुनो,
यूरच्का, जो मैं तुमसे कर रही हूँ.
हम बेहद भाग्यशाली हैं.
युर्यातिन-शहर हमें घुसने नहीं देगा. शहर में आगज़नी हो रही है और पुल उड़ा दिया गया
है, वहाँ पहुँचना नामुमकिन है. ट्रेन को दूसरी लाइन
से जोड़ने वाली शाखा से घुमाकर ले जाया जायेगा, और उसी शाखा
से जिसकी हमें ज़रूरत है, जिस पर तर्फ्यानाया स्थित है. ज़रा
सोचो! और एक स्टेशन से दूसरे स्टेशन पर, शहर से होकर, अपनी चीज़ें घसीटते हुए दूसरी ट्रेन में बैठने की ज़रूरत नहीं है. मगर वे
हमें काफ़ी आगे-पीछे ले जायेंगे, जब तक हम सचमुच में पहुँच
नहीं जाते. बड़ी देर तक पैंतरेबाज़ी करते रहेंगे. ये सब अन्फीम एफीमविच ने मुझे
समझाया.”
4
अंतनीना अलेक्सान्द्रव्ना
की भविष्यवाणी सच निकली. अपने डिब्बों को बार बार इधर से उधर जोड़ते और नये डिब्बों
को जोड़ते हुए ट्रेन लगातार भीड़ वाली पटरियों पर आगे से पीछे जा रही थी,
जिन पर दूसरी ट्रेनें भी घूम रही थीं. जिन्होंने बड़ी देर तक उसका
रास्ता रोक कर उसे खुले खेत में नहीं आने दिया.
दूर,
उस इलाके की ढलानों से ढँका शहर शहर आधा खो गया था. वह क्षितिज पर
मुश्किल से ही दिखाई दे रहा था घरों की छतों, फ़ैक्ट्रियों के
पाइपों के सिरों, घण्टाघरों की सलीबों के रूप में. उसका कोई
उपनगर जल रहा था. हवा आग के धुँए को उड़ाकर ले जा रही थी. वह घोड़े की लहराती अयाल
के समान पूरे आसमान में फ़ैल रहा था.
डॉकटर और सामदिव्यातव
डिब्बे के फ़र्श पर, दरवाज़े से पैर नीचे लटकाए
बैठे थे. सामदिव्यातव लगातार दूर इशारा करते हुए यूरी अन्द्रेयेविच को कुछ न कुछ
समझाये जा रहा था. कभी कभी चलती हुई मालगाड़ी की खड़खड़ाहट में उसकी आवाज़ दब जाती,
जिससे सुनना मुश्किल हो जाता. यूरी अन्द्रेयेविच दुबारा पूछता,
अन्फीम एफीमविच डॉक्टर के पास अपना चेहरा लाता और गले पर ज़ोर डालते
हुए सीधे उसके कानों में अपनी कही हुई बात को दुहराता.
“ये सिनेमा हॉल “जायन्ट”
जला दिया. वहाँ, बेशक कैडेट्स जमा थे. मगर उन्होंने
पहले ही आत्म समर्पण कर दिया था. वैसे, युद्ध अभी समाप्त
नहीं हुआ है. देख रहे हैं, घण्टाघर के ऊपर काले धब्बे. ये
हमारे वाले हैं. चेक (चेकोस्लोवाकिया की – अनु) टुकडियों को हटा रहे हैं.
“कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा
है. आप यह सब कैसे पता कर लेते हैं?”
“और ये खोख्रिकी जल रही है,
कारीगरों की बस्ती. और कलदेयेवो, जहाँ शॉपिंग
आर्केड्स हैं, बगल में ही है. मुझे इसमें दिलचस्पी क्यों है,
इसलिये कि आर्केड्स में ही हमारा कम्पाउण्ड है. आग बड़ी नहीं है. ‘सेन्टर’ को अभी तक छुआ नहीं है.”
“फिर से कहिये. सुनाई नहीं
दे रहा है.”
“मैं कह रहा हूँ – सेन्टर,
शहर का सेन्टर. चर्च, लाइब्रेरी. हमारा कुलनाम,
सामदिव्यातव, ये ‘सैन दोनाता’
से रूसी तर्ज़ पर बनाया गया है. मानो हम दिमीदव कुल के हैं.”
“फिर से कुछ भी समझ में
नहीं आया.”
“मैं कह रहा हूँ कि
सामदिव्यातव – ये ‘सैन दोनाता’ का संशोधित रूप है. जैसे हम दिमीदव कुल के हैं. राजकुमार दिमीदव सैन
दोनाता. और, हो सकता है, कि ये झूठ हो.
पारिवारिक दंतकथा है. और इस जगह को कहते हैं स्पीर्किन-तली. समर कॉटेजेस, मस्ती भरे सैर-सपाटों वाली जगह. वाकई, अजीब नाम है न?”
उनके सामने एक खेत फ़ैला
था. उसके ऊपर से विभिन्न दिशाओं में रेल की पटरियाँ गुज़र रही थीं.
उसके ऊपर से टेलिग्राफ़ के खंभे उछलते-कूदते हुए क्षितिज के पार जा
रहे थे. सुंदरता में रेल की पटरियों से होड़ करते हुए चौड़ा, पक्का
रास्ता फ़ीते की तरह बल खा रहा था. वह कभी क्षितिज के पार छुप जाता, तो कभी पल भर के लिये मोड़ पर कमान की तरह लहराता. और
फिर से ओझल हो जाता.
“हमारा
राजमार्ग मशहूर है. पूरे साइबेरिया से गुज़रता है. कैदियों के कठोर श्रम से
गौरवान्वित. आजकल के गुरिल्ला युद्दों का आधार. वैसे, हमारे
यहाँ ठीक ठाक ही है. रहने लगेंगे तो आदत हो जायेगी. शहर की दिलचस्प जगहों से प्यार
करने लगेंगे. हमारे पानी के बूथ. चौराहों पर. सर्दियों में खुले आसमान के नीचे
महिलाओं के क्लब.”
“हम शहर में नहीं रहने
वाले हैं. वरीकिना में रहेंगे.”
“जानता हूँ. आपकी पत्नी ने
मुझे बताया. एक ही बात है. काम के सिलसिले में शहर में आना-जाना लगा रहेगा. मैं
पहली ही नज़र में पहचान गया था कि वह कौन है. आँखें. नाक,
माथा, क्र्यूगेर की प्रतिकृति. पूरी नाना पर
गई है. इन भागों में क्र्यूगेर को सब याद करते हैं.”
खेत के सिरों पर ऊँची,
गोल, पेट्रोल की लाल टंकियाँ थीं. ऊँचे-ऊँचे
खम्भों पर औद्योगिक इश्तेहार झाँक रहे थे. उनमें से एक पर, जो
डॉक्टर की नज़र में दो बार आ चुका था, ये लिखा था:
“मोरा और वित्चिन्किन.
बुआई की मशीनें. गाहने की मशीनें.”
“ज़बर्दस्त फर्म थी. बढ़िया
कृषि के औज़ारों का उत्पादन करती थी.”
“सुना नहीं. आपने क्या कहा?”
“फर्म,
कह रहा हूँ, समझ रहे हैं – फर्म. कृषि उपयोगी
यन्त्रों का उत्पादन करती थी. जॉइन्ट स्टॉक कम्पनी थी. मेरे पिता शेयरहोल्डर थे.”
“मगर आप कह रहे थे – सराय
चलाते थे.”
“सराय – सराय है. एक का
दूसरे पर कोई असर नहीं होता. और वह, बेवकूफ़ नहीं थे,
इसलिये बढ़िया उद्योगों में पैसा लगाते थे. सिनेमा हॉल “जायन्ट” में
भी पैसे लगाये थे.”
“आपको,
लगता है, इस बात का फ़ख्र है?”
“पिता की अक्लमन्दी का?
और क्या!”
“तो फिर
आपकी सोशल-डेमोक्रेसी का क्या?”
“माफ़ कीजिये, उसका यहाँ
क्या काम? ये किसने कह दिया कि मार्क्स की तर्ज़ पर सोचने
वाला आदमी कीचड़ की तरह रहे और लार टपकाता रहे? मार्क्सिज़्म –
एक सकारात्मक विज्ञान है, वास्तविकता का सिद्धांत है,
ऐतिहासिक परिस्थिति का दर्शन है.”
“मार्क्सिज़्म और विज्ञान?
इस बारे में किसी ऐसे आदमी से बहस करना, जिसे
मैं बहुत कम जानता हूँ, गुस्ताख़ी होगी. मगर चलो, जो भी हो.
विज्ञान होने के लिये
मार्क्सिज़्म का स्वतः पर पर्याप्त नियंत्रण नहीं है. विज्ञान अधिक संतुलित होता
है. मार्क्सिज़्म और वस्तुनिष्ठता? मैं किसी ऐसी विचारधारा
को नहीं जानता, जो अपने आप में इतनी सिमटी हुई और तथ्यों से
दूर हो, जितना मार्क्सिज़्म है. हर कोई अनुभव के आधार पर ख़ुद
को परखने के बारे में चिंतित है, और सत्ता में बैठे लोग अपनी
ख़ुद की पाकीज़गी के किस्सों की ख़ातिर पूरी ताकत से सच्चाई से मुँह मोड़ लेते हैं. राजनीति
मुझे कुछ नहीं बताती. मुझे ऐसे लोग अच्छे नहीं लगते जो सत्य के प्रति उदासीन हों.”
सामदिव्यातव ने डॉक्टर के
शब्दों को एक सनकी-मज़ाकिया की भड़ास समझा. वह सिर्फ मुस्कुराता रहा और उसने विरोध
नहीं किया.
इस बीच ट्रेन शंटिंग करती
रही. हर बार, जब वह सिग्नल के खम्भे के बाहर
जाने वाले निशान तक आती, ड्यूटी पर खड़ी अधेड उम्र की महिला,
जिसकी बेल्ट में दूध का डिब्बा बंधा था, अपनी
बुनाई को, जिसमें वह व्यस्त थी, एक हाथ
से दूसरे हाथ में लेती, झुकती, शंटिंग
स्विच के डायल को घुमा देती और ट्रेन को वापस पीछे भेज देती. जब तक ट्रेन
धीरे-धीरे पीछे जा रही होती, वह सीधी हो जाती और पीछे से
मुक्का दिखाकर उसे धमकाती.
सामदिव्यातव ने सोचा कि वह
उसीको धमका रही है. ‘ये किसके लिये कर रही है?’
वह सोच में पड़ गया. “कुछ जाना-पहचाना सा है. कहीं तून्त्सेवा तो
नहीं? लगता है कि वही है. मगर, मुझे
क्या? मुश्किल से. ग्लाश्का भी नहीं – बहुत बूढ़ी है. और,
मैं किसलिये? माँ-रूस में उथल-पुथल हो रही है,
रेल्वे में अव्यवस्था चल रही है, उसे, बेचारी को शायद मुश्किल हो रही है, और ये मेरा कुसूर
है और मुझे मुट्ठी दिखाकर धमका रही है. जहन्नुम में जाये, अब
क्या उसकी वजह से भी अपना दिमाग़ ख़राब करूँ!”
आख़िरकार,
झण्डा हिलाकर और ड्राइवर से कुछ चिल्लाकर कहते हुए सिग्नलवूमन ने
ट्रेन को सिग्नल वाले खम्भे से आगे जाने दिया, उसके मार्ग पर,
और जब चौदहवाँ डिब्बा उसके पास से गुज़रा, तो
उसने फ़र्श पर बैठे बातूनियों को ज़ुबान दिखाई, जो उसे चिढ़ा
रहे थे. और सामदिव्यातव फिर से सोच में पड़ गया.
5
जब जलते हुए शहर की सीमाएँ,
सिलिंडर जैसी टंकियाँ, टेलिग्राफ़ के खम्भे और
व्यावसायिक इश्तेहार पीछे रह गये और छुप गये, और दूसरे दृश्य
नज़र आने लगे, जैसे जंगल, पहाड़, जिनके बीच में अक्सर राजमार्ग के मोड़ दिखाई दे जाते, तो सामदिव्यातव ने कहा:
“उठेंगे और अपनी अपनी जगह
जायेंगे. मुझे जल्दी ही उतरना है. हाँ, और आपको
भी एक स्टेशन बाद. देखिये, चूक न जाएँ.”
“आप,
निश्चित ही, यहाँ की जगहें अच्छी तरह से जानते
होंगे?”
“पागलपन की हद तक. सौ मील
के घेरे में. मैं आख़िर वकील हूँ. मुकदमे. यात्राएँ.”
“अभी तक?”
“और क्या!”
“आजकल किस तरह के मुकदमे
होते हैं?”
“जैसे चाहें. पुराने
मुकदमे जो पूरे नहीं हुए हैं, लेन-देन, अधूरे अनुबन्ध, - गले-गले तक, भयानक.”
“क्या इस तरह के रिश्ते
खारिज नहीं हो गये हैं?”
“नाम के लिये,
ज़ाहिर है. मगर असल में एक ही समय में ऐसी चीज़ों की ज़रूरत है जो एक
दूसरे को अलग करती हैं. और संस्थाओं का राष्ट्रीयकरण, और
शहर-सोवियत के लिए ईंधन, और प्रांतीय सोवियत की आर्थिक परिषद
के लिए गाड़ियों का इंतज़ाम. और फ़िर सभी जीना चाहते हैं. संक्रमण काल की विशेषताएँ,
जब सिद्धांत कार्यप्रणाली से मेल नहीं खाते.
अभी ऐसे लोगों की ज़रूरत है
जो चतुर हों, साधन सम्पन्न हों और मेरे जैसे
चरित्र के हों. धन्य है वह आदमी, जो
चलता नहीं है, जो एक ढेर उठाता है, बिना
इधर-उधर देखे. और नाक पर घूँसे जमाता है, जैसा मेरे पिता कहते थे. आधे प्रांत को मैं खाना खिलाता हूँ. आपके पास मैं
आता रहूँगा, लकड़ियों की आपूर्ति के सिलसिले में. घोड़े पर,
ज़ाहिर है, जैसे ही वह बाहर आयेगा.
मेरा आख़िरी घोड़ा लंगड़ा हो
गया. और, अगर वह तंदुरुस्त होता, तो क्या मैं इस खटारे पर हिचकोले खाता! शैतान ले जाये, घिसटता है, और ऊपर से यह रेल कहलाती है.
वरीकिना के अपने दौरों में
आपके काम आऊँगा. आपके मिकुलीत्सिन को मैं अपने हाथ की पाँच ऊँगलियों की तरह जानता
हूँ.”
“क्या आपको हमारी यात्रा
का उद्देश्य, हमारे इरादों के बारे में पता है?”
“करीब-करीब. अंदाज़ लगा
सकता हूँ. कल्पना है. मानव का धरती के प्रति चिरंतन आकर्षण. अपने हाथों से किये
गये काम से जीवन यापन का सपना देखना.”
“तो फिर?
आपको, शायद, मंज़ूर नहीं
है? आप क्या कहेंगे?”
“मासूम-सा,
रमणीय सपना है. मगर क्यों नहीं? ख़ुदा आपकी मदद
करे. मगर मुझे यकीन नहीं है. काल्पनिक है. पूरी तरह हाथों से निर्मित.”
“मिकुलीत्सिन हमारे साथ
कैसा बर्ताव करेगा?”
“दरवाज़े पे भी खड़ा नहीं
करेगा, झाडू मार के भगा देगा और सही करेगा. उसके यहाँ
तो आपके बगैर भी ऐसा हंगामा है, एक हज़ार एक रातें, बेकार पडे कारख़ाने, मज़दूर भाग गये हैं, जीवित रहने के लिये साधनों के नाम पर कुछ नहीं, चारा
नहीं, और ऐसे में अचानक आप, आदाब अर्ज़
है, शैतान की तरह टपक पड़ते हैं. अगर वह आपको मार भी डाले तो
मैं उसे सही ठहराऊँगा.
“देखिये,
आप – बोल्शेविक हैं और ख़ुद ही इस बात को नकारते नहीं हैं कि ये
ज़िंदगी नहीं, बल्कि कोई बेमिसाल सी, मायाजाल
जैसी, बेतुकी सी चीज़ है.”
“ज़ाहिर है. मगर ये
ऐतिहासिक अपरिहार्यता है. उससे होकर गुज़रना ही पड़ेगा.”
“अपरिहार्यता क्यों?”
“आप क्या छोटे बच्चे हैं,
या दिखावा कर रहे हैं? क्या आप चाँद से टपके
हैं? भक्षक परजीवी भूखे मज़दूरों पर सवार थे, उन्हें मौत आने तक हाँकते रहे और क्या ये ऐसे ही रहना चाहिये था? और ज़ुल्म तथा उत्पीड़न के अन्य प्रकार? क्या लोगों के
आक्रोश का औचित्य, न्यायपूर्ण तरीके से जीने की उनकी इच्छा,
सत्य की उनकी तलाश समझ में नहीं आ रही है? या
आपको ऐसा लगता है कि मूलभूत परिवर्तन ड्यूमा ने, संसदीय
तरीकों से हासिल कर लिया था, और तानाशाही की कोई ज़रूरत नहीं
है?”
“हम अलग-अलग बातों के बारे
में बातें कर रहे हैं और, चाहे सदियों तक
भी बहस करते रहें, किसी नतीजे पर नहीं पहुँचेंगे. मेरी
मनोदशा बहुत क्रांतिकारी थी, मगर अब मैं सोचता हूँ, कि हिंसा से कुछ भी प्राप्त नहीं होगा. भलाई से ही अच्छाई की तरफ़ आकर्षित
करना चाहिये. मगर मामला ये नहीं है. मिकुलीत्सिन की तरफ़ लौटते हैं. अगर ऐसी
संभावनाएँ हमारा इंतज़ार कर रही हैं, तो हम वहाँ क्यों जाएँ?
हमें फ़ौरन वापस लौट जाना चाहिये.”
“क्या पागलपन है. पहली बात,
क्या सिर्फ मिकुलीत्सिन ही आशा की किरण है? दूसरी
बात, मिकुलीत्सिन ख़तरनाक हद तक भला है, चरम सीमा तक भला है. शोर मचायेगा, आपकी बात नहीं
मानेगा और नरम पड़ जायेगा, अपनी कमीज़ उतार देगा, आख़िरी निवाला भी आपके साथ बाँटेगा.” और सामदिव्यातव ने उसकी कहानी सुनाई.
6
पच्चीस
साल पहले मिकुलीत्सिन पीटर्सबुर्ग से यहाँ आया, वह
टेक्नोलॉजिकल इन्स्टीट्यूट का विद्यार्थी था. उसे पुलिस की
निगरानी में यहाँ निष्कासित कर दिया गया था. मिकुलीत्सिन आया, उसे क्र्यूगेर के मैंनेजर का काम मिल गया और उसने शादी कर ली. हमारे यहाँ
चार तून्त्सेव बहनें थीं, चेखव वाली “तीन बहनों” से एक
ज़्यादा, - युर्यातिन के सारे विद्यार्थी उनके दीवाने थे – अग्रीपिना, एव्दोकिया, ग्लफ़ीरा
और सिराफ़ीमा सिवेरीनव्ना. उनके पिता के नाम को संक्षिप्त करते हुए लड़कियों को ‘सिवेर्यान्की’ (सिवेर्यान्की - उत्तर की - अनु,)
कहने लगे. बड़ी
सिवेर्यान्का से मिकुलीत्सिन ने शादी कर ली.
जल्दी ही इस दम्पत्ति के
यहाँ एक बेटे ने जन्म लिया. आज़ादी की कल्पना का पूजक होने के कारण बेवकूफ़ पिता ने
बेटे का एक दुर्लभ नाम – लिबेरियस से बप्तिज़्मा किया. लिबेरियस,
बोलचाल की भाषा में लिब्का, बेहद शरारती था,
उसमें विविध प्रकार की और असाधारण योग्यताएँ थीं. युद्ध शुरू हो गया.
लिब्का ने अपने सर्टिफिकेट में जन्म के वर्ष की हेरा-फ़ेरी कर दी और
पंद्रह साल की उम्र में वालंटीयर के रूप में मोर्चे पर भाग गया. अग्राफ़ेना
सिवेरीनव्ना ने, जो वैसे भी बीमार रहती थी, इस सदमे को बर्दाश्त न करने के कारण बिस्तर पकड़ लिया, वह फ़िर उठ न पाई और पिछली से पिछली सर्दियों में, क्रांति
से ठीक पहले, मर गई.
युद्ध समाप्त हुआ.
लिबेरियस वापस आया. वह कौन है? ये –
हीरो-लेफ्टिनेन्ट, तीन मेडल्स वाला, और,
बेशक, शानदार, बहुचर्चित
फ्रन्ट से लौटा हुआ बोल्शेविक-डेलिगेट. क्या आपने “फॉरेस्ट-ब्रदरहुड़” के बारे में
सुना है?”
“नहीं,
माफ़ी चाहता हूँ.”
“तब बताने का कोई मतलब
नहीं है. आधा प्रभाव तो ख़त्म हो जायेगा. तब आपको डिब्बे से इस हाइवे पर देखने की
ज़रूरत नहीं है. वह किसलिये मशहूर है? वर्तमान समय में –
पार्टिज़न्स के लिये. पार्टिज़न्स कौन हैं? ये गृह युद्ध की
प्रमुख टुकड़ियाँ हैं. इस सशस्त्र बल को दो स्त्रोतों के सहयोग से बनाया गया.
राजनीतिक संगठन, जिसने क्रांति के नेतृत्व का भार संभाला,
और निचली रैंक्स के सैनिक, जिन्होंने हारे हुए
युद्ध के बाद पुरानी सत्ता को मानने से इनकार कर दिया था. इन दोनों चीज़ों के संयोग
से – पार्टीज़न-सेना का निर्माण हुआ. उसकी संरचना मिश्रित है. मूलरूप से ये
मध्यवर्गीय किसान हैं. मगर साथ ही इनमें आप जिसे चाहें, वह
मिल जायेगा. इनमें गरीब भी हैं, और भूतपूर्व प्रीस्ट्स भी,
और पिताओं से लड़ाई करते ख़ुशहाल किसानों के बेटे भी. वैचारिक
अराजकतावादी भी हैं, और बे-पासपोर्ट फ़टेहाल आवारा, और बड़ी उम्र के, मिडल स्कूलों से निकाले गये शोहदे
हैं. ऑस्ट्रो-जर्मन युद्ध कैदी हैं, जिन्हें आज़ाद करने और
वापस मातृभूमि भेजने के वादे से फुसलाया गया है. और, हज़ारों
लोगों की इस सेना के एक भाग का, जिसे “फॉरेस्ट-ब्रदर्स” कहते
हैं, कमाण्डर है - कॉम्रेड ऑफ फ़ॉरेस्टर्स, लीब्का, लिबेरियस अवेर्कियेविच, अवेर्की स्तिपानविच मिकुलीत्सिन का बेटा.”
“क्या कह रहे हैं?”
“वही,
जो आप सुन रहे हैं. ख़ैर, आगे बढ़ता हूँ. पत्नी
की मृत्यु के बाद अवेर्की स्तिपानविच ने दुबारा शादी की. नई पत्नी, एलेना प्रक्लोव्ना – स्कूल की छात्रा थी, जिसे सीधे
स्कूल की बेंच से उठाकर शादी का मुकुट पहनाया गया था. स्वभाव से भोली, मगर सोच समझकर भोलेपन का नाटक भी करती है, जवान है,
मगर और अधिक जवान होती जाती है. इतना चहकती है, चिरचिराती है, अपने आप को भोला दिखाती है, छोटी सी बेवकूफ़, जैसे खेत का लवा पंछी. जैसे ही आपको
देखेगी, आपका इम्तेहान लेने लगेगी. “सुवोरव का जन्म कब हुआ
था?”, “त्रिकोणों की समानता के उदाहरण दें”. और आपकी चीरफ़ाड़
करके, आपको बेवकूफ़ बनाकर ख़ुश होगी. मगर, कुछ ही घंटों में आप उससे मिलेंगे और मेरे वर्णन को याद करेंगे.
“उसकी” अपनी कुछ और
कमज़ोरियाँ हैं : पाइप और सेमिनरी पुरातनवाद (यहाँ गुरुकुल जैसी पद्धति से
तात्पर्य है – अनु.) : “ निःसंदेह करो, साही भी
सहनीय है.” उसका कार्यक्षेत्र तो समुंदर होना चाहिये था. इन्स्टीट्यूट में वह जहाज़
निर्माण का कोर्स कर रहा था. ये उसके बाहरी बर्ताव में, आदतों
में रह गया है. सफ़ाचट दाढ़ी बनाता है, पूरे दिन मुँह से पाइप
नहीं निकालता, लब्ज़ों को दाँत भींचकर कहता है, प्यार से, आराम से. आगे को निकला हुआ निचला जबड़ा
धूम्रपान करने वाले का, ठण्डी, भूरी
आँखें. हाँ उसकी विशेषताएँ बताना तो भूल ही गया : एस.आर. (सोशल-रिवॉल्यूशनरी –
अनु,), प्रदेश से कॉन्स्टीट्यूएन्ट असेम्बली में
चुना गया था.”
“ये बहुत महत्वपूर्ण है.
मतलब, बाप और बेटे एक-दूसरे पर चाकू ताने हैं?
राजनीतिक शत्रु?”
“नाममात्र के,
ज़ाहिर है. मगर हकीकत में ताइगा वरीकिना से युद्ध नहीं करता. ख़ैर,
आगे सुनिये. बाकी की तून्त्सेव बहनें, अवेर्की
स्तिपानविच की सालियाँ अभी तक युर्यातिन में हैं. कुँआरी कन्याएँ. ज़माना बदल गया,
लड़कियाँ भी बदल गईं.
बची हुई बहनों में सबसे
बड़ी, अव्दोत्या सिवेरीनव्ना – शहर के वाचनालय में
लाइब्रेरियन है. प्यारी सी, साँवली महिला, बेहद शर्मीली है. यूँही, बेबात ‘पिओनी’ के फूल की तरह लाल हो जाती है. वाचनालय में
कब्र जैसी, तनावपूर्ण शांति होती है. उसे हमेशा ज़ुकाम रहता
है, एक बार में बीस तक छींके आती हैं, शरम
के मारे में धरती में समाने को तैयार रहती है. मगर आप क्या कर सकते हैं? घबराहट से.
बीच वाली,
ग्लफीरा सिवेरीनव्ना, बहनों में सबसे बढ़िया
है.
बिन्दास लड़की,
ग़ज़ब की काम करने वाली. किसी भी काम पर नाक नहीं चढ़ाती. आम धारणा है,
एक ही सुर में सब कहते हैं कि फॉरेस्ट-ब्रदर्स, पार्टीज़ानों का मुखिया इस मौसी जैसा है. अभी उसे सिलाई-विभाग में देखा या
स्टॉकिंग्ज़ बनाने वाली के रूप में देखा.
आप पलक भी नहीं झपका पायेंगे, कि वह
हेयर-ड्रेसर बन जाती है. आपने युर्यातिन वाली
रेल्वे लाइन पर सिग्नल वाली औरत हमें मुक्के दिखाकर धमका रही थी?
“मैंने सोचा,
कि वो सिग्नल वाली औरत ग्लफ़ीरा थी. मगर, लगता
है कि वो नहीं थी. ज़्यादा बूढ़ी थी.
छोटी,
सीमूश्का, - परिवार के लिये सलीब के समान है,
उसकी परीक्षा है. पढ़ी लिखी लड़की, खूब पढ़ा है
उसने. फिलॉसफ़ी का अध्ययन किया था, कविताएँ पसंद थीं. और
क्रांति के, आम उत्साह के वर्षों में, चौराहों
पर हो रही सभाओं के प्रभाव में उस पर काफ़ी परिणाम हुआ और वह धार्मिक उन्माद में पड़
गई. बहनें अपने काम पर जातीं, दरवाज़े को बाहर से ताला लगातीं,
और ये खिड़की से कूद कर बाहर आ जाती, और सड़कों
पर घूमती, लोगों को इकट्ठा करती, येशू
के “दूसरे आगमन” के बारे में, दुनिया
के विनाश के बारे में उपदेश देती. चलो, मैं बहुत बोल गया,
अपने स्टेशन पर पहुँचने वाला हूँ. आपको अगले स्टेशन पर उतरना है.
तैयार हो जाइये.”
जब अन्फीम एफ़ीमविच ट्रेन
से उतर गया, तो अंतनीना अलेक्सान्द्रव्ना ने
कहा:
“मुझे नहीं मालूम,
कि तुम इस बारे में क्या सोचते हो, मगर मेरे
ख़याल में किस्मत ने ही इस आदमी को हमारे पास भेजा था. मुझे लगता है कि वह हमारे
जीवन में कोई अच्छी भूमिक निभाने वाला है.”
“काफ़ी संभावना है,
तोनेच्का. मगर मुझे यह बात अच्छी नहीं लग रही है कि नानाजी से साम्य
होने के कारण तुम्हें सब लोग पहचान लेंगे, और ये भी कि यहाँ
उसे इतनी अच्छी तरह याद करते हैं. ये स्त्रेल्निकव भी, जैसे
ही मैंने वरीकिना का नाम लिया, बड़े ज़हरीले अंदाज़ में बोला :
“वरीकिना, क्र्यूगेर के कारख़ाने. कहीं रिश्तेदार तो नहीं?
वारिस तो नहीं?”
मुझे डर है कि यहाँ हम
लोगों की नज़रों में मॉस्को की अपेक्षा ज़्यादा आयेंगे,
जहाँ से इसलिये भागे थे कि छुपकर रह सकें.
“बेशक,
अब तो कुछ किया भी नहीं जा सकता. जब सिर ही काट दिया, तो बालों का ग़म कैसा. मगर बेहतर है कि अपने आप को प्रकट न करें, छुप कर रहें, मामूली बन कर रहें. वैसे मेरे मन में
बुरे ख़याल आ रहे हैं. चलो, अपने लोगों को उठाएँ, सामान समेटें, बेल्ट्स बंद करें और उतरने की तैयारी
करें.”
7
अंतनीना
अलेक्सान्द्रव्ना तर्फिनाया स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर खड़ी थी, अनगिनत बार वह लोगों और सामान को गिन चुकी थी, जिससे यकीन कर सके कि डिब्बे में कुछ छूटा नहीं है. वह
प्लेटफॉर्म की मसली हुई रेत को अपने पैरों के नीचे महसूस कर रही थी, और साथ ही इस भय ने भी, कि
कहीं स्टेशन न छूट जाये,
उसे अब तक छोड़ा नहीं था, और चलती हुई ट्रेन की खड़खड़ाहट का शोर अब तक उसके कानों
में गूँज रहा था. हाँलाकि अपनी आँखों से उसने विश्वास कर लिया था कि ट्रेन उसके
सामने प्लेटफ़ॉर्म पर अचल खड़ी है. इससे उसे किसी चीज़ को देखने में, सुनने में,
कल्पना करने में परेशानी
हो रही थी.
दूर
जाने वाले यात्रियों ने ऊपर से,
डिब्बे की ऊँचाई से ही
उससे बिदा ली.
उसने उन्हें नहीं देखा.
उसने ये भी नहीं देखा कि ट्रेन कैसे चली गई, और
सिर्फ तभी उसके लुप्त होने पर ध्यान दिया जब उसके जाने के बाद रेल की दूसरी पटरी
दिखाई दी, जिसके उस तरफ़ हरे खेत और नीला आसमान था.
स्टेशन की इमारत पत्थर की
थी. प्रवेश द्वार के दोनों ओर दो बेंचें पड़ी थीं. तर्फिनाया स्टेशन पर उतरने वाले
मुसाफ़िरों में सिर्फ सीव्त्सेव से आये मॉस्को के प्रवासी ही थे. उन्होंने अपना
सामान रखा और एक बेंच पर बैठ गये.
आगंतुकों को स्टेशन के सन्नाटे
ने, ख़ालीपन ने और सफ़ाई ने चौंका दिया.
उन्हें अजीब सा लगा कि
चारों ओर भीड़ नहीं है, गाली-गलौज नहीं हो रही है.
यहाँ ज़िंदगी इतिहास से पिछड़ गई थी, दूर रह गई थी जैसा
दूर-दराज़ की जगहों पर होता है. उसे अभी राजधानी के जंगलीपन को प्राप्त करना था.
स्टेशन बर्च वृक्षों के
कुंज में छुपा था. जब ट्रेन उसकी ओर आ रही थी, तो उसमें
अँधेरा हो गया था. बर्च वृक्षों के मुश्किल से हिलते शिखरों की परछाइयाँ हाथों और
चेहरों पर, प्लेटफॉर्म की साफ़, पीली नम
रेत पर, ज़मीन और छतों पर पड़ रही थीं.
कुंज से आती पंछियों की
सीटी उसकी ताज़गी के अनुरूप ही थी. बेहद स्पष्ट, मासूमियत
जैसी, खुली हुई आवाज़ें पूरे जंगल को चीरते हुए गूंज रही थीं.
कुंज को दो रास्ते काट रहे थे, रेल की पटरियों वाला और जंगल
वाला, और वह दोनों को समान रूप से अपनी नीचे की ओर झुकती हुई,
चौड़ी, फर्श तक पहुँचती,
आस्तीनों जैसी टहनियों से ढाँक रहा था.
अचानक अंतनीना
अलेक्सान्द्रव्ना की आँखें और कान खुल गये. अचानक उसकी चेतना तक हर चीज़ पहुँच गई.
पंछियों की आवाज़ें, जंगल के एकांत की शुद्धता,
चारों और फ़ैली शांति की निस्तब्धता. उसके दिमाग़ में एक ख़याल था:
“मुझे यकीन नहीं था कि हम सही-सलामत पहुँच जायेंगे. वह, समझ
रहे हो, तुम्हारा स्त्रेल्निकव, तुम्हारे
सामने अपनी महानता दिखाकर तुम्हें छोड़ सकता था, और यहाँ तार
भेजकर निर्देश देता कि हम सबको उतरते ही रोक लिया जाये. मेरे प्यारे, मुझे उनकी भलमनसाहत पर यकीन नहीं हो रहा है. सब दिखाने
के लिये है”. मगर इन पूर्व नियोजित शब्दों के बदले उसके मुख से कुछ और ही निकला.
“कितना सुंदर!” चारों ओर
की मोहकता को देखते ही उसके मुँह से निकला. वह कुछ और न कह सकी. आँसू उसका दम
घोंटने लगे. वह ज़ोर से रो पड़ी.
उसकी हिचकियों को सुनकर
बूढ़ा स्टेशन मास्टर इमारत से बाहर आया. छोटे-छोटे कदमों से वह बेंच की ओर लपका,
नम्रता से अपनी लाल टॉप वाली युनिफ़ॉर्म कैप के किनारे पर हाथ रखा और
पूछने लगा:
“क्या मालकिन को शामक औषधी
की कुछ बूँदें दूँ? स्टेशन की फर्स्ट-एड किट से?”
“मामूली बात है,
धन्यवाद, ठीक हो जायेगा.”
“सफ़र की परेशानियाँ,
चिंताएँ. जानी-पहचानी, आम बात है. ऊपर से
गर्मी, अफ्रीका जैसी, जो हमारे प्रदेश
में बिरले ही होती है. और ऊपर से युर्यातिन की घटनाएँ.”
“आते-आते कम्पार्टमेन्ट से
आग देखी थी.”
“अगर मैं ग़लत नहीं हूँ,
तो आप रूस से हैं.”
“बेलाकामेन्नाया से.”
“मॉस्को से?
तब आश्चर्य करने जैसी कोई बात नहीं है कि मालकिन के दिमाग़ पर भारी
तनाव है. कहते हैं पत्थर-पे-पत्थर नहीं बचा?”
“बढ़ाचढ़ाकर कहते हैं. मगर,
ये सही है, कि सब कुछ देख लिया. ये मेरी बेटी
है, ये दामाद. ये उनका बेटा. और ये हमारी नौजवान आया है,
न्यूशा.”
“नमस्ते,
नमस्ते. बेहद ख़ुशी हुई. मुझे थोड़ी सी पूर्वसूचना मिली थी.
सामदिव्यातव अन्फीम एफ़ीमविच ने सक्मी जंक्शन से फ़ोन किया था. डॉक्टर झिवागो अपने
परिवार के साथ मॉस्को से आ रहे हैं, विनती करता हूँ कि उनकी
हरसंभव सहायता करें. वो डॉक्टर, शायद, आप
ही हैं?”
“नहीं,
डॉक्टर झिवागो ये रहे, मेरे दामाद, और मैं किसी और विषय में, कृषि वैज्ञानिक प्रोफेसर
ग्रमेका हूँ.”
“मुझे बेहद अफ़सोस है,
पहचानने में गलती हो गई. माफ़ कीजिये. आपसे मिलकर बेहद ख़ुशी हुई.”
“मतलब,
आपके शब्दों से ऐसा लगता है कि आप सामदिव्यातव को जानते हैं?”
“कैसे नहीं जानूँगा,
उस जादूगर को. हमारी उम्मीद और हमारे माई-बाप को. उसके बिना तो हम
कब के ख़त्म हो गये होते. हाँ, कहते हैं, हर संभव सहायता करना. जी, जैसा हुक्म, मैंने कहा. वादा कर लिया. तो, अगर घोड़ा चाहिये,
या, कोई और चीज़. तो बताइये. आपको कहाँ जाना है?”
“हमें वरीकिना जाना है.
यहाँ से कितनी दूर है?”
“वरीकिना?
तभी मैं सोच नहीं पा रहा हूँ, कि आपकी बेटी
मुझे किसकी याद दिला रही है. ओह, आपको वरीकिना जाना है! तब
सब समझ में आ गया. आख़िर मैंने इवान एर्नेस्तोविच के साथ मिलकर ये रास्ता बनाया था.
अभी मैं जाता हूँ, और आपके लिये इंतज़ाम करता हूँ. आदमी को
बुलाऊँगा, गाड़ी मंगवा लूँगा.”
“दनात! दनात! तब तक ये
सामान वेटिंग रूम में ले जा. और घोड़ों का क्या? चाय की
स्टाल पर भाग, भाई, और पूछ कि इंतज़ाम
हो सकता है या नहीं? वाक्ख शायद सुबह यहाँ डोल रहा था. देख,
कहीं चला तो नहीं गया? कहना, कि चार लोगों को वरीकिना ले जाना है, सामान ज़्यादा
नहीं है. नये लोग हैं. फ़ौरन. और अब आपको बाप की तरह एक सलाह देता हूँ, मालकिन. मैं जानबूझकर आपके और इवान एर्नेस्तोविच के बीच रिश्ते के बारे
में नहीं पूछ रहा हूँ, मगर इस बारे में सावधान रहें. हरेक को
बताने की ज़रूरत नहीं है. ज़माना ऐसा है, आप ख़ुद ही सोचिये.”
वाक्ख का नाम सुनकर
आगंतुकों ने अचरज से एक दूसरे की ओर देखा. उन्हें अभी तक लोक कथाओं के उस जादुई
लुहार के बारे में स्वर्गीय आन्ना इवानव्ना की कहानियाँ याद थीं,
जिसने अपने भीतर लोहे की कभी नष्ट न होने वाली आंत लगाई थी, और ऐसी ही कई स्थानीय कहानियाँ और दंतकथाएँ जो उसके बारे में प्रचलित थीं.
8
उन्हें एक सफ़ेद घोड़ी पर, जिसने हाल ही में बच्चे को जन्म दिया था, लटकते हुए
कान और बिखरे बालों वाला, एकदम बूढ़ा आदमी ले जा रहा था. उसके
ऊपर विभिन्न कारणों से हर चीज़ सफ़ेद थी. उसके छाल के जूते अभी तक पहनने से गंदे
नहीं हुए थे, और पतलून और कमीज़ का समय के साथ रंग उड़ गया था
और वे सफ़ेद हो गये थे.
सफ़ेद घोड़ी के पीछे अपनी डाँवाडोल,
नरम टाँगों पर उछलते हुए, रात की तरह काला,
छोटे-से घुंघराले सिर वाला, जैसा हाथ से बनाये
खिलौनों में होता है, बछड़ा भाग रहा था.
गड्ढों पर हिचकोले खाती
गाड़ी के किनारों पर बैठे मुसाफ़िरों ने उसके तल को पकड़ रखा था,
जिससे गिर न जाएँ. उनके दिल में शांति थी. उनका सपना पूरा होने वाला
था, वे अपने गंतव्य के निकट पहुँच रहे थे. इस अद्भुत और साफ़
दिन की संध्या पूर्व घडियाँ उदार विस्तार से, धीरे-धीरे,
रुक-रुक कर शानदार चमक बिखेरते हुए जैसे थम गईं थीं.
रास्ता कभी जंगल से तो कभी
खुले खेतों से गुज़र रहा था. जंगल में रोडों के कारण लग रहे झटके मुसाफिरों का एक
ढेर बना देते, वे दुहरे हो जाते, गुस्सा होते और एक दूसरे को कस कर पकड़ लेते. खुली जगहों में, ऐसा लगता कि जैसे पूरा परिसर, आत्मा की परिपूर्णता
से खुलापन महसूस कर रहा हो, वे अपनी कमर सीधी कर लेते,
फैल कर बैठ जाते, सिर को झटकते.
ये पहाड़ी प्रदेश था.
पहाड़ों की, जैसे हमेशा होता है, अपनी आकृति थी, अपना चेहरा-मोहरा था. दूर से वे अपनी
शक्तिशाली, घमण्डी परछाइयों समेत काले नज़र आ रहे थे, ख़ामोशी से जाने वालों का निरीक्षण कर रहे थे. खेतों से एक सुखकर गुलाबी
प्रकाश मुसाफ़िरों के पीछे आ रहा था, उन्हें सुकून देते हुए,
उनके भीतर उम्मीद जगाते हुए.
उन्हें हर चीज़ अच्छी लग
रही थी, हर चीज़ आश्चर्यचकित कर रही थी,
और सबसे ज़्यादा उनके बूढ़े, ग़ज़ब के गाड़ीवान की
लगातार बड़बड़, जिसमें लुप्त हो चुके प्राचीन रूसी भाषा के रूप,
तातार झलक और प्रादेशिक विशेषताएँ उसके अपने अगम्य आविष्कारों के
साथ घुल मिल गए थे.
जब बछड़ा पीछे रह जाता,
तो घोड़ी रुक जाती और उसका इंतज़ार करती. वह आराम से लहरों जैसी,
छपछपाहट जैसी कुलाँचों से उसे पकड़ लेता. अपनी लम्बी, पास-पास स्थित टाँगों के अनसधे कदमों से वह किनारे से गाड़ी के पास आता और
लम्बी गर्दन पर स्थित अपने छोटे से सिर को शैफ्ट के पीछे से घुसाकर माँ का पेट
चाटने लगता.
“मैं समझ नहीं पा रही हूँ,”
हिचकोलों के कारण बजते हुए दाँतों से, रुक रुक
कर, जिससे अचानक लगे झटके से ज़ुबान न कट जाये, अंतनीना अलेक्सान्द्रव्ना ने चिल्लाकर पति से चिल्लाकर कहा, “ क्या ये संभव है कि ये वही वाक्ख हो जिसके बारे में मम्मा बताया करती थी.
अरे,
याद करो, हर तरह की बकवास. लुहार, जिसकी आँते झगड़े में बुरी तरह आहत हो गईं थीं, उसने
अपने लिये नई आँतें बना लीं. एक लब्ज़ में, वाक्ख लुहार लोहे का उदर. मैं समझती हूँ कि ये सब कपोल कल्पित कथाएँ
हैं. मगर, कहीं ये कथा इसके बारे में तो नहीं है? कहीं ये वही तो नहीं है?”
“बेशक,
नहीं. पहली बात, तुम ख़ुद कह रही हो कि ये दंत
कथा है, लोक कथा. दूसरी बात, इस दंत
कथा को भी मम्मा के ज़माने में, जैसा कि वह कहती थी, सौ साल से ऊपर हो चुके थे. मगर इतने ज़ोर से क्यों बोल रही हो? बूढ़ा सुन लेगा, बुरा मान जायेगा.”
“वह कुछ नहीं सुनेगा,
- ऊँचा सुनता है. और अगर सुन भी ले तो कुछ समझ नहीं पायेगा – कुछ
पगला-सा है.”
“ऐ,
फ़्योदर नीफेदिच!” न जाने क्यों, बूढ़े ने
मर्दों वाले नाम से घोड़ी को मनाया, बहुत अच्छी तरह, और बैठे हुए लोगों से बेहतर जानते हुए कि वह घोड़ी है. “कैसी अज़ाब की अगन
है! जैसे अब्राम के लड़कों की पर्शियन भट्टी में! चल, भूखे
शैतान! तुझसे कह रहा हूँ, मज़ेपा (मज़ेपा – युक्रेन का
प्रसिद्ध योद्धा – अनु.)!
अचानक उसने लघु गीतों के
अंश गाना शुरू कर दिया, जिन्हें पुराने ज़माने में
यहाँ की फैक्ट्रियों में रचा गया था:
अलबिदा
बड़े दफ़्तर,
अलबिदा
खदान कम्पाउण्ड और बॉस,
खाता
मालिक की ब्रेड,
पीता
तालाब का पानी.
तैरता
हँस पास किनारे,
अपने
नीचे पानी काटते,
नशा
नहीं मुझे शराब का,
वान्या
जाता फ़ौजी बनने.
और
मैं माशा, नहीं बेवकूफ़,
और
मैं. माशा, नहीं पागल.
जाऊँगा
मैं शहर सेल्याबू,
करूग़ा
नौकरी सेन्तेत्यूरिख में.
“ऐ,
घोली. ख़ुदा को भूली! (बूढा घोड़ी को घोली कह रहा है – अनु.)
देखो, लोगों, कैसी बिगडैल है, जानवर! तुम उसे चाबुक दो, औल वह तुम्हें: “उतर!” मगर,
फ़ेद्या-नाफेद्या, कब चलेगी? इस वाले जंगल का नाम है तायगा, उसका नहीं ओर-छोर.
यहाँ राज है किसान लोगों का, ऊ, ऊ!
यहाँ हैं फॉलेस्त-ब्लदल्स. ऐय, फेद्या-नाफेद्या, फ़िल खड़ी हो गई, शैतान, भूत!”
अचानक वह मुड़ा और अंतनीना
अलेक्सान्द्रव्ना की ओर एकटक देखते हुए बोला:
“तू कैसे कह रही है,
छोकरी, या मैं समझ नहीं पाया कि तू कहाँ से है?
मगर है तू सीधी, माँ, देख
रहा हूँ. मैं धरती में समा जाऊँ, जो न पहचानूँ! पहचान गया!
अपने गोलों पे भरोसा नहीं हो रहा है, जीता जागता ग्रीगव! (बूढ़ा
आँखों को ‘गोले’ कह रहा है,
और क्र्यूगेर को ग्रीगव – अनु.) कहीं पोती
तो नहीं? क्या मैं ग्रीगव को नहीं पहचानूँगा? मैंने पूरी उमर उसके पास गुज़ार दी, मैंने उसके लिये
दाँत गिरा दिये. हर काम किया – ज़िम्मेदारी निभाई! और खदान में काम किया, और सूत काता और घोड़ों का काम किया. – अरे, हिल भी!
फिर खड़ी हो गई, लंगड़ी! चीन के फ़रिश्ते, तुझसे कह रहा हूँ, या नहीं?
तुम अभी पूछ रही थीं,
कौन है ये वाक्ख, वो लुहार तो नहीं? तू भी बड़ी सीधी है, माँ, ऐसी
सलोनी मालकिन, मगर बेवकूफ़. तेरा वाला वाक्ख, उसका नाम था पस्तानगोव. पस्तानगोव लोहे का उदर, वो पचास साल से ज़मीन के नीचे चला गया, डिब्बे में
बंद. और हम, इसके उलटे, मिखोनशीन हैं.
नाम एक है – हमनाम, मगर कुलनाम अलग-अलग है, फ़िदोत, मगर वो वाला नहीं.”
धीरे-धीरे बूढ़े ने अपने
शब्दों में मुसाफ़िरों को मिकुलीत्सिन के बारे में वह सब बताया जो वे पहले ही
सामदिव्यातव से जान चुके थे. उसे वह मिकुलीच कह रहा था,
और बीबी को मिकुलीच्ना. मैनेजर की वर्तमान बीबी को दूसरी दुल्हन कह
रहा था, और “पहली, स्वर्गीय” के बारे
में बताया कि वह शहद जैसी औरत थी, सफ़ेद देवदूत. जब वह
पार्टिज़नों के नेता लिवेरियस तक पहुँचा और उसे यह पता चला कि मॉस्को तक उसकी
ख्याति नहीं पहुँची है, और मॉस्को में फ़ॉरेस्ट-ब्रदर्स के
बारे कुछ भी नहीं सुना है, तो उसे यह अविश्वसनीय लगा:
“नहीं सुना?
फॉलेस्ट-कॉम्रेड के बारे में नहीं सुना? चीन
के फ़रिश्ते, मॉस्को के कान क्यों हैं?”
शाम होने लगी. जाने वालों
के सामने अधिकाधिक लम्बी होती हुई उन्हीं की अपनी परछाइयाँ भाग रही थीं. उनका
रास्ता एक चौड़े खाली मैदान से होकर जा रहा था. यहाँ-वहाँ, अलग-थलग गुच्छों में, सिरों पर फूलों के साथ
साबूदाना, भटकटैया, विलो-चाय के ऊँचे
डंठल बढ़ रहे थे. नीचे, धरती से सूर्यास्त की किरणों से
प्रकाशित, उनकी आकृतियाँ भूतों की तरह लग रही थीं, जैसे निगरानी के लिये खेत में निश्चल खड़े घुड़सवार संतरी हों.
काफ़ी दूर,
अंत में, मैदान एक उभरते हुए टीले के सहारे
टिका था. वह दीवार की तरह रास्ते में खड़ा था, उसके नीचे शायद कोई खाई या नदी होगी. मानो वहाँ आसमान के चारों ओर बागड़
खिंची हो, जिसके गेट तक गाँव का रास्ता जा रहा था.
चढ़ाव के ऊपर एक सफ़ेद,
लम्बा, एक मंज़िला घर नज़र आ रहा था.
“टीले पर टावर देख रहे हैं?”
वाक्ख ने पूछा. “तेरा मिकुलीच और मिकुलीश्का. और उनके नीचे ऊबड़-खाबड़,
खाई है, जिसका नाम है शूत्मा.”
उस तरफ़ से दो बार,
एक के बाद एक, बंदूक की गोली चलने की आवाज़ आई,
जिसकी टूटी-टूटी आवाज़ कई बार टुकड़ों में गूँजती रही.
“ये क्या है?
कहीं पार्टिज़न तो नहीं, दद्दू? हम पर तो नहीं चला रहे हैं?”
“ख़ुदा आपके
साथ रहे. कहाँ के पार्टिज़न? स्तिपानिच शूत्मा में भेड़ियों को
डरा रहे हैं.”
9
आगंतुकों
की मेज़बानों के साथ पहली मुलाकात डाइरेक्टर के छोटे से घर के आँगन में हुई. एक
थकाने वाला दृश्य था - पहले ख़ामोश, मगर बाद में – शोर गुल भरा, असंबद्ध.
एलेना
प्रक्लाव्ना जंगल से अपनी शाम की सैर से लौट रही थी. शाम के सूरज की किरणें पूरे
जंगल से एक पेड़ से दूसरे पेड़ पर होते हुए उसके पीछे-पीछे आ रही थीं, लगभग वैसे ही सुनहरे रंग की जैसे उसके बाल थे. एलेना
प्रक्लाव्ना ने हल्के,
गर्मियों के लायक कपड़े
पहने थे. वह लाल हो रही थी और चलने से लाल हुए चेहरे को रूमाल से पोंछ रही थी.
उसकी खुली गर्दन पर सामने की तरफ़ एक इलास्टिक बैण्ड था जिससे उसकी पीठ पर पड़ी हुई
फूस की हैट लटक रही थी.
उसके
सामने से हाथों में बंदूक लिये उसका पति आ रहा था, जो खाई
से ऊपर चढ़ कर आया था और उसका फ़ौरन बंदूक की धुँआ भरी नलियों को साफ़ करने का इरादा था, क्योंकि गोलियाँ चलाते समय उसे कुछ ख़राबी नज़र आई थी.
अचानक, न जाने कहाँ से, आँगन
के पत्थर जड़े प्रवेश मार्ग पर झटके से,
दनदनाता हुआ वाक्ख अपना
उपहार लिये आ टपका.
गाड़ी
से बाकी लोगों के साथ अति शीघ्रता से उतर कर अलेक्सान्द्र अलेक्सान्द्रविच ने
हिचकिचाते हुए,
कभी अपनी हैट उतारते हुए, कभी फिर से पहनते हुए, आरंभिक
स्पष्टीकरण दिया.
कुछ
क्षणों तक मेज़बानों की सचमुच की पाषाणवत् अवस्था और शर्म से दबे जा रहे अभागे
मेहमानों की बौखलाहट जारी रही.
बिना
किसी स्पष्टीकरण के परिस्थिति को न केवल सहभागी, वाक्ख, न्यूशा और शूरच्का समझ गये थे. बोझिलपन का एहसास घोड़ी
को, बछड़े को,
सूरज की सुनहरी किरणों
को और मच्छरों को भी हो गया था,
जो एलेना प्रक्लाव्ना के
चारों ओर मंडरा रहे थे और उसके चेहरे और गर्दन पर बैठ रहे थे.
“समझ
नहीं पा रहा हूँ,”
आख़िरकार अवेर्की
स्तिपानविच ने ख़ामोशी को तोड़ा. “नहीं समझ पा रहा हूँ, कुछ भी
नहीं समझ पा रहा हूँ,
और कभी भी समझ नहीं
पाऊँगा. हमारे यहाँ,
साऊथ में, आख़िर क्या है, श्वेत
गार्ड्स, गेंहू का प्रदेश? आख़िर
हमें ही क्यों चुना गया,
आपको यहाँ, यहाँ,
हमारे यहाँ, कौनसी मजबूरी ले आई?”
“दिलचस्प
बात है, क्या आपने सोचा कि ये अवेर्की स्तिपानविच के लिये
कितनी बड़ी ज़िम्मेदारी है?”
“लेनच्का, बीच में दखल मत दो. हाँ, ठीक
यही बात. वह बिल्कुल सही है. क्या आपने सोचा कि मेरे लिये ये कितना बड़ा बोझ है?”
“ख़ुदा
आपको सलामत रखे. आप हमें समझ नहीं पा रहे हैं. बात किस बारे में है? बेहद मामूली, बेहद
छोटी सी चीज़ के बारे में. आप की ज़िंदगी में, आपके
सुख चैन में कोई ख़लल नहीं पड़ेगा. किसी ख़ाली, टूटी-फ़ूटी
इमारत में कोई छोटा-सा कोना. खाली पड़ी ज़मीन का छोटा-सा टुकड़ा जिसकी किसी को ज़रूरत
नहीं है, सब्ज़ियाँ उगाने के लिये. जंगल से लकड़ियाँ लाना, जब कोई देख नहीं रहा हो. क्या ये बहुत ज़्यादा है, क्या ये कोई अतिक्रमण है?”
“हाँ, मगर दुनिया बहुत बड़ी है. हम ही क्यों? ये इज़्ज़त हमें ही क्यों बख्शी जा रही है, किसी और को क्यों नहीं?”
“हम
आपके बारे में जानते हैं और हमें उम्मीद थी कि आपने भी हमारे बारे में सुना होगा.
हम आपके लिये अजनबी नहीं हैं और हम भी अनजान लोगों के पास नहीं जा रहे हैं.”
“आह, तो बात क्र्यूगेर की हो रही है, उस बारे में कि आप उसके रिश्तेदार हैं? आपकी ज़ुबान कैसे मुड़ती है, आज के
ज़माने में, ऐसी बातों को स्वीकार करने के लिये?”
अवेर्की
स्तिपानविच ठीक-ठाक नाक-नक्शे वाला आदमी
था, बाल पीछे की ओर, लम्बे-लम्बे
डग भरता और गर्मियों में अपनी रूसी कमीज़
पर फुंदे वाला फ़ीता बाँधता. पुराने ज़माने में ऐसे लोग समुद्री डाकू बन जाते थे, नये ज़माने में वे सदाबहार विद्यार्थी, स्वप्नदर्शी शिक्षक बन गये हैं.
अपनी
जवानी अवेर्की स्तिपानविच ने स्वतंत्रता आंदोलन की, क्रांति
की भेंट चढ़ा दी,
और सिर्फ यह डर था कि वह
आज़ादी तक ज़िंदा रहेगा या नहीं,
कि अगर वह होती है, तो अपने संतुलन से उसकी चरम और खून की प्यास को
संतुष्ट नहीं करेगी. और,
वह आ गई, उसके सभी दुःसाहसी प्रस्तावों को पूरी तरह से उलट-पलट
करके, और वह,
जन्म से और निरंतर
मज़दूरों को प्यार करने वाला,
जिसने
“स्वितागोर-बगातीर” मे सबसे पहली फैक्ट्री-कामगारों की कमिटी बनाई थी और उसमें
कामगारों का नियंत्रण सुनिश्चित किया था, अचानक
खाली गाँव में अकेला रह गया,
किसी काम का न रहा, मज़दूर भाग गये थे, उनमें
से अधिकांश मेन्शेविकों के साथ हो लिये. और अब ये बेतुकी बात, ये बिनबुलाए क्र्यूगेर के वारिस उसे किस्मत का मज़ाक, जानबूझ कर चली गई चाल प्रतीत हुए, उन्होंने उसके सब्र का प्याला पूरा भर दिया था.
“नहीं
यह मेरी सहनशक्ति से परे है. मेरी बुद्धि को समझ में नहीं आ रहा है. समझ रहे हैं
कि आप मेरे लिये कितना बड़ा ख़तरा हैं,
आप मुझे किस परिस्थिति
में डाल रहे हैं?
मैं, ज़ाहिर है,
सच में, पागल हो गया हूँ. नहीं समझ रहा हूँ, कुछ भी नहीं समझ रहा हूँ और कभी समझ भी नहीं पाऊँगा.”
“ताज्जुब
की बात है, क्या आपको इस बात का अंदाज़ भी है कि आपके बगैर भी हम कैसे
ज्वालामुखी पर बैठे हैं?”
“ठहरो, लेनच्का. बीबी बिल्कुल सही कह रही है. आपके बगैर भी
मिठास नहीं है. कुत्ते जैसी ज़िंदगी,
पागलख़ाना. हर समय दो
आगों के बीच,
कोई रास्ता नहीं है. एक
भौंकते रहते हैं कि बेटा “रेड-आर्मी” वाला क्यों है, बोल्शेविक, लोगों का प्यारा. दूसरे लोगों को यह पसंद नहीं है कि
कॉन्स्टिट्युएन्ट असेम्बली में मुझे ही क्यों चुना गया. किसी को भी ख़ुश नहीं कर
सकते, बस छटपटाते रहो. और ऊपर से आप. आपके साथ ही गोलियाँ
खाना बहुत अच्छा लगेगा.”
“ओह, आप क्या कह रहे हैं! होश में आइये! ख़ुदा आपको सलामत
रखे!”
कुछ
देर बाद गुस्से के बदले प्यार से मिकुलीत्सिन ने कहा:
“ख़ैर, आँगन में भौंक लिये और बस हुआ. घर में जारी रख सकते
हैं. आगे, बेशक, कुछ भी अच्छा नहीं देख रहा हूँ, ये काला जल है बादलों में, रहस्यमय
अँधेरा. मगर हम ना तो तुर्की जैनिसार हैं, ना ही
बदमाश. मिखाइला पतापिच को जंगल में जानवरों द्वारा खाये जाने के लिये नहीं भेजेंगे, मैं सोचता हूँ, लेन्का, कि इन्हें फ़िलहाल अध्ययन कक्ष की बगल वाले चीड़ के कमरे
में टिकाया जाये. बाद में सोचेंगे कि उन्हें कहाँ रहना है, हम इन्हें,
मैं सोचता हूँ, पार्क में रखेंगे. मेहेरबानी से भीतर आइये. वाक्ख, सामान ले आ. मेहमानों की मदद कर.
आज्ञा
का पालन करते हुए वाक्ख ने सिर्फ एक गहरी साँस ली:
“मदल
वल्जिन! मुसाफिलों का सामान. सिर्फ थैलियाँ. एक भी सूतकेस नहीं!”
10
रात ठण्डी थी. मेहमानों ने
हाथ-मुँह धोये. औरतें उन्हें दिये गए कमरे में सोने का इंतज़ाम करने लगीं. शूरच्का,
जिसे अनजाने ही इस बात की आदत थी कि उसकी मासूम बातें बड़े लोगों को
प्यारी लगती हैं, और इसलिये वह उनकी पसंद के मुताबिक,
बड़ी सजीवता और जोश में अपनी बकवास कर रहा था, आज
निराश हो गया. आज उसकी बड़बड़ बेकार गई, कोई उसकी ओर ध्यान
नहीं दे रहा था. वह इसलिये नाराज़ था कि छोटे वाले काले घोडे को घर के भीतर क्यों नहीं
लाए, और जब उस पर चिल्लाए, कि वह चुप
हो जाये, तो वह बिसूरने लगा, इस डर से
कि उसे, एक बुरे और गंदे बच्चे की तरह बच्चों की दुकान में
वापस न भेज दें, जहाँ से, उसकी कल्पना
के अनुसार, उसके दुनिया में आते ही माँ-बाप के घर ले आए थे.
अपना वास्तविक डर वह ज़ोर-ज़ोर से आसपास के लोगों पर ज़ाहिर कर रहा था, मगर उसकी प्यारी बेवकूफ़ियों का हमेशा जैसा प्रभाव नहीं पड़ रहा था. पराये
घर में हो रही सकुचाहट के कारण बड़े लोग हमेशा से ज़्यादा जल्दी-जल्दी भाग-दौड़ कर
रहे थे और ख़ामोशी से अपने-अपने कामों में उलझे हुए थे. शूरच्का बुरा मान गया और
एकदम शांत हो गया, जैसा आया कहती है. उसे खाना खिलाया गया और
मुश्किल से सुलाया गया. आख़िर कार वह सो गया. न्यूशा को खाना खिलाने और घर के भेद
बताने के लिये मिकुलीत्सिन की उस्तीन्या अपने साथ ले गई.
अंतनीना अलेक्सान्द्रव्ना
को और मर्दों को शाम की चाय के लिये आमंत्रित किया गया.
अलेक्सान्द्र
अलेक्सान्द्रविच ने एक मिनट के लिये इजाज़त माँगी और पोर्च में ताज़ी हवा खाने चल
आये.
“कितने तारे हैं!”
अलेक्सान्द्र अलेक्सान्द्रविच ने कहा.
अँधेरा था. पोर्च में दो
कदम की दूरी पर खड़े ससुर और दामाद एक दूसरे को देख नहीं पा रहे थे. मगर पीछे,
घर के कोने के पीछे से खाई की तरफ़ खुलती खिड़की से लैम्प का प्रकाश आ
रहा था. उसकी सीमित रोशनी में नम ठण्ड में झाड़ियाँ, पेड़ और
कुछ अन्य अस्पष्ट चीज़ें कोहरे से धुँधली नज़र आ रही थीं. प्रकाश का यह पट्टा बातें
करते हुए लोगों को नहीं समेट रहा था, और उनके चारों ओर के
अंधेरे को और ज़्यादा घना कर रहा था.
“कल सुबह ही उस आउट हाउस
को देखना होगा, जो उसने हमारे लिये निश्चित किया
है, और अगर वह रहने लायक हुआ, तो फ़ौरन
मरम्मत का काम करना होगा. जब तक उस कोने को ठीक-ठाक करेंगे, मिट्टी
गर्म होने लगेगी, धरती गरम हो जायेगी. तब, एक भी मिनट बर्बाद किये बिना, क्यारियों के पीछे
लगना होगा. मुझे सुनाई दिया था, कि बातों-बातों में उसने
आलुओं के बीज देने का वादा किया था, या मैंने गलत सुना था?”
“वादा किया था,
वादा किया था. और दूसरे बीज देने का भी. मैंने अपने कानों से सुना
था. और वह कोना जिसका सुझाव वह दे रहा है, हम रास्ते में आते
हुए देख चुके हैं, जब पार्क पार कर रहे थे. पता है, कहाँ है? ये मालिक के मकान का पिछवाड़ा है, जो झाड़ियों में डूबा हुआ है. पिछवाड़ा लकड़ी का है, मगर
आउट हाउस पत्थर का है. मैंने आपको गाड़ी से दिखाया था, याद है?
मैं वहीं क्यारियाँ भी खोदने लग जाता. शायद ये किसी फूलों के बगीचे
के अवशेष हैं. मुझे दूर से ऐसा लगा था. हो सकता है, मैं गलत
होऊँ. रास्ते छोड़ना होंगे, और हो सकता है, पुरानी क्यारियों वाली मिट्टी में बहुत खाद डाली गई हो और वह काफ़ी उपजाऊ
हो.”
“कल देखेंगे. मालूम नहीं.
शायद ज़मीन पर बेतहाशा घास ऊग आई हो और वह पत्थर की तरह कड़ी हो गई हो. इस्टेट में
अवश्य ही कोई किचन-गार्डन रहा होगा. हो सकता है, कि यह
टुकड़ा सुरक्षित रह गया हो और खाली पड़ा हो. ये सब कल ही पता चलेगा. यहाँ शायद अभी
भी सुबह पाला पड़ता है. रात को शायद बर्फ गिरे. कितनी ख़ुशी की बात है, कि हम यहाँ, अपने लक्ष्य तक पहुँच गये हैं. इसके
लिये एक दूसरे को बधाई देना चाहिये. मुझे अच्छा लग रहा है.”
“बड़े प्यारे लोग हैं. ख़ासकर
पति. पत्नी थोड़ी चक्रम है. वह ख़ुद से किसी बात से नाराज़ है,
उसे अपनी ख़ुद की कोई बात अच्छी नहीं लगती. इसीलिये यह लगातार,
कृत्रिम-धृष्ठता भरी बकवास. जैसे वह अपने बाह्य रूप से आपका ध्यान
हटाने की जल्दी में है, अप्रिय प्रभाव को रोकना चाहती है. और
ये, कि वह अपनी हैट उतारना भूल जाती है, और उसे कंधों पर लटकाये फिरती है, ये भी भुलक्कड़पन
नहीं है. ये उस पर जँचता है.”
“ख़ैर,
चलो कमरों में वापस चलते हैं. हम यहाँ काफ़ी देर रुक गये. अच्छा नहीं
लगता.”
प्रकाशित डाइनिंग रूम में,
जहाँ लटकते हुए लैम्प के नीचे गोल मेज़ के चारों ओर समोवार के पास
बैठकर मेज़बान अंतनीना अलेक्सान्द्रव्ना के साथ चाय पी रहे थे, दामाद और ससुर डाइरेक्टर के अँधेरे अध्ययन-कक्ष से होते हुए पहुँचे.
उसमें पूरी दीवार में,
खाई के ऊपर, एक ही चौड़ी, एकल काँच की खिड़की थी. डॉक्टर ने शुरू में ही, जब
उजाला था, जितना संभव था, अंदाज़ लगाया
था कि खिड़की से खाई के उस पार का नज़ारा और मैदान दिखाई देता है, जहाँ से वाक्ख उन्हें लाया था. खिड़की के पास पूरी दीवार से लगी हुई,
डिज़ाइनर या ड्राफ्ट्समेन की चौड़ी मेज़ थी. उस पर दाएँ और बाएँ कुछ
खाली जगह छोड़कर, मेज़ की चौड़ाई को रेखांकित करते हुए, लम्बाई में एक शिकारी बंदूक रखी थी.
अब अध्ययन कक्ष से गुज़रते
हुए, यूरी अन्द्रेयेविच ने फिर से विशाल मनोरम दृश्य
दिखाती खिड़की, मेज़ के आकार और उसकी स्थिति, और भली-भाँति सुसज्जित कमरे के खुलेपन को ईर्ष्या से देखा, और ये थी पहली विस्मयकारक टिप्पणी जो यूरी अन्द्रेयेविच के मुख से मेज़बान
के लिये निकली, जब वह अलेक्सान्द्र अलेक्सान्द्रविच के साथ
डाइनिंग रूम में प्रवेश करके चाय की मेज़ की तरफ़ बढ़ा.
“कैसी लाजवाब जगह है ये.
और आपका आध्ययन कक्ष कितना ग़ज़ब का है, काम करने के लिये
उत्साहित करता हुआ, प्रेरणा देता हुआ. “
“ आपको गिलास में दूँ या
कप में? और आपको कैसी पसंद है, मामूली या कड़क?”
“देखो,
यूरच्का, अवेर्की स्तिपानविच के बेटे ने कैसा
स्टीरिओस्कोप बनाया था, जब वह छोटा था.”
“वह अभी भी बड़ा नहीं हुआ
है, स्थिर नहीं हुआ है, हाँलाकि
सोवियत शासन के लिये कमूच से एक के बाद एक जिले जीत रहा है.”
“आपने क्या कहा?”
“कमूच.”
“वह क्या है?”
“ये साइबेरियन सरकार की
फ़ौजें हैं, जो कॉन्स्टिट्यूएन्ट असेम्बली की
सरकार के पक्ष में हैं.”
“हम पूरे दिन लगातार आपके
बेटे की तारीफ़ें सुनते रहे. आपको उस पर गर्व होना चाहिये.”
“ये युराल के दृश्य हैं,
दोहरे, स्टीरिओस्कोपिक, ये
भी उसीका काम है और तस्वीरें भी उसीने अपने बनाये हुए कैमेरे से खींची हैं.”
“सैक्रीन की कुकीज़?
लाजवाब है.”
“अरे,
आप क्या कह रही हैं! ऐसा बीहड़ और सैक्रीन! हमें कहाँ से मिलेगा!
ख़ालिस शकर है. मैंने आपकी चाय में शक्करदानी से ही तो डाली थी. क्या आपने ग़ौर नहीं
किया?”
“हाँ,
सचमुच. मैं फ़ोटोग्राफ़्स देख रही थी. और, शायद
चाय तो प्राकृतिक है?”
“फूलों की पंखुडियाँ डली
हैं. अपने आप पता चल जाता है.”
“कहाँ से?”
“एक जादुई कालीन है. एक
परिचित. आजकल का कार्यकर्ता. बेहद ‘लेफ्टिस्ट’
विचारों का है. स्थानीय आर्थिक परिषद का आधिकारिक प्रतिनिधि. हमारे
यहाँ से लकड़ियाँ शहर में ले जाता है, और अपने परिचितों से
हमारे लिये अनाज, मक्खन, आटा ले आता
है. सिवेर्का, (वह अपने अवेर्की को इस नाम से बुलाती थी),
सिवेर्का, शक्करदानी मेरी ओर खिसकाओ. और अब,
दिलचस्प बात, बताइये, ग्रिबायेदव
की मृत्यु किस सन् में हुई थी?”
“उसका जन्म,
शायद, 1795 में हुआ था. मगर वह कब मारा गया,
ठीक से याद नहीं है.”
“और चाय?”
“नहीं,
शुक्रिया.”
“और अब ये सवाल. बताइये,
कब और किन देशों के बीच निमविगेन की संधि हुई थी?”
“अरे,
तुम उन्हें तंग मत करो, लेनच्का. लोगों को सफ़र
से चैन लेने दो.”
“अब मुझे ये बताइये. गिनकर
बताइये कि मैग्निफाइंग ग्लास की कितनी किस्में होती हैं,
और किन परिस्थितियों में वास्तविक, उल्टे,
सीधे, काल्पनिक प्रतिबिम्ब प्राप्त होते है?”
“आपको भौतिक शास्त्र का
इतना ज्ञान कहाँ से मिला?”
“एक बहुत लाजवाब
मैथेमेटिशियन था हमारे यहाँ युर्यातिन में. दो स्कूलों में पढ़ाता था,
लड़कों के और हमारे. कैसे समझाता था, कैसे
समझाता था! जैसे ख़ुदा हो! ऐसा होता था कि सब कुछ उसकी ज़ुबान की नोक पर रहता है.
अंतीपव. यहाँ की टीचर से शादी हुई थी. लड़कियाँ उसके पीछे पागल थीं, सब उससे प्यार करती थीं. स्वेच्छा से युद्ध पर चला गया और फिर लौटकर नहीं
आया, मारा गया. इस बात को ज़ोर देकर कहते हैं कि ख़ुदाई कोडे
की मार और जन्नत की सज़ा, कमिसार स्त्रेल्निकव, अंतीपव ही है जो फिर से ज़िंदा हो गया है. किस्सा है, बेशक. लगता नहीं है कि सही होगा. मगर, कौन जानता है.
सब कुछ हो सकता है. और एक कप.”
अध्याय 9
वरीकिना
1.
सर्दियों में,
जब उसके पास बहुत समया था, यूरी अन्द्रेयेविच
अलग-अलग तरह की टिप्पणियाँ लिखने लगा. उसने लिखा:
“गर्मियों में कितना दिल
चाहता था कि त्यूत्चेव के साथ कहूँ:
कैसी है ये ग्रीष्म ऋतु,
कैसी प्यारी ग्रीष्म ऋतु!
ये
तो है, सचमुच, कोई
जादू,
और
कैसे, पूछूँगा, हमें
मिली वो,
ऐसे
ही, बस बैठे ठाले?
कितना सुख है अपने लिये और
परिवार के लिये सूर्योदय से सूर्यास्त तक काम करने में,
छप्पर बनाना, अस्तित्व के लिये ज़मीन जोतना,
अपनी दुनिया बनाना, रॉबिन्सन क्रूसो की तरह,
ब्रह्माण्ड के निर्माता का अनुकरण करना, अपनी
माँ के पीछे-पीछे स्वयम् को बार-बार दुनिया में लाना.
चेतना से होकर कितने सारे
ख़याल गुज़रते हैं, जब हाथ ताकत के, शारीरिक, खुदाई या बढ़ईगिरी के काम में व्यस्त होते
हैं : जब तुम्हारे सामने उचित, शारीरिक रूप से संभाव्य लक्ष्य
होते हैं, जो काम को पूरा करने के उपलक्ष्य में आपको सफ़लता
और ख़ुशी का उपहार देते हैं; जब लगातार छह घण्टे कुल्हाडी से
कोई चीज़ छाँटते हो या खुले आसमान के नीचे ज़मीन खोदते हो, जो
अपनी प्यारी सांस से तुम्हें झुलसा देती है, उस दौरान कितना
नया-नया सोचते हो. और यह बात कि ये अनुमान और समानताएँ कागज़ पर अवतरित नहीं होते,
बल्कि अपनी क्षणभंगुरता के कारण भुला दिये जाते हैं, ये कोई नुक्सान नहीं, बल्कि फ़ायदा है. शहर के
एकांतवासी, कड़क काली काँफ़ी या तम्बाकू से अपने गिरते हुए
मानसिक स्वास्थ्य और कल्पनाओं पर कोड़े बरसाने वाले, तुम्हें
सबसे अधिक प्रभावशाली दवा का पता ही नहीं है, जो सच्ची ज़रूरत
और बढ़िया तंदुरुस्ती में निहित है.
जो कहा है,
उससे आगे मैं नहीं जाऊँगा, टॉल्स्टॉय की सादगी
और ज़मीन पर जाने का उपदेश नहीं दूँगा, कृषि के प्रश्न पर
समाजवाद की जो भूमिका है उसमें अपना संशोधन भी नहीं प्रस्तुत करूँगा. मैं सिर्फ इस
तथ्य की पुष्टि करता हूँ और अपनी अकस्मात पलट गई किस्मत को इस व्यवस्था में शामिल
नहीं करूँगा. हमारा उदाहरण विवादित है और किसी निष्कर्ष के लिये उचित नहीं है.
हमारी अर्थव्यवस्था कुछ ज़्यादा ही मिश्रित प्रकार की है. सिर्फ उसका थोड़ा सा ही
हिस्सा, सब्ज़ियाँ और आलुओं को संचय, हमारे हाथों की मेहनत की बदौलत होता है. बाकी – अन्य
स्त्रोतों से प्राप्त होता है.
ज़मीन का हमारा उपयोग
गैरकानूनी है. वह स्वेच्छा से सरकारी अधिकारियों द्वारा स्थापित लेखांकन पद्धति से
छुपा हुआ है. हमारी जंगलों की कटाई – चोरी है. अक्षम्य
है, इसलिये कि हम सरकार की जेब से चुराते हैं, पुराने ज़माने में – क्र्यूगेर की. मिकुलीत्सिन से मिलीभगत हमें बचाती है,
जो ख़ुद भी लगभग इन्हीं तरीकों से जीता है, हमें
बचाती हैं दूरियाँ, शहर से दूरी, जहाँ
फ़िलहाल, ख़ुशकिस्मती से, हमारे कारनामों
के बारे कुछ भी नहीं जानते हैं.
मैंने डॉक्टरी छोड़ दी और
इस बारे में चुप रहता हूँ, कि मैं डॉक्टर
हूँ, जिससे अपनी आज़ादी पर कोई बंधन न लादूँ. मगर हमेशा
दुनिया के छोर पर कोई न कोई भली आत्मा पता कर लेती है कि वरीकिना में एक डॉक्टर बस
गया है, और तीस मील की दूरी से सलाह के लिये घिसटती हुई आती
है, कोई मुर्गी लेकर, तो कोई अण्डे
लेकर, कोई मक्खन लेकर या कोई और चीज़ लेकर. मैं भेंट लेने से
कितना ही इनकार क्यों न करूँ, उनसे पीछा छुड़ाना मुश्किल हो
जाता है, क्योंकि लोगों को मुफ़्त की सलाह के कारगर होने पर
यकीन नहीं होता. तो, डॉक्टरी प्रैक्टिस से मुझे कुछ न कुछ
मिल जाता है. मगर हमारा और मिकुलीत्सिन का मुख्य आधार है – सामदिव्यातव.
यह बात समझ से परे है कि
यह आदमी अपने भीतर कितने परस्पर-विरोधी गुणों को छिपाये हुए है. वह ईमानदारी से
क्रांति के पक्ष में है और जो विश्वास युर्यातिन की सिटी-कौंसिल ने उस पर दिखाया
है, पूरी तरह उसके योग्य है. अपने सर्वशक्तिमान
अधिकारों से, हमें और मिकुलीत्सिन को बताये बिना वह वरीकिना
के जंगलों पर कब्ज़ा करके, उन्हें काट कर निर्यात कर सकता था,
और हम भृकुटी तक न तानते. दूसरी ओर, अगर वह
चाहे तो ख़ज़ाने की चोरी करके आराम से अपनी जेब में डाल लेता, जो
और जितना वह चाहता, और कोई आवाज़ तक न निकालता. उसे न तो किसी
से बाँटना है और न ही किसी को घूस देना है. तो फिर ऐसा क्या है, जो उसे हमारी फ़िक्र करने पर मजबूर करता है, मिकुलीत्सिन
की मदद करने पर और इस क्षेत्र में सभी की, जैसे तर्फ्यानाया
के स्टेशन-मास्टर की, सहायता करने के लिये बाध्य करता है?
वह पूरे समय घूमता रहता है और कुछ न कुछ प्राप्त करता है, लाता है, और दस्तयेव्स्की के “शैतान” और
“कम्युनिस्ट-मेनिफ़ेस्ट” का एक जैसे उत्साह से विश्लेषण करता है और उनकी व्याख्या
करता है, और मुझे ऐसा लगता है कि अगर वह अपनी ज़िंदगी को बिना
ज़रूरत के फ़ालतू में और इतने स्पष्ट रूप से उलझाये नहीं रखता, तो वह उकताहट के मारे मर जाता”.
2
कुछ
दिनों के बाद डॉक्टर ने लिखा:
“हम
जागीरदार की पुरानी हवेली के पिछवाड़े बने लकड़ी के दो कमरों में बस गये, जो आन्ना इवानव्ना के बचपन में क्र्यूगेर द्वारा ख़ास
सेवकों - घरेलू दर्जिन,
गृह-प्रबंधक और सेवा
निवृत्त आया के लिये निश्चित किये गये थे.
ये
हिस्सा बहुत ख़स्ताहाल था. हमने काफ़ी जल्दी उसकी मरम्मत कर ली. जानकारों की मदद से
हमने दोनों कमरों में निकलती हुई भट्टी को नई तरह से रख दिया. इस व्यवस्था से वह
ज़्यादा गर्मी देती है.
पार्क
के इस हिस्से में नये पौधों के नीचे,
जिन्होंने पूरे पार्क को
घेर लिया है,
पुराने ख़ाके के निशान
लुप्त हो चुके हैं. अब,
सर्दियों में, जब चारों ओर की हर चीज़ मृतप्राय हो गई है और ज़िंदा
चीज़ें मरी हुई चीज़ों को नहीं ढाँकती हैं, बर्फ
से ढँके हुए विगत के निशान स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहे हैं.
हमारी किस्मत अच्छी थी.
शरद ऋतु सूखी और गर्माहट भरी रही.
बारिश और ठण्ड से पहले
हमने आलू खोद कर निकाल लिये. मिकुलीत्सिन को जितने वापस देना थे,
उसके बाद हमारे पास करीब बीस बोरे आलू हैं, और
वे सब तहख़ाने में मुख्य भंडार में रखे हैं, जिसे ऊपर से,
फ़र्श के ऊपर फूस और फटे-पुराने कम्बलों से ढाँका गया है. वहीं पर
तहखाने में खीरों के दो ड्रम भी रख दिये हैं, जिन्हें तोन्या
ने नमक लगाकर रख दिया है, और उतने ही ड्रम खट्टी गोभी के रख
दिये. ताज़ी गोभी आड़ी शहतीर से लटकाई गई है, एक दूसरे से
चिपकी हुई जोड़ियों में. सूखी रेत में गाजर का स्टॉक दबा कर रख दिया है. यहीं पर
काफ़ी मात्रा में शलजम, चुकंदर और मूली का स्टॉक है, और ऊपर घर में कई तरह की दालें और अनाज है. शेड में रखी लकड़ियाँ बसंत ऋतु
तक चल जायेंगी. मुझे सर्दियों में तहखाने की गर्म साँसें पसंद हैं, जो सुबह-सबेरे हाथों में मरियल, बुझने को तैयार और
मुश्किल से टिमटिमाती मोमबत्ती लेकर तहख़ाने का ढक्कन खोलते ही मिट्टी, बर्फ और जड़ों की मिली जुली ख़ुशबू लिये सीधे नाक में घुस जाती है.
छपरी से बाहर आते हो,
दिन अभी नहीं निकला है. दरवाज़ा चरमराता है, या
अचानक छींकते हो, या सिर्फ पैरों के नीचे यूँ ही बर्फ
करकराती है, और बर्फ के नीचे से झाँकते हुए गोभी के डंठलों
वाली बगीचे की दूर वाली क्यारी से ख़रगोश उछलते हैं और भागने लगते हैं, जिनके पंजे चारों ओर बर्फ में गहरे निशान बनाते हैं. और आस-पास, एक के बाद एक कुत्ते देर तक भौंकते हैं.
आख़िरी मुर्गे पहले ही बांग
दे चुके हैं, अब वे नहीं गाएंगे. और उजाला होने
लगेगा.
ख़रगोशों के पंजों के
निशानों के अलावा, बर्फ के अंतहीन मैदान को काटते हुए
वनबिलाव भी चलते हैं, एक छेद से दूसरे छेद की तरफ़, साफ़ सुथरे अंतहीन धागे बनाते हुए. वनबिलाव बिल्ली की तरह चलता है, पंजे के पीछे पंजा रखते हुए, और जैसा कि जानकार लोग
कहते हैं, रात भर में कई सारे मील पार कर लेता है.
उनके लिये जाल लगाते हैं,
जिसे यहाँ ‘स्लोप्त्सी’ कहते
हैं. वनबिलाव के बदले जाल में बेचारे ख़रगोश फँस जाते हैं, जिन्हें
बर्फ से आधी ढँकी, जमी हुई, सख़्त पड़ गई
अवस्था में जालियों से बाहर निकालते हैं.
शुरू में,
बसंत और गर्मी के दिनों में बहुत मुश्किल हुई थी. हम निढ़ाल हो जाते
थे. अब, सर्दियों की शाम को आराम करते हैं. अन्फीम की
मेहेरबानी से जिसने हमें केरोसीन लाकर दिया है, लैम्प के
चारों ओर बैठते हैं.
औरतें सिलाई या बुनाई करती
हैं, मैं या अलेक्सान्द्र अलेक्सान्द्रविच ज़ोर से
पढ़ते हैं. भट्टी दहकती है, मैं पुराने निष्णात भट्टी गरमाने
वाले की तरह, उस पर नज़र रखता हूँ, जिससे
कि समय पर सिटकनी बंद करूँ और गर्मी को बाहर न जाने दूँ. अगर कोई सुलगती हुई लकड़ी
गर्मी को रोक रही है, तो धुएँ में लिपटी वह लकड़ी बाहर
निकालता हूँ, भागकर, दरवाज़े से बाहर ले
जाता हूँ और दूर बर्फ में फेंक देता हूँ. चिनगारियाँ बिखेरती, जलती हुई मशाल की तरह वह हवा में उड़ती हुई जाती है, सफ़ेद
क्यारियों वाले सोए हुए पार्क की सीमा को प्रकाशित करते हुए, और बर्फ के ढेर पर गिरकर फ़सफ़साहट के साथ बुझ जाती है.
लगातार “युद्ध और शांति”,
“एव्गेनी अनेगिन” और सारी कविताएँ, और रूसी
अनुवाद में स्टेंडेल की “लाल और काला”, डिकेन्स की “दो शहरों
की कहानी” और क्लेस्ट की कघु कथाएँ पढ़ते हैं.
3
बसन्त के आते-आते डॉक्टर
ने लिखा:
“मुझे ऐसा लगता है कि
तोन्या माँ बनने वाली है. मैंने उसे इस बारे में बताया. वह मेरी राय से सहमत नहीं
है, मगर मुझे इस बारे में पक्का यकीन है. ज़्यादा
निश्चित लक्षणों के दिखाई देने से पहले मुश्किल से नज़र आने वाले लक्षण मुझे धोखा
नहीं दे सकते.
औरत का चेहरा बदलता है.
ऐसा नहीं कि वह बदसूरत हो जाती है.
मगर उसका बाह्य रूप,
जो पहले पूरी तरह उसकी देखरेख में रहता था, उसके
नियंत्रण से निकल जाता है. भविष्य उसे नियंत्रित करता है, जो
उसके भीतर से आने वाला है और वह अपने आप में नहीं रह जाती.
औरत का अपनी देखरेख से
बाहर निकला रूप शारीरिक परेशानी के रूप में नज़र आता है,
जिसमें उसका चेहरा मुरझा जाता है. त्वचा कड़ी हो जाती है और आँखें
कुछ और ही तरह से, जैसा वह नहीं चाहती, चमकने लगती हैं, जैसे वह उन्हें संभाल नहीं पाई और
खुली छूट दे दी.
मैं और तोन्या एक दूसरे
कभी दूर नहीं हुए. मगर यह मेहनत वाला साल हमें एक
दूसरे के और करीब ले आया. मैंने देखा है कि कितनी फुर्तीली, दृढ़
और अथक है तोन्या, काम के चयन में कितनी कल्पनाशील है,
जिससे कि एक काम से दूसरे पर आने में कम से कम समय व्यर्थ होता
है.
मुझे हमेशा ऐसा लगता था,
कि हर गर्भधारणा पवित्र होती है, कि इस
सिद्धांत में, जो मदर मैरी से संबंधित है, मातृत्व की सामान्य अवधारणा प्रकट होती है.
हर जन्म देने वाली माता पर
वही अकेलेपन का, परित्यक्तता का, अपने हाल पर छोड़ दिये जाने का प्रतिबिम्ब होता है. अब मर्द इस हद तक सब से,
अत्यंत महत्वपूर्ण पल से, कटा हुआ रहता है,
जैसे उसका इस सबसे कोई ताल्लुक ही न हो और सब कुछ जैसे आसमान से
गिरा हो.
औरत ख़ुद ही अपनी संतान को
जन्म देती है, ख़ुद ही उसके साथ अस्तित्व की
पृष्ठभूमि में चली जाती है, जहाँ ज़्यादा ख़ामोशी है, और जहाँ बिना किसी भय के झूला रखा जा सकता है. वह ख़ुद ही ख़ामोश नम्रता से
उसका भरण-पोषण करती है और उसे बड़ा करती है.
मदर मैरी से कहते हैं : “
अपने बेटे और ख़ुदा के लिये लगन से प्रार्थना करो”. उसके
होठों पर प्रार्थना के अंश रख देते हैं : “ऐ ख़ुदा, मेरे
रक्षक के लिये मेरी रूह आनंदित होती है. अपने सेवक की विनम्रता की ओर देखो,
आगे से सब मुझे सौभाग्यशाली कहेंगे”. ये वह अपने नन्हे के बारे में
कहती है, कि वह उसे महान बनायेगा (“क्योंकि उस शक्तिशाली परम
पिता ने उसे महान बनाया है”), शिशु – उसकी कीर्ति है. हर औरत
इसी तरह कह सकती है. उसका ख़ुदा बच्चे में है.
महान व्यक्तियों की माताओं
को यह भावना जानी-पहचानी लगती होगी. मगर सभी माताएँ – निश्चित रूप से महान व्यक्ति
की माँ होती है और अगर बाद में ज़िंदगी उन्हें धोखा दे तो इसमें उनका कोई दोष नहीं
है.
4
“हम निरंतर “येव्गेनी
अनेगिन” और कविताएँ पढ़ते रहते हैं. कल अन्फीम आया था, बहुत
सारे उपहार लाया. हम उसकी आव-भगत करते हैं, कबिताओं पर
प्रकाश डालते हैं.
मेरी पहले से यह धारणा रही
है कि कला किसी श्रेणी या क्षेत्र का नाम नहीं है, जो अनेक
अदृश्य धारणाओं और फ़ैलती हुई घटनाओं को अपने भीतर समेटे हुए है, बल्कि इसके विपरीत, ये कोई संकीर्ण और केंद्रित,
उस सिद्धांत का आरंभ है, जो कलात्मक रचना का
अंश है, उसमें प्रयुक्त शक्ति या प्रतिपादित सत्य है. और
मुझे कला कभी भी विषय या रूप का प्रकार प्रतीत नहीं हुई, बल्कि
विषय वस्तु का रहस्यमय या गुप्त अंश प्रतीत होती है. ये मेरे लिये दिन के समान
स्पष्ट है, मैं अपने समस्त अणु-रेणुओं से इसे महसूस करता हूँ,
मगर इस विचार को प्रकट कैसे करूँ, उसे निरूपित
कैसे करूँ?
रचनाएँ अनेक तरह से अपनी
बात कहती हैं : विषयों से, परिस्थितियों से,
कथानकों से, नायकों से. मगर सबसे ज़्यादा वे
उनमें निहित कला के माध्यम से बोलती हैं. “अपराध और दण्ड” के पृष्ठों की कलात्मकता
रस्कोल्निकव के अपराध से ज़्यादा झकझोर जाती है.
कला,
चाहे वह आदिम हो, इजिप्ट की, ग्रीस की, हमारी हो, ये शायद, हज़ारों वर्षों की अवधि से चली आ रही – एक ही है, एकवचन
में ही रहती है. ये कोई विचार है, जीवन के बारे में कोई वक्तव्य
है, जो अपनी समूची व्यापकता में अलग-अलग शब्दों में अविघटित
है, और जब इस शक्ति का कोई कण किसी ज़्यादा उलझे हुए मिश्रण
में प्रवेश करता है, तो कलाओं का यह सम्मिश्रण अन्य सभी
अर्थों से बड़ा होता है और वर्णन का सार, उसकी आत्मा और आधार
प्रतीत होता है.
5
“थोड़ा ज़ुकाम है, खाँसी और,
शायद कुछ बुखार भी. दिन भर कंठनली के पास कहीं साँस रुकती है,
गोले की तरह गले की ओर लुढ़कती है. मेरी हालत बुरी है. ये हृदय की महाधमनी
है. बेचारी माँ की तरफ़ से, जो जीवन भर दिल की मरीज़ रहीं,
विरासत में मिली बीमारी के पूर्व लक्षण हैं. कहीं सचमुच में तो नहीं?
इतनी जल्दी? तब तो इस दुनिया में मैं ज़्यादा
दिन नहीं रह पाऊँगा.
कमरे में हल्की सी जलने की
बू है. इस्त्री की ख़ुशबू आ रही है. इस्त्री कर रहे हैं और,
बार-बार हौले-हौले जल रही भट्टी से दहकता हुआ कोयला निकालकर इस्त्री
का दाँतेदार ढक्कन खोलकर उसमें डाल देते है. ये किसी चीज़ की याद दिला रहा है. याद
नहीं कर पा रहा हूँ. अस्वस्थता के कारण भुलक्कड़ हो गया हूँ.
इस ख़ुशी में कि अन्फीम
कपड़े धोने का साबुन लाया, सारे कपड़े धोने
का कार्यक्रम बनाया गया, और दो दिन शूरच्का की ओर किसी ने
ध्यान नहीं दिया.
जब मैं लिख रहा होता हूँ,
तो वह मेज़ के नीचे घुसकर उसकी टाँगों के बीच वाली आड़ी पट्टी पर बैठ
जाता है और, अन्फीम की नकल उतारते हुए, जो हर बार यहाँ आने पर उसे अपनी स्लेज में घुमाता है, ऐसा दिखाता है, जैसे वह मुझे भी सैर कराने ले जा रहा
है.
जैसे ही अच्छा हो जाऊँगा,
मुझे शहर जाना होगा, इस प्रदेश के लोगों के
बारे में, उनके इतिहास के बारे में पढ़ना होगा. कहते हैं कि
शहर में बहुत बढ़िया लाइब्रेरी है, जिन्हें कुछ महत्वपूर्ण
अनुदानों से बनाया गया है. लिखने को जी चाहता है. जल्दी करना होगा. पता भी नहीं
चलेगा और बसंत ऋतु आ जायेगी. तब तो लिखने और पढ़ने का सवाल ही नहीं होगा.
सिर दर्द बढ़ता ही जाता है.
मुझे अच्छी नींद नहीं आई. मुझे धँधला-सा सपना आया, ऐसा,
जिसे जागने पर फ़ौरन ही भूल जाते हैं. सपना तो दिमाग़ से उड़ गया,
मगर चेतना में सिर्फ जागने का कारण रह गया. मुझे एक महिला की आवाज़
ने जगाया, जो सपने में सुनाई दे रही थी, जिससे सपने में चारों ओर की हवा झंकृत हो रही थी. मुझे उस आवाज़ की याद आ
गई और, अपनी स्मृति में उसे जागृत करते हुए, ख़यालों में जानी-पहचानी महिलाओं को याद करने लगा, ये
खोजते हुए कि इस गहरी, शांत, भारी,
नम आवाज़ की स्वामिनी कौन हो सकती है. वह आवाज़ उनमें से एक की भी
नहीं थी. मैंने सोचा, कि, हो सकता है,
तोन्या की बेहद आदत हमारे बीच खड़ी है और उसकी आवाज़ को कुंद किये दे
रही है. मैंने भूलने की कोशिश की, कि वह मेरी बीबी है,
और उसकी छबि को दूरी पर रखा, जितना सत्य को
समझने के लिये पर्याप्त है. नहीं, ये उसकी भी आवाज़ नहीं थी.
तो, यह गुत्थी भी अनसुलझी रह गई.
वैसे,
सपनों के बारे में. ये सोचना अच्छा लगता है, कि
रात में अक्सर उस बात के सपने आते हैं, जिसने दिन भर की
भागदौड़ में अत्यंत गहरा प्रभाव डाला था. मगर मेरे निष्कर्ष इसके विपरीत हैं.
मैंने कई बार ग़ौर किया है
कि वे चीज़ें, जिन पर दिन में ग़ौर नहीं किया था,
वे ख़याल जो स्पष्ट नहीं हुए थे, बेमन से कहे
गये और ऐसे शब्द जिन पर ध्यान नहीं दिया गया था, रात में
वापस लौटते हैं, हाड़-माँस के रूप में और बन जाते हैं सपनों
के विषय, जैसे कि दिन में उनके प्रति लापरवाही दिखाने का
बदला ले रहे हों”.
6
साफ़ बर्फीली रात है.
असाधारण स्पष्टता और पूर्णता के साथ दृश्य दिखाई दे रहे हैं. धरती,
हवा, चाँद, सितारे सब एक
साथ हैं, बर्फ ने जैसे उन्हें एक साथ जोड़ दिया है. पार्क में
रास्ते के समांतर वृक्षों की स्पष्ट परछाईयाँ पड़ी हैं, जो
फूली-फूली लग रही हैं, मानो कोई नक्काशी हो. पूरे समय ऐसा
लगता है मानो कोई काली आकृतियाँ अलग-अलग जगहों पर लगातार रास्ता पार कर रही हों.
जंगल में बड़े-बड़े सितारे नीले अभ्रक के फ़ानूसों जैसे टहनियों के बीच लटक रहे हैं. आसमान
में छोटे-छोटे सितारे इस तरह बिखरे हैं जैसे गर्मियों में चरागाहों में डेज़ी के
फूल बिखरे हों.
शामों को पूश्किन के बारे
में बातें होती रहती हैं. प्रथम खण्ड की लित्सेइ (यहाँ स्कूल के ज़माने में लिखी
गई कविताओं से तात्पर्य है – अनु.). छंद के चुनाव पर कितना कुछ निर्भर करता
है!
लम्बी पंक्तियों वाली
कविताओं में जवान आकांक्षाओं की परिसीमा है अर्ज़मास, बड़ों से
पीछे न रहने की, पौराणिक तत्वों, आडम्बर,
काल्पनिक भ्रष्टता और जीवन की रंगीनियों, समय
से पूर्व, दिखावटी बुद्धिमत्ता से चाचा की आँखों में धूल
झोंकने की ख़्वाहिश.
मगर जैसे ही ओस्सिआन या
पार्नी की नकल से या “त्सार्स्कोए सेलो की यादें” से नौजवान “छोटा सा शहर” या “बहन
को संदेश” में छोटी पंक्तियों पर आया या बाद में किशिन्योव में लिखी “मेरी दवात
को” या “यूदिन को संदेश” के छंद पर आया, किशोर
बालक में भावी पूश्किन जाग उठा.
कविता में,
जैसे कमरे की खिड़की से होकर, प्रकाश और हवा,
ज़िंदगी का शोर, चीज़ें, वास्तविकताएँ
घुस आईं. बाह्य जीवन की चीज़ें, रोज़मर्रा के जीवन की चीज़ें,
संज्ञाएँ, एक दूसरे से चिपककर आईं और उन्होंने
पंक्तियों पर धावा बोलकर उन पर कब्ज़ा कर लिया, भाषा के कम
महत्वपूर्ण प्रकारों को संकुचित कर दिया. चीज़ें, चीज़ें,
अधिकाधिक चीज़ें कविता के किनारों पर छंदबद्ध स्तम्भों की तरह सज
गईं.
ठीक यही,
बाद में पूश्किन का चार पंक्तियों वाला प्रसिद्ध यही “टेट्रामीटर”(चतुष्पदी,
चौपाई) रूसी जीवन का मानो पैमाना बन गया, जैसे
वह पैमाना हो, जिसे समस्त रूसी अस्तित्व से बनाया गया हो,
ठीक वैसे ही जैसे जूते बनाने के लिये पैर का माप बनाया जाता है,
या हाथ-मोज़े का नंबर बताया जाता है यह सुनिश्चित करने के लिये कि वह
हाथ पर फिट बैठे.
बाद में रूस की बोली की लय
को, उसकी बोलचाल की भाषा में निहित संगीत को निक्रासव
की तीन पंक्तियों और तुकांत पदों से प्रदर्शित किया गया”.
7
“कितना दिल
चाहता है, कि
नौकरी के साथ-साथ,
ज़मीन पर मेहनत करने के
काम या डॉक्टरी प्रैक्टिस के साथ कुछ और भी किया जाये, जो
चिरंतन बना रहे,
कोई वैज्ञानिक रचना लिखी
जाये या कुछ कलात्मक कार्य किया जाये.
हर
व्यक्ति जन्म से ही फ़ाउस्ट होता है,
सब कुछ अपनाने के लिये, हर इम्तिहान से गुज़रने के लिये, सब प्रकट करने के लिये. फ़ाउस्ट वैज्ञानिक बने, इसमें उसके पूर्वजों और समकालीनों की गलतियों का बहुत
बड़ा योगदान है. विज्ञान में विकर्षण के नियमानुसार एक कदम आगे बढ़ाया जाता है, प्रचलित भ्रमों और मिथ्या सिद्धांतों को नकारते हुए.
फ़ाउस्ट
कलाकार बने, इसके लिये शिक्षकों के संक्रामक उदाहरणों ने बहुत बड़ा
योगदान दिया. कला के क्षेत्र में आकर्षण के नियमानुसार एक कदम आगे बढ़ता है, प्रिय पूर्वजों का अनुकरण करके, अनुसरण करके और उनका सम्मान करके.
मुझे
काम करने से,
डॉक्टरी करने से और
लिखने से कौन सी चीज़ रोक रही है?
मैं सोचता हूँ, कि न तो अभाव और न ही भटकन, ना
अस्थिरता और अक्सर हो रहे परिवर्तन इसके लिये ज़िम्मेदार हैं, बल्कि वर्तमान में चारों तरफ़ गूँज रहे नारे का भाव है, - यही नारा : भविष्य की सुबह, नई
दुनिया का निर्माण,
मानवता के प्रकाश
स्तम्भ. इसे सुनकर शुरू में ऐसा लगता है – कल्पना का कैसा विस्तार, कितनी समृद्धि!
मगर
वास्तव में प्रतिभा की कमी के कारण वह सिर्फ बढ़ाचढ़ाकर कही गई बात है.
विलक्षणता
सिर्फ साधारण व्यक्ति में ही होती है,
जब उसे किसी प्रतिभाशाली
व्यक्ति का हाथ छू लेता है.
इसका
सबसे अच्छा उदाहरण पूश्किन है. ईमानदार मज़दूर को, कर्तव्य
को, रोज़मर्रा के कामों को कितना सम्मान दिया है! आजकल
हमारे यहाँ ‘बुर्जुआ’ और ‘अशिक्षित’
ये तिरस्करणीय शब्द हो
गये हैं. इस ताने की चेतावनी “वंशावली” की पंक्तियों में पहले ही दे दी गई थी.
“मैं बुर्जुआ, मैं
बुर्जुआ”.
और
“अनेगिन की यात्रा” से:
मेरा आदर्श है अब – एक
गृहिणी,
मेरी इच्छाएँ – शांति,
और ‘सूप’ का
एक घड़ा,
जो हो बहुत बड़ा.
सभी
रूसी चीज़ों में अब मुझे पूश्किन और चेखव का रूसी बचकानापन, ऐसी बड़ी-बड़ी समस्याओं, जैसे
मानवता का अंतिम उद्देश्य और उनकी अपनी मुक्ति के प्रति उनकी झिझकभरी बेपरवाही सबसे
ज़्यादा पसंद है. इन सब समस्याओं का उन्होंने भी अच्छा विश्लेषण किया था, मगर ऐसी धृष्टता - न तो उनका काम था, न ही ये उनके स्तर की बात थी! गोगल, टॉल्स्टॉय,
दस्तयेव्स्की मृत्यु के
लिये अपने आप को तैयार कर रहे थे,
परेशान रहते थे, अर्थ ढूँढ़ते थे, निष्कर्ष
निकालते थे, मगर ये आख़िर तक कलात्मक वृत्ति की तत्कालीन विशेषताओं
के प्रति आकर्षित होते रहे,
और उनमें होते रहे
परिवर्तनों के साथ अनजाने में ही जीवन बिताते रहे, उसी
तरह का व्यक्तिगत भी,
किसी से भी कोई मतलब न
रखने वाला विशिष्ट,
और अब यही विशिष्ट ही आम बात बन गई है और पेड़ से उतारे
गये पके सेबों की भाँति ख़ुद ब ख़ुद अधिकाधिक मीठी और सार्थक होती जाती है.
8
बसंत के आगमन की सूचना, पिघलन. हवा पैनकेक्स और
वोद्का से महक रही है, जैसे लेण्ट से एक सप्ताह पहले
होता है, जब कैलेण्डर भी प्रकृति के साथ तुक मिलाता है.
उनींदा सूरज जैसे मक्खन लगी आँखें सिकोड़ते हुए जंगल में झाँक रहा हो; उनींदी, कँटीली पलकों से जंगल आँखें सिकोड़ रहा हो,
दोपहर में पानी के डबरे मक्खन की तरह चमक रहे हैं. प्रकृति उबासी ले
रही है, हाथ-पैर तान रही है, दूसरी
करवट पर मुड़ती है और फिर से सो जाती है.
“येव्गेनी अनेगिन” के
सातवें अध्याय में – बसन्त, अनेगिन के
प्रस्थान के बाद खाली पड़ी हवेली, नीचे, पानी के पास, पहाड़ के नीचे लेन्स्की की कब्र.
“और
बुलबुल, बसंत का प्रेमी,
गाती
है सारी रात.
खिलता
है गुलाब जंगली.”
प्रेमी क्यों?
वैसे कहा जाये तो यह गुणवाचक नाम स्वाभाविक, सटीक
है. वाकई में – प्रेमी. इसके अलावा – “गुलाब जंगली” शब्द से तुक भी मिलता है. मगर
ध्वनि संयोजन के लिहाज़ से ही तो कहीं महाकाव्य में उसे “बुलबुल-डकैत” नहीं कहा गया
है?
महाकाव्य में उसे बुलबुल
डकैत, अदिख्मान्ती का पुत्र कहा गया है.
कितना अच्छा लिखा है उसके
बारे में!
उसकी सीटी है या सीटी बुलबुल की,
उसकी चिंघाड़ है या चिंघाड़ जंगली जानवर की,
कि सारे पौधे-पेड़ सूख-सिमट जाते हैं,
नीले चमकीले फूल मुरझाते, बिखर जाते हैं,
घने काले जंगल धरती पर झुक जाते हैं,
और कहीं हों लोग,
तो वो भी मर जाते हैं.
हम वरीकिना में बसन्त के
आरंभ में आये थे. जल्दी ही चारों ओर हरियाली छा गई, ख़ासकर
शूत्मा में, जैसा कि मिकुलीत्सिन के घर के नीचे वाली खाई को
कहते हैं, - बर्ड चेरी, एल्डेर वृक्ष,
अखरोट. कुछ रातों के बाद बुलबुलें चहकने लगीं.
और फ़िर से,
जैसे मैं उन्हें पहली बार सुन रहा हूँ, मुझे
इस बात पर अचरज हुआ कि उनका गाना अन्य पक्षियों की आवाज़ों से कितना भिन्न है,
कैसी छलाँग, क्रमशः सुर उठाये बिना, प्रकृति कैसे इस आवाज़ को समृद्धि, अनूठापन प्रदान
करती है. कितनी विविधता और कैसी लोच है और कितनी शक्ति है स्पष्टता से दूर तक जाती
आवाज़ में! तुर्गेनेव ने कहीं इन आवाज़ों का वर्णन किया है, जंग़ल
के दानव की बाँसुरी, चिड़िया की खड़खड़ाहट. ख़ासकर दो तरह के
आलाप देखे जाते हैं.
जल्दी-जल्दी-लालची और शानदार
“त्योख-त्योख-त्योख”, कभी कभी तीन टुकड़ों में,
कभी अनगिनत बा., जिसके जवाब में दूब से ढँकी
हरियाली थरथराई और ख़ुद को सँवारने लगी, जैसे गुदगुदी से
काँपने लगी हो. दूसरा, दो शब्दों में बँटा हुआ, पुकारता हुआ, आत्मा तक पहुँचता हुआ, मनाता हुआ, जैसे बिनती करता हुआ या प्रोत्साहित करता
हुआ : “उ-ठ! उ-ठ!”
9
बसन्त. खेती के कामों की
तैयारी कर रहे हैं. डायरी लिखने का समय नहीं है.
अच्छा लगता था डायरी
लिखना. सर्दियों तक उसे स्थगित करना पड़ेगा.
अभी उस दिन,
इस बार सचमुच में लेण्ट से एक हफ़्ता पहले, बुरे
रास्ते से होते हुए, स्लेज पर पानी और कीचड़ से आँगन में एक
बीमार किसान आया. ज़ाहिर है, उसे इनकार करना था. “बुरा न मानो,
प्यारे, मैंने ये सब छोड़ दिया है. मेरे पास न
तो दवाईयाँ हैं, न ही ज़रूरी साधन”. मगर क्या पीछा छुड़ाना
इतना आसान है. : “मदद कर. चमड़ी गल रही है. मेहेरबानी कर. जिस्मानी बीमारी है.”
क्या करता?
दिल कोई पत्थर तो नहीं है. उसका इलाज करने का इरादा कर लिया. “कपड़े
उतारो”.
देखता हूँ. “तुझे तपेदिक
है”. कनखियों से खिड़की में कार्बोलिक एसिड की बोतल की ओर देखते हुए उसकी जाँच करता
हूँ. (ख़ुदा के लिये मुझसे मत पूछिये कि मेरे पास वह कहाँ से आई,
और कुछ और भी, जो बेहद ज़रूरी था! ये सब –
सामदिव्यातव लाया था.) देखता हूँ, आँगन में एक और स्लेज,
जैसा मुझे लगा, नये मरीज़ के साथ. और उसमें से
उतरा भाई एव्ग्राफ़, जैसे आसमान से टपका हो. कुछ देर वह घर के
लोगों - तोन्या, शूरच्का, अलेक्सान्द्र अलेक्सान्द्रविच के बीच होता . बाद में, जब मैं ख़ाली हो जाता हूँ, तो मैं भी उनके पास आ जाता
हूँ.
सवालों की झड़ी लग जाती है
- कैसा है, कहाँ से आया है? आदत के मुताबिक वह टाल-मटोल कर रहा था, उड़ी-उड़ी
बातें कर रहा था, कंधे उचका रहा था, एक
भी सीधा जवाब नहीं दे रहा था, मुस्कुरा रहा था, अजीब बातें, पहेलियाँ सुना रहा था.
वह करीब दो सप्ताह हमारे
साथ रहा, अक्सर युर्यातिन चला जाता, और अचानक ग़ायब हो गया, जैसे ज़मीन के भीतर गड़प हो गया
हो. इस दौरान मैंने ग़ौर किया कि वह सामदिव्यातव से भी ज़्यादा प्रभावशाली है,
और उसके काम और संपर्क कम ही समझ में आते हैं. वह ख़ुद कहाँ से है?
उसकी यह सामर्थ्य कहाँ से आई है? वह करता क्या
है? गायब होने से पहले उसने वादा किया कि हमारे घर-गृहस्थी
के मामलों को आसान करके जायेगा जिससे तोन्या शूरा की देखभाल के लिये समय निकाल सके,
और मैं – डॉक्टरी की प्रैक्टिस और साहित्य की ओर ध्यान दे सकूँ. हम
लोग उत्सुकता से पूछने लगे कि इसके लिये वह क्या करने वाला है. फ़िर से ख़ामोशी और
मुस्कुराहट. मगर उसने धोखा नहीं दिया.
ऐसे लक्षण साफ़ दिखाई देते
हैं कि हमारी ज़िंदगी के हालत वाकई में बदल रहे हैं.
अजीब बात है! ये मेरा
सौतेला भाई है. उसका और मेरा कुलनाम एक ही है. मगर मैं उसके बारे में,
सही कहूँ तो, सबसे कम जानता हूँ.
ये दूसरी बार मेरी ज़िंदगी
में आया है देवदूत बनकर, मेरा रक्षक बनकर, जो सारी कठिनाइयाँ दूर करता है. हो सकता है, हर
आत्मकथा में सक्रिय भूमिका निभाने वाले लोगों के अलावा अप्रत्यक्ष, रहस्यमय शक्ति का भी सहयोग वांछित होता है, ऐसे
प्रतीकात्मक लोगों का जो बिना पुकारे मदद करने के लिये प्रकट हो जाते हैं, और मेरे जीवन में ऐसे भले और रहस्यमय फ़रिश्ते की भूमिका मेरा भाई एव्ग्राफ़
निभा रहा है?”
यहाँ पर यूरी अन्द्रेयेविच
की डायरी ख़त्म हो गई. बाद में वह फिर कभी उसकी तरफ़ नहीं लौटा.
10
यूरी अन्द्रेयेविच
युर्यातिन सिटी लाइब्रेरी के रीडिंग हॉल में उन किताबों को देख रहा था जिनकी उसने
माँग की थी. कई सारी खिड़कियों वाले रीडिंग हॉल में, जहाँ सौ
व्यक्ति बैठ सकते थे, लम्बी लम्बी मेज़ों की कई कतारें थीं,
जिनके छोटे सिरे खिड़कियों से लगे थे. अँधेरा होते-होते रीडिंग हॉल
बन्द हो जाता था. बसंत के दिनों में शाम को शहर में रोशनी नहीं होती थी. मगर यूरी
अन्द्रेयेविच वैसे भी अँधेरा होने तक वहाँ नहीं बैठता था और दोपहर के खाने के समय
के बाद शहर में नहीं रुकता था. वह अपने घोड़े को, जो
मिकुलीत्सिन परिवार उसे देता था, सामदिव्यातव की सराय में
बाँध देता था, पूरी सुबह पढ़ता रहता, और
दोपहर में घोड़े पर वरीकिना लौट आता.
लाइब्रेरी में आने से पहले
यूरी अन्द्रेयेविच बिरले ही कभी युर्यातिन गया था. शहर में उसके कोई ख़ास काम नहीं थे.
डॉक्टर शहर को अच्छी तरह नहीं जानता था. और जब उसकी आँखों के सामने रीडिंग हॉल
धीरे-धीरे युर्यातिन निवासियों से भरने लगता, जो या तो
उससे दूर बैठते या बिल्कुल बगल में बैठते, यूरी अन्द्रेयेविच
को ऐसा लगता जैसे उसका शहर से परिचय हो रहा हो, उसके एक भीड़भाड़
भरे नुक्कड़ पर खड़े होकर, और जैसे हॉल में पढ़ने वाले
युर्यातिनवासी ही नहीं, बल्कि घर और रास्ते भी खिंचे आ रहे
हैं, जहाँ वे रहते हैं.
मगर असली युर्यातिन भी,
सचमुच का और वास्तविक भी, हॉल की खिड़कियों से
दिखाई देता था. बीच वाली, सबसे बड़ी खिड़की के पास उबले हुए
पानी की एक टंकी रखी थी. पढ़ने वाले जैसे कुछ आराम की ख़ातिर धूम्रपान करने के लिये
सीढ़ी पर निकलते, टंकी को घेर कर खड़े हो जाते, पानी पीते, बचे हुए पानी को बेसिन में डाल देते,
और शहर का नज़ारा देखने के लिये खिड़की के पास जमा हो जाते.
पढ़ने वाले लोग दो तरह के
थे, अधिकांशतः स्थानीय बुद्धिजीवी, जो यहाँ के पुराने निवासी थे, - और सामान्य लोग.
पहले प्रकार के वाचकों में,
जिनमें ज़्यादातर औरतें थीं, साधारण कपड़ों में,
जिन्होंने अपना ख़्याल रखना छोड़ दिया था और जो ढीली-ढाली थीं,
बीमार, खिंचे हुए चेहरे थे, जो अलग-अलग कारणों से पिलपिले लग
रहे थे – भूख से, पित्त से, जलोदर से.
ये रीडिंग हॉल में हमेशा आने वाले थे, लाइब्रेरी के
कर्मचारियों से उनका व्यक्तिगत परिचय था और उन्हें यहाँ अपने घर जैसा लगता था.
ख़ूबसूरत,
तंदुरुस्त चेहरों वाले सामान्य लोग, बढ़िया
कपड़े पहने हुए, जैसे त्यौहारों में पहनते हैं, शर्माते, सकुचाते हॉल में इस तरह आते, जैसे चर्च में आ रहे हों, और वे कुछ ज़्यादा ही शोर
मचाते, इसलिये नहीं कि उन्हें लाइब्रेरी के कायदों का ज्ञान
नहीं था, बल्कि एकदम चुपचाप घुसने की इच्छा और अपने
तंदुरुस्त कदमों और आवाज़ों पर नियंत्रण न रख
पाने के कारण.
खिड़कियों के सामने दीवार
में एक गहरा आला था. इस ऊँचे आले में, एक काऊंटर के
पीछे जो शेष हॉल से अलग-थलग था, रीडिंग हॉल के कर्मचारी काम
करते थे, सीनियर लाइब्रेरियन और उसकी दो सहयोगी लड़कियाँ.
उनमें से एक, चिड़चिड़ी, ऊनी शॉल में,
लगातार अपनी नाक पर चश्मा चढ़ा रही थी और उतार रही थी, ऐसा वह नज़र की दृष्टि से नहीं बल्कि उसकी अपनी बदलती मनोदशा के कारण कर
रही थी. दूसरी, काले रेशमी ब्लाऊज़ में, शायद सीने के दर्द से परेशान थी, क्योंकि नाक और
मुँह के ऊपर से रूमाल को ज़रा भी हटाये बिना, रूमाल के भीतर
से ही बात कर रही थी और साँस ले रही थी.
लाइब्रेरी के कर्मचारियों
के भी वैसे ही फूले-फूले, नीचे की ओर लम्बे
होते गये, पिलपिले चेहरे थे, जैसे कि
पढ़ने वाले लोगों में से आधों के थे, वैसी ही ढीली ढाली,
लटकती हुई त्वचा थी, पीलेपन में कुछ हरियाली
लिये हुए, नमक लगे खीरे के रंग में भूरे रंग के मिश्रण जैसा
रंग, और वे तीनों ही बारी-बारी से एक ही काम कर रही थीं नये
लोगों को फुसफुसाहट से किताबों को इस्तेमाल करने के नियम समझा रही थीं, किताबों की माँग वाली पुर्जियाँ छाँट रही थीं, किताबें
दे रही थीं और लौटाई हुई किताबें ले रही थीं और बीच-बीच में सालाना रिपोर्ट पर भी
काम कर लेती थीं.
और अचरज की बात थी,
कि किन्हीं अबूझ विचारों से संयोग से, खिड़की
से बाहर वाले वास्तविक शहर और हॉल के भीतर वाले काल्पनिक शहर में, और किसी समानता के कारण, जो आम मुर्दने फूलेपन के
कारण नज़र आ रही थी, ऐसा लग रहा था कि जैसे सभी गलगण्ड से ग्रस्त
हैं, यूरी अन्द्रेयेविच को उनके आगमन की सुबह को युर्यातिन
की रेल्वे लाइन पर मौजूद उस अप्रसन्न सिग्नलवूमन की और दूरस्थ शहर के नज़ारे की याद
आई, और रेल के डिब्बे के फर्श पर बगल में बैठे सामदिव्यातव
की और उसके स्पष्टीकरणों की याद आई. यूरी अन्द्रेयेविच के मन में इन स्पष्टीकरणों
को, जो इस स्थान की सीमाओं के परे,
काफ़ी दूर से दिये गये थे, उस सबसे जोड़ने की ख़्वाहिश पैदा हुई
जिसे अब वह निकट से देख रहा था, तस्वीर के बीचोंबीच. मगर वह सामदिव्यातव
के संकेतों को याद नहीं कर पा रहा था, और इस तरह कोई नतीजा
नहीं निकला.
11
यूरी
अन्द्रेयेविच हॉल के दूर वाले कोने में बैठा था, किताबों से घिरा हुआ. उसके सामने कुछ पत्रिकाएँ पड़ी
थीं, जिनमें स्थानीय ज़ेम्स्त्वा द्वारा प्रस्तुत कुछ आँकडे
थे, और प्रदेश के नृवंशविज्ञान से संबंधित कुछ किताबें
थीं. उसने पुगाचोव के इतिहास के बारे में दो किताबें माँगने की कोशिश की, मगर रेशमी ब्लाउज़ वाली लाइब्रेरियन ने होठों पर रूमाल
रखे-रखे फ़ुसफ़ुसाहट से कहा कि एक ही व्यक्ति को एक साथ इतनी किताबें नहीं दी जा सकतीं और जिस शोध-कार्य
में उसकी दिलचस्पी है उससे संबंधित किताबें लेने के लिये उसे पहले ली गई किताबों
और पत्रिकाओं में से कुछ को वापस करना होगा.
इसलिये
यूरी अन्द्रेयेविच तत्परता और एकाग्रता से उन किताबों को देखने लगा, जिन्हें उसने अब तक देखा नहीं था, ताकि इस ढेर से जो सबसे ज़्यादा ज़रूरी हैं उन्हें अलग
करके अपने पास रखे और बाकी किताबों को लौटा कर उनके बदले अपने काम की ऐतिहासिक
किताबें ले सके. वह बिना इधर-उधर देखे और न ही किसी पर ध्यान दिये जल्दी-जल्दी
किताबों के पन्ने पलट रहा था और विषय-सूची पर नज़र दौड़ा रहा था. हॉल में लोगों की
उपस्थिति उसके काम में बाधा नहीं डाल रही थी. उसने अपने पड़ोसियों को अच्छी तरह
पहचान लिया था और किताब से नज़र उठाये बिना,
काल्पनिक दृष्टि से अपने दाएँ बाएँ बैठे लोगों को देख रहा था, इस एहसास के साथ कि उसके जाने तक उनके समूह में कोई
परिवर्तन नहीं होगा,
वैसे ही जैसे खिड़की से
दिखाई दे रहे चर्च और शहर की इमारतें अपनी जगह से नहीं हिलतीं.
इस
दौरान सूर्य स्थिर नहीं था. पूरे समय अपनी स्थिति बदलते हुए वह इस समय लाइब्रेरी
के पूर्वी कोने के पीछे चला गया था. अब वह दक्षिण की तरफ़ वाली दीवार की खिड़कियों
के काफ़ी पास बैठे हुए लोगों की आँखों को चकाचौंध करते हुए और उनके पढ़ने में बाधा
डालते हुए चमक रहा था.
ज़ुकाम
से पीड़ित लाइब्रेरियन जाली लगे काऊन्टर के पीछे से निकली और खिड़कियों की तरफ़ बढ़ी.
उन पर चुन्नट किये हुए सफ़ेद परदे थे जो प्रकाश को सौम्य बना रहे थे.
लाइब्रेरियन
ने एक को छोड़कर सभी खिड़कियों के परदे गिरा दिये. इस कोने वाली, छायादार खिड़की का परदा उसने नहीं गिराया. डोरी खींचकर
उसने खिड़की का एक वातायन खोला और छींकने लगी.
जब
वह दसवीं या बारहवीं बार छींकी तो यूरी अन्द्रेयेविच ने अनुमान लगाया कि ये
मिकुलीत्सिन की साली,
तून्त्सेव बहनों में से
एक है, जिनके बारे में सामदिव्यातव ने बताया था. अन्य पढ़ने
वाले लोगों के साथ यूरी अन्द्रेयेविच ने भी सिर उठाकर उस ओर देखा.
तब
उसने हॉल में हुए परिवर्तन पर ग़ौर किया. उसके सामने वाले अंतिम सिरे पर एक नई आगंतुक
जुड़ गई थी. यूरी अन्द्रेयेविच ने फ़ौरन अंतीपवा को पहचान लिया. वह सामने वाली मेज़ों
की तरफ़ पीठ करके बैठी थी,
जिनमें से एक पर डॉक्टर
बैठा था, और धीमी आवाज़ में ज़ुकाम पीड़ित लाइब्रेरियन से बात कर
रही थी, जो लरीसा फ़्योदरव्ना की ओर झुक कर खड़ी थी और फ़ुसफ़ुसाकर
उससे बात कर रही थी. शायद इस बातचीत का लाइब्रेरियन पर अच्छा असर हुआ था. पल भर
में न केवल उसका ज़ुकाम ठीक हो गया,
बल्कि उसकी उदास
मनोवृत्ति भी ठीक हो गई. अंतीपवा पर गर्मजोशी से एक आभारपूर्ण नज़र डालकर उसने अपने
होठों से रूमाल हटा लिया, जिसे हमेशा होठों पर रखे रहती थी और उसे जेब में
घुसाकर ख़ुश-ख़ुश,
आत्मविश्वास से भरपूर और
मुस्कुराते हुए जाली के पीछे वाली अपनी जगह पर चली गई.
यह
भावपूर्ण दृश्य वहाँ उपस्थित कई लोगों से छुप न सका. अनेक कोनों से अंतीपवा की ओर
हमदर्दी से देखने लगे और मुस्कुराने भी लगे. इन मामूली लक्षणों से यूरी
अन्द्रेयेविच ने यह निष्कर्ष निकाला कि उसे शहर में लोग उसे अच्छी तरह जानते हैं
और प्यार भी करते हैं.
12
यूरी अन्द्रेयेविच का पहला इरादा तो यही
था कि उठकर लरीसा फ्योदरव्ना के पास जाये. मगर फिर उसके स्वभाव के लिये अपरिचित, मगर लारा के संबंध में
मौजूद मजबूरी और सादगी की कमी ने बाज़ी मार ली. उसने तय कर लिया कि लारा के काम में
बाधा नहीं डालेगा, और साथ ही अपना काम भी बीच में
नहीं छोड़ेगा. उसकी तरफ़ देखने के लालच से बचने के लिये, उसने पढ़ते
हुए लोगों की ओर लगभग पीठ करते हुए, अपनी कुर्सी मेज़ की तरफ़
तिरछी रख ली, और अपनी किताबों में खो गया, एक को अपने सामने हाथ में पकड़े हुए, और दूसरी को
खोलकर घुटनों पर रखे हुए.
मगर उसके विचार अपने विषय
से हज़ारों मील दूर भटक रहे थे. उनसे बिना किसी संबंध के वह अचानक समझ गया कि वह
आवाज़ जो उसने शीत ऋतु की एक रात को वरीकिना में सुनी थी,
अंतीपवा की आवाज़ थी. इस रहस्योद्घाटन ने उसे चौंका दिया और, आस पास के लोगों का ध्यान आकर्षित करते हुए, उसने
झटके से कुर्सी पहली स्थिति में रख दी, जिससे कि उसकी जगह से
अंतीपवा दिखाई देती रहे, और वह उसकी ओर देखने लगा.
वह पीठ की तरफ़ से उसे देख
रहा था, आधी मुड़ी हुई, लगभग पीछे से. वह हल्के रंग के चौख़ाने वाले ब्लाऊज़ में थी, जिस पर बेल्ट बंधा था, और तन्मयता से पढ़ रही थी,
बच्चों की तरह अपने आप को भूल गई थी, सिर को
दायें कंधे की ओर थोड़ा सा झुकाये. कभी वह सोचने लगती, आँखें
छत की ओर उठाये, या, उन्हें बारीक करके
अपने सामने कहीं देखने लगती, और फिर दुबारा झुक जाती,
सिर को हाथ पर टिका देती, और फ़ौरन झटके से
पेन्सिल से नोटबुक में किताब से कोई उद्धरण लिख लेती.
यूरी अन्द्रेयेविच ने मिल्यूज़ेयेवा
के अपने पुराने निरीक्षणों पर नज़र डाली और उनकी पुष्टि की. ‘वह अच्छी लगना नहीं चाहती,’ उसने सोचा, ‘औरत के अस्तित्व का यह पहलू कि वह ख़ूबसूरत, लुभावनी
लगे - उसे अच्छा नहीं लगता और जैसे वह अपने आप को इसलिये सज़ा दे रही है कि ख़ुद
इतनी अच्छी है. और अपने आप से यह गर्वीली दुश्मनी उसकी आकर्षकता को दस गुना ज़्यादा
बढ़ाती है.
जो कुछ भी वह करती है,
कितना अच्छा लगता है. पढ़ती वह इस तरह है मानो यह इन्सान का महान
कार्य नहीं , बल्कि कोई बेहद आसान सी चीज़ है, जो प्राणियों को हासिल हो जाती है. जैसे वह पानी लाती है या आलू छीलती है.’
इन विचारों से डॉक्टर कुछ
शांत हुआ. उसकी आत्मा में एक दुर्लभ शांति उतर आई. उसके विचारों ने भटकना और एक
विषय से दूसरे विषय पर जाना बन्द कर दिया. वह अनचाहे ही मुस्कुरा दिया. अंतीपवा की
उपस्थिति ने उस पर वैसा ही प्रभाव डाला था, जैसा
परेशान लाइब्रेरियन पर डाला था.
इस बात की परवाह किये बिना
कि उसकी कुर्सी कैसे रखी है, और किन्हीं
बाधाओं और मन के विचलित होने से न डरते हुए, उसने करीब एक या
डेढ़ घण्टा और ज़्यादा लगन और एकाग्रता से काम किया जितना अंतीपवा के आने से पहले कर
रहा था. उसने अपने सामने पड़े किताबों के पहाड़ को छान मारा, अत्यावश्यक
किताबों को छाँट लिया और उनमें दो महत्वपूर्ण लेखों को चाट गया जिन पर उसकी नज़र
पड़ी थी. अपने काम से संतुष्ट होने का निश्चय करके, वह
किताबें इकट्ठा करने लगा ताकि उन्हें ‘इश्यू-काऊण्टर’
की ओर ले जाये. इधर उधर के कोई भी विचार जो चेतना को मैला कर सकते
थे, उसे छोड़कर चले गये थे. स्वच्छ अंतरात्मा से और बिना कोई
अन्य ख़याल मन में लाए वह सोच रहा था कि ईमानदारी से किये गये काम के कारण उसे अपनी
पुरानी, भली परिचित महिला से मिलने का अधिकार प्राप्त हो गया
है और कानूनी आधार पर वह अपने आपको इस ख़ुशी की इजाज़त दे सकता है. मगर जब उसने उठकर
रीडिंग हॉल में नज़र दौड़ाई, तो अंतीपवा वहाँ नहीं थी.
काऊण्टर पर,
जहाँ डॉकटर अपनी किताबें और पत्रिकाएँ ले गया था, अभी तक बिना समेटी हुई किताबें पड़ी थीं जिन्हें अंतीपवा वापस करके गई थी.
ये सब मार्क्सिज़्म के बारे में गाईड्स थे. शायद, भूतपूर्व,
और फिर से शिक्षिका के रूप में काम कर रही, वह
अपनी कोशिश से घर में ही राजनीतिक ट्रेनिंग ले रही थी.
लरीसा फ्योदरव्ना को जिन किताबों
की ज़रूरत थी, उनकी पर्चियाँ किताबों में थी. इन पर्चियों के सिरे बाहर झाँक रहे थे.
उनमें लरीसा फ़्योदरव्ना का पता था. उसे आसानी से पढ़ा जा सकता था.
यूरी अन्द्रेयेविच ने उसे
लिख लिया, इसके महत्व से आश्चर्यचकित होते
हुए.
“कुपेचेस्काया,
मूर्तियों वाले घर के सामने”.
फ़ौरन किसी से पूछ कर यूरी
अन्द्रेयेविच को पता चला कि “मूर्तियों वाला घर” ये अभिव्यक्ति युर्यातिन में इतनी
प्रचलित है, जैसी मॉस्को में चर्च के निकट वाले
भागों को उस चर्च का नाम देना, या पीटर्सबुर्ग में “पाँच
कोनों के पास” कहना.
ये नाम था उस गहरे-भूरे, स्टील के रंग के घर का जिसके स्तम्भ हाथों में खंजरी, वीणा और मास्क लिये प्राचीन ग्रीक देवियों की मूर्तियों जैसे थे, जिसका निर्माण पिछली शताब्दी में एक थियेटर प्रेमी व्यापारी ने अपने निजी
थियेटर के लिए करवाया था. व्यापारी के वारिसों ने इसे कुपेचेस्काया (कुपेचेस्काया
का अर्थ है – व्यापारी – अनु.) कौंसिल को बेच दिया, जिसने
उस रास्ते को नाम दिया था, जिसके नुक्कड़ पर यह घर था.
“मूर्तियों वाले घर” से तात्पर्य उसके आसपास वाले सारे इलाके से था. अब इस
मूर्तियों वाले घर में पार्टी की सिटी कौंसिल थी, और उसकी तिरछी,
पहाड़ से नीचे जाती हुई नींव वाली दीवार पर, जहाँ
पहले थियेटर के और चर्च के इश्तेहार चिपकाये जाते थे, आजकल
सरकारी आदेश और निर्णय चिपकाये जाते हैं.
13
मई के आरंभ का एक ठण्डा, तूफ़ानी दिन था. शहर में छोटे-मोटे कामों के सिलसिले में घूमने और एक मिनट
के लिये लाइब्रेरी में झाँकने के बाद यूरी अन्द्रेयेविच ने अचानक अपना प्रोग्राम
बदल दिया और अंतीपवा को ढूँढ़ने निकल पड़ा.
हवा अक्सर उसे रास्ते में
रोक रही थी, धूल और रेत के बादलों से उसके
मार्ग में रुकावट डाल रही थी. डॉक्टर मुड़ रहा था, आँखें
सिकोड़ रहा था, सिर झुका रहा था, धूल के
गुज़र जाने का इंतज़ार करता, और आगे बढ़ रहा था.
अंतीपवा कुपेचेस्काया स्ट्रीट
और नवस्लावच्नवा गली के नुक्कड़ पर रहती थी, अंधेरे,
नीले हो रहे मूर्तियों वाले घर के सामने, जिसे
डॉक्टर ने अभी पहली बार देखा था. घर वाकई में अपने नाम के अनुरूप था और एक अजीब-सा,
डरावना प्रभाव डाल रहा था.
उसकी ऊपरी मंज़िल पूरी तरह
से पौराणिक महिलाओं की मूर्तियों से घिरी हुई थी, जिनकी
ऊँचाई करीब डेढ़ आदमी जितनी थी. धूल भरी हवा के दो थपेड़ों के बीच जिन्होंने उसके
दर्शनीय भाग को ढाँक दिया था, डॉक्टर को पल भर के लिये ऐसा
लगा कि घर से महिलाओं की पूरी आबादी बाहर बाल्कनी में निकल आई है और, मुँडेर पर झुककर उसकी तरफ़ और नीचे फ़ैली हुई कुपेचेस्काया स्ट्रीट की ओर
देख रही है.
अंतीपवा के घर दो तरफ़ से
प्रवेश किया जा सकता था, रास्ते वाले प्रवेश द्वार से
और गली वाले आँगन से. पहले रास्ते से अनजान, यूरी
अन्द्रेयेविच ने दूसरा मार्ग चुना.
जब वह गली से गेट की ओर
मुड़ा, तो हवा मिट्टी और आँगन के सारे कचरे को उठाकर
बवण्डर की तरह आसमान की ओर ले गई, और परदे की तरह आँगन को
डॉक्टर से छुपा दिया. उसके पैरों के नीचे से मुर्गियाँ कुड़कुड़ाते हुए इस काले परदे
के पीछे भागीं, ताकि उनका पीछा करते हुए मुर्गे से अपने आप
को बचा सकें.
जब धूल का बादल छँट गया तो
डॉक्टर ने अंतीपवा को कुँए के पास देखा.
बवण्डर ने उसे पानी से भरी
हुई दोनों बाल्टियों समेत दबोच लिया, जिन्हे वह बाएँ
कंधे पर काँवड़ में रख चुकी थी. उसने जल्दी-जल्दी में अपने सिर पर रूमाल बाँध लिया
था जिससे बालों पर धूल न उड़े, रूमाल की गाँठ सामने माथे पर
थी, “कोयल” जैसी, और वह फूले हुए
स्कर्ट को घुटनों के बीच दबाए थी, जिससे हवा उसे ऊपर न उठा
दे. वह पानी के साथ घर की ओर जा ही रही थी, मगर तूफ़ानी हवा
के नये थपेड़े के कारण रुक गई, जिसने उसके सिर से रूमाल खींच
लिया, उसके बालों को बिखेरने लगा और रूमाल को फ़ेन्सिंग के
दूर वाले सिरे पर, अभी तक कुड़कुड़ाती मुर्गियों के पास ले गया.
यूरी अन्द्रेयेविच रूमाल
उठाने के लिये भागा, उसे उठाया और कुएँ के पास अचंभित
अंतीपवा के पास ले गया. अपनी सहज नैसर्गिकता से उसके मुख से एक भी उद्गार न निकला
जो उसकी परेशानी और आश्चर्य को प्रदर्शित करता. उसके मुँह से सिर्फ निकला:
“झिवागो!”
“लरीसा फ़्योदरव्ना!”
“”कैसा आश्चर्य?
कैसा संयोग?”
“बाल्टियाँ ज़मीन पर रख
दीजिये. मैं ले चलूँगा.”
“मैं आधे रास्ते से कभी
नहीं मुड़ती, कभी भी शुरू लिये गये काम को बीच
ही में नहीं छोड़ती. अगर आप मेरे पास आये हैं, तो चलिये.”
“नहीं तो किसके पास आया
हूँ?”
“क्या पता.”
फिर भी,
मुझे इस काँवड़ को आपके कंधे से मेरे कंधे पर रखने दीजिये. जब आप
मेहनत कर रही हैं तो मैं ख़ाली नहीं बैठ सकता.”
“सोचो,
मेहनत. नहीं दूँगी. सीढ़ियों पर छलका दोगे. इससे अच्छा है, ये बताओ कि आप यहाँ कैसे आ गये? साल भर से ऊपर यहाँ
पर हैं, और एक भी बार नहीं आ सके, समय नहीं
निकाल सके?”
“आपको कैसे मालूम?”
“बात तो फ़ैलती ही है. और
मैंने देखा भी था आपको, आख़िरकार, लाइब्रेरी में.”
“आपने मुझे आवाज़ क्यों
नहीं दी?”
“कहीं आप मुझे यकीन तो
नहीं दिलाना चाहते कि आपने मुझे नहीं देखा था?”
हिलती हुई बाल्टियों के
कारण हल्के-से डगमगाती हुई लरीसा फ़्योदरव्ना के पीछे-पीछे डॉक्टर एक नीचे दरवाज़े
से होकर गुज़रे. ये निचली मंजिल की चोर-ड्योढ़ी थी. यहाँ,
जल्दी से उकडूँ बैठकर, लरीसा फ़्योदरव्ना ने
मिट्टी के फ़र्श पर बाल्टियाँ रखीं, अपने कंधे से काँवड़ हटाई,
सीधी हो गई और न जाने कहाँ से एक छोटा-सा रूमाल लेकर अपने हाथ
पोंछने लगी.
“चलिये,
मैं आपको भीतरी दरवाज़े से मुख्य प्रवेश द्वार पर ले चलती हूँ. वहाँ
उजाला है. वहाँ थोड़ा इंतज़ार कीजिये. और मैं पानी पिछले दरवाज़े से लाऊँगी, थोड़ी देर के लिये ऊपर जाऊँगी, ठीक से कपड़े पहनूँगी.
देखिये, कैसी है हमारी सीढ़ियाँ.
लोहे की सीढ़ियाँ – बीच में
खुली जगह. ऊपर से उनसे होकर सब कुछ दिखाई देता है. पुराना घर है. बम-बारी के दिनों
में थोड़ा हिल गया है. आख़िर तोप के गोलों की मार थी.
देख रहे हैं,
पत्थर अलग-अलग हो गये हैं. ईंटों के बीच में छेद हैं, कोने हैं. जब मैं और कात्या बाहर जा रहे होते हैं तो यहाँ इस छेद में
फ्लैट की चाभी छुपाते हैं और ईंट से ढाँक देते हैं. ये बात याद रखिये. हो सकता है,
आप कभी आएँ, मुझे न पाएँ, तो कृपया, दरवाज़ा खोल लीजिए, भीतर
चले जाइए और अपने ही घर की तरह महसूस कीजिए. इस बीच मैं लौट आऊँगी. ये अभी भी यहीं
है, चाभी. मगर मुझे इसकी ज़रूरत नहीं है, मैं पीछे से अंदर जाकर भीतर से दरवाज़ा खोलूँगी. एक ही मुसीबत है – चूहे. झुण्ड
के झुण्ड हैं, उनसे छुटकारा नहीं पा सकते. सिरों के ऊपर
कूदते हैं. जर्जर इमारत है, दीवारें हिलती गई, हर जगह दरारें हैं. जहाँ संभव है, वहाँ कुछ मरम्मत
कर लेती हूँ, उनसे युद्ध करती हूँ.
ज़्यादा फ़ायदा नहीं होता.
हो सकता, कभी आप आएँ तो मदद करेंगे? मिलकर फ़र्श. प्लिन्थ भरेंगे. हाँ? अच्छा, यहीं चौक पर ठहरिये, किसी चीज़ के बारे में कुछ देर
सोचिये. मैं ज़्यादा देर इंतज़ार नहीं करवाऊँगी, जल्दी ही आवाज़
दूँगी.”
उसकी आवाज़ के इंतज़ार में
यूरी अन्द्रेयेविच प्रवेश द्वार की ख़स्ताहाल दीवारों और सीढ़ी की फ़ौलाद की पायदानों
को देखता रहा. वह सोच रहा था: “रीडिंग हॉल में पढ़ते समय उसकी एकाग्रता की तुलना मैं
एक सचमुच के, शारीरिक श्रम वाले काम के जोश और
फुर्ती से कर रहा था. और इसके विपरीत, वह पानी ऐसे लाती है,
जैसे पढ़ रही हो, आसानी से, बिना किसी मुश्किल के. ये सहजता उसके हर काम में है. जैसे ज़िंदगी की तरफ़
छलाँग वह काफ़ी पहले, बचपन में ही, लगा
चुकी थी, और अब सब कुछ फ़ौरन, सहजता से,
अपने आप हो जाता है, किसी प्राप्त हो रहे
परिणाम की तरह. ये उसकी पीठ में भी है, जब वह झुकती है,
उसकी मुस्कुराहट में भी है जो उसके होठों को विलग करती है और ठोढ़ी
को गोल बनाती है, और उसके शब्दों में और विचारों में भी
है”.
“झिवागो!” ऊपर वाले चौक पर
फ्लैट की देहलीज़ से आवाज़ आई. डॉक्टर सीढ़ियों से ऊपर गया.
14
“अपना
हाथ दीजिये और चुपचाप मेरे पीछे आईये. यहाँ दो कमरे हैं, जहाँ अँधेरा है और जो छत तक चीज़ों से अटा पड़ा है.
टकराएँगे और चोट लगा बैठेंगे”.
“सही
में, ये तो कोई भूल-भुलैया है. मैं तो रास्ता ही नहीं ढूँढ़
पाता. ये ऐसा क्यों है?
क्या फ्लैट में मरम्मत
का काम चल रहा है?”
“ओह, नहीं,
बिल्कुल नहीं. बात ये
नहीं है. ये फ्लैट किसी और का है. मुझे तो ये भी नहीं मालूम कि किसका है. हमारा
अपना क्वार्टर था,
सरकारी, स्कूल की बिल्डिंग में.
जब
युर्यातिन सोवियत का हाउसिंग डिपार्टमेन्ट स्कूल की बिल्डिंग में आ गया तो बेटी के
साथ मेरा यहाँ इस हिस्से में इंतज़ाम किया गया, जिसे
लोग छोड़ कर चले गये थे. यहाँ पुराने मालिकों का छोड़ा हुआ सामान था. बहुत सारा
फ़र्नीचर. मुझे किसी और की मिल्कियत की कोई ज़रूरत नहीं है. मैंने उनकी चीज़ें इन दो
कमरों में समेट दीं,
और खिड़कियों पर सफ़ेदी कर
दी. मेरा हाथ मत छोड़ना,
वर्ना भटक जाओगे. ऐसे.
दाईं ओर. अब जंगल पीछे रह गया. ये है मेरा दरवाज़ा. अब ज़्यादा उजाला होगा. देहलीज़.
ठोकर न खाना.”
जब
यूरी अन्द्रेयेविच अपनी मार्गदर्शक के साथ कमरे में आया, तो उसे दरवाज़े के सामने वाली दीवार में खिड़की नज़र आई.
जब डॉक्टर ने खिड़की से बाहर देखा तो वह चौंक गया. खिड़की घर के आँगन में खुलती थी, पडोसियों के घरों की पिछली तरफ़ और नदी के पास वाले शहर
के ख़ाली मैदानों पर. उन पर भेडें और बकरियाँ चर रही थीं, जो मानो अपने खुले हुए कोटों के पल्लों जैसी लम्बी ऊन
से धूल झाड़ रही थीं. इसके अलावा,
उनके ऊपर, खिड़की की तरफ़ मुँह किये, दो
स्तम्भों पर,
डॉक्टर का जाना पहचाना
इश्तेहार दिखाई दे रहा था: “मोरो और वेत्चिन्किन, सीडर्स
एन्ड थ्रैशर्स”.
इस
इश्तेहार के प्रभाव में डॉक्टर एकदम शुरू से लरीसा फ़्योदरव्ना को परिवार के साथ
युराल आने की कहानी का वर्णन करने लगा. वह लोगों में प्रचलित उस अफ़वाह के बारे में
भूल गया जिसके अनुसार स्त्रेल्निकव ही उसका पति था, और
बिना कुछ सोचे कमिसार से रेल्वे कम्पार्टमेन्ट में हुई अपनी मुलाकात के बारे में
बताने लगा. कहानी के इस भाग ने लरीसा फ़्योदरव्ना पर विशेष प्रभाव डाला.
“आपने
स्त्रेल्निकव को देखा?!”
उसने जोश से पूछा.
“फ़िलहाल मैं आपको कुछ और नहीं कहूँगी.
मगर कितनी महत्वपूर्ण
बात है! शायद यह विधि का विधान ही था कि आपको उससे मिलना था. मैं फिर कभी आपको समझाऊँगी, आप चौंक जायेंगे. अगर मैं आपको सही समझी हूँ, तो उसने आप पर अच्छा ही प्रभाव डाला था, न कि अप्रिय प्रभाव?”
“हाँ, सही में. उसे मुझे दूर हटा देना चाहिये था. हम उन
स्थानों से गुज़र रहे थे,
जहाँ वह अत्याचार और
विनाश कर रहा था. मैं तो किसी क्रूर सैनिक या पागल क्रांतिकारी हत्यारे की उम्मीद
कर रहा था, मगर इनमें से कोई भी नहीं मिला. अच्छी बात है , जब कोई आपकी उम्मीदों पर पानी फ़ेर देता है, जब वह अपने बारे में बनाई गई पूर्वधारणा से अलग प्रतीत
होता है. किसी ‘टाइप’
में बंधने का मतलब है इन्सान का अंत होना, उसे
सज़ा सुनाना. अगर उसे किसी श्रेणी में नहीं रख सकते, अगर वह
परिचयात्मक नहीं है,
तो उससे जिस बात की
उम्मीद की जाती है,
उसका आधा तो स्पष्ट हो
जाता है. वह स्वयम् से मुक्त होता है,
अमरत्व के एक अंश को
उसने पा लिया है.
“कहते
हैं कि वह किसी पार्टी का नहीं है.
“हाँ, मुझे ऐसा लगता है. वह लोगों को अपनी ओर कैसे आकर्षित
करता है? ये एक अभिशप्त इन्सान है. मेरा ख़याल है कि उसका अंत
बुरा होगा. वह बुराई का प्रायश्चित्त
करेगा, जिसे वह लाया है. क्रांति के तानाशाह खलनायकों जैसे
ख़ौफ़नाक नहीं हैं,
बल्कि ये एक अनियंत्रित तंत्र-प्रणाली
है, जैसे पटरी से उतर गई गाड़ियाँ.
स्त्रेल्निकव
भी वैसा ही पागल है,
जैसे वे हैं, मगर किताब पढ़कर उस पर जुनून सवार नहीं हुआ, बल्कि किसी और चीज़ से जिसे उसने भुगता है और उन कष्टों
से जो उसने सहे हैं. मुझे उसका रहस्य मालूम नहीं है, मगर
मुझे यकीन है,
कि कोई रहस्य तो है.
बोल्शेविकों से उसका संगठन महज संयोग है. जब तक उन्हें उसकी ज़रूरत है, वे उसे बर्दाश्त करते रहेंगे. मगर जैसे ही ज़रूरत ख़त्म
हो जायेगी, उसे बिना किसी हमदर्दी के अलग हटा देंगे और कुचल देंगे, जैसा उससे पहले कई सैन्य विशेषज्ञों के साथ कर चुके
हैं”.
“क्या
आपको ऐसा लगता है?”
“बेशक.”
“क्या
उसके पास बचने का कोई रास्ता है?मिसाल के तौर पर पलायन कर जाना?”
“कहाँ, लरीसा फ्योदरव्ना? ये
पहले, त्सारों के ज़माने में होता था. मगर अब, आप कोशिश तो कर लो.”
“अफ़सोस.
अपनी कहानी से आपने मेरे दिल में उसके प्रति सहानुभूति जगा दी है. मगर आप बदल गये
हैं. पहले आप क्रांति के बारे में इतनी कठोरता से बात नहीं करते थे, बगैर तल्ख़ी के कहते थे.”
“यही
तो बात है, लरीसा फ़्योदरव्ना, कि हर
बात की एक सीमा होती है. अब तक तो किसी नतीजे तक पहुँच जाना चाहिये था. मगर पता
चला कि क्रांति के प्रेरकों के लिये परिवर्तनों और पुनर्विन्यास की उथल-पुथल ही
एकमात्र मूलतत्त्व है,
कि उन्हें रोटी मत दो, बल्कि ब्रह्माण्ड के स्तर का कोई काम दे दो. विश्वों
के निर्माण, संक्रमण काल – यही उनका चरम लक्ष्य है. कुछ और
उन्होंने सीखा ही नहीं है,
कुछ करना उन्हें आता ही
नहीं है. और आपको पता है कि इन चिरंतन तैयारियों की गहमा-गहमी कहाँ से आती है? किन्हीं विशिष्ठ, पहले
से ही तैयार योग्यताओं के अभाव से,
प्रतिभाशून्यता से.
इन्सान जीने के लिए जन्म लेता है,
मगर जीवन के लिये स्वयम्
को तैयार नहीं करता है. और ख़ुद जीवन,
जीवन की घटना, जीवन का उपहार कितना रोमांचक रूप से गंभीर है! तो फिर उसे अपरिपक्व आविष्कारों के बचकाने
मसख़रेपन से बदलने की क्या ज़रूरत है,
चेखव के उन स्कूली
बच्चों की तरह जो अमेरिका भागना चाहते थे? मगर, चलो,
बस हुआ. अब मेरी बारी है
पूछने की. हम शहर की तरफ़ उस दिन सुबह आ रहे थे जब आपके यहाँ तख़्तापलट हो रहा था.
क्या
उस समय आपके यहाँ बड़ी गड़बड़ हो रही थी?”
“ओह, पूछिये मत!
बेशक. चारों ओर आग. हम
भी बस जलते-जलते बचे. घर,
जैसा कि मैं बता चुकी
हूँ, कैसे हिल रहा था! कम्पाऊण्ड में अभी तक गेट के पास बिना
फटा गोला पड़ा है. लूटपाट,
बमबारी, उपद्रव. जैसा कि हमेशा सरकारें बदलते समय होता है. तब
तक तो हम सीख चुके थे,
आदत पड़ गई थी. ये कोई
पहली बार तो नहीं हुआ था. और श्वेतों के समय क्या हुआ था! छुप कर हत्याएँ व्यक्तिगत
बदले के कारण,
जबरन वसूली, बस नंगा नाच! हाँ, मगर
मैंने ख़ास बात तो आपको बताई ही नहीं. हमारा गलिउलीन! बहुत ख़ास चीज़ बन गया है चेक
लोगों के साथ. किसी गवर्नर-जनरल की तरह.”
“जानता
हूँ. सुना था.क्या उससे मिली थीं”?
“अक्सर.
उसकी बदौलत मैंने कितने लोगों की जानें बचाई हैं! कितने लोगों को छुपाया! उसे
श्रेय मिलना चाहिये. उसने बहुत अच्छा व्यवहार किया, उसकी
कोई निंदा नहीं कर सकता,
किसी शूरवीर की तरह, वर्ना ये हर तरह के छोटे-मोटे लोग, कज़ाकों के प्रमुख, पुलिस
अफ़सर. मगर उस समय माहौल बनाने का काम ये छोटे-मोटे लोग ही करते थे, न कि शरीफ़ इन्सान. गलिउलीन ने कई बातों में मेरी मदद
की, उसका शुक्रिया. हम आख़िर पुराने परिचित हैं. जब मैं
छोटी लड़की थी तो अक्सर उस कम्पाऊण्ड में जाया करती थी जहाँ वह बड़ा हुआ था. उस
बिल्डिंग में रेल्वे के मज़दूर रहते थे. मैंने बचपन में गरीबी और श्रम को नज़दीक से
देखा है. इसलिये क्रांति के प्रति मेरा दृष्टिकोण आपके दृष्टिकोण से अलग है.
क्रांति मेरे दिल के ज़्यादा करीब है. उसमें मुझे काफ़ी कुछ अपना-सा लगता है. और
अचानक वह कर्नल बन गया,
ये लड़का, दरबान का बेटा. या श्वेत-जनरल भी. मैं सिविलियन तबके
से हूँ और रैंक्स के बारे में ज़्यादा नहीं जानती. मगर वैसे पेशे से मैं शिक्षक हूँ
– इतिहास की. तो,
ऐसा है, झिवागो. कई लोगों की मैंने मदद की है. उसके पास जाती
थी. हम आपको याद करते थे. मेरे तो हर
सरकार में संबंध और संरक्षक हैं ना,
और हर व्यवस्था में मुझे
तकलीफ़ें और नुक्सान ही मिला है. ऐसा सिर्फ बुरी किताबों में ही होता है कि लोग दो
गुटों में बँटे होते हैं और उन्हें एक दूसरे से कोई मतलब नहीं होता. मगर असलियत
में सब कुछ एक दूसरे से इतना गुँथा हुआ है! जीवन में सिर्फ एक ही भूमिका निभाने के
लिये, समाज में सिर्फ एक ही जगह पाने के लिये, मतलब सिर्फ एक और सिर्फ वही, कितना
लाइलाज क्षुद्र प्राणी होना पड़ता है!
“ओह, मतलब,
तुम यहाँ हो?”
कमरे
में दो कसी हुई चोटियों वाली करीब आठ साल की लड़की आई. संकीर्ण, दोनों कोनों पर स्थित आँखें उसे शरारती और चंचल बना
रही थीं. जब वह मुस्कुराती,
तो वह उन्हें थोड़ा-सा
ऊपर उठाती. उसने दरवाज़े के पीछे से ही देख लिया था कि माँ के पास मेहमान हैं, देहलीज़ पर आकर, उसने
चेहरे पर अचानक हुए आश्चर्य का भाव लाना ज़रूरी समझा, आदर प्रकट
किया और डॉक्टर के ऊपर अपनी जल्दी समझदार हो गए, अकेलेपन
में बड़े हुए बच्चे की एकटक, निडर दृष्टि गड़ा दी.
“मेरी
बेटी कातेन्का. कृपया मिलिये.”
“आपने
मेल्यूज़ेयेवो में तस्वीरें दिखाई थीं. कितना बड़ी हो गई और कितनी बदल गई है!”
“तो, तू घर में है? और मैं
सोच रही थी कि कहीं घूम रही होगी. मैंने सुना भी नहीं कि तू कब अंदर आई.”
“छेद
में से चाभी निकाल रही थी,
मगर वहाँ इत्ता बड़ा
चूहा! मैं चिल्लाई और एक तरफ़ हट गई! सोचा, डर के
मारे मर जाऊँगी!”
कातेन्का
प्यारा-प्यारा चेहरा बनाकर कह रही थी,
अपनी शैतान आँखें फ़ाड़ते
हुए और मुँह को गोल-गोल बनाते हुए,
जैसे पानी से बाहर
निकाली हुई मछली हो.
“अच्छा, चल अपने कमरे में जा. मैं चाचा को खाने पर रुकने के
लिये मनाती हूँ,
ओवन में से पॉरिज
निकालूँगी और तुझे बुलाऊँगी.”
“शुक्रिया, मगर मुझे इनकार करना पड़ेगा. मेरी शहर की इन यात्राओं
के कारण हम छह बजे खाना खाने लगे हैं. मुझे देर करने की आदत नहीं है, और जाने में अगर चार नहीं तो तीन घण्टे से कुछ ज़्यादा
वकत लगेगा. इसीलिये मैं आपके पास इतनी जल्दी आया, - माफ़ी
चाहता हूँ, - और मैं जल्दी ही निकल जाऊँगा.”
“सिर्फ
आधा घण्टा और.”
“ख़ुशी
से.”
15
“और अब,
- मैं भी अपनी बात साफ़-साफ कहूँगी. स्त्रेल्निकव, जिसके बारे में आपने बताया, मेरा पति पाशा है,
पावेल पाव्लविच अंतीपव, जिसे ढूँढ़ने के लिये
मैं फ्रन्ट पर गई थी, और जिसकी अवश्यंभावी मृत्यु पर विश्वास
करने से मैंने साफ़ मना कर दिया”.
“मैं इस बात से चौंका नहीं
हूँ, और मैं तैयार हूँ. मैं इस किस्से को सुन चुका
हूँ और उसे बकवास समझता हूँ. इसीलिये तो मैं इस कदर बहक गया कि पूरी तरह
खुल्लमखुल्ला और असावधानी से आपको उसके बारे में बता रहा था, जैसे इन अफ़वाहों का अस्तित्व ही नहीं है. मगर ये अफ़वाहें बेमानी हैं.
मैंने इस आदमी को देखा है. उसे आपके साथ कैसे जोड़ सकते हैं? आप
दोनों के बीच क्या साम्य है?”
“मगर फिर भी,
ऐसा ही है, यूरी अन्द्रेयेविच. स्त्रेल्निकव
अंतीपव ही है, मेरा पति. मैं आम राय से सहमत हूँ. कातेन्का
को भी यह मालूम है और उसे अपने पिता पर गर्व है. स्त्रेल्निकव, यह उसका रखा हुआ नाम है, कूटनाम, जैसा कि सब क्रांतिकारी कार्यकर्ताओं का होता है. किन्हीं ख़ास कारणों से
उसे पराए नाम से रहना और काम करना पड़ता है.
उसने युर्यातिन पर कब्ज़ा
कर लिया, हमारे ऊपर गोले बरसाए, उसे मालूम था कि हम यहाँ हैं, और उसने एक भी बार पता
नहीं लगाया कि हम ज़िंदा हैं या नहीं, जिससे उसका भेद न खुल जाये.
ये उसका कर्तव्य था, ज़ाहिर है. अगर वह पूछता कि उसे क्या
करना चाहिये, तो हम भी उसे ऐसी ही सलाह देते. आप ये भी
कहेंगे, मैं जो सुरक्षित हूँ, मुझे
सिटी सोवियत ने जो ठीक-ठाक घर दिया है, और दूसरी बातें – इस
बात का अप्रत्यक्ष प्रमाण है कि वह गुप्त रूप से हमारी फिक्र करता है! मगर फ़िर भी
इस बात का आप किसी भी तरह मुझे यकीन नहीं दिला पायेंगे. यहाँ बगल में ही रहने और
हमें देखने के लोभ का संवरण करना! ये बात मेरे दिमाग़ में नहीं बैठती, ये मेरी बुद्धि से परे है. ये कोई ऐसी बात है जो मेरी पहुँच के बाहर है,
ये ज़िंदगी नहीं, बकि कोई रोमन किस्म की शूरता है,
जो आजकल का एक चालाक तरीका है. मगर अब मुझ पर आपका असर होने लगा है.
मैं कदापि ऐसा नहीं चाहूँगी. हम समान विचारों वाले नहीं हैं. किसी दुर्लभ, वैकल्पिक चीज़ को हम एक जैसा समझते हैं. मगर व्यापक अर्थों वाली चीज़ों में,
जीवन के दर्शन में बेहतर होगा कि हम प्रतिस्पर्धी ही रहें. मगर
स्त्रेल्निकव के विषय पर वापस आते हैं.
आजकल वह साइबेरिया में है,
और आप सही कह रहे हैं, मेरे पास भी ऐसी
रिपोर्ट्स हैं कि उसकी शिकायतें की जा रही हैं, जिनसे मेरा
दिल डूबने लगता है. आजकल वह साइबेरिया में है हमारे काफ़ी आगे बढ़ चुके मोर्चे पर,
अपने कम्पाऊण्ड वाले दोस्त और बाद में मोर्चे वाले कॉम्रेड, बेचारे गलिऊलिन को पराजित कर रहा
है, जिससे उसके नाम का और मेरे पति होने का रहस्य छुपा नहीं
है, और जिसने ऐसी नज़ाकत के कारण जिसका मोल नहीं किया जा सकता,
कुझे कभी इस बात का एहसास नहीं होने दिया, हालाँकि
स्त्रेल्निकव का नाम सुनते ही उसे उबकाई आती है, उल्टी हो
जाती है और वह अपना आपा खो बैठता है. हाँ, तो, मतलब, आजकल वह साइबेरिया में है.
मगर जब वह यहाँ था (वह लम्बे समय तक यहाँ
था और पूरे समय रेल की पटरियों पर कम्पार्टमेन्ट में रहा, जहाँ आपने उसे देखा
था), मैं किसी तरह, अचानक उससे टकराने
के लिये छटपटा रही थी. कभी वह स्टाफ़-हेडक्वार्टर्स जाया करता, जो वहाँ था, जहाँ पहले कमूच का, कॉन्स्टिट्युएन्ट
असेम्बली की फ़ौजों का कमांडिंग-ऑफ़िस था. और किस्मत का अजीब खेल देखिये.
स्टाफ़-हेडक्वार्टर्स का प्रवेश द्वार उसी खंड में था, जहाँ पहले गलिऊलिन
मुझसे मिलता था,
जब मैं औरों के काम से आया करती थी. मिसाल के तौर पर, कैडेट कोर में
सनसनीखेज़ हादसा हुआ था, कैडेट्स घात लगाकर विवादित शिक्षकों को गोली मारने लगे, इस बहाने से कि वे
बोल्शेविकों के समर्थक हैं. या जब यहूदियों पर अत्याचार करने और पीटने की घटनाएँ
होने लगीं. ख़ैर. अगर हम शहर में रहने वाले और बौद्धिक श्रम करने वाले लोग, हमारे
परिचितों में से आधे वे ही हैं, और ऐसी तबाही के
दिनों में, जब ऐसी भयानक और घिनौनी घटनाएँ शुरू होती हैं,
तो गुस्से, शर्म और दया के अलावा हमें एक
तकलीफ़देह दोहरेपन का एहसास घेर लेता है कि हमारी सहानुभूति आधी-दिमागी है, एक झूठे, अप्रिय परिणाम वाली.
वे लोग,
जिन्होंने कभी मानवता को मूर्तिपूजा के जुए से मुक्त किया था और जो
आज भी बड़ी संख्या में उसे सामाजिक बुराई से मुक्त करने के लिये समर्पित हैं,
ख़ुद को अपने आप से, अप्रासंगिक, महाप्रलय पूर्व के नाम के प्रति वफ़ादारी से मुक्त करने में असमर्थ हैं,
जो अपना महत्व खो चुका है, अपने आप से ऊपर नहीं
उठ सकते और बिना कोई निशान छोड़े अन्य लोगों में घुलमिल जाते हैं, जिनकी धार्मिक आस्थाओं का निर्माण ख़ुद उन्होंने किया था और अगर वे उन्हें ज़्यादा
अच्छी तरह जानते तो वे उनके लिए बेहद निकट होतीं.
शायद,
उत्पीड़न और अत्याचार ही इस अनावश्यक और विनाशकारी अवस्था के लिये,
इस शर्मनाक, सिर्फ निर्धनता लाने वाले,
ख़ुद थोंपे गए अलगाव के लिये ज़िम्मेदार हैं, मगर
इसमें एक आंतरिक जर्जरता, कई सदियों की ऐतिहासिक थकान का भी
योगदान है. मुझे उनका विडम्बनापूर्ण आत्म-प्रोत्साहन, विचारों
की सदाबहार दैन्यता, संकुचित कल्पनाएँ पसंद नहीं हैं,
जैसी बूढ़ों की बुढ़ापे के बारे में और बीमारों की बीमारी के बारे में
बातें. आप सहमत हैं?”
“मैंने इस बारे में कभी
सोचा ही नहीं. मेरा एक कॉम्रेड है, गोर्दन, उसके भी ऐसे ही विचार हैं.”
“तो,
यहाँ मैं पाशा को देखने के लिये आती थी. इस उम्मीद में कि वह यहाँ आयेगा
या बाहर निकलेगा. कभी इस हिस्से में गवर्नर-जनरल का ऑफिस हुआ करता था. अब दरवाज़े
पर तख़्ती लगी है : “शिकायत-ब्यूरो”. आपने, शायद, देखा होगा? ये शहर की सबसे ख़ूबसूरत जगह है. दरवाज़े
के बाहर वाले आँगन में पत्थर जड़े हैं. चौक पार करने के बाद है सिटी पार्क. क्षारपर्णी
वनस्पती, मैपल वृक्ष, नागफ़नी. फुटपाथ
पर निवेदकों के झुण्ड में खड़ी रहती और इंतज़ार करती. ज़ाहिर है, रिसेप्शन डेस्क तक नहीं गई, नहीं बताया कि मैं बीबी
हूँ. कुलनाम तो वैसे अलग-अलग हैं. और यहाँ दिल की आवाज़ का क्या काम? उनके नियम बिल्कुल ही अलग हैं. जैसे, उसका अपना बाप
पावेल फिरापोन्तविच अंतीपव, भूतपूर्व राजकीय निर्वासित,
मज़दूर वर्ग से है, यहाँ से बिल्कुल पास ही,
हाई-वे के पास अदालत में काम करता है. अपनी पहले वाली निष्कासन की
जगह पर. और उसका दोस्त तिवेर्ज़िन. क्रांतिकारी ट्रिब्यूनल के सदस्य हैं.
तो,
आप क्या सोच रहे हैं? बेटा बाप के सामने भी
खुलकर नहीं आता है, और वह भी उसे ठीक ही समझता है. अगर बेटा
गुप्त रूप में है, मतलब, ज़ाहिर नहीं
करना चाहिये. ये पत्थर हैं, इन्सान नहीं. सिद्धांत. अनुशासन.
और बेशक,
अगर मैं साबित भी करती कि बीबी हूँ, तो समझ
रहे हो, क्या होता! यहाँ बीबियों का क्या काम है? क्या इस सब के लिये ये सही समय है? वैश्विक
प्रोलेटेरियेट, ब्रह्माण्ड का पुनर्निर्माण, ये एक अलग विषय है, मैं इसे समझती हूँ. और बीबी जैसी एक अलग दो पैरों वाली चीज़, ये, छि: छि: , ये कोई मक्खी या जूँ है.
एक एडजुटेन्ट घूम रहा था,
सवाल पूछ रहा था. कुछ लोगों को उसने भीतर जाने दिया. मैंने अपना
कुलनाम नहीं बताया, काम के बारे में सवाल का जवाब दिया कि
व्यक्तिगत काम से मिलना है. पहले से ही मालूम था कि बात बनेगी नहीं, इनकार मिलेगा. एडजुटेन्ट ने कंधे उचकाए, संदेह से
मुझे देखा. तो, मैंने एक भी बार उसे नहीं देखा.
और, क्या आप ये सोच रहे हैं कि वह हमसे नफ़रत करता है, हमसे
प्यार नहीं करता? ओह, बल्कि इसके
विपरीत! मैं उसे इतनी अच्छी तरह जानती हूँ! अत्यधिक भावनावश होने के कारण उसने ऐसा
सोचा है! वह ये सारे सैनिक-सम्मान हमारे कदमों में डाल देना चाहता है, जिससे ख़ाली हाथ न लौटे, बल्कि पूरे यश के साथ,
विजेता के रूप में आये! हमें अमर बनाने, चकाचौंध
करने के लिये! किसी बच्चे की तरह!”
कातेन्का फिर से कमरे में
आई. लरीसा फ़्योदरव्ना ने हैरान बच्ची को हाथों में लिया,
उसे झुलाने लगी, गुदगुदी करने लगी, चूमने लगी और अपने आलिंगन से उसका दम घोंटने लगी.
16
यूरी
अन्द्रेयेविच अपने घोड़े पर शहर से वरीकिना लौट रहा था. वह अनगिनत बार इन स्थानों
से गुज़र चुका था. उसे रास्ते की आदत हो गई थी, उसके
प्रति संवेदनाहीन हो गया था,
उस पर ध्यान नहीं दे रहा
था.
वह जंगल वाले चौराहे के पास जा रहा था,
जहाँ से वरीकिना के सीधे रास्ते से एक बगल वाला रास्ता सक्मा नदी के
किनारे वाली मछुआरों की बस्ती वसिलेव्स्कोए को जाता था. जहाँ ये रास्ते विभाजित
होते थे वहाँ एक तीसरा स्तम्भ भी था, जिस पर कृषि से संबंधित
कोई विज्ञापन लगा था. इस तिराहे के पास अक्सर डॉक्टर को सूर्यास्त दबोच लेता था.
इस समय भी शाम हो चली थी.
उस बात को दो महीनों से
ऊपर बीत गये थे, जब शहर की अपनी यात्रा से एक बार
वह शाम को घर नहीं लौटा था और लरीसा फ्योदरव्ना के यहाँ रुक गया था, और घर में उसने यह बता दिया कि काम के सिलसिले में शहर में ही ठहरना पड़ा
और सामदिव्यातव की सराय में ही रात गुज़ार दी. वह काफ़ी पहले ही अंतीपवा को ‘तुम’ कहने लगा था और उसे लारा कहकर बुलाता, और वह उसे – झिवागो कहती.
यूरी अन्द्रेयेविच तोन्या
को धोखा दे रहा था और उससे ऐसी बातें छुपाया करता जो अधिकाधिक गंभीर होती जा रही
थीं और अमान्य थीं. ऐसा कभी सुना नहीं था.
वह तोन्या से इबादत की हद
तक प्यार करता था. उसके मन की शांति, उसका चैन उसके
लिये दुनिया में सबसे ज़्यादा मूल्यवान थे. उसके सम्मान की रक्षा के लिये वह दृढ़ता
से खड़ा हो जाता, ख़ुद उससे और उसके पिता से भी ज़्यादा दृढ़ता
से. उसके आहत सम्मान की ख़ातिर वह अपने हाथों से अपराधी के टुकड़े-टुकड़े कर देता. और
ये अपराधी वह स्वयम् था.
घर में अपने परिवार के बीच
वह ख़ुद को ऐसा अपराधी समझता जिसका अब तक भेद नहीं खुला है. घर के लोगों का अज्ञान,
उनका सहज स्नेह उसे मारे डालते थे. आम बातचीत के बीच उसे अचानक अपने
गुनाह की याद आती, वह सुन्न हो जाता और आसपास हो रही हर बात
को सुनना और समझना बंद कर देता.
अगर ऐसा खाने की मेज़ पर
होता, तो निगला गया टुकड़ा उसके गले में अटक जाता,
वह चम्मच एक ओर रख देता, प्लेट दूर सरका देता.
आँसू उसका दम घोंटने लगते. “तुम्हें क्या हुआ है?” तोन्या
परेशान हो जाती.
“क्या तुमने शहर में कोई
बुरी बात सुनी है? क्या किसी को गिरफ़्तार कर लिया है?
या गोली मार दी है? मुझे बताओ. मुझे परेशान
करने से मत घबराओ. तुम्हें हलका महसूस होगा”
क्या किसी और को उससे
ज़्यादा महत्व देते हुए वह तोन्या से बेवफ़ाई कर रहा है?
नहीं उसने किसी को नहीं चुना है, किसी की भी
तुलना नहीं की है. “मुक्त प्रेम” के विचार, “भावनाओं के
अधिकार और उनकी माँग” जैसे शब्द उसके लिये अनजान थे. ऐसी बातों के बारे में बोलना
और सोचना उसे ओछापन लगता था. ज़िंदगी में उसने कभी “ऐशो आराम के फूल” नहीं तोड़े,
अपने आप को कोई गंधर्व या अतिमानव नहीं समझा, अपने
लिये किन्हीं विशेष सुविधाओं और लाभ की माँग नहीं की. अपवित्र चेतना के बोझ से वह टूटा
जा रहा था.
‘आगे क्या
होगा?’ कभी-कभी वह अपने आप से पूछता, और
कोई जवाब न पाने पर ये उम्मीद करता कि कोई अनपेक्षित घटना होगी, या कुछ अप्रत्याशित परिस्थितियाँ उत्पन्न होंगी जिनसे इस समस्या का हल
निकलेगा.
मगर अब वैसा नहीं था. उसने
प्रयत्नपूर्वक इस गाँठ को खोलने का फ़ैसला कर लिया. वह एक दृढ़ निश्चय के साथ घर जा
रहा था. उसने फ़ैसला कर लिया था कि तोन्या के सामने हर बात कुबूल कर लेगा,
उससे माफ़ी माँगेगा और भविष्य में फिर कभी लारा से नहीं मिलेगा.
ये सच है,
कि हर बात इतनी आसान नहीं थी. अब उसे ऐसा प्रतीत हुआ कि ये बात वह
पूरी तरह समझ नहीं पाया था, कि वह लारा से हमेशा के लिये
संबंध तोड़ने जा रहा है, सदा के लिये. उसने आज सुबह तोन्या से
सब कुछ साफ़-साफ़ कह देने की अपनी इच्छा के बारे में लारा से कह दिया था, और यह भी कि आगे उससे मिलना संभव न होगा, मगर अब उसे
ऐसा लग रहा था कि उसने यह बात काफ़ी नर्मी से, अपर्याप्त
दृढ़ता से कही थी.
लरीसा फ़्योदरव्ना दुःखभरे,
बोझिल नाटकों से यूरी अन्द्रेयेविच को परेशान नहीं करना चाहती थी.
वह समझती थी कि इस सबके बिना भी उसे कितनी पीड़ा हो रही है. वह यथासंभव शांति से
उसकी बात सुनने की कोशिश कर रही थी. उनका स्पष्टीकरण पुराने मालिकों के कुपेचेस्काया
स्ट्रीट की तरफ़ वाले खाली कमरे में चल रहा था, जहाँ लरीसा
फ़्योदरव्ना नहीं रहती थी. सामने वाले घर की पाषाण मूर्तियों के चेहरों पर बारिश के
कारण जैसे आँसू बह रहे थे, वैसे ही आँसू लारा के गालों पर
बरबस बह रहे थे जिन्हें वह महसूस नहीं कर रही थी. वह पूरी सच्चाई से, बिना महानता दिखाए, हौले से कह रही थी : “जो तुम्हें ठीक लगे, वैसा
ही करो, मेरे बारे में परेशान न हो. मैं सब कुछ बर्दाश्त कर
लूँगी”. उसे मालूम ही नहीं था कि रो रही है, और वह अपने आँसू
नहीं पोंछ रही थी.
इस ख़याल से कि लरीसा
फ़्योदरव्ना उसे गलत समझी थी और उसने झूठी आशाएँ देकर उसे भ्रम में रखा है,
वह वापस शहर जाने के लिये तैयार था, जिससे बची
हुई, अनकही बात कह सके, और, सबसे महत्वपूर्ण ख़याल ये था, कि उससे काफ़ी गर्मजोशी
और नज़ाकत से बिदा ले, जैसा हमेशा के लिये बिदा लेते समय होता
है. उसने मुश्किल से अपने आप को रोका और अपने रास्ते पर बढता गया.
जैसे-जैसे सूरज ढल रहा था,
जंगल ठण्ड और अँधेरे से भर गया. उसमें वाष्पित पत्तियों की नम गंध
फैल गई, जैसी हम्माम के प्रवेश कक्ष में होती है. मच्छरों के
स्थिर झुण्ड, जो इस तरह हवा में लटक रहे थे, मानो पानी की सतह पर तैर रहे हों, पतली आवाज़ में एक
सुर से भिनभिना रहे थे. यूरी अन्द्रेयेविच लगातार अपने माथे और गर्दन पर हथेली से उन्हें मार रहा था, और पसीने से लथपथ बदन पर हथेलियों की मार का घुड़सवारी से जुड़ी अन्य आवाज़ें
बड़े विस्मयकारी ढंग से जवाब दे रही थीं: ज़ीन के पट्टों की चरमराहट, झटके से, मचमच करते कीचड़ में घोड़े की टापों की भारी
आवाज़ें, और घोड़े की आंत से निकलती गोली चलने जैसी आवाज़ें.
अचानक दूर कहीं, जहाँ सूरज डूबने से इनकार कर रहा था,
बुलबुल गाने लगी.
“जाग! जाग!” वह पुकार रही
थी और मना रही थी, और ये जैसे ईस्टर सण्डे से पूर्व
की पुकार थी: “मेरी आत्मा, मेरी आत्मा! जाग, सोती क्यों है!”
अचानक एक सीधा-सा विचार
यूरी अन्द्रेयेविच के दिमाग में कौंध गया. जल्दी किस बात की है?
वह अपने आप को दिये गये वचन से पीछे नहीं हटेगा. भेद तो खोलेगा. मगर,
ये कहाँ कहा गया है कि ये आज ही करना होगा? फिर
तोन्या को कुछ भी नहीं बताया गया है.
स्पष्टीकरण को अगली बार के
लिये स्थगित करने में अभी देर नहीं हुई है. इस बीच वह एक और बार शहर जायेगा. लारा
के साथ बातचीत को अंत तक ले जायेगा, गहराई से और पूरी
ईमानदारी से, जो उसके सारे दुःखों को दूर कर देगी. ओह,
कितना अच्छा है! कितना बढ़िया! कितने अचरज की बात है कि ये उसके
दिमाग़ में पहले नहीं आया!
इस एहसास से कि वह अंतीपवा
को फिर से देखेगा, यूरी अन्द्रेयेविच ख़ुशी से पगला
गया. उसका दिल तेज़ी से धड़कने लगा. पूर्वाभास से उसने सब कुछ फिर से जी लिया.
उपनगरों के लकड़ी के लट्ठों
से बने पिछवाड़े, लकड़ी के फ़ुटपाथ. वह उसके पास जा
रहा है. अब, नवास्वालच्नी में शहर का
ख़ाली और लकड़ी से बना भाग ख़तम हो रहा है, पत्थर से बना भाग
शुरू हो रहा है. उपनगर के घर दिखाई देने लगते हैं, बगल से
गुज़र जाते हैं, किताब के जल्दी-जल्दी पलटे गये पन्नों की तरह,
वैसे नहीं, जब उन्हें तर्जनी से पलटते हो,
बल्कि वैसे जब अँगूठे के हल्के से दबाव से झटके से करकराते हुए
उन्हें एकसाथ भगाते हो. दिल डूबने लगता है! ये, यहाँ वह रहती
है, उस छोर पर. शाम को थोड़ा साफ़ हो गये बरसाती आसमान के सफ़ेद
टुकड़े के नीचे. उसके घर जाने वाले रास्ते पर बने इन जाने-पहचाने छोटे-छोटे घरों से
वह कितना प्यार करता है! काश, वैसे ही उन्हें ज़मीन से उठाकर
हाथ में रखता और चूम लेता! छतों पर टँकी हुई ये एक आँख वाली दुछत्तियाँ! डबरों में
परावर्तित होती हुई रोशनियों और लैम्पों की झडबेरियाँ. रास्ते के बरसाती आसमान के
उस सफ़ेद पट्टे के नीचे. वहाँ उसे इस
प्यारी सी सफ़ेदी को बनाने वाले ख़ुदा के हाथों से उपहार मिलेगा. अँधेरे में लिपटी
आकृति दरवाज़ा खोलेगी. और उसकी संयमित, ठण्डी, निकटता का वादा, जैसे उत्तर की उजली रात, जो किसी की भी नहीं होती, भागती हुई मिलने के लिये
आयेगी, जैसे समुन्दर की पहली लहर, जिसकी
ओर किनारे की रेत पर अँधेरे में भागते हो.
यूरी अन्द्रेयेविच ने लगाम
छोड़ दी, ज़ीन से आगे झुका, घोड़े की गर्दन में हाथ डाल कर उसकी अयाल में मुँह छिपा लिया. इस स्नेह को
अपनी पूरी ताकत के प्रति आह्वान समझकर घोड़ा सरपट दौड़ने लगा.
इस सरपट चाल के दौरान,
घोड़े की टापों के कभी-कभार धरती को छूने के दरमियान, जो उसकी टापों से छिटक कर पीछे की ओर उड़ रही थी, यूरी
अन्द्रेयेविच ने प्रसन्नता से झूमते दिल की धड़कनों के अलावा कुछ और चीखें भी सुनीं,
जिन्हें, उसने कल्पना का खेल समझा.
निकट ही चली गोली की आवाज़
ने जैसे उसे बहरा कर दिया. डॉक्टर ने सिर उठाया, लगाम पकड़ी,
और उसे खींचा. तेज़ दौड़ता हुआ घोड़ा लड़खड़ाया, वह
किनारे पर झुकते हुए अपने पुट्ठों पर बैठने लगा, और पिछली
टाँगों पर खड़ा होने की कोशिश करने लगा.
सामने रास्ता दो दिशाओं
में जा रहा था. उसके निकट सूर्यास्त की किरणों में “मोरा और विचिन्किन. सीडर्स
एण्ड थ्रैशर्स” का इश्तेहार चमक रहा था. रास्ते में आड़े,
उसे रोकते हुए, तीन सशस्त्र घुड़सवार खड़े थे.
एक हाई स्कूल का वियार्थी
अपने युनिफॉर्म वाली कैप और जैकेट में, जिस पर मशीन-गन
की गोलियों वाली दो बेल्ट्स क्रॉस बनाते हुए लगी थीं, ऑफ़िसर
वाला ओवर कोट और कज़ाक हैट पहने घुड़सवार दस्ते का फ़ौजी, और एक
अजीब सा मोटा, जो मानो छद्मवेष जैसी वेशभूषा में था - रज़ाई
की पतलून, रूई का जैकेट और नीचे खिंची हुई प्रीस्ट जैसी चौड़ी
किनार वाली टोपी में.
“जगह से मत हिलना,
कॉम्रेड डॉक्टर,” उन तीनों में से सबसे बड़े
वाले, कज़ान-टोपी वाले घुड़सवार फ़ौजी ने सधी हुई, शांत आवाज़
में कहा. “ अगर हमारी बात मानी तो आपकी पूरी सुरक्षा की गारंटी देते हैं. वर्ना
शिकायत मत करना, गोलियों से भून देंगे. हमारी टुकड़ी का
डॉक्टर मारा गया है. आपको मेडिकल कार्यकर्ता के रूप में ज़बर्दस्ती ले जाएँगे. घोड़े
से उतरो और लगाम छोटे कॉम्रेड को थमाओ. याद दिलाता हूँ. भागने की ज़रा सी भी कोशिश
की तो लिहाज़ नहीं करेंगे.”
“क्या आप मिकुलीत्सिन के
बेटे लाइबेरियस हैं, कॉम्रेड फ़ॉरेस्टर?”
“नहीं,
मैं उसका कम्युनिकेशन ऑफ़िसर कामेन्नाद्वोर्स्की हूँ.”
अध्याय – 10
हाइवे पर
1
वहाँ
शहर थे, गाँव थे,
कज़ाक-बस्तियाँ थीं. क्रेस्तावज़्द्विझेन्स्क शहर था, कज़ाक-बस्तियाँ अमेल्चिनो, पाझिन्स्क, तीस्यात्स्कोए, यग्लीन्स्कोए
टोला, ज़्वनार्स्काया गाँव, कज़ाक-बस्ती
वोल्नोए, गुर्तोव्शिकी, केझेम्स्काया
फ़ार्म, कज़ाक-बस्ती कज़ेयेवो, गाँव
कुतेयनी पसाद,
देहात माली एर्मलाय.
हाइवे
इनके बीच से गुज़रता था,
साइबेरिया का
पुराना-बेहद पुराना,
सबसे पुराना, प्राचीन डाक वाला रास्ता. वह, प्रमुख रास्ते के चाकू से ब्रेड की तरह शहरों को दो भागों में काटता था, और गाँवों के पास से मानो बिना मुड़े उड़ता हुआ जाता था, बिखरी हुई झोंपड़ियों को पीछे छोड़कर, या अचानक मोड़ लेकर उन्हें कमान या हुक की तरह घेरता
हुआ जाता.
बहुत
पहले, खदात्स्कोए से जाने वाली रेल्वे लाइन बिछाने से पहले, इस मार्ग पर डाक वाली त्रोयकाएँ चलती थीं. एक तरफ को
चाय, ब्रेड और लोहे की चीज़ें, फ़ैक्ट्री
के उत्पादों से भरी गाड़ियाँ चलती,
और दूसरी ओर कड़े पहरे
में पैदल कैदियों के झुण्ड हाँके जाते. वे एक ताल में चलते, एक साथ अपनी लोहे की बेड़ियाँ खनखनाते हुए, खोए-खोए,
परेशान छोटे-छोटे सिर, आसमानी बिजली जैसे डरावने. और चारों ओर अँधेरे, घने,
अभेद्य जंगल शोर मचाते.
हाइवे
एक परिवार की तरह था. सारे शहर एक दूसरे को जानते थे और मिलजुल कर रहते थे, गाँव भी गाँव के साथ हिलमिल कर रहते थे. खदात्स्कोए
में जहाँ हाइवे रेल्वे लाइन को काटता था इंजिन मरम्मत के कारखाने थे, रेल्वे लाइन की सहायक दुरुस्ती की दुकानें थीं, बैरेक्स में अभागे लोगों को ठूँसा जाता, वहीं वे बीमार हो जाते, मर
जाते. अपने कठोर कारावास की सज़ा काट चुके राजनैतिक कैदी, जिन्हें तकनीकी ज्ञान था, यहाँ फोरमैन
बनकर आते, यहीं बस्ती में रह जाते.
इस
पूरी लाइन पर आरंभिक सोवियतों का बहुत पहले तख़्ता पलट दिया गया था. कुछ समय तक
साइबेरियन अस्थाई सरकार का शासन रहा,
मगर अब उसके बदले इस
पूरे प्रदेश में सर्वोच्च शासक कल्चाक की सरकार आ गई थी.
2
एक
जगह पर रास्ता बड़ी दूर तक पहाड़ पर जा रहा था. दूर का दृश्य अधिकाधिक विस्तृत होता
जा रहा था. ऐसा लगता कि कि चढ़ाई और चारों ओर के दृश्य के विस्तार का कोई अन्त ही
नहीं है. और जब घोड़े और लोग थक जाते और साँस लेने के लिये रुक जाते तो चढ़ाई ख़त्म
हो जाती. सामने रास्ते पर बने पुल के नीचे से तेज़ बहाव वाली नदी केझ्मा दिखाई
देती.
नदी
के पीछे और ज़्यादा खड़ी चढ़ाई पर वज़्द्वीझेन्स्की मॉनेस्ट्री की ईंटों की दीवार
दिखाई देती. रास्ता नीचे से मॉनेस्ट्री वाली पहाड़ी का चक्कर लगाता और आसपास के
घरों के कुछ पिछवाड़ों के बीच से मुड़ता हुआ शहर के भीतर चला जाता.
वहाँ
वह मुख्य चौक पर एक बार फिर मॉनेस्ट्री की जायदाद से मिलया, जहाँ मॉनेस्ट्री के हरे रंग में रंगे हुए लोहे के
ग़ेट्स खुलते. प्रवेश द्वार की कमान पर लगी प्रतिमा पर आधी पुष्प माला की तरह
सुनहरे अक्षरों में इबारत लिखी थी: “आनन्दित हो, जीवनदायी
सलीब, पवित्रता की अजेय जीत”.
सर्दियाँ
समाप्त हो रही थीं,
लेण्ट के पवित्र सप्ताह
का अंत हो रहा था. शुरू हो चुकी पिघलन को उजागर करते हुए रास्तों पर बर्फ काली हो
रही थी, मगर छतों पर वह अभी भी सफ़ेद थी और ऊँची, घनी टोपियों की तरह लटक रही थी.
वज़्द्विझेन्स्काया
घंटाघर के घण्टों पर चढ़े हुए बच्चों को ऐसा प्रतीत हो रहा था कि नीचे वाले घर अपनी
जगह से हट कर छोटे-छोटे बक्सों या मेज़ की दराज़ों की तरह एक झुण्ड में इकट्ठा हो
गये हैं. घरों की तरफ़ एक बिंदु जितने आकार के छोटे-छोटे काले लघु मानव जा रहे थे. कुछ
को तो उनके चलने के तरीके से घण्टाघर की ऊँचाई से पहचाना जा सकता था. नज़दीक आये
हुए लोग दीवारों पर चिपकाई हुई सर्वोच्च शासक की आज्ञा पढ़ रहे थे जिसमें तीन प्रकार
के आयु-वर्गों के लोगों को फ़ौज में शामिल होने का आह्वान किया गया था.
3
रात
कई अप्रत्याशित बातें लेकर आई. मौसम गर्म हो गया, जो इस
समय के हिसाब से असाधारण है. मोतियों जैसी बारिश हो रही थी, इतनी हल्की, कि
लगता था, वह ज़मीन को छू ही नहीं रही है, और धुँए जैसी पनीली फ़ुहार से हवा में बिखर रही है. मगर
ये सिर्फ आभास था. उसका गर्म,
धाराओं के रूप में बह
रहा पानी, ज़मीन से बर्फ को पूरी तरह साफ़ करने के लिये पर्याप्त
था. ज़मीन अब पूरी काली हो गई थी, चमक रही थी, जैसे
पसीने में भीगी हो.
सेबों
के छोटे-छोटे पेड़,
जो कलियों से ढँके थे, आश्चर्यजनक तरीके से बागों की बागडों से बाहर सड़क पर
अपनी टहनियाँ उछाल रहे थे. पानी की बूँदें गुस्से से आवाज़ करते हुए टहनियों से लकड़ी
के फुटपाथों पर गिर रही थीं. उनकी ड्रम जैसी आवाज़ पूरे शहर में गूँज रही थी.
फोटोग्राफ़रों
के आँगन में सुबह तक के लिये जंज़ीर से बँधा हुआ पिल्ला तोमिक भौंक रहा था और दबी
आवाज़ में रो रहा था. हो सकता है,
उसके भौंकने से चिढ़कर
गालुज़िनों के बगीचे में पूरे शहर को सुनाई दे इतने ज़ोर से कौआ काँव-काँव कर रहा
था.
शहर
के निचले हिस्से में व्यापारी ल्युबेज़्नव के यहाँ तीन गाड़ियों में भरकर माल लाया
गया. उसने उसे लेने से ये कहकर इनकार कर दिया कि ये गलती से हुआ है और उसने इस माल
के लिये कभी ऑर्डर दिया ही नहीं था. देर हो जाने के कारण नौजवान मज़दूरों ने उसके
यहाँ रात बिताने की इजाज़त माँगी. व्यापारी ने उनसे झगड़ा करके उन्हें भगा दिया और
उनके लिये गेट नहीं खोला. उनका झगड़ा भी पूरे शहर में सुनाई दे रहा था.
चर्च
के समय के हिसाब से सात बजे,
और आम समय के हिसाब से
रात के एक बजे,
वज़्द्विझेन्ये के सबसे
भारी और मुश्किल से हिल रहे घण्टे से एक शांत, उदास
और मीठी गुनगुनाहट अलग हुई और बारिश की धुँधली नमी से मिलकर तैरने लगी. वह घण्टे
से टकराई, जैसे बाढ़ के पानी से ज़मीन का कोई टुकड़ा किनारे से
छिटककर डूब जाता है,
और नदी में पिघल जाता
है.
यह
पवित्र गुरुवार का दिन था,
बारह सुसमाचारों का दिन.
बारिश के जालीदार परदे के पीछे गहराई में मुश्किल से दिखाई दे रही रोशनियाँ और
उनसे प्रकाशित माथे,
नाक, चेहरे तैर रहे थे, प्रायश्चित्त
करने वाले सुबह की प्रार्थना के लिये जा रहे थे.
पन्द्रह
मिनट बाद मॉनेस्ट्री से फुटपाथ के तख़्तों पर निकट आती हुई कदमों की आहट सुनाई दी.
ये दुकानदारिन गलूज़िना थी,
जो अभी-अभी शुरू हुई
प्रातःकालीन प्रार्थना से घर लौट रही थी. सिर
पर रूमाल डाले,
और अपने ओवरकोट के बटन
खोले वह असमान चाल से जा रही थी,
कभी दौड़ती, कभी रुक जाती. चर्च की उमस में उसकी तबियत बिगड़ गई थी
और वह खुली हवा में निकल आई थी,
मगर अब उसे शर्म आ रही
थी और दुख हो रहा था कि प्रार्थना पूरी नहीं कर पाई और लगातार दो सालों से
पश्चात्ताप भी नहीं कर पाई. मगर उसके दुख का यह कारण नहीं था. दिन में हर जगह
चिपकाए गये फ़ौज में भरती वाले ऑर्डर के कारण उसे बहुत दुख हुआ था, जिसे लागू करने से उसका बेचारा बेवकूफ़ बेटा तेरेशा फँस
सकता था. उसने इस अप्रसन्नता को दिमाग़ से निकाल दिया, मगर
अँधेरे में हर जगह चमकता घोषणा वाला सफ़ेद कागज़ उसे उसकी याद दिला देता.
घर
नुक्कड़ के पीछे ही था,
हाथ भर की दूरी पर, मगर उसे बाहर आज़ादी में ज़्यादा अच्छा लग रहा था.
उसका
मन कुछ देर खुली हवा में रहने को चाह रहा था, उसे घर
की उमस में जाने की जल्दी नहीं थी.
दिमाग़
में दुखभरे विचारों का तूफ़ान था. अगर वह ज़ोर से उनके बारे में सोचने लगती तो सुबह
तक तक न तो उसके शब्द ख़त्म होते और न ही समय पर्याप्त होता. मगर यहाँ, रास्ते पर,
इन अप्रसन्न कल्पनाओं के
खुण्ड़ के झुण्ड उड रहे थे,
और अगर वह मॉनेस्ट्री के
कोने से चौक के नुक्कड़ तक दो-तीन चक्कर लगाए तो कुछ ही मिनटों में उन सबसे छुटकारा
पाया जा सकता था.
पवित्र
त्यौहार सिर पर है,
मगर घर में एक भी इन्सान
नहीं है, सब चले गये, उस
अकेली को छोड़ दिया है. और क्या,
अकेली नहीं तो क्या? बेशक,
अकेली को. उसकी पाल्य क्स्यूशा
की कोई गिनती नहीं है. और वह है कौन?
पराई लड़की है. हो सकता
है, वह दोस्त हो, हो
सकता है – दुश्मन,
हो सकता है रहस्यमय
प्रतिद्वंद्वी हो. पति की पहली शादी से विरासत में आई है, व्लासूश्किन की गोद ली हुई बेटी. और, हो सकता है कि गोद न लिया हो, अवैध हो?
और, ये भी हो सकता है, कि
बेटी ही न हो,
बल्कि कोई और ही किस्सा
हो! क्या मर्द की रूह में झाँक सकते हो? मगर, लड़की के ख़िलाफ़ कहने को कुछ नहीं है. होशियार, ख़ूबसूरत,
अनुकरणीय. बेवकूफ़
तेरेश्का और दत्तक बाप से कहीं ज़्यादा समझदार है.
तो, पवित्र देहलीज़ पर अकेली रह गई है वह, छोड़ दिया,
चले गये, कोई कहीं,
कोई कहीं.
पति
व्लासूश्का हाइवे पर गया है नये रंगरूटों को भाषण देने गया है, ये समझाने कि हथियारों से कैसे साहसिक कार्य करना है. इससे
तो बेहतर होता,
कि बेवकूफ़ अपने सगे बेटे
की फ़िक्र करता,
उसे मौत के ख़तरे से
बचाता.
बेटे
तेरेशा से रहा नहीं गया,
वह भी भाग गया, पवित्र त्यौहार की पूर्व संध्या को. कुतेयनी पसाद गया
है रिश्तेदारों के यहाँ,
दिल बहलाने, जिससे, जो कुछ भी हुआ उससे कुछ सुकून पा सके. छोटे बच्चे को
हाई स्कूल से निकाल दिया. आधी कक्षाएँ तो दो-दो साल में पूरी कीं, बिना किसी सज़ा के, मगर
आठवीं कक्षा में उन्होंने कोई लिहाज नहीं किया, बाहर
निकाल दिया.
आह, कितना दुख है! ओह, ख़ुदा!
इतना बुरा क्यों हुआ,
हाथ ढीले पड़ रहे हैं. हर
चीज़ हाथों से छूटी जाती है,
जीने को दिल नहीं चाहता!
ऐसा क्यों हुआ?
क्या इसलिये, कि क्रांति हो गई है? नहीं, आह,
नहीं! ये सब युद्ध के
कारण हुआ है. युद्ध में असली,
बहादुर मर्द मारे गये और
बचे हैं सिर्फ सड़े-गले,
जो किसी काम के नहीं, जिनकी कहीं ज़रूरत नहीं.
क्या
बाप के घर में ऐसा था,
कॉन्ट्रैक्टर बाप के घर
में? बाप पीता नहीं था, पढ़ा
लिखा था, घर हर चीज़ से भरा-पूरा था. और दो बहनें पोल्या और
ओल्या. उनके नाम भी ऐसे सुर में थे,
वैसे ही वे भी एक दूसरे
के समान थीं,
एक जैसी ख़ूबसूरत. और बढ़ई
लोगों के फोरमैन जो पिता के पास आया करते, वे भी
ख़ूबसूरत, रोबीले और ताकतवर थे. या फ़िर, अचानक उनके दिल में ख़याल आया – घर में किसी चीज़ की
कमी नहीं थी – उन्होंने छह रंगों की ऊन से स्कार्फ़ बुनने का फ़ैसला किया, ग़ज़ब की कल्पनाशील थीं. फ़िर क्या,
ऐसी बुनने वाली निकलीं
कि पूरे जिले में स्कार्फों की प्रशंसा होने लगी. और ऐसा था, कि हर चीज़ अच्छी लगती गहराई और सामंजस्य के कारण –
चर्च की सर्विस,
नृत्य, लोग,
आदतें, हालाँकि परिवार सीधे-सादे लोगों का ही था, मध्यमवर्गीय, किसानों
और मज़दूरों वाला. और रूस भी नवयुवती की ही तरह था और उसके भी अपने चाहने वाले थे, रक्षा
करने वाले थे,
जिनका आजकल के लोगों से
कोई मुकाबला नहीं है. मगर अब तो हर चीज़ से चमक हट गई है, सिर्फ सरकारी कचरा है, वकील
हैं, और यहूदी हैं, दिन-रात
बिना थके बस लब्ज़ों को चबाये जाते हैं,
लब्ज़ों से दबाव डालते
हैं.
व्लासूश्का
और उसके दोस्त सोचते हैं कि पुराने,
सुनहरे समय को शैम्पेन
और शुभ कामनाओं से ललचाया जा सकता है. मगर क्या इस तरह से खोया हुआ प्यार वापस आ
सकता है? इसके लिये चट्टानों को मोड़ना होगा, पहाड़ों को हटाना होगा, ज़मीन
खोदना होगा!
4
गलूज़िना
कई बार मार्केट तक आ चुकी थी,
जो क्रेस्तावज़्द्विझेन्स्क
का शॉपिंग सेन्टर है. यहाँ से उसके घर के लिये बाएँ मुड़ना होता था. मगर हर बार वह इरादा
बदल देती, वापस मुड़ जाती और फ़िर से मॉनेस्ट्री से लगी गलियों में
खो जाती.
मार्केट
वाले चौक का क्षेत्रफ़ल एक बड़े खेत जितना था. पुराने ज़माने में हाट के दिनों में
किसान उसे अपनी गाड़ियों से पूरा ढाँक देते थे. उसका एक सिरा एलेनिन्स्काया स्ट्रीट
तक जाता था. दूसरे सिरे पर कमान के आकार में छोटे-छोटे एक या दो मंज़िला घर बने हुए
थी. इन घरों में गोदाम,
दफ़्तर, व्यापारी-संस्थान, कारीगरों
के कारखाने थे.
यहाँ
शांति के दिनों में,
अपने लोहे के चार पल्लों
वाले दरवाज़े की देहलीज़ के पास,
लम्बे पल्ले वाला कोट और
चश्मा पहने, औरतों से नफ़रत करने वाला बदतमीज़-भालू ब्रुखानव, जो चमड़े,
तार कोल, पहियों,
घोड़ों की ज़ीनों, जई और घास का व्यापार करता था, “गज़ेता-कपेयका” (तत्कालीन अख़बार) पढ़ते हुए कुर्सी पर बैठा
करता.
यहाँ
एक धुँधली छोटी-सी खिड़की में कई सारे पुट्ठे के डिब्बे धूल खाते हुए पड़े थे, जिनमें
‘वेडिंग-कैण्डल्स’ के फीतों और छोटे-छोटे गुलदस्तों से सजाए हुए जोड़े रखे
थे. खिड़की के पीछे,
छोटे-से खाली कमरे में
कोई फर्नीचर नहीं था और किसी भी माल का कोई नामो-निशान नहीं था, अगर एक के ऊपर एक रखे हुए मोम के कई छल्लों को न गिना
जाये तो. यहाँ से मोमबत्तियों के किसी करोड़पति व्यापारी के साथ, जो न जाने कहाँ रहता था, गोंद, मोम,
और मोमबत्तियों का
एजेन्ट्स के माध्यम से हज़ारों का लेन-देन होता था.
यहाँ
सड़क पर बनी दुकानों की कतार के बीच में गलूज़िनों की तीन खिड़कियों वाली बड़ी, औपनिवेशिक शैली की दुकान थी. उसमें चिपटियाँ जड़े, बिना रंगे फर्श को दिन में तीन बार झाडकर चाय की गिरी
हुई पत्तियाँ हटाई जाती थीं,
जिसे मालिक और नौकर पूरे
दिन बेहिसाब पिया करते. यहाँ युवा मालकिन अक्सर और ख़ुशी से काउन्टर के पीछे बैठा
करती. उसकी पसंद का रंग था हल्का चमकीला गुलाबी-बैंगनी, जो था
चर्च के विशेष समारोहों का रंग,
लिली की कली का रंग, उसकी बेहतरीन मखमल की पोषाक का रंग, उसकी मेज़ पर मौजूद वाईन ग्लासेस का रंग. खुशी का रंग, यादों का रंग, क्रांतिपूर्व
रूस के ढल चुके कुँआरेपन का रंग भी उसे चमकीला हल्का गुलाबी ही प्रतीत होता. और
उसे दुकान में काऊंटर के पीछे बैठना अच्छा लगता, क्योंकि
स्टार्च, शक्कर और शीशे के बर्तन में रखी गहरे बैंगनी रंग की
शुगर-कैण्डीज़ की ख़ुशबू से महकती उस जगह की धुंधली बैंगनी शाम का रंग उसकी पसन्द का
था.
यहाँ
कोने में, लकड़ी के टाल की बगल में एक पुराना, भूरे रंग का दुमंज़िला घर था, जो किसी सेकण्ड हैण्ड कोच की तरह चारों तरफ़ से धँस रहा
था. इसमें चार फ्लैट्स थे. उनके दो प्रवेश द्वार थे, दर्शनीय
भाग के दोनों कोनों पर. नीचे वाले बायें हिस्से में ज़ालकिन्द की दवाइयों की दुकान
थी, दाईं ओर – नोटरी का दफ़्तर था. दवाइयों की दुकान के ऊपर
बड़े परिवार वाला लेडीज़ टेलर श्मूलेविच रहता था. टेलर के सामने, नोटरी के ऊपर बहुत सारे लोग रहते थे, जिनके व्यवसायों के बारे में पूरे प्रवेश द्वार को
ढाँकती हुई तख़्तियाँ और इश्तेहार सूचित करते थे. यहाँ घड़ियों की मरम्मत होती थी, और मोची भी ऑर्डर्स लेता था. यहाँ ‘झूक एण्ड श्त्रोदाख’ कम्पनी
का फोटो स्टूडियो था,
यहाँ कामिन्स्की के
नक्काशी काम की दुकान थी.
उस
भीड़-भाड़ वाले फ्लैट में जगह की तंगी के कारण फोटोग्राफ़रों के नौजवान सहायकों, परिष्कारक सेन्या मगिद्सन और स्टूडेन्ट ब्लाझैन ने
लकड़ी के टाल के कम्पाउण्ड में प्रवेश डेस्क में एक छोटी-सी लैबोरटरी बना ली. दफ़्तर
की छोटी-सी खिड़की में चकाचौंध करने वाली लाल रोशनी बिखेरते हुए डेवेलपिंग लैम्प अपनी
गुसैल आँख झपका रहा था जिसे देखते हुए,
ज़ाहिर था, कि वे अभी भी वहाँ काम कर रहे थे. इसी खिड़की के नीचे कुत्ते का पिल्ला तोमिक बैठा था, जिसके भौंकने की आवाज़ पूरी एलेनिन्स्काया स्ट्रीट पर
सुनाई देती थी.
‘यहूदियों
की पूरी बस्ती जमा हो गई है’,
भूरे रंग के घर के पास
से गुज़रते हुए गलूज़िना ने सोचा. “ग़रीबी और गंदगी का अड्डा’, मगर उसने फ़ौरन तर्क किया, कि
अपने यहूदी-फ़ोबिया में व्लास पखोमविच सही नहीं है. साम्राज्य के पहिये में ये कोई
बड़ी कमानी नहीं हैं,
कि उसके भाग्य को
प्रभावित करें. फिर,
बूढ़े श्मूलेविच से पूछो, कि ये अराजकता और परेशानी किसलिये है, वह झुक जायेगा, मुँह
टेढ़ा कर लेगा और दाँत दिखाते हुए कहेगा : लैबच्का (यहाँ लेव त्रोत्स्की से तात्पर्य है - अनु.) की शरारत फ़ितूर
है”.
आह, वह किस बारे में, किस
बारे में सोच रही है,
किस बात पर अपना सिर फोड़
रही है? क्या समस्या यही है? क्या
मुसीबत इसी बात में है?
मुसीबत शहरों में है.
रूस उन पर टिका हुआ नहीं है. शिक्षा के लालच में आकर, शहर
वालों की ओर खिंचे चले गये और कुछ भी हासिल नहीं कर पाये. अपने किनारे से पीछे रह
गये और पराये किनारे पर पहुँच नहीं पाये.
और, हो सकता है कि इसका उल्टा हो, सारा दोष अज्ञानता का है. पढ़ा लिखा इन्सान धरती के
आर-पार देखता है,
हर चीज़ के बारे में पहले
से अंदाज़ लगा लेता है. और हम हैं कि जब सिर काट देते हैं, तब टोपी ढूँढ़ते हैं. जैसे घने जंगल में हों. अब तो
पढ़-लिखे लोगों के लिये भी हालात अच्छे नहीं हैं. खाने की कमी लोगों को शहरों से
भगा रही है. सोचते रहो. ख़ुद शैतान भी नहीं समझ पायेगा.
मगर, फिर भी क्या हमारे गाँव के रिश्तेदार उनसे अलग नहीं
हैं? सेलित्विन,
शेलाबूरिन, पाम्फिल पालिख, नेस्तर
और पन्क्रात मोदिख भाई?
अपने मालिक आप हैं, उनके अपने मुखिया हैं. हाइवे
पर नये खेत हैं,
अच्छे लगते हैं. हरेक के
पास करीब चालीस एकड़ में बुआई हुई है,
घोड़े हैं, भेड़ें हैं,
गाये हैं, सुअर हैं. आने वाले तीन सालों के लिये अनाज का स्टॉक
है.
सामान
की फ़ेहरिस्त - देखकर मज़ा आ जाता है.
हार्वेस्टिंग मशीनें. कल्चाक उनकी ख़ुशामद करता है, अपने
पास बुलाता है,
कमिसार फॉरेस्ट-फ़ौज में
आने का लालच देते हैं. युद्ध से जॉर्जियन तमग़े लेकर लौटे, और फ़ौरन प्रशिक्षक के रूप में उनकी माँग बढ़ गई.
तुम्हारे पास शोल्डर-स्ट्रैप्स हों या न हों, अगर
तुम जानकार आदमी हो तो हर जगह तुम्हारी माँग है. बेकार नहीं बैठोगे.
मगर
अब घर लौटने का समय हो गया है. औरत को इतनी देर भटकना नहीं चाहिये. अपने बाग में
ही अच्छा रहेगा. मगर वहाँ गीला है,
कीचड़ में फँस जाओगे. अब
कुछ अच्छा लग रहा है.
और
आख़िर में अपने विचारों में पूरी तरह उलझ कर गलूज़िना उनका तारतम्य खो बैठी और घर की
ओर चल दी. मगर उसकी देहलीज़ पार करने से पहले, ड्योढ़ी
के सामने पैर झटकते समय उसने अपने विचारों में कई सारी चीज़ों को देख लिया.
उसे
खदात्स्कोए के आजकल के लीडर्स को याद किया, जिनके
बारे में उसे काफ़ी जानकारी थी,
राजधानी से आये हुए राजनैतिक
निर्वासित, तिवेर्ज़िन,
अंतीपव, अराजकतावादी व्दवीचेन्का-चोर्नए ज़्नाम्या, यहाँ का ताले बनाने वाला गर्शेन्या बेशेनी. ये सब लोग
अपने-अपने विचार रखते थे. अपने ज़माने में उन्होंने काफ़ी गड़बड़ की थी, कुछ तो अभी भी ज़रूर सोच ही रहे होंगे, तैयारी कर रहे होंगे. बगैर ऐसा किये रह नहीं सकते.
ज़िंदगी मशीनों पर गुज़ारी है और ख़ुद निर्दयी, ठण्डे
है, मशीनों की ही तरह. स्वेटर के ऊपर छोटे जैकेट पहने, पतलूनों
में घूमते हैं,
बोन-पाइप में रखकर
सिगरेट के कश लगाते हैं,
जिससे कोई संक्रमण न हो, उबला हुआ पानी पीते हैं. व्लासूश्का का कुछ नहीं होने
वाला, ये अपने तरीके से सब पलट कर रख देंगे, हमेशा अपने ही तरीके से करते हैं.
और
वह अपने बारे में सोचने लगी. वह जानती थी कि वह एक अच्छी, मौलिक औरत है, उसने
अपने आप को अच्छी तरह रखा है और वह बुद्धिमान है, बुरी
इन्सान नहीं है. मगर इनमें से किसी भी गुण को इस पिछड़े हुए छेद में मान्यता नहीं
मिली, और शायद,
कहीं भी नहीं मिलती. और
उसे बेवकूफ़ सेंतात्यूरिखा के बारे में लिखी अश्लील कविता की याद आ गई, जो युराल-पार भी प्रसिद्ध थी, जिसकी आरंभिक दो पंक्तियाँ दी जा सकती हैं:
सेन्तेत्यूरिखा ने बेची बैलगाड़ी,
उन पैसों से ख़रीदा बलालाय्का बाजा,
इसके
आगे अश्लीलताएँ थीं,
क्रेस्तोवज़्दिझेन्स्की
में, उसे शक हो रहा था, कि उसे
ताने देते हुए गा रहे थे.
और, कटुता से आह भरकर वह घर के भीतर गई.
5
प्रवेश
कक्ष में न रुकते हुए,
वह वैसे ही ओवरकोट पहने
अपने शयन कक्ष में आ गई. कमरे की खिड़कियाँ बाग में खुलती थीं. अब, रात को,
खिड़की के सामने भीतर जमा
हो गईं और खिड़की से बाहर की परछाइयाँ लगभग एक दूसरे को दुहरा रही थीं. खिड़कियों के
परदों की सिमटती हुई थैलियाँ कम्पाउण्ड के पेड़ों की सिमटी हुई टहनियों जैसी थीं, नंगी और काली, अस्पष्ट
आकृतियों जैसी. बाग में ख़तम हो रही शीत ऋतु की रात के टैफ़ेटा जैसे अँधेरे को निकट
आ रहे बसंत की धरती से आ रही गहरी बैंगनी उष्णता गर्मा रही थी. कमरे में लगभग उसी
तरह का नज़ारा था,
और परदों की धूलभरी उमस
को निकट आते त्यौहार का गहरा बैंगनी रंग नज़ाकत से आलोकित कर रहा था.
चांदी
की फ्रेम से मदर मैरी की प्रतिमा अपनी साँवली, छोटी-छोटी
हथेलियाँ ऊपर उठाये हुए थी. उसने अपने हथेलियों में जैसे अपने बीज़न्टीन ग्रीक नाम
का आरंभिक और अंतिम अक्षर पकड़ रखा था : मेतेर थिओ, ‘मदर ऑफ
गॉड’ .
दावात की तरह काला, सुनहरे लैम्प-स्टैण्ड में रखा प्रतिमा का ग्रेनाइट
काँच का लैम्प शयनकक्ष के कालीन पर कप के कंगूरों से टूटे हुए टिमटिमाते सितारे
बिखेर रहा था.
रूमाल
और फ़र का ओवरकोट उतार कर फेंकते हुए, गलूज़िना अटपटेपन से मुड़ी और उसकी पसली में फिर से चुभन
हुई और कंधे की हड्डी तक दर्द की लहर दौड़ गई. वह चिल्लाई, घबरा गई,
बुदबुदाने लगी:
“मुसीबतज़दा लोगों का बड़ा सहारा,
पवित्र ख़ुदा की माँ, फ़ौरन मदद करने वाली, दुनिया
की सुरक्षा करने वाली”,
और रो पड़ी. फिर कुछ देर
ठहर कर, जब दर्द कुछ कम हुआ, तो
कपड़े उतारने लगी. कॉलर के पीछे और पीठ वाले हुक उसके हाथों से फ़िसल गये और धुँधले
रंग के कपड़े की सलवटों में घुस गये. वह मुश्किल से उन्हें टटोल रही थी.
उसके
आने से जाग गई दत्तक पुत्री क्स्यूशा कमरे में आई.
“आप
अँधेरे में क्यों हैं,
मम्मा? क्या मैं लैम्प ले आऊँ?”
“ज़रूरत
नहीं है. वैसे भी दिखाई दे रहा है.”
“मम्मा, ओल्गा निलोव्ना, लाइये, मैं खोल देती हूँ. परेशान होने की ज़रूरत नहीं है.”
“ऊँगलियाँ
सुनती ही नहीं है,
चाहे रो ही दो. उस यहूदी
के पास इन्सान की तरह हुक सीने की अकल ही नहीं थी, अंधी
मुर्गी. पूरा नीचे तक फ़ाड़कर उसके थोबड़े पर फेंकना चाहिये.”
“वज़्द्विझेन्ये
में अच्छा गा रहे थे. रात ख़ामोश है. हवा आवाज़ों को यहाँ तक खींच कर ला रही थी.”
“गा
तो अच्छा रहे थे. मगर,
मेरी माँ, मेरी तबियत ख़राब हो गई है. फिर से चुभन हो रही है, यहाँ भी और यहाँ भी. हर जगह. देख, कितना दर्दनाक है. मालूम नहीं, क्या करना चाहिये.”
“होमिओपैथ
स्तिब्दोस्की से आपको फ़ायदा हुआ था.”
“उसकी
हिदायतों पर हमेशा अमल नहीं किया जा सकता. घोड़ों का डॉक्टर निकला तेरा होमिओपैथ.
ना तो मछलियों का,
ना ही पंछियों का. ये
हुई पहली बात. और दूसरी बात ये,
कि वह चला गया. चला गया, चला गया. हाँ और वह अकेला ही नहीं गया. त्यौहार के
पहले सभी लोग शहर से भाग गये. क्या किसी भूकम्प का अंदेशा है क्या?”
“ओह, उस समय हंगरी के कैदी डॉक्टर ने आपका अच्छा इलाज किया
था.”
“फिर
वही ऊटपटांग बात. तुझसे कह रही हूँ,
कि कोई नहीं बचा है, सब भाग गये. केरेनी लायोश अन्य हंगेरियन्स के साथ सीमा
रेखा के पार पहुँचा. बेचारे को फ़ौज में काम करने पर मजबूर कर दिया. रेड-आर्मी में
भर्ती कर लिया”.
“आपको
सिर्फ एक ही शक है. कार्डियाक न्यूरोसिस. यहाँ आम लोगों की सलाह ग़ज़ब का फ़ायदा देती
है. याद है, वह उस कनफुसकी फ़ौजी ने अच्छी तरह आपका इलाज किया था.
हाथ का दर्द बिल्कुल ख़त्म हो गया था. भूल गई, क्या
नाम था उसका,
फ़ौजी औरत का. नाम भूल गई.”
“मुझे
पता है, कि तू मुझे पूरी सिरफ़िरी समझती है. मेरे पीछे मेरे
बारे में सेन्तेत्यूरिखा का गाना गाती है”.
“ख़ुदा
से डरिये! अज़ाब लगेगा,
मम्मा. बेहतर है कि फ़ौजी
औरत का नाम याद करें. क्या है. बिल्कुल ज़ुबान पर घूम रहा है. जब तक याद नहीं आयेगा, चैन नहीं पड़ेगा”.
“उसके
पास तो जितने स्कर्ट हैं,
उससे भी ज़्यादा नाम हैं. पता नहीं,
तुझे कौनसा चाहिये. उसे
कुबारिखा कहते हैं, मेद्वेदिखा भी, और
ज़्लीदारिखा भी. और ऊपर से दसियों उपनाम भी हैं. वह भी आसपास नहीं है. सैर-सपाटा
ख़त्म हुआ, अब खेत में हवा ढूँढ़ते रहो. ख़ुदा की ख़िदमतगार को केझेम
की जेल में बंद कर दिया. गर्भ को ज़हर और कोई चूर्ण देकर ख़त्म करने के जुर्म में.
और वह, पता है,
सलाखों के पीछे ‘बोर’
होने के बजाय जेल से
कहीं सुदूर पूरब भाग गई. मैं तुझसे कह तो रही हूँ, सब
इधर-उधर भाग गये. व्लास पखोमिच. तेरेशा, नरम
दिल वाली आन्टी पोल्या. ईमानदार औरतें सिर्फ मैं और तू ही बची हैं, पूरे शहर में दो बेवकूफ़, मैं
मज़ाक नहीं कर रही हूँ. और कोई डॉक्टरी मदद भी नहीं है. अगर कुछ हो जाये, तो समझो,
किस्सा ख़तम, किसी को पुकार नहीं सकते. सुना है,
कि मॉस्को की एक मशहूर
हस्ती युर्यातिन में है,
प्रोफेसर, साइबेरिया के व्यापारी का बेटा जिसने आत्महत्या कर ली
थी. जब तक मैं उसे बुलाने के बारे में सोच रही थी, रास्ते
पर रेड-आर्मी ने बीस घेरे डाल दिये,
कहीं छींकने को भी जगह
नहीं है. और अब दूसरी बात के बारे में. सोने के लिये चली जा और मैं भी सोने की
कोशिश करती हूँ. उस स्टूडेन्ट ब्लाझैन ने तुम्हें दीवाना बना दिया है. इनकार करने
का कोई फ़ायदा नहीं है. वैसे भी छुपा तो नहीं पाओगी, देखो, केंकडे की तरह लाल हो गई हो. त्यौहार की पावन रात को
तेरा स्टूडेन्ट,
बेचारा अभागा, फोटोग्राफ़्स के ऊपर मेहनत कर रहा है, मेरे फ़ोटोग्राफ़्स डेवेलप कर रहा है और प्रिन्ट कर रहा
है. न तो ख़ुद सोते हैं और न दूसरों को सोने देते हैं. उनका तोमिक इतनी ज़ोर से
भौंकता है कि पूरा शहर सुनता रहता है. और शैतान कौआ हमारे सेब के पेड़ पर काँव-काँव
करने लगा, ज़ाहिर है कि मैं पूरी रात सो नहीं पाऊँगी. और तू, क्या वाकई में बुरा मान गई, छुई-मुई
कहीं की? स्टूडेन्ट्स होते ही इसलिये हैं कि लड़कियों को अच्छे
लगें.
6
“ये कुत्ता क्यों इस तरह
गला फाड़े जा रहा है? देखना चाहिये कि बात क्या है.
यूँ ही वह नहीं भौंकेगा. ठहर, भाड़ में जा, लीदच्का, एक मिनट के लिये चुप हो जा. हालात का जायज़ा
लेना होगा. समय अच्छा नहीं है, कोई टोली हम पर टूट पड़ेगी.
तुम जाना नहीं, उस्तीन. और सीवाब्ल्युय, तुम भी यहीं खड़े रहो. आपके बगैर निपट लेंगे.”
सेन्टर के प्रतिनिधि ने
सुना ही नहीं कि उससे रुकने और कुछ देर इंतज़ार करने की विनती की जा रही है,
वह थके हुए वक्त्ता जैसी जल्दी-जल्दी अपना भाषण देता रहा:
“साइबेरिया में मौजूद बुर्जुआ-फ़ौजी
सरकार अपनी लूट-पाट, टैक्सेशन, हिंसाचार, गोलीबारी और यातना वाली राजनीति के कारण
उनकी आँखें खोल देगी जो भ्रम में हैं. वह न केवल श्रमिक वर्ग की दुश्मन है,
बल्कि परिस्थिति को देखते हुए यह स्पष्ट है कि वह सभी मेहनतकश
किसानों के लिये भी हानिकारक है. साइबेरिया और युराल के मेहनतकश किसानों को समझना
चाहिये कि सिर्फ शहरी सर्वहारा वर्ग और सैनिकों के साथ मिलकर ही, किर्गिज़ और बुर्यातिन के गरीबों के साथ...”
आख़िरकार उसने सुन लिया कि
उसे रोका जा रहा है, वह रुक गया, रूमाल से चेहरे का पसीना पोंछा, फूली हुई पलकों को
थकावट से नीचे किया और आँखें बंद कर लीं.
उसके निकट खड़े लोगों ने
दबी आवाज़ में कहा:
“थोड़ी देर सुस्ता लो,
पानी पी लो.”
परेशान पार्टीज़ान प्रमुख
को सूचित किया गया:
“तुम क्यों परेशान हो रहे
हो? सब ठीक है. खिड़की में रखी हुई सिग्नल की लालटेन,
अगर अलंकारिक भाषा में कहूँ, तो आँखों से
आसपास की जगह को लील रही है. मैं समझता हूँ, कि भाषण फिर से
शुरू कर सकते हैं. बोलिये, कॉम्रेड लीदच्का.”
बड़ी सराय के भीतरी हिस्से
से लकड़ियाँ हटा दी गई थीं. साफ़ किये हुए हिस्से में गैरकानूनी सभा हो रही थी.
एकत्रित लोगों के लिये लकड़ियों का छत तक पहुँचता हुआ ढेर परदे का काम दे रहा था,
जो इस आधे हिस्से को कम्पाऊण्ड वाले ऑफ़िस और प्रवेश द्वार से अलग कर
रहा था. ख़तरे की स्थिति में एकत्रित हुए लोगों को फ़र्श के नीचे जाने और सुरंग से
बाहर जाने का रास्ता था जो कन्स्तान्तीनोव्स्की मॉनेस्ट्री की दीवार की पीछे
झाड़-झंखाड़ से भरी अंधी गली में खुलता था.
मटमैले धुँधले ज़ैतून के
रंग जैसे चेहरे और कानों तक पहुँचती काली दाढ़ी वाला वक्ता,
जिसने अपने गंजे सिर को
पूरी तरह ढाँकती हुई काली सूती टोपी पहनी थी, मानसिक
उत्तेजना का शिकार था और बार-बार पसीने में नहा रहा था. उसने अधीरता से अधजली
सिगरेट के टुकड़े को मेज़ पर जल रहे केरोसिन लैम्प की गरम हवा में पकड़कर जलाया और
मेज़ पर फेंके हुए कागज़ों की ओर झुका. तनाव से और जल्दी-जल्दी उन पर अपनी कमबीन नज़र
दौड़ाई और जैसे उन्हें सूँघते हुए थकी हुई धीमी आवाज़ में अपना भाषण आगे बढ़ाया:
शहरी और ग्रामीण निर्धनों
की यह यूनियन हम सिर्फ सोवियतों के माध्यम से साकार करेंगे. चाहे-अनचाहे साइबेरिया
का कृषक वर्ग उसी लक्ष्य की ओर बढ़ेगा, जिसके लिये
साइबेरिया के मज़दूर बहुत पहले संघर्ष शुरू कर चुके हैं. उनका आम लक्ष्य है
एडमिरल्स और लीडर्स की निरंकुश सरकार को उखाड़ फेंकना, जिससे
लोग घृणा करते हैं, और देशव्यापी सशस्त्र विद्रोह के मार्ग
से किसानों तथा मज़दूरों की सोवियतों की सत्ता की स्थापना करना. अस्त्र-शस्त्रों से
पूरी तरह लैस बुर्जुआ वर्ग के वेतन-भोगी अफ़सरों-कज़ाकों के ख़िलाफ़ सशस्त्र संघर्ष
में क्रांतिकारियों को दृढ़ता के साथ, नियमित, मोर्चे जैसा युद्ध करना पड़ेगा, जो लम्बे समय तक
चलेगा”.
वह फ़िर से रुक गया,
उसने पसीना पोंछा, आँखें बंद कर लीं. नियमों
के विरुद्ध कोई उठा, उसने हाथ ऊपर उठाया, और अपनी टिप्पणी करने की इच्छा प्रकट की.
पार्टिज़ानों का प्रमुख,
या सही-सही कहें तो केझेम्स्की के पार्टिज़ानों के ट्रान्स-युराल
संघों का फ़ौजी प्रमुख, जो चेतावनी-सी देते हुए लापरवाह अंदाज़
में वक्ता की ठीक नाक के सामने बैठा था, और उसे कोई महत्व
दिये बिना अशिष्ठता से बार-बार उसकी बात काट रहा था. मुश्किल से यकीन हो रहा था कि
इतना जवान फ़ौजी, बिल्कुल छोकरे जैसा, पूरी-पूरी
फ़ौजों और संघटनाओं को नियंत्रित कर रहा था, और उसकी आज्ञा
मानी जाती थी और उसकी इज़्ज़त की जाती थी. वह घुड़सवारों वाले ओवरकोट की किनार से
हाथ-पैर ढाँके बैठा था. ओवरकोट का उतारा हुआ ऊपरी टोप और आस्तीनें जो कुर्सी की
पीठ पर फेंकी गई थीं उसके जैकेट पहने जिस्म को दिखा रहे थे जिस पर लेफ़्टिनेन्ट के उखाड़े
गए शोल्डर-स्ट्रैप्स के काले निशान थे.
उसके दोनों ओर दो ख़ामोश
सुरक्षा गार्ड्स खड़े थे, उसके हमउम्र, घुंघराली किनारों वाले भेड़ की खाल के सफ़ेद जैकेट्स में, जो भूरे हो गए थे. उनके ख़ूबसूरत पाषाणवत् चेहरे कोई भी भाव नहीं दर्शा रहे
थे, सिवाय अपने कमाण्डर के प्रति अंध-समर्पण के और उसकी
ख़ातिर कुछ भी कर गुज़रने की तैयारी के. वे सभा के प्रति उदासीन थे, उसमें उठाये गये प्रश्नों और बहस से से विचलित नहीं हो रहे थे, कुछ भी नहीं कह रहे थे और न ही मुस्कुरा रहे थे.
इन लोगों के अलावा सराय
में और दस-पन्द्रह आदमी थे. कुछ खड़े थे, कुछ फ़र्श
पर टाँगें फैलाये बैठे थे या घुटने सिकोड़ कर दीवार से और उसमें धँसी हुई गोल
शहतीरों से टिक कर बैठे थे.
सम्माननीय अतिथियों के
लिये कुर्सियाँ रखी गईं थीं. उन पर तीन-चार मज़दूर बैठे थे जिन्होंने प्रथम क्रांति
में भाग लिया था, उनके बीच थे गंभीर तिवेर्ज़िन जो काफ़ी
बदल गया था और हमेशा उसका साथ देने वाला उसका दोस्त, बूढ़ा
अंतीपव. दैवी शक्तियों में शामिल, जिनके चरणों पर क्रांति ने
अपने सभी उपहार और बलिदान समर्पित किये थे, वे मूक, कठोर मूर्तियों जैसे बैठे थे, जिनसे राजनीतिक
धृष्ठता ने हर जीवित और मानवीय संवेदना छीन ली थी.
सराय में कुछ और लोग भी थे,
जिन पर ध्यान देना ज़रूरी था. बड़े सिर वाला मोटा और महाकाय, बड़े मुँह और सिंह जैसी ग्रीवा वाला, अगर अंतिम
रूसी-तुर्की युद्ध में नहीं तो हर हाल में – रूसी-जापानी युद्ध में अफ़सर रह चुका,
अपने ही ख़यालों में खोया हुआ स्वप्नदर्शी रूसी अराजकतावाद का स्तम्भ
व्दवीचेन्का-च्योर्नए ज़्नाम्या - जो एक
मिनट भी चैन लिये बिना फ़र्श से उठता और फ़र्श पर बैठ जाता, चहल
कदमी करता और सराय के बीच में ठहर जाता.
बेहद भला स्वभाव और विशाल
डील डौल होने के कारण, जो उसे असमान और छोटी घटनाओं
पर ध्यान देने में बाधा डाल रहे थे, वह जो कुछ भी हो रहा था
उस पर पर्याप्त ध्यान नहीं दे पा रहा था और, सब कुछ गलत-सलत
समझते हुए, विरोधी विचारों को अपने स्वयम् के विचार समझ रहा
था और हरेक से सहमत हो रहा था.
उसके पास फ़र्श पर उसका
परिचित स्विरीद बैठा था, जो जंगल का शिकारी और जानवर
पकड़ने वाला था. हालाँकि स्विरीद किसान का काम नहीं करता था, उसका
स्वाभाविक, आज़ाद (यहाँ आज़ाद से तात्पर्य उन किसानों से है,
जो सिर्फ सरकार के आधीन होते थे, उसे टैक्स
देते थे, बंधुआ नहीं थे – अनु.)
अस्तित्व उसके गहरे रंग की मोटी कमीज़ के कटाव से दिखाई दे रहा था, जिसे उसने अपने क्रॉस के साथ गोल-गोल लपेट कर कंधे पर रख लिया था और सीने
को खुजाते हुए अपने जिस्म पर डाले हुए था. ये आधा बुर्यात किसान था, मिलनसार और अनपढ़, बालों की सीधी लटें, विरल मूँछें और और भी ज़्यादा विरल दाढ़ी जिसमें थोड़े से ही बाल थे. मंगोल नाक
नक्श वाला चेहरा उसे बूढ़ा बना रहा था, जो सहानुभूतिपूर्ण
मुस्कुराहट के कारण हमेशा झुर्रियों से भरा होता था.
वक्ता,
जो सेन्ट्रल कमिटी की युद्ध संबंधी निर्देशों के साथ साइबेरिया घूम
चुका था, अपने ख़यालों में उन प्रदेशों में घूम रहा था जहाँ
उसे अभी जाना था. सभा में उपस्थित अधिकांश लोगों के प्रति वह उदासीन था. मगर,
क्रांतिकारी और आरंभ से ही सामान्य लोगों से प्यार करने वाला होने
के कारण वह अपने सामने बैठे नौजवान कमाण्डर को बड़े प्यार से देख रहा था. उसने न
सिर्फ छोकरे को उसकी अशिष्ठता के लिये माफ़ कर दिया था, जिसे
बूढ़ा आदमी दृढ़, सुप्त क्रांतिकारी आवाज़ समझ रहा था, बल्कि उसके चुटीले सवालों की भी प्रशंसा कर रहा था, जैसे
किसी प्यार करने वाली औरत को उसके मालिक की गुस्ताख़ बेअदबी पसंद आती है.
पार्टिज़ान लीडर
मिकुलीत्सिन का बेटा लिबेरियस था, सेन्टर से आया
हुआ वक्ता – भूतपूर्व कोऑपरेटिव कार्यकर्ता, जो पहले
सोशलिस्ट-रिवॉल्यूशनरियों से संबंधित था, कस्तोयेद-अमूर्स्की
था. हाल ही में उसने अपनी स्थिति पर पुनर्विचार किया, अपनी
संरचना की गलतियों को स्वीकार किया, कुछ विस्तृत घोषणाओं में
पश्चात्ताप व्यक्त किया, और उसे न सिर्फ कम्युनिस्ट पार्टी
में प्रवेश दिया गया, बल्कि जल्दी ही इतने ज़िम्मेदारी के काम
पर भेजा गया.
यह काम उसे,
जो बिल्कुल फ़ौजी नहीं था, उसकी क्रांतिकारी सेवाओं,
उसकी जेल यात्राओं और वहाँ झेली हुई यातनाओं को देखते हुए दिया गया
था, और साथ ही इस बात को ध्यान में रखते हुए भी, कि उसे, भूतपूर्व कॉओपरेटिव कार्यकर्ता को, विद्रोहों की चपेट में आये हुए पश्चिमी साइबेरिया के किसानों की मनोदशा
का अच्छी तरह ज्ञान होगा. और इस संदर्भ में यह अनुमानित परिचय फ़ौजी ज्ञान से
ज़्यादा महत्वपूर्ण था.
राजनीतिक विचारों के
परिवर्तन ने कस्तोयेद को एक भिन्न व्यक्ति बना दिया था,
वह पहचान में नहीं आ रहा था. उसने उसके बाह्य स्वरूप, चलने-बोलने के तरीके, आदतों को बदल दिया था.
किसी को भी याद नहीं था,
कि पुराने ज़माने में वह कभी गंजा और दाढ़ी वाला था. मगर हो सकता है
कि यह सब झूठ-मूठ का हो? पार्टी ने उसे कठोर गुप्तता प्रदान
की थी. उसके भूमिगत नाम थे बिरेन्देय और कॉम्रेड लीदच्का.
जब व्दवीचेन्का द्वारा
घोषणापत्र के पढ़े गये बिंदुओं के प्रति असमय प्रदर्शित की गई सहमति के कारण
उत्पन्न हुआ शोर थम गया, तो कस्तोयेद ने अपना भाषण
जारी रखा:
“किसानों के बढ़ते हुए
विद्रोहों की पूरी भागीदारी सुनिश्चित करने के उद्देश्य से प्रादेशिक कमिटी के
क्षेत्र में मौजूद सभी पार्टिज़ान टुकड़ियों के साथ फ़ौरन सम्पर्क स्थापित करना
आवश्यक है.
टुकड़ियों को सूचित करना
होगा कि किन जगहों पर श्वेत संस्थाओं और संगठनों के शस्त्रास्त्रों के,
युनिफॉर्म्स के और खाने-पीने के सामान के गोदाम हैं, कहाँ बड़ी धन राशी रखी जाती है और उसे सुरक्षित रखने का तरीका क्या है.
विस्तार पूर्वक,
सभी पहलुओं से इन प्रश्नों का अध्ययन करना ज़रूरी है, जैसे टुकड़ियों के आंतरिक संचालन के बारे में, कमाण्डरों
के बारे में, मिलिट्री-कॉम्रेड अनुशासन के बारे में, षड़यंत्र के बारे में, टुकड़ियों के बाह्य जगत से
संबंध के बारे में, स्थानीय आबादी से उनके रिश्तों के बारे
में, मिलिट्री-क्रांतिकारी फील्ड-कोर्ट के बारे में, विरोधियों की सीमा में विस्फोट करने के प्रणाली के बारे में, जैसे : पुलों का, रेल्वे लाइनों का, स्टीमरों का, बजरों का, स्टेशनों
का, कारखानों का उनके तकनीकी साधनों समेत, टेलिग्राफ़ का, खदानों का, खाने
पीने की सामग्री का.
लिबेरियस बर्दाश्त करता
रहा-करता रहा और अपने आप को रोक न सका. ये सब उसे निरर्थक बकवास प्रतीत हो रही थी,
जिसका काम से कोई संबंध नहीं था. वह बोला:
“बहुत बढ़िया भाषण है. मैं
इसे स्वीकार करता हूँ. ज़ाहिर है, ये सब बिना किसी
आपत्ति के स्वीकार करना होगा, जिससे कि रेड-आर्मी का समर्थन
न छूटे”.
“ज़ाहिर है.”
“मगर मुझे क्या करना
चाहिये, मेरी बेहद ख़ूबसूरत लीदच्का,
जब, भाड़ में जाओ तुम, मेरी
फ़ौजें, तीन बटालियन्स, जिनमें आर्टिलरी
और घुड़सवार फ़ौज भी शामिल है, बहुत पहले से युद्ध कर रही हैं
और शानदार तरीके से विरोधियों का सफ़ाया कर रही हैं?”
“कैसी शान है! कैसी ताकत!”
कस्तोयेद ने सोचा.
तिवेर्ज़िन ने बहस करने
वालों को रोका. उसे लिबेरियस का बदतमीज़ी भरा लहजा अच्छा नहीं लगा. उसने कहा:
“माफ़ कीजिये,
कॉम्रेड वक्ता. मुझे यकीन नहीं है. हो सकता है कि मैंने आपके
निर्देशों में से एक पॉइन्ट सही नहीं लिखा है. मैं उसे पढ़ता हूँ. मैं सुनिश्चित
करना चाहता हूँ: “कमिटी में भूतपूर्व फ्रंटलाइन योद्धाओं को शामिल करना अत्यंत
वांछनीय है, जो क्रांति के समय फ्रंट पर थे और सैनिक संगठनों
में रह चुके हैं. कमिटी में एक या दो अंडर-ऑफ़िसर्स और फ़ौजी तकनीशियन का होना आवश्यक
है”. कॉम्रेड कस्तोयेद, क्या ये सही लिखा है?”
“सही है. एक-एक शब्द. सही
है.”
“तब मुझे आगे कुछ कहने की
अनुमति दें. फ़ौजी विशेषज्ञों के बारे में यह पॉइन्ट मुझे परेशान कर रहा है. हमें,
श्रमिकों को, उन्नीस सौ पाँच की क्रांति में
भाग लेने वालों को फ़ौज पर विश्वास करने की आदत नहीं है. इसके साथ हमेशा
प्रतिक्रांति घुस जाती है”.
चारों ओर आवाज़ें आने लगीं:
“बहुत हुआ! प्रस्ताव!
प्रस्ताव! जाने का समय हो गया. देर हो गई है.”
“मैं बहुमत की राय से सहमत
हूँ,” व्दवीचेन्का गरजती हुई आवाज़ में बोला.
“काव्यात्मक भाषा में कहूँ तो ऐसा है. सरकारी संस्थाओं को नीचे से बढ़ना चाहिये,
लोकतांत्रिक नींव पर, जैसे धरती में पेड़ों की
कलमें लगाई जाती हैं और वे स्वीकृत होकर जड़ पकड़ लेती हैं. उन्हें ऊपर से बागड़ के
स्तम्भों की तरह ठोंककर नहीं लगाया जाता. यही जेकोबिन तानाशाही की गलती थी,
जिसके कारण थर्मिडोरियन्स ने सम्मेलन को कुचल दिया”.
“ये तो दिन की तरह स्पष्ट
है,” स्विरीद ने अपने घुमक्कड़ी के स्नेही का समर्थन
किया, “ये बात तो छोटा बालक भी समझता है. पहले ही सोचना
चाहिये था, मगर अब देर हो चुकी है. अब हमारा काम है युद्ध
करना और अपना रास्ता बनाना. कराहते रहो और सड़ते रहो. वर्ना
ये कैसा होगा, हरकत में आओ और वापस लौट जाओ? ख़ुद ही पकाओ, ख़ुद ही खाओ. खुद ही पानी में घुसे हो,
चिल्लाओ मत – डूब गया.”
“प्रस्ताव! प्रस्ताव!”
चारों ओर से माँग होने लगी. कुछ देर और बातें हुईं, जिनमें
तारतम्य कम होता गया, और सुबह मीटिंग समाप्त कर दी गई. एक-एक
करके, सावधानीपूर्वक सब चले गये.
7
“हाईवे पर एक तस्वीर जैसी
सुरम्य जगह थी. तीव्र ढलान पर स्थित, तेज़ छोटी-सी नदी पझिन्का
द्वारा अलग किये गये, एक दूसरे को लगभग छूते हुए : ऊपर से नीचे की ओर आता हुआ गाँव
कुतेयनी पसाद और उसके नीचे स्थित शोख देहात माली-एर्मलाय. कुतेयनी में फ़ौज में
लिये गये नये रंगरूटों को बिदा कर रहे थे, माली एर्मलाय में –
कर्नल श्त्रीज़े की अध्यक्षता में भरती-कमिटी अपना काम कर रही थी, ईस्टर की छुट्टी के बाद माली-एर्मलाय और आसपास के भागों के नौजवानों को
प्रमाणित कर रही थी, जिन्हें बुलाया जाना था. भरती के कारण देहात में
घुड़सवार फ़ौज और कज़ाक थे.
ये देर से आये ईस्टर का और
समय से पहले आ गई बसंत ऋतु का तीसरा दिन था, शांत और
गर्म. कुतेयनी में रंगरूटों के लिये खाने-पीने की चीज़ों से सजी मेज़ें रास्ते पर,
खुले आसमान के नीचे रखी थीं, हाईवे के किनारे
पर, जिससे की आवागमन में बाधा न हो. मेज़ों को बिल्कुल सीधी
लाइन में नहीं रखा गया था, बल्कि वे ज़मीन तक लटकते सफ़ेद
मेज़पोशों के नीचे अनियमित आँत की तरह फ़ैले थे.
नए रंगरूटों का ‘पॉटलक’ भोजन से स्वागत किया जा रहा था. ख़ास तौर से
ईस्टर भोज से बचे हुए पदार्थ मेज़ पर सजाए गए थे, दो ‘स्मोक्ड हैम्स’, कुछ केक, दो-तीन
‘ईस्टर एग्स’. मेज़ों की पूरी लम्बाई पर
कटोरों में नमकीन मश्रूम्स, खीरे और खट्टी गोभी रखी थी,
प्लेटों में घर की बनी ब्रेड के मोटे-मोटे टुकड़े थे, चौडी ट्रे में रंगे हुए अण्डों का ऊँचा ढेर रखा था. उनके रंगों में गुलाबी
और नीले रंग की बहार थी.
अंडों के बाहर से गुलाबी
और नीले तथा भीतर से सफेद छिलके मेज़ों के पास घास पर बिखरे हुए थे. लड़कों की
जैकेट्स के भीतर से दिखाई दे रही कमीज़ें गुलाबी और नीली थीं. लड़कियों की पोषाक – नीली
और गुलाबी. आसमान नीले रंग का था. बादल – गुलाबी, जो आसमान
में इतने धीमे और इतने सलीके से तैर रहे थे, जैसे आसमान भी
उनके साथ-साथ तैर रहा हो.
व्लास पाखोमविच गलूज़िन की रेशमी
पट्टे से बांधी गई कमीज़ भी गुलाबी थी, जब वह भागते हुए, जूतों की एड़ियों को खटखटाते हुए और पैरों को दायें-बाएँ फेंकते हुए
पाफ्नूत्किन की ड्योढ़ी की ऊँची सीढ़ी से मेज़ों के पास पहुँचा – पाफ्नूत्किन का घर
मेज़ों के ऊपर छोटी सी पहाड़ी पर था - और उसने शुरूआत की:
“शैम्पेन के बदले देसी
दारू का यह गिलास मैं आपके नाम खाली करता हूँ, मेरे
बच्चों. आप अनेक सालों तक जियें, बिदा हो रहे नौजवानों! नये
रंगरूट महाशयों! मैं और भी कई बातों के लिये आपको मुबारकबाद देता हूँ. कृपया ध्यान
दीजिये. सलीब का लम्बा रास्ता, जो आपके सामने बिछा है,
वह सीना तान कर अत्याचारियों से मातृभूमि की रक्षा करते हुए डटे
रहने के लिये है, जिन्होंने मातृभूमि के खेतॉं में अपने ही
भाईयों का खून बहाया है. जनता क्रांति की उपलब्धियों पर बिना खून बहाये बहस करना
चाहती थी, मगर चूँकि बोल्शेविकों की पार्टी विदेशी पूँजी की
गुलाम है, उसने जनता के पवित्र सपने, कॉन्स्टिट्युएन्ट
असेम्बली को, संगीन के क्रूर प्रहारों से छिन्न-भिन्न कर
दिया है और खून की नदियाँ निरंतर बह रही हैं. बिदा हो रहे नौजवानों! रूसी हथियारों
के आहत सम्मान को ऊँचा उठाओ, हमारे ईमानदार साथियों के ऋणी
होते हुए, लाल फ़ौजों के पीछे-पीछे फिर से जर्मनी और
ऑस्ट्रिया को सिर उठाये देखते हुए हमने अपने आप को शर्म से घेर लिया है. ख़ुदा
हमारे साथ है, बच्चों,” गलूज़िन और भी
बोल रहा था, मगर “हुर्रे” की आवाज़ों और व्लास पाखोमविच को
उठाकर झुलाने की माँग में उसके शब्द डूब गये. वह गिलास उठाकर होठों तक ले गया और धीरे
धीरे घूँट-घूँट करके कच्ची, बुरी तरह छनी हुई शराब पीने लगा.
इस पेय से उसे संतोष नहीं हुआ. उसे ज़्यादा परिष्कृत अंगूर की शराब की आदत थी. मगर
संतोष की भावना को सामाजिक बलिदान की चेतना ने मात दे दी.
“बाज़ है तेरा बाप. कैसे
दहाड़ते हुए भाषण देता है! जैसे ड्यूमा का कोई मिल्यूकव. ख़ुदा की कसम,”
आधी नशीली ज़ुबान से नशे में धुत कई आवाज़ों के बीच गोश्का रिबीख मेज़
पर बैठे अपने पड़ोसी और दोस्त, तेरेन्ती गलूज़िन के पापा की
तारीफ़ कर रहा था. “ सही में, बाज़ है. ज़ाहिर है बेकार में ही
कोशिश नहीं कर रहा है. अपने भाषण से तुझे सैनिकों के चंगुल से छुड़ाना चाहता है.”
“क्या कह रहा है,
गोश्का! तुझे शर्म आनी चाहिये. क्या कह रहा है, “छुड़ाना चाहता है”. तेरे साथ ही मुझे भी नोटिस आ जायेगा, ये है “चंगुल से छुड़ाना” एक ही यूनिट में जायेंगे. अब स्कूल से तो मुझे
निकाल दिया, सुअर कहीं के. माँ मरी जा रही है. अगर फ्रीलान्सर्स
में नहीं लिया तो अच्छा होगा. फ़ौज में भेजेंगे. और पापा, वाकई
में, जहाँ तक भाषणों का ताल्लुक है, कुछ
कहो ही नहीं. उस्ताद है. ख़ास बात, ये कहाँ से है? नैसर्गिक. कोई ढंग की शिक्षा नहीं ली है.”
“सान्का पान्फूत्किन के
बारे में सुना?”
“सुना. क्या सही में ये
गंभीर संक्रमण है?”
“ज़िंदगी भर के लिये.
तिल-तिल करके मरेगा. ख़ुद ही ज़िम्मेदार है. आगाह किया था,
मत जाओ. ख़ास बात, किसके साथ संबंध था.”
“अब उसका क्या होगा?”
“शोकांतिका. अपने आप को
गोली मार लेना चाहता था. फ़िलहाल एर्मलाय में कमिटी में जाँच कर रहे हैं,
हो सकता है ले लें. कहता है, पार्टिज़ानों के
साथ जाऊँगा. समाज के नासूरों का बदला लूँगा.”
“तू सुन,
गोश्का. देख, तू कह रहा है, संक्रमण होना. मगर, यदि उनके पास न जाओ, तो कोई और बीमारी भी तो हो सकती है.”
“मैं जानता हूँ,
कि तू किस बारे में कह रहा है. तू, शायद,
ये सब करता है. ये बीमारी नहीं, बल्कि गुप्त
पाप है.”
“ ऐसे लब्ज़ों के लिये मैं
तेरे थोबड़े पे जमा दूँगा, गोश्का. अपने कॉम्रेड का अपमान करने की हिम्मत न करना, घिनौने
झूठे!”
“अरे,
मैं मज़ाक कर रहा था, शांत हो जा. मैं तुझे
क्या कहना चाहता था. ईस्टर की दावत के लिये मैं पझीन्स्क गया था. वहाँ एक यात्री
“व्यक्तित्व की मुक्ति” पर भाषण दे रहा था. बहुत दिलचस्प था. मुझे ये चीज़ अच्छी
लगती है. मैं, तेरी तो, अराजकतावादियों
में नाम लिखवा लूँगा. शक्ति, कहता है, हमारे
भीतर है. सेक्स, कहता है, और चरित्र,
ये, कहता है पशुओं की विद्युत का जागृत होना
है. आँ? ऐसा लाजवाब है. मगर मैं पूरी तरह मदहोश हो गया हूँ.
चारों ओर कितना चिल्ला रहे हैं, कुछ भी समझ में नहीं आता,
बहरा हो जाऊँगा. और ज़्यादा बर्दाश्त नहीं कर पाऊँगा, तेरेश्का, चुप हो जा. मैं कह रहा हूँ, सुअर की औलाद, माँ के दूध पीते बच्चे, मुँह बंद कर.”
“तू मुझे,
गोश्का, बस एक बात बता दे. अभी मैं सोशलिज़्म
के बारे में सब कुछ नहीं जानता हूँ, मिसाल के तौर पर,
अंतर्ध्वंसक. इसका क्या मतलब है? इसका किससे
ताल्लुक हो सकता है?”
“मैं इन शब्दों का अस्सा (अच्छा
से तात्पर्य है – अनु.) प्रोफेसर हूँ, मगर,
तेरेश्का, जैसा मैंने तुझसे कहा, छोड़, मैं नशे में धुत् हूँ. अंतर्ध्वंसक वो है जो
दूसरे के साथ एक ही टोली में रहता है. जब कहते हैं अंदर्ध्वंशक (अंतर्ध्वंसक से
तात्पर्य है – अनु.), मतलब, तू और वो
एक ही गैंग में हो. समझ गया, बेवकूफ़?”
“मैं ऐसा ही सोच रहा था,
कि ये कोई गाली है. मगर इलेक्ट्रिक शक्ति के बारे में तू सही कहता
है. मैं इश्तेहार देखकर पीटर्बुर्ग से इलेक्ट्रिक बेल्ट मँगवाना चाहता था.
क्रियात्मकता को बढ़ाने के लिये. माल आने पर पैसा देना था. मगर अचानक ये नया मोड़ आ
गया. बेल्टों के बारे में सोचने का समय नहीं है”.
तेरेन्ती अपनी बात पूरी
नहीं कर पाया. नशे में धुत आवाज़ों को पास ही में हुए विस्फोट की गड़गड़ाहट ने दबा
दिया. एक पल के लिये मेज़ के पास का शोर थम गया. एक मिनट बाद वह फिर और भी ज़्यादा
बेतरतीबी से शुरू हो गया. बैठे हुए लोगों में कुछ लोग अपनी जगह से उछल पड़े.
ज़्यादा ताकतवर लोग अपने
पैरों पर खड़े रहे. दूसरे, लड़खड़ाते हुए,
एक तरफ़ हटने लगे, मगर नहीं कर पाये, और मेज़ के नीचे गिरकर, वहीं खर्राटे लेने लगे.
औरतें चीखने लगीं. भगदड़ मच गई.
व्लास पखोमविच ने इधर उधर
नज़र डालते हुए गुनहगार को ढूँढ़ने की कोशिश की. पहले तो उसने सोचा कि धमाका कहीं
पास ही, कुतेयनी में हुआ है, बिल्कुल बगल में, हो सकता है, मेज़ों
के पास ही. उसकी गर्दन तन गई, चेहरा लाल हो गया, वह पूरी ताकत से चीख़ा:
“ये कौन जूडा हमारे बीच
में घुसकर शरारत कर रहा है? ये किस माँ का
बेटा है, जो ग्रेनेड से खेल रहा है? वह
चाहे किसीका भी हो, मेरा अपना भी, उस
केंचुए का गला दबा दूँगा! हम नहीं बर्दाश्त करेंगे, नागरिकों,
ऐसे मज़ाक करना! मैं माँग करता हूँ कि उसे घेर लिया जाये. कुतेयनी
पसाद गाँव के चारों ओर घेरा डाल देते हैं! उकसाने वाले को पकड़ लेंगे! कुत्ते की
औलाद को भागने नहीं देंगे!”
पहले तो उसे सुनते रहे.
मगर फिर काले धुँए के स्तम्भ ने ध्यान हटा दिया, जो
माली-एर्मलाय में स्थानीय कौंसिल की बिल्डिंग से धीरे धीरे उठ रहा था. सब कगार की
तरफ़ ये देखने के लिये भागे कि क्या वहाँ क्या हो रहा है.
एर्मलाय स्थानीय कौंसिल की
जलती हुई बिल्डिंग से कपड़े उतारे हुए कुछ नये रंगरूट बाहर भागे,
जिनमें एक बिल्कुल नंगे पैर और मुश्किल से ऊपर खींची हुई पतलून में, लगभग नग्न था, कर्नल श्त्रीज़े भी अन्य फ़ौजियों के
साथ, जो फ़ौज में भर्ती करने के लिये नौजवानों का चयन कर रहे
थे, बाहर भागे . कुलबुलाते हुए साँपों के समान, आगे की ओर लपकते हुए घोड़ों पर चाबुक घुमाते हुए और अपने जिस्मों और हाथों
को ताने, एक तरफ़ से दूसरी तरफ़ कज़ाक और फ़ौजी गाँव में घूम रहे
थे. किसी को ढूँढ रहे थे, किसी को पकड़ रहे थे. ज़्यादातर लोग
कुतेयनी के रास्ते पर भाग रहे थे. भागने वालों के पीछे-पीछे एर्मलाय के घण्टाघर से
ख़तरे के घण्टे बज रहे थे.
आगे की घटनाएँ ख़तरनाक
रफ़्तार से हुईं. शाम के धुँधलके में, अपनी खोज जारी
रखते हुए श्त्रीज़े अपने कज़ाकों के साथ गाँव से पड़ोस के कुतेयनी की ओर चढ़ा. गाँव को
गश्ती दलों से घेरकर वे हर घर, हर जागीर की तलाशी लेने लगे.
इस समय तक सम्मानित रंगरूटों में से आधों का काम तमाम हो
चुका था और, नशे में पूरी तरह धुत् अपने सिर
मेज़ों के किनारे रखकर या उनके नीचे ज़मीन पर लुढ़क कर वे गहरी नींद में सो रहे थे.
जब पता चला कि गाँव में फ़ौज आई है, पूरी तरह अँधेरा हो चुका
था.
कई लड़के फ़ौज से भागकर गाँव
के पिछवाड़ों से होते हुए, और घूँसों और
धक्कों से एक दूसरे को धकेलते हुए जो भी पहला गोदाम दिखा, उसमें
बागड़ के नीचे वाली खुली जगह से घुस गये. अँधेरे में ये जानना नामुमकिन था कि वह किसका
है, मगर, मछली और केरोसिन की गंध से
पता चल रहा था कि ये किसी किराना दुकान का तहख़ाना है.
छिपने वालों की अंतरात्मा
पर कोई बोझ नहीं था. ये उनकी गलती थी जो उन्होंने अपने आप को छुपा लिया. ज़्यादातर
लोगों ने यह आनन-फ़ानन में, नशे में, बेवकूफ़ी के कारण कर डाला था. कुछ लोगों के ऐसे परिचित थे, जो उन्हें दोषी प्रतीत हो रहे थे और, जैसा उन्हें
लगा, उन्हें ख़त्म कर सकते थे. अब तो हर चीज़ पर राजनीति का
रंग चढ़ गया था. शरारत और गुण्डागर्दी को सोवियत इलाके में “ब्लैक हण्ड्रेड” का लक्षण
समझते थे, जबकि श्वेत-सेना के इलाके में बदमाशों को बोल्शेविक समझते थे.
पता चला,
कि कॉटेज के नीचे घुसे हुए लड़कों को चेतावनी दी गई थी. गोदाम के
फर्श और धरती के बीच की जगह लोगों से भरी हुई थी. यहाँ कुछ कुतेयनी के और कुछ
एर्मलायेव के थे. पहले वाले बुरी तरह नशे में धुत थे. उनमें से कुछ कराहते हुए
खर्राटे ले रहे थे, दाँत किटकिटा रहे थे और धीमी आवाज़ में रो
रहे थे, कुछ लोगों को मितली आ रही थी और उल्टी हो रही थी.
गोदाम के नीचे घुप् अँधेरा, उमस और बदबू थी. सबसे अंत में
आये लोगों ने भीतर से मिट्टी और पत्थरों से वह छेद बंद कर दिया, जिससे वे अंदर घुसे थे. जल्दी ही नशे में धुत् लोगों के खर्राटे और उनकी
कराहें पूरी तरह बंद हो गईं. निपट ख़ामोशी छा गई. सब शांति से सो रहे थे. सिर्फ एक
कोने में बेहद बेचैन और डर से मरे जा रहे तेरेन्ती गलूज़िन और एर्मलाय के मुष्टि
योद्धा कोस्का निख्वालेनिख की फुसफुसाहट सुनाई दे रही थी.
“धीरे
चिल्ला, कुत्ते, सबको मरवायेगा,
घिनौने शैतान. सुन रहा है, श्त्रीज़े के आदमी
तलाशी ले रहे हैं – घूम रहे हैं. बाहर से मुड़े हैं, इस गली में
आ रहे हैं, जल्दी ही यहाँ भी आयेंगे. ये रहे. जम जा, साँस मत ले, गला दबा दूँगा – ख़ैर, ख़ुशनसीब है, - दूर चले गये. पास से गुज़र गये. तुझे
कौनसा शैतान यहाँ लाया है? और वह, बेवकूफ़,
यहीं आ गया, छुपने के लिये! तुझे कौन छू सकता
है?”
“मैंने सुना,
गोश्का चिल्ला रहा है, - छूप जा, बेवकूफ़. मैं भी भीतर घुस गया.”
“गोश्का की बात अलग है.
पूरे रिबीख परिवार पर नज़र है, उन्हें विश्वास
के लायक नहीं समझते. उनके सारे रिश्तेदार खदात्स्कोए में हैं. कारीगर हैं, पक्के श्रमिक. अरे, तू हिलना नहीं, कैसा बेवकूफ़ है, ख़ामोश पड़ा रह. यहाँ दोनों तरफ़ ढेर
सारी गंदगी और उल्टियाँ करके रखी हैं. हिलेगा, तो गंदगी से
पुत जाएगा और, मुझे भी गंदगी से पोत देगा. क्या पता नहीं चल
रहा है, कैसी बदबू है. श्त्रीज़े गाँव में क्यों घूम रहा है?
पाझिन्स्क वालों को ढूँढ़ रहा है. बाहर वालों को.”
“कोस्का,
ये सब कैसे हुआ? शुरूआत कैसे हुई?”
“सान्का की वजह से ही सारी
गड़बड़ हुई, सान्का पाफ्नूत्किन की वजह से. हम
सब लाइन में खड़े थे, मेडिकल जाँच के लिये – नंगे. सान्का की
बारी आई, सान्का का नंबर लगा. कपड़े नहीं उतार रहा था. सान्का
पिये हुए था, जाँच के लिये नशे की हालत में आया. क्लर्क ने
उसे सलाह दी. बोला, कपड़े उतारिये. नम्रता से. सान्का को “आप”
कह रहा था. फ़ौजी क्लर्क. मगर सान्का बदतमीज़ी से उससे बोला: कपड़े नहीं उतारूँगा.
अपने जिस्म के हिस्से सबको दिखाना नहीं चाहता. जैसे उसे उलझन हो रही हो, और तिरछे-तिरछे क्लर्क के पास पहुँचा, जैसे मुड़ कर
जबड़े पर मुक्का जड़ेगा. हाँ. और, क्या ख़याल है. कोई पलक भी
झपकाने नहीं पाया, सान्का झुका, ऑफ़िस
की मेज़ की टाँग पकड़ ली और उसके ऊपर पड़ी हर चीज़ समेत, दावात
समेत, फ़ौजी लिस्टों समेत फ़र्श पर! ऑफ़िस के दरवाज़े से
श्त्रीज़े चीखा:
“मैं,
चिल्लाया, अनुशासनहीनता बर्दाश्त नहीं करूँगा,
मैं अभी तुम्हें दिखाऊँगा तुम्हारी रक्तहीन क्रांति और इस जगह पर
कानून के अपमान का नतीजा. शुरुआत किसने की है?”
और सान्का खिड़की की तरफ़
भागा. “संतरी, चिल्लाया, कपड़े
लाओ! हमारा काम यहाँ ख़त्म हुआ, कॉम्रेड्स!” मैं – अपने कपडे
लेने भागा, भागते हुए कपड़े पहने और सान्का की ओर लपका. सान्का
ने मुट्ठी से शीशा तोड़ दिया और फ्यू! सड़क पर! खेत में पकड़ते रहो हवा को. और मैं
उसके पीछे भागा. कुछ और लड़के भी थे. पूरी ताकत से भाग रहे थे. हमारे पीछे वे आ रहे थे, पीछा कर रहे थे. और अगर तुम
मुझसे पूछो, कि ये सब किसलिये? कोई भी
कुछ समझ नहीं पायेगा”.
“और बम?”
“कैसा बम?”
“और बम किसने फेंका था?
चल, बम नहीं – ग्रेनेड?”
“ऐ ख़ुदा,
क्या हमने फेंका था?”
“नहीं तो किसने?”
“मुझे क्या मालूम. कोई
दूसरा होगा. देखा, भगदड़ मची है, चलो, सोचा, शोर के बीच कौन्सिल
को उड़ा दूँगा. दूसरों पर शक करेंगे. कोई राजनीतिक. राजनीति वाले, पाझिन्स्क वाले बहुत सारे हैं यहाँ. धीरे. मुँह बंद कर. आवाज़ें. सुन रहा
है, श्त्रीज़े के लोग पीछे आ रहे हैं. हो गया काम तमाम. जम जा,
कह रहा हूँ.”
आवाज़ें पास आ रही थीं.
जूते चरमरा रहे थे, एड़ियाँ खनखना रही थीं.
“बहस मत करो. मुझे बेवकूफ़
नहीं बना सकते. मैं ऐसे लोगों में से नहीं हूँ. कहीं तो निश्चित रूप से बातें हो
रही थीं,” – कर्नल की आधिकारिक, एकदम स्पष्ट, पीटरबुर्गी आवाज़ गूँजी.
“आपको आभास हुआ होगा,
महामहिम,” माली-एर्मलाय देहात के मुखिया,
बूढ़े मछियारे अतव्याझिस्तीन ने अपनी बात रखी. “और अगर गाँव है तो
बातचीत में अचरज की क्या बात है. ये कोई कब्रिस्तान नहीं है. कहीं बातें कर रहे
होंगे. घरों में कोई बेज़ुबान सामान तो नहीं होता. या, हो
सकता है कि भूत सपने में किसी का गला दबा रहा हो.”
“बस-बस! मैं तुम्हें
दिखाऊँगा बेवकूफ़ी का ढोंग करना, गरीब अनाथ होने
का नाटक करना! भूत! बहुत मस्ती चढ़ गई है. इंटरनेशनल आने तक होशियारी दिखा लो,
तब तक बहुत देर हो चुकी होगी. भूत!”
“रहम करो,
महामहिम, कर्नल महाशय! यहाँ कहाँ से इंटरनेशल
आने लगे! ठस दिमाग वाले बेवकूफ़ हैं, घना अगम्य अंधेरा. पाँच
से दस क्लास तक पुरानी धार्मिक किताबों पर ठोकरें खाते हैं. उन्हें क्रांति से
क्या लेना-देना”.
“ऐसा सभी कहते हैं,
पहला सुबूत मिलने तक. कॉ-ओपरेटिव की बिल्डिंग ऊपर से नीचे तक छान
मारो. सारे संदूक झटको, काऊन्टर्स के नीचे देखो. बगल वाली
बिल्डिंग्स की भी तलाशी लो.”
“जो हुक्म,
महामहिम.”
“पाफ्नूत्किन,
रिबीख, निख्वालेनी को ज़िंदा या मुर्दा पकड़ो.
चाहे समुन्दर के भीतर से ही क्यों न लाना पड़े. और गलूज़िन के पिल्ले को. उसके पापा
देशभक्ति के भाषण देते हैं, इसमें कोई बात नहीं है, बेवकूफ़ बनाता है. बात इसके विपरीत है. इसके बहकावे में हम नहीं आयेंगे.
अगर दुकानदार भाषण देने लगे, तो इसका मतलब कुछ गोलमाल है. ये
संदेहास्पद है. ये प्रकृति के ख़िलाफ़ है. गुप्त जानकारी के अनुसार क्रेस्तावज़्विझेन्स्क
के उनके कम्पाऊण्ड में राजनीतिक कार्यकर्ताओं को छुपाते हैं, गुप्त सभाएँ आयोजित करते हैं. बच्चे को पकड़ना है. अभी मैंने तय नहीं किया
है कि उसके साथ क्या करूँगा, मगर यदि कोई बात पता चली,
तो बेरहमी से लटका दूँगा औरों को सबक सिखाने के लिये”.
तलाशी लेने वाले आगे निकल
गये. जब वे काफ़ी दूर चले गये तो कोस्का निख्वालेनिख ने अधमरे तेरेश्का गलूज़िन से
पूछा:
“सुना?”
“हाँ,”
वह जैसे किसी और की आवाज़ में फुसफुसाया.
“अब मेरे लिये,
तेरे लिये , सान्का और गोश्का के लिये सिर्फ
एक ही रास्ता बचा है – जंगल. मैं ये नहीं कह रहा, कि हमेशा
के लिये. जब तक लोगों की अकल ठिकाने नहीं आ जाती. और जब तक समझ में आयेगा, तब देखेंगे. हो सकता है, तब वापस लौट आयें.”
अध्याय 11
फॉरेस्ट-आर्मी
1.
यूरी
अन्द्रेयेविच का पार्टिज़ानों की कैद में दूसरा साल था. इस कैद की सीमाएँ बेहद अस्पष्ट थीं. यूरी अन्द्रेयेविच को जहाँ रखा
जाता था, उसके चारों ओर बागड़ नहीं थी. उस पर पहरा नहीं लगाया
गया था, उस पर नज़र नहीं रखी जाती थी. पार्टिज़ान-आर्मी निरंतर
गतिमान रहती थी. यूरी अन्द्रेयेविच उन्हीं के साथ चलता था. ये फ़ौज जिन बस्तियों और
प्रदेशों से होकर गुज़रती,
वहाँ के लोगों से अलग
नहीं रहती थी,
अपने आप को बंद नहीं
रखती थी. वह उनके साथ घुल मिल जाती,
उनमें समा जाती.
ऐसा
लगता, कि इस निर्भरता का, इस कैद
का अस्तित्व ही नहीं है,
डॉक्टर आज़ाद है, और सिर्फ इस आज़ादी का फ़ायदा नहीं उठा सकता. डॉक्टर की
निर्भरता, उसकी कैद ज़िंदगी की अन्य मजबूरियों से भिन्न नहीं थी, जो वैसी ही अदृश्य और अमूर्त थीं, जो अस्तित्वहीन, काल्पनिक, फन्तासी जैसी प्रतीत होती हैं. निगरानी की, जंज़ीरों की और पहरे की अनुपस्थिति के बावजूद डॉक्टर को
अपनी पराधीनता के सामने झुकना पड़ता था,
जो देखने से मानो
काल्पनिक लगती थी.
पार्टिज़ानों
से भागने की तीन कोशिशें उसके पकड़ लिये जाने से समाप्त हुईं. उसके साथ कुछ बुरा तो
नहीं हुआ, मगर ये आग से खेलने जैसा था. उसने फिर कभी ऐसी कोशिश
नहीं की.
पार्टिज़ानों
का लीडर लिबेरियस मिकुलीत्सिन उसका बहुत ख़याल रखता था, उसे
रात में अपने टेंट में सुलाता था,
उसकी संगत पसंद करता था.
यूरी अन्द्रेयेविच इस ज़बर्दस्ती की निकटता से बेज़ार हो गया था.
2
ये समय था पार्टिज़ानों के
लगातार पूरब की ओर पीछे हटने का. कभी यह स्थलांतर कल्चाक को पश्चिमी साइबेरिया से
बाहर खदेड़ने के हमले की आम योजना का एक भाग होता. कभी,
जब श्वेत सैनिक पार्टिज़ानों के पार्श्व भाग में घुसकर उन्हें घेरने
की कोशिश करते, तो उसी दिशा में यह बढ़ना पीछे हटने जैसा हो
जाता. डॉक्टर काफ़ी समय तक इन बारीकियों को समझ नहीं पाया.
छोटे-छोटे शहर और गाँव,
हाईवे के किनारे वाले, अक्सर जिसके समांतर या
कभी कभी उसके किनारे से होते हुए वे पीछे हटते थे, अलग-अलग
तरह के थे, युद्ध में मिली सफ़लता के अनुसार, श्वेत या लाल. बिरले ही बाहर से देखकर पता लगाया जा सकता था कि उनमें
किसका शासन है.
जब किसानों की फ़ौज इन
शहरों और गाँवों से गुज़रती, तो उनमें यह
लम्बी खिंची हुई फ़ौज ही प्रमुखता से नज़र आती. रास्ते के दोनों तरफ़ वाले घर जैसे
ज़मीन में धँस जाते, और ऐसा लगता कि कीचड़ उड़ाते घुड़सवार,
घोड़े, तोपें और ओवर कोट के ‘रोल’ कंधों पर डाले, शोर मचाते
ऊँचे-ऊँचे राईफ़लधारी ही रास्ते पर घरों से भी ऊँचे हो गये हों.
एक बार एक ऐसे ही छोटे से
शहर में डॉक्टर को युद्ध की लूट के रूप में अंग्रेज़ी दवाईयों का गोदाम सौंपा गया,
जिसे जनरल कापेल के अफ़सर पीछे हटते हुए छोड़ गये थे.
बारिश वाला, अँधेरा, दो रंगों का दिन था. सब कुछ जो प्रकाशित था
सफ़ेद नज़र आ रहा था, और जो अप्रकाशित था – काला लग रहा था. और
आत्मा पर भी वैसा ही अँधेरा था, सीधा-सपाट, बिना किसी परिवर्तन या उपच्छाया की उम्मीद के.
अंत में फ़ौजों के बार-बार
गुज़रने से टूट चुका रास्ता काले कीचड़ की धारा जैसा लग रहा था,
जिसे हर जगह से पैदल पार नहीं कर सकते थे. रास्ते को कुछ ही,
एक दूसरे से काफ़ी दूर-दूर की जगहों से, पार कर
रहे थे, जिन तक पहुँचने के लिये दोनों किनारों पर लम्बा
चक्कर लगाकर कर जाना पड़ रहा था. इन हालात में डॉक्टर की पाझिन्स्क में अपनी रेल की
भूतपूर्व सहयात्री पिलागेया तिगूनवा से मुलाकात हुई.
पहले उसने ही डॉक्टर को
पहचाना. वह फ़ौरन समझ नहीं पाया कि यह जाने-पहचाने से चेहरे वाली औरत कौन है,
जो रास्ता पार करके उसकी ओर तेज़ी से आ रही है, जैसे नहर के एक किनारे से दूसरे किनारे पर आ रही हो, आँखों में असमंजस का भाव लिये - कभी उससे मिलने का पूर्ण निश्चय, यदि वह उसे पहचाने तो, और कभी पीछे हटने का निर्णय.
एक मिनट बाद उसे सब कुछ
याद आ गया. मालगाड़ी के खचाखच भरे डिब्बे की आकृतियों के साथ,
सश्रम कारावास के लिये भेजे जा रहे लोगों की भीड़, उनके संतरी-पहरेदार, और आगे, सीने
पर डाली हुई चोटियों वाली मुसाफ़िर, उसने इस तस्वीर के बीच
में अपने लोगों को भी देखा. पिछले से पिछले साल की यात्रा की छोटी-छोटी बातों ने
स्पष्टता से उसे घेर लिया.
अपने लोगों के चेहरे,
जिनके लिये वह इतनी शिद्दत से तरस रहा था, उसके
सामने सजीवता से प्रकट हो गये.
सिर हिलाकर उसने इशारा
किया कि तिगूनवा रास्ते पर कुछ ऊपर की ओर, उस जगह आए,
जहाँ लोग उसे कीचड़ से निकलते हुए पत्थरों पर पैर रखकर पार कर रहे थे,
वह ख़ुद उस जगह पहुँचा, तिगूनवा के पास गया और
उसका अभिवादन किया.
उसने उसे बहुत कुछ बताया.
गैरकानूनी ढंग से पकड़ कर सश्रम कारावास वाले लोगों के झुण्ड में डाल दिये गये
खूबसूरत, मासूम लड़के वास्या के बारे में
बताया, जो उनके साथ उसी डिब्बे में जा रहा था, तिगूनवा ने वेरेतिन्निकी गाँव में वास्या की माँ के साथ अपनी ज़िंदगी का
वर्णन किया. उनके यहाँ उसे बहुत अच्छा लगता था. मगर गाँव वाले उसे ताने देते थे कि
वेरेतिन्निकी समाज में पराई है, बाहर से आई है.
उसे इस बात पर भी ताने
दिये जाते थे कि उसने वास्या से निकटता बना ली है. उसे वहाँ से निकलना पड़ा,
जिससे चोंचे गड़ा-गड़ाकर गाँववाले उसे मार न डालें. वह
क्रेस्तावज़्द्विझेन्स्की शहर में ओल्गा गलूज़िना की बहन के यहाँ रहती है. ये सुनकर
कि पाझिन्स्क में प्रितूल्येव को देखा गया है, वह यहाँ आ गई.
मगर ख़बर झूठी निकली, मगर काम पाकर वह यहीं बस गई.
इस बीच उन लोगों के साथ
दुर्घटनाएँ हुईं, जो उसे प्यारे थे. वेरेतिन्निकी से
ख़बर आई कि अनुमति से अधिक अनाज रखने के जुर्म में गाँव पर फ़ौजी कार्रवाई हो गई.
ज़ाहिर है, ब्रीकिनों का घर जल गया और वास्या के परिवार का
कोई मर भी गया. क्रेस्तावज़्द्विझेन्स्की में गलूज़िनों का घर और उनकी सम्पत्ति छीन
ली गई. दामाद को या तो जेल में डाल दिया या गोली मार दी. भाँजा गायब हो गया,
उसकी कोई ख़बर नहीं है. इस हादसे के बाद कुछ समय तक बहन ओल्गा गरीबी
और भूख से बेज़ार रही, मगर अब पेट भरने के लिये ज़्वनार्स्की गाँव
में अपने किसान रिश्तेदारों के यहाँ काम करती है.
इत्तेफ़ाक से तिगूनवा पाझिन्स्की
वाली फ़ार्मेसी में बर्तन धोने का काम करती थी, जिसकी
सम्पत्ति का अधिग्रहण डॉक्टर को करना था. तिगूनवा समेत उन सभी को, जिन्हें फ़ार्मेसी में खाना खिलाया जाता था, यह अधिग्रहण
बर्बाद करने वाला था. मगर इसे रद्द करना डॉक्टर के अधिकार में नहीं था, सामान के इस हस्तांतरण के दौरान तिगूनवा मौजूद थी.
यूरी अन्द्रेयेविच की गाड़ी
को फ़ार्मेसी के पीछे वाले आँगन में गोदाम के दरवाज़े के पास लाया गया. उस इमारत में
से बण्डल, जालियों में बंद बोतलें और संदूक
बाहर निकाले गये.
लोगों के साथ-साथ फार्मेसी
वाले का मरियल और खुजली वाला घोड़ा भी अपने अस्तबल से चढ़ाये जा रहे सामान की ओर
उदास नज़रों से देख रहा था. बारिश वाले दिन की शाम हो रही थी. आसमान थोड़ा सा साफ़
हुआ. एक मिनट को बादलों से दबा सूरज दिखाई दिया. वह डूब रहा था. गाढ़े गोबर के
डबरों को गुस्से से सुनहरा करते हुए काले ताँबे जैसी उसकी किरणें आँगन में बिखर
गईं. हवा उन्हें सहला नहीं रही थी. भार के कारण खाद का कीचड़ अपनी जगह से नहीं
हिला. मगर बारिश के कारण हाईवे पर बिखरे हुए पानी में हल्की तरंगें उठ रही थीं जो
सिंदूरी रंग की प्रतीत हो रही थीं.
और फ़ौज चली जा रही थी,
रास्ते के किनारे किनारे और सबसे गहरे तालाबों का चक्कर लगाते हुए
और गड्ढों से बचते हुए. ज़ब्त की गई दवाईयों में कोकीन का एक पूरा डिब्बा मिला,
जिसे सूँघना आजकल पार्टिज़ानों के मुखिया की कमज़ोरी बन गई थी.
3
पार्टिज़ानों के बीच डॉक्टर
गले-गले तक काम में डूबा रहता. सर्दियों में – टाइफ़स,
गर्मियों में – डिसेन्ट्री और, इसके अलावा,
युद्ध की कार्र्वाई बढ़ने के साथ-साथ बढ़ते हुए ज़ख़्मियों की संख्या.
असफ़लताओं और अधिकतर पीछे
हटते जाने के बावजूद, पार्टिज़ानों की संख्या में
लगातार वृद्धि हो रही थी, उन जगहों पर नये विद्रोही शामिल हो
जाते जहाँ से किसानों की फ़ौज गुज़रती थी, और दुश्मन के कैम्प
के भगोड़े भी शामिल हो जाते. उन डेढ़ सालों में, जब डॉक्टर
पार्टिज़ानों के पास था, उनकी फ़ौज दस गुनी हो गई थी. जब क्रेस्तोवज़्द्विझेन्स्कोए
में भूमिगत हेडक्वार्टर्स की मीटिंग में लिबेरियस मिकुलीत्सिन ने अपने सैनिकों की
संख्या बताई थी, तो उसने लगभग दस गुना बढ़ा-चढ़ाकर बताई थी. अब
वह उतनी ही हो गई थी.
यूरी अन्द्रेयेविच के
सहायक थे, कुछ नये अर्दली जिनके पास समुचित
अनुभव था. चिकित्सा के क्षेत्र में हंगरी
का कम्युनिस्ट और युद्ध-कैदी फ़ौजी डॉक्टर केरेनी लायोश उसका दाहिना हाथ था,
जिसे कैम्प में कॉम्रेड लायुश कहते थे, और
क्रोएशिया का कम्पाउण्डर अंगेल्यार, ये भी ऑस्ट्रिया का
युद्ध-कैदी था.पहले वाले से यूरी
अन्द्रेयेविच जर्मन में बात करता था, दूसरा, जो मूल रूप से स्लाविक-बल्कान का था, थोड़ी-बहुत रूसी
समझता था.
4
रेड
क्रॉस के बारे में अंतर्राष्ट्रीय समझौते के अनुसार फ़ौजी डॉक्टरों और
स्वास्थ्य-कर्मचारियों को सशस्त्र रूप से युद्धरत फ़ौजों की गतिविधियों में भाग
लेने का अधिकार नहीं है. मगर एक बार
इच्छा के विपरीत डॉक्टर को यह नियम तोड़ना पड़ा. एक बार वह खेत में शुरू हो चुकी मुठभेड़
ने फँस गया और उसे युद्धरत लोगों का भाग्य बाँटना पड़ा और जवाब में गोली चलानी पड़ी.
पार्टिज़ानों
के घेरे ने, जिसमें गोलीबारी में फँस गया डॉक्टर अपनी टुकडी के
टेलिग्राफ़िस्ट की बगल में लेट गया था,
जंगल के किनारे पर कब्ज़ा
कर लिया था. पार्टिज़ानों की पीठ के पीछे तायगा था, सामने –
खुला हुआ मैदान,
खुली हुई असुरक्षित जगह, जहाँ श्वेत गार्ड आगे बढ़ रहे थे.
वे निकट आ रहे थे और
बिल्कुल पास पहुँच गये थे. डॉक्टर ने उन्हें अच्छी तरह देखा,
हर एक चेहरे को. ये लड़के और नौजवान राजधानी के समाज के गैर फ़ौजी
तबके से थे और कुछ ज़्यादा उम्र के लोग भी थे, ‘रिज़र्व’ से लाये गये. मगर माहौल बना रहे थे पहले वाले, नौजवान,
प्रथम वर्ष के विद्यार्थी और आठवीं कक्षा के स्कूली लड़के, जिन्होंने हाल ही में वालन्टियर्स के रूप में अपना नाम लिखवाया था.
डॉक्टर उनमें से किसी को
भी नहीं जानता था, मगर उनमें से आधे लोगों के चेहरे
उसे जाने-पहचाने, देखे हुए, परिचित
प्रतीत हुए. कुछ स्कूल के भूतपूर्व मित्रों की याद दिला रहे थे. हो सकता है,
कि ये उनके छोटे भाई हों? औरों से जैसे वह
बीते दिनों में थियेटर या रास्ते की भीड़ में मिला था. उनके भावपूर्ण, आकर्षक चेहरे उसे काफ़ी घनिष्ठ, अपनों जैसे प्रतीत
हुए.
कर्तव्य की पुकार,
जैसा वह इसे समझते थे, उन्हें उत्साहपूर्ण,
अनावश्यक, उद्दण्ड साहस से प्रेरित कर रही थी.
वे बिखरी हुई पंक्तियों में चल रहे थे, पूरी
तरह सीधे होकर, चाल-ढाल में सामान्य गार्ड्स से बेहतर और ख़तरों
का निड़रता से सामना करते हुए, न तो वे भागे और न ही मैदान में
लेटे, हालाँकि मैदान में असमतल स्थान, टीले
और ऊबड़-खाबड़ जगह थी जिनके पीछे छुपना संभव था. पार्टिज़ानों की गोलियों ने लगभग सब
को चित कर दिया.
विस्तीर्ण खाली मैदान के
बीचोंबीच एक झुलसा हुआ, मृत पेड़ खड़ा था. वह या तो
बिजली गिरने से या आग की लपटों से कोयला बन गया था, या पहले
हुई लड़ाईयों में उसके परखचे उड़ गये थे और वह झुलस गया था. हर आगे बढ़ता हुआ
वालन्टीयर निशानेबाज़ उस पर नज़र डालता, उसके तने के पीछे
छुपने के लालच से संघर्ष करता, जिससे ज़्यादा सुरक्षित रूप से
और अचूक निशाना लगा सके, मगर इस लालसा को दबा देता और आगे बढ़
जाता.
पार्टिज़ानों के पास सीमित
संख्या में कारतूस थे. उन्हें बचाना ज़रूरी था. सर्वसम्मति से यह आदेश पारित हुआ था
कि कम दूरी से निशाना लगाएँ, उतनी ही राईफ़लों
का इस्तेमाल करें, जितने टार्गेट्स दिखाई देते थे.
यूरी बिना किसी हथियार के
घास पर लेटा था और लड़ाई का निरीक्षण कर रहा था. उसकी पूरी सहानुभूति उन नौजवानों
के साथ थी जो वीरता पूर्वक मृत्यु को प्राप्त हुए थे. वह तहे दिल से उनकी सफ़लता की
कामना कर रहा था. ये उन परिवारों के वंशज थे जो, शायद,
उसकी आत्मा के, उसकी परवरिश के, उसके मिजाज़ के, उसकी मान्यताओं के करीब थे.
उसके दिल में ख़याल आया कि
भाग कर उनके पास मैदान में जाए और आत्मसमर्पण कर दे, और,
इस तरह से मुक्ति पाये. मगर यह कदम जोखिमभरा था, ख़तरनाक था.
जब तक वह दोनों हाथ ऊपर
उठाए, भागते हुए मैदान के बीच में पहुँचता, उसे दोनों ओर से - सीने और पीठ पर - गोली मारकर धरती पर गिरा देते,
अपने – किये गये विश्वासघात की सज़ा के लिये, पराये
– उसके इरादों को न समझते हुए. वह कई बार ऐसी परिस्थितियों में फँस चुका था,
उसने सारी संभावनाओं पर विचार कर लिया था और ख़ुद को बचाने की इन
योजनाओं को अनुपयुक्त पाया था. और अपनी दुविधा पर काबू पाते हुए डॉक्टर पेट के बल
लेटा रहा, चेहरा मैदान की ओर किये, बगैर
हथियार के घास से युद्ध को देखता रहा.
मगर अपने चारों ओर हो रहे
ज़िंदगी और मौत के बीच इस संघर्ष को निष्क्रियता से देखते रहना निरर्थक और मानवीय
शक्तियों से परे था. और, बात उस कैम्प के प्रति
वफ़ादारी की नहीं थी, जिसके साथ उसकी पराधीनता ने उसे जोड़
दिया था, न ही उसकी अपनी आत्मसुरक्षा की थी, बल्कि जो कुछ भी घटित हो रहा था, उसे समझने की थी,
उन नियमों का पालन करते हुए, जो उसके सामने और
उसके चारों ओर हो रहा था. इसके प्रति उदासीन रहना नियमों के विरुद्ध था. वही करना
चाहिये था, जो दूसरे लोग कर रहे थे. लड़ाई चल रही थी. उस पर
और उसके कॉम्रेड्स पर गोलियाँ चलाई जा रही थीं. पलट कर गोली चलाना ज़रूरी था.
और जब पंक्ति में उसकी बगल
में लेटा हुआ टेलिफोनिस्ट झटका लेकर ऐंठने लगा और फिर जम गया और सीधा तन गया,
निश्चल हो गया, तो यूरी अन्द्रेयेविच रेंगकर
उसके पास पहुँचा, उसका पर्स निकाला, उसकी
राईफ़ल ले ली और, पहली जगह पर आकर उससे एक के बाद एक गोलियाँ
बरसाने लगा.
मगर हमदर्दी के कारण वह
नौजवानों पर निशाना नहीं लगा सका, जिनसे उसे स्नेह
हो गया था और जिनके प्रति उसकी सहानुभूति थी. मगर मूर्ख की तरह सिर्फ हवा में
गोलियाँ मारना काफी बेवकूफ़ी थी और बेकार का काम था, जो उसके
लक्ष्य के विरुद्ध था. और ऐसे पल चुनकर जब उसके और टार्गेट्स के बीच कोई हमलावर नहीं
होता, उसने झुलसे हुए पेड़ को निशाना बनाते हुए उस पर गोलियाँ
चलाना शुरू कर दिया. उसके अपने तरीके थे.
निशाना साधते हुए और
लक्ष्य को अधिकाधिक अचूकता से देखते हुए अनजाने ही और ट्रिगर पर पूरा दबाव न बढ़ाते
हुए, जैसे फ़ायर करने का इरादा ही न हो, जब तक कि आशा के विपरीत ट्रिगर दब जाये और गोली चल जाये, डॉक्टर अपनी हमेशा की सटीकता से मरे हुए पेड़ के चारों ओर उसमें से टूटती
हुई नीचे वाली सूखी टहनियाँ बिखेरने लगा.
मगर,
ओह, भयानक! डॉक्टर ने चाहे कितनी ही सावधानी
क्यों न बरती हो, जिससे कि गोली किसी पर न चल जाये, मगर निर्णायक घड़ी में , राईफ़ल चलते समय, कभी एक तो कभी दूसरा हमलावर उसके और पेड़ के बीच घूमता रहा, और उसके लक्ष्य की रेखा को पार करता रहा. दो पर उसने गोली चला दी और
उन्हें ज़ख़्मी कर दिया, मगर तीसरे अभागे को, जो पेड़ से कुछ ही दूर गिरा था, अपनी जान गँवानी पड़ी.
आख़िरकार श्वेत कमाण्ड को
विश्वास हो गया कि कोशिश करना बेकार है, उसने पीछे
हटने का आदेश दे दिया.
पार्टिज़ानों की संख्या कम
ही थी. उनकी प्रमुख सेनाओं का कुछ भाग मार्च पर था, कुछ एक
किनारे चला गया था और दुश्मनों की बड़ी ताकत का सामना कर रहा था. टुकड़ी ने पीछे
हटने वालों का पीछा नहीं किया, जिससे अपनी कम संख्या के साथ
विश्वासघात न करें.
कम्पाऊण्डर अंगिल्यार
स्ट्रेचर्स के साथ दो अर्दलियों को मैदान के किनारे पर लाया. डॉक्टर ने उन्हें ज़ख़्मियों पर ध्यान देने का आदेश दिया, और ख़ुद निश्चल पड़े टेलिफ़ोनिस्ट की ओर गया. उसे हल्की-सी उम्मीद थी,
कि शायद, वह अभी भी साँस ले रहा हो और उसे
पुनर्जीवित करना संभव हो. मगर टेलिफ़ोनिस्ट मर चुका था. इस पर पूरा यकीन करने के
लिये यूरी अन्द्रेयेविच ने उसके सीने पर कमीज़ खोली और उसके दिल की धड़कन सुनने लगा.
वह काम नहीं कर रहा था.
मृतक की गर्दन में डोरी से
एक ताबीज़ लटक रहा था. यूरी अन्द्रेयेविच ने उसे निकाल लिया. उसके भीतर एक चीथड़े
में लिपटा हुआ कागज़ निकला, जो किनारों पर
बिखर गया था, मुड़ गया था. डॉक्टर ने उसके आधे फटे हुए और
बिखर चुके हिस्सों को खोला.
कागज़ पर प्रार्थना क्रमांक
90 के अंश लिखे हुए थे, उन परिवर्तनों और त्रुटियों
सहित, जो प्रार्थना करते समय लोग अक्सर करते हैं, बार-बार नकल करते हुए धीरे-धीरे मूल से दूर हटते जाते हैं. चर्च-स्लावोनिक
पाठ के अंशों को रूसी में लिखा गया था.
प्रार्थना में कहा गया है:
जो परमप्रधान के छाए हुए स्थान में बैठा है. रूसी लेख में वह शीर्षक बन गया है:
“जीवित आशा”. प्रार्थना की पंक्ति : “डरेगा नहीं...उस तीर से जो दिन में उड़ता है”
बदल गया है प्रेरणात्मक शब्दों में : “युद्ध में उड़ते हुए तीरों से न डर”. “ ...क्योंकि
उसने मेरे नाम को जान लिया है:, - प्रार्थना में
कहा गया है. और रूसी में लिखा है : “ देर से मेरा नाम जाना है,”. “संकट में मैं उसके संग रहूँगा, उसकी रक्षा
करूँगा...” रूसी लेख में हो गया था : “जल्दी ही वह ठण्ड में जायेगा”.
प्रार्थना का लेख
चमत्कारपूर्ण, गोलियों से रक्षा करने वाला समझा
जाता था. पिछले साम्राज्यवादी युद्ध में भी योद्धा उसे ताबीज़ के रूप में पहनते थे.
दशकों बीत गये और काफ़ी बाद में कैदी उसे अपने कपड़ों के भीतर सी कर पहनने लगे और
जेलों में बंद मुजरिम मन ही मन उसे दुहराने लगे, जब उन्हें
रात को जाँचकर्ताओं के पास पूछताछ के लिये बुलाया जाता.
टेलिफ़ोनिस्ट के पास से
यूरी अन्द्रेयेविच मैदान में नौजवान श्वेत गार्ड के जिस्म के पास गया,
जो उसकी गोली से मर गया था. नौजवान के ख़ूबसूरत चेहरे पर मासूमियत और
सब कुछ माफ़ करने वाली पीड़ा के लक्षण थे. “मैंने उसे क्यों मार डाला?” डॉक्टर ने सोचा.
उसने मृतक के ओवरकोट के
बटन खोले और उसके दोनों पल्ले पूरी तरह खोल दिये. अस्तर पर बड़े सुन्दर अक्षरों में,
प्रयत्नपूर्वक और प्यार भरे, शायद माँ के,
हाथ से कढ़ा हुआ था : सिर्योझा रान्त्सेविच, - जो
मृतक का नाम और कुलनाम था.
सिर्योझा की बाँह से एक
चेन बाहर आई जिस पर एक क्रॉस, कोई मेडल और एक
चपटी सुनहरी डिबिया जैसी चीज़, बाहर आये. डिबिया का ढक्कन
क्षतिग्रस्त हो गया था, जैसे उसे किसी कील से दबा दिया गया
हो. डिबिया आधी खुली थी. उसमें से तह किया हुआ कागज़ बाहर गिरा. डॉक्टर ने उसे खोला
और उसे अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ. ये वही 90 क्रमांक वाली प्रार्थना थी,
मगर छपे हुए और स्लाविक मौलिकता के रूप में.
इसी समय सेर्योझा कराहा और
उसका जिस्म तन गया. वह ज़िंदा था. बाद में पता चला कि वह हल्की सी अंदरूनी चोट से
स्तब्ध हो गया था. गोली माँ के ताबीज़ की दीवार से टकराई थी,
और इसीने उसकी रक्षा की थी. मगर बेहोश पड़े आदमी के साथ वह क्या कर
सकता था?
इस समय तक युद्ध करने
वालों का उन्माद चरम सीमा तक पहुँच चुका था. कैदियों को नियत स्थल तक जीवित नहीं
ले जाया जा रहा था, दुश्मन के ज़ख़्मियों को मैदान
में ही ख़त्म कर दिया जाता.
फॉरेस्ट-आर्मी की वर्तमान
स्थिति में, जब कभी नये शिकारी उसमें शामिल हो
जाते, तो कभी भाग जाते और पुराने सदस्य दुश्मन की फ़ौज में
वापस चले जाते, रान्त्सेविच को अत्यंत गुप्तता से रखना तभी
संभव था, जब उसे नये शामिल हुए सहयोगी के रूप में प्रस्तुत
किया जाता.
यूरी अन्द्रेयेविच ने मृत
टेलिफोनिस्ट के ऊपरी वस्त्र उतारे और उन्हें अंगेल्यार की सहायता से,
जिसे डॉक्टर ने अपनी योजना में शामिल कर लिया था, अभी भी बेहोश नौजवान को पहना दिया.
कम्पाऊण्डर के साथ मिलकर
उसने लड़के का इलाज किया. जब रान्त्सेविच पूरी तरह स्वस्थ्य हो गया,
तो उन्होंने उसे छोड़ दिया, हाँलाकि उसने अपनी
रक्षा करने वालों से यह नहीं छुपाया कि कल्चाक की फ़ौज में वापस जायेगा और रेड
आर्मी के साथ अपना संघर्ष जारी रखेगा.
5
शरद ऋतु में
पार्टिज़ान-कैम्प एक छोटे से जंगल में ऊँची पहाड़ी,
फॉक्स-पॉइन्ट पर था, जिसके नीचे, उसे
तीन तरफ़ से घेरती हुई, और किनारों को काटती हुई एक तेज़,
फ़ेनिल नदी बह रही थी.
पार्टिज़ानों से पहले यहाँ
कापेल की फ़ौजों ने सर्दियाँ बिताई थीं. उन्होंने अपने हाथों से और आसपास रहने वाले
लोगों के श्रम से जंगल की घेराबन्दी कर दी थी, और बसन्त
में उसे छोड़कर चले गये. अब उनके द्वारा बनाये गये खंदकों में, खाईयों में और आने-जाने के मार्गों में, जिन्हें
विस्फोटों से नहीं उड़ाया गया था, पार्टिज़ान बस गये थे.
लिबेरियस ने अपनी खंदक डॉक्टर
के साथ साझा की थी. ये लगातार दूसरी रात थी जब वह बातों में उसे व्यस्त रख रहा था,
सोने नहीं दे रहा था.
“मैं जानना चाहता था,
कि इस समय मेरे सम्मानित पिता, आदरणीय फ़ादर –
मेरे पापा क्या कर रहे होंगे.”
‘ख़ुदा,
इस जोकरों जैसे लहज़े को मैं ज़रा भी बर्दाश्त नहीं कर सकता,’ डॉक्टर ने आह भरते हुए अपने आप से कहा. ‘और ये है बिल्कुल
अपने बाप की प्रतिकृति!’
हमारी पिछली बातचीत से
मैंने यह अंदाज़ लगाया है कि आप अवेर्की स्तिपानविच को काफ़ी अच्छी तरह जान गये हैं.
और, मुझे ऐसा लगता है – कि आपकी उनके बारे में काफ़ी
अच्छी राय है. आँ, प्रिय महाशय?”
“लिबेरियस अवेर्किएविच,
कल युद्ध के मैदान हमारी चुनाव-पूर्व मीटिंग है. इसके अलावा वोद्का
बनाने वाले अर्दलियों का मुकदमा भी है. इस संबंध में मैंने और लायोश ने अभी तक
कागज़ात तैयार नहीं किये हैं. इस उद्देश्य से मैं कल सुबह उससे मिलने वाला हूँ. और
मैं दो रातों से सोया नहीं हूँ. इस बातचीत को फ़िलहाल स्थगित कर देते हैं. मेहेरबानी कीजिये.”
“नहीं
- फिर भी, अवेर्की स्तिपानविच की ओर वापस लौटते
हैं. बुढ़ऊ के बारे में आप क्या कहेंगे?”
“आपके पिता अभी भी बिल्कुल
जवान हैं, लिबेरियस अवेर्किएविच. आप उन के
बारे में ऐसा क्यों कहते हैं. और अब मैं आपको जवाब दूँगा. मैं अक्सर आपसे कहता रहा
हूँ, कि मैं इस सोशलिस्ट-रसायन की विभिन्न श्रेणियों के बारे
में अच्छी तरह नहीं जानता, बोल्शेविक तथा अन्य सोशलिस्टों के
बारे में कोई ख़ास अतर नहीं देखता. आपके पिता उस श्रेणी के हैं जिनके कारण रूस में
पिछले कुछ समय में परेशानियाँ और गड़बड़ हुई है. अवेर्की स्तिपानविच क्रांतिकारी
किस्म और चरित्र के व्यक्ति हैं. वैसे ही जैसे आप, वह रूसी उत्तेजनात्मकता
के प्रतिनिधि हैं”.
“ये क्या,
प्रशंसा है या दोषारोपण?”
“मैं फिर से विनती करता
हूँ कि इस बहस को किसी उचित समय तक स्थगित करें. इसके अलावा,
कोकीन की ओर भी आपका ध्यान आकर्षित करूँगा, जिसे
आप फिर से असीमित मात्रा में सूँघते हैं. आप उसे अपनी मर्ज़ी से मेरे आधीन जो स्टॉक
है उसमें से चुरा लेते हैं. हमें अन्य उद्देश्यों के लिये उसकी आवश्यकता है,
ये बात तो मैं कहूँगा ही नहीं कि वह ज़हर है और मैं आपके स्वास्थ्य
के लिये जवाबदेह हूँ”.
“आप फिर शाम की क्लास में
नहीं आये. आपकी सामाजिक ग्रंथि का नाश हो रहा
है, जैसे गँवार औरतों के या बेमुरौवत, निष्क्रिय
आवारा के साथ होता है. ऊपर से आप – डॉक्टर हैं, खूब पढ़ा है
और साथ ही, लगता है, ख़ुद भी कुछ न कुछ
लिखते हैं. ज़रा समझाईये इनका क्या मेल है?”
“पता नहीं,
कैसे. शायद, कुछ भी मेल नहीं है, कुछ नहीं कर सकते. मैं दया का पात्र हूँ.”
नम्रता घमण्ड से बेहतर
होती है. और ये इतनी ज़हरीली हँसी किसलिये, बेहतर
होता कि हमारे पाठ्यक्रमों के प्रोग्राम से वाकिफ़ हो जाते और ये समझ जाते कि आपका
अहंकार अनुचित है.”
“ख़ुदा आपके साथ है,
लिबेरियस अवेर्कियेविच! ये अहंकार कहाँ से आ गया! मैं आपके शिक्षाप्रद काम के आगे सिर झुकाता हूँ. कार्यसूची में प्रश्नों
की समीक्षा दुहराई जाती है. मैंने उसे पढ़ लिया. सैनिकों की आध्यात्मिक उन्नति के
बारे में आपके विचार मुझे मालूम हैं. मैं उनकी प्रशंसा करता हूँ. सब कुछ, जो पीपल्स-आर्मी के फ़ौजी के अपने कॉम्रेड्स के प्रति, दुर्बलों के प्रति, निस्सहायों के प्रति, औरत के प्रति, पवित्रता और सम्मान के प्रति व्यवहार
के बारे में कहा गया है, ये सब लगभग वही है जिसने ‘दुखोबोर’ की नींव रखी थी, ये
टॉल्स्टॉयवाद का एक प्रकार है, ये एक सम्मानपूर्ण अस्तित्व
का सपना है, मेरी किशोरावस्था इन्हीं मान्यताओं से ओतप्रोत थी.
क्या मैं ऐसी बातों पर हंसूँगा?
मगर,
पहली बात, सामान्य सुधार की कल्पना, वैसी जैसे उसे अक्टूबर से समझा जा रहा है, मुझे
उत्तेजित नहीं करती. दूसरी बात, यह अभी मूर्तरूप से बहुत दूर
है, और इसके बारे में केवल बातों के लिये ही खून की इतनी
नदियाँ बही हैं, कि, शायद, साध्य साधनों की पुष्टि नहीं करता. तीसरी बात, और ये
ख़ास है, जब मैं जीवन के पुनर्निर्माण की बात सुनता हूँ,
तो मैं अपने आप पर से नियंत्रण खो बैठता हूँ और बदहवासी के आलम में
खो जाता हूँ.
जीवन का पुनर्निर्माण! इस
पर लोग तर्क कर सकते हैं, जिन्होंने, शायद, दुनिया देखी है, मगर एक
भी बार जीवन को नहीं पहचाना, उसकी प्रकृति को, उसकी आत्मा को महसूस नहीं किया. उनके लिये अस्तित्व सिर्फ किसी वस्तु का एक
फूहड़-सा ढेला है, जो अभी तक उनके स्पर्श से परिष्कृत नहीं
हुआ है, जिसे परिष्करण की आवश्यकता है. मगर जीवन कभी भी कोई
सामग्री, कोई चीज़ नहीं होता. अगर जानना चाहते हैं तो सुनिये,
वह निरंतर अपना नवीनीकरण करने वाला, अपना पुनः
परिमार्जन करने वाला सिद्धांत है, वह चिरंतन काल तक स्वयम्
को पुनर्निर्मित और रूपांतरित करता है, वह हमारे मूर्खतापूर्ण
सिद्धांतों से कहीं ऊपर है”.
“फिर भी मीटिंग्स में आने
और हमारे लाजवाब, शानदार लोगों से बातें करने से,
मैं ये कहने की जुर्रत करूँगा, आपका मनोबल
बढ़ेगा. आप निराशा के गर्त में नहीं गिरेंगे. मुझे मालूम है कि ये निराशा कहाँ से
है. आप को ये डर सता रहा है कि हमें मारा जा रहा है, और आपको
आगे कोई मार्ग नहीं दिखाई दे रहा है. मगर, दोस्त, कभी भी डरना नहीं चाहिए. मैं इससे भी ज़्यादा ख़तरनाक बातें जानता हूँ,
जिनका मुझसे सीधा संबंध है, उन्हें कहना ठीक
नहीं है – मगर फिर भी मैं विचलित नहीं होता. हमारी असफ़लताएँ अस्थाई प्रकार की हैं.
कल्चाक की मृत्यु अवश्यंभावी है. मेरी बात याद रखना. आप देखेंगे. हम जीतेंगे. शांत
हो जाइये,”
‘नहीं,
ये अपनी ही तरह का नमूना है!’ डॉक्टर ने सोचा.
‘कैसा बचपना है! कितनी अदूरदर्शिता! मैं लगातार उसे हमारे
दृष्टिकोणॉं के विरोधाभास का यकीन दिला रहा हूँ, उसने
बलपूर्वक मुझे पकड़ लिया और बलपूर्वक अपने साथ रखा है, और वह
सोच रहा है कि उसकी असफ़लताओं से मुझे परेशान होना चाहिये, और
उसके अनुमान और आशाएँ मुझे साहस से भर देते हैं. कैसी आत्ममुग्धता! क्रांति के हित
और सौर्यमण्डल के अस्तित्व का उसके लिए एक ही है’.
यूरी अन्द्रेयेविच झुंझला
गया, उसने कोई जवाब नहीं दिया और सिर्फ कँधे उचका
दिये, बिल्कुल छुपाने की कोशिश न करते हुए कि लिबेरियस की
मासूमियत उसके सब्र का बांध तोड़ रही है और वह मुश्किल से अपने आप को रोक रहा है. लिबेरियस
से यह बात छुप न सकी.
“जुपिटर,
तुम गुस्सा हो रहे हो, मतलब तुम सही नहीं हो,”
उसने कहा.
“समझिये,
समझिये, आख़िरकार समझिये, कि यह सब मेरे लिये नहीं है.”
“ ‘जुपिटर’, ‘डर के आगे हार न मानना’, अगर किसी ने ‘अ’ कहा, तो मुझे ‘ब’ कहना चाहिये,
‘मूर ने अपना काम कर लिया है, मूर जा सकता है’,
- ये सब ओछी बातें, ये सारे मुहावरे मेरे लिये
नहीं हैं. मैं ‘अ’ कहूँगा, मगर ‘ब’ नहीं कहूँगा, चाहे मुझे चीर डालो और उड़ा दो. मैं मानता हूँ, कि आप
लोग रूस के दीपक और उद्धारक हो, आपके बिना तो निर्धनता और
अज्ञान में डूब कर वह नष्ट हो जाता, मगर फिर भी मुझे आपसे
कोई मतलब नहीं है और मैं आप पर थूकता हूँ, मैं आपको पसंद
नहीं करता और आप सब जहन्नुम में जाएँ मेरी बला से.
आपके विचारों के शासक
मुहावरों का मनमाना उपयोग करते हैं, मगर ख़ास बात वे
भूल गये हैं, कि ज़बर्दस्ती आप अच्छे नहीं बन सकते, और उन्हें पक्की आदत पड़ गई है आज़ाद करने और सुखी बनाने की, ख़ासकर उन्हें, जिन्होंने इस बारे में कुछ कहा ही
नहीं है. शायद, आप यह सोचते हैं कि मेरे लिये आपके कैम्प और
आपकी सोहबत से ज़्यादा अच्छी कोई जगह ही नहीं है. शायद, अपनी
पराधीनता के लिये मुझे आपको दुआ देनी चाहिये और धन्यवाद कहना चाहिये इसलिये कि
आपने मुझे अपने परिवार से, बेटे से, घर
से, काम से, हर उस चीज़ से आज़ाद किया जो
मुझे प्रिय है और जिसके बल पर मैं जीता हूँ.
अफ़वाहें आ रही हैं कि वरीकिना
पर अज्ञात गैर रूसी टुकड़ियों ने हमला कर दिया है. कहते हैं कि उसे नष्ट कर दिया
गया और लूट लिया गया है. कामेन्नाद्वोर्स्की इससे इनकार नहीं करता है. लगता है कि
मेरे और आपके लोग भागने में कामयाब हो गये हैं. कोई पौराणिक,
तिरछी आँखों वाले, रूई के जैकेट और हैट पहने
भयानक बर्फबारी में रीन्वा की जमी हुई सतह को पार करके घुस गये, बिना एक भी बुरा शब्द बोले बस्ती की हर ज़िंदा चीज़ को गोलियों से भून डाला,
और इसके बाद उसी तरह रहस्यमय ढंग से गायब हो गये जैसे प्रकट हुए थे.
आप इसके बारे में क्या जानते हैं? क्या ये सच है?”
“बकवास. कपोल-कल्पनाएँ.
अफ़वाहें फ़ैलाने वालों द्वारा अपुष्ट बकवास फ़ैलाई जा रही है.”
“अगर आप इतने भले और बड़े
दिलवाले हैं, जैसा कि सैनिकों की नैतिक शिक्षा
के निर्देशों के बारे में हैं, तो मुझे छोड़ दीजिये, आज़ाद कर दीजिये. मैं अपने लोगों को ढूँढ़ने निकल जाऊँगा, जिनके बारे में मुझे ये भी मालूम नहीं कि वे ज़िंदा हैं या नहीं, और हैं तो कहाँ हैं. और अगर ऐसा नहीं है तो कृपया ख़ामोश रहें, और मुझे अकेला छोड़ दें, क्योंकि और किसी बात में
मुझे कोई दिलचस्पी नहीं है, और मैं अपने आप के प्रति जवाबदेह
नहीं हूँ. और, आख़िर में, शैतान ले जाए,
मुझे कम से कम सोने की इच्छा करने का तो अधिकार है!”
यूरी अन्द्रेयेविच तकिये
में मुँह छुपा कर बिस्तर पर लेट गया. वह अपनी पूरी ताकत से अपनी सफ़ाई देते हुए
लिबेरियस की बात न सुनने की कोशिश कर रहा था, जो उसे
सांत्वना देने की कोशिश किये जा रहा था, कि बसंत के आते-आते
श्वेत गार्ड निश्चित रूप पराजित हो जायेंगे. गृह युद्ध समाप्त हो जायेगा, आज़ादी, ख़ुशहाली और शांति आयेगी. तब कोई भी डॉक्टर को
रोक कर नहीं रख सकेगा. मगर तब तक बर्दाश्त करना होगा. इतना सब कुछ सहने के बात और
इतनी कुर्बानियों के बाद, और ऐसी उम्मीद के साथ इंतज़ार अब
थोड़ा ही रह गया है. और अब डॉक्टर जायेगा भी कहाँ. उसकी अपनी भलाई के लिये फ़िलहाल
उसे अकेले को छोड़ना ठीक नहीं है.
‘शुरू कर
दिया अपना राग, शैतान कहीं का! ज़ुबान चलाये जा रहा है. एक ही
च्युइंग गम को इतने सालों से चबाते-चबाते उसे शर्म कैसे नहीं आती?’ एक आह भर कर यूरी अन्द्रेयेविच गुस्से से तिलमिला गया. ‘बहुत सुन ली तेरी बातें, सोने की ज़ुबान वाले,
कोकीन के अभागे गुलाम. रात उसके लिये रात नहीं है, इस नासपीटे के साथ न नींद है, न चैन. ओह, मैं उससे कितनी नफ़रत करता हूँ! ख़ुदा देखता है, मैं
किसी दिन उसे मार डालूँगा.
ओह,
तोन्या, गरीब बेचारी बच्ची! क्या तुम ज़िंदा हो?
कहाँ हो? ख़ुदा, उसका तो
काफ़ी पहले प्रसव होने वाला था! कैसा रहा प्रसव? कौन आया है
हमारे घर में, लड़का या लड़की? तोन्या, मेरे प्यारों, तुम सब कैसे हो? तोन्या, मैं हमेशा तुम्हारा गुनहगार रहूँगा! लारा,
तुम्हारा नाम लेते हुए भी डर लगता है, कहीं
नाम के साथ मेरे भीतर से कहीं रूह भी न निकल जाये. ख़ुदा! ऐ, मेरे
ख़ुदा! ये है कि लगातार बोले ही जा रहा है, घिनौना, संवेदनाहीन जानवर! ओह, किसी दिन मैं अपने आप को रोक
नहीं पाऊँगा और उसे मार डालूँगा, मार डालूँगा’.
6
सड़ी
गर्मियाँ ख़त्म हो गईं. शरद ऋतु के
सुनहरे साफ़ दिन थे. फॉक्स पॉइन्ट के
पश्चिमी कोने में वालन्टीयर्स के सुरक्षित बच गये ब्लोकहाउस का बुर्ज़ ज़मीन से निकल
रहा था. यहाँ यूरी अन्द्रेयेविच अपने सहकारी डॉक्टर लायोश से मिलकर कुछ सामान्य
बातों पर चर्चा करने वाला था. नियत समय पर यूरी अन्द्रेयेविच यहाँ पहुँच गया. अपने
कॉम्रेड के इंतज़ार में वह गिरी हुई खाई की मिट्टी की कगार का चक्कर लगाने लगा, ऊपर चढ़कर गार्डहाऊस में गया और मशीनगनों के लिये बने
खाली छेदों से नदी के उस पार फैले हुए विस्तीर्ण जंगलों को देखने लगा.
शरद
ऋतु ने शंकुधारी और पर्णपाती जगत के बीच गहरी सीमा रेखा खींच दी थी. पहला अँधेरी, लगभग काली दीवार की तरह गहराई में खड़ा था, दूसरा शराब के चमकीले धब्बों जैसा, बीच-बीच में आग की तरह दमक रहा था, जैसे जंगल की गहराई में, उसी के
वृक्षों से बना हुआ कोई छोटा-सा प्राचीन शहर अपने बुर्ज़ और सुनहरे गुम्बदों के साथ
दमकता है.
खाई
में, डॉक्टर के पैरों के नीचे और जंगल में पड़ी लकीरों में, भोर की बर्फ से ढँके और सख़्त हो चुके रास्ते की मिट्टी
पर विलो वृक्षों के सूखे,
छोटे-छोटे, कटे हुए ,
गुड़ीमुड़ी हो गये पत्तों
की घनी पर्त जम गई थी.
इन कड़वे कत्थई पत्तों और
अनेक वनस्पतियों से शरद की ख़ुशबू आ रही थी. यूरी अन्द्रेयेविच अधीरता से बर्फ से
सराबोर सेबों की. कड़वे सूखे पत्तों की,
मीठी नमी की और पानी से
बुझाए गए अलाव और अभी-अभी बुझाई गई आग के
धुँए की याद दिलाती सितम्बर की नीली गर्माहट की मिली-जुली ख़ुशबू सूँघ रहा था.
यूरी
अन्द्रेयेविच ने ध्यान ही नहीं दिया कि कैसे पीछे से लायोश उसके पास आया.
“नमस्ते, साथी,”
उसने जर्मन में कहा. वे
अपना काम करने लगे.
“हमारे
सामने तीन बातें हैं. चोरी छुपे शराब बनाने वालों के बारे में, फील्ड-हॉस्पिटल और फ़ार्मेसी के पुनर्गठन के बारे में
और तीसरी, मेरे आग्रह पर, मानसिक
बीमारियों का आउट-पेशन्ट की तरह इलाज करना, युद्ध भूमि
की परिस्थितियों में. हो सकता है,
आप इसकी ज़रूरत को नहीं
देख रहे हों,
मगर मेरे निरीक्षणों के
अनुसार हम मानसिक संतुलन खो रहे हैं,
प्यारे लायोश, और वर्तमान पागलपन के प्रकार एक संक्रामक, संसर्गजन्य रूप धारण कर रहे हैं.”
“बहुत
दिलचस्प सवाल है. मैं इस पर बाद में आऊँगा. फ़िलहाल बात ये है. कैम्प में गड़बड़ चल
रही है. चोरी छुपे शराब बनाने वालों का भाग्य सहानुभूति की माँग कर रहा है. कई
लोगों को परिवारों के भाग्य की भी चिंता है, जो
गाँवों से श्वेत सेनाओं से बचकर भागे थे. पार्टिज़ानों का एक हिस्सा कैम्प से बाहर
निकलने से इनकार कर रहा है,
क्योंकि उनकी पत्नियों, बच्चों और बूढों को लेकर आ रही गाड़ियाँ नज़दीक आ रही
हैं.”
“हाँ,
उनका इंतज़ार करना होगा.”
“और
ये सब एक सर्वोच्च कमाण्डर के चुनाव से पहले, जो
संयुक्त रूप से उन टुकड़ियों के लिये भी कमाण्डर होगा जो हमारे अधीन नहीं हैं. मैं
सोचता हूँ – इकलौता उम्मीदवार है कॉम्रेड लिबेरियस. नौजवानों का समूह किसी और का
प्रचार कर रहा है,
व्दवीचेन्का का. उसके
पीछे हमारे लिये अनजान लोगों का गुट है, जो चोरी-छुपे
शराब बनाने वालों के साथ मिल गया है,
कुलाकों और दुकानदारों
के बच्चे, कल्चाक के भगोड़े. ख़ास तौर से वे बहुत शोर मचा रहे
हैं.”
“आपकी
राय में उन अर्दलियों का क्या होगा,
जो चोरी-छुपे शराब बनाते
और बेचते थे?”
“मेरे
ख़याल से उन्हें गोली मार देने की सज़ा सुनाएँगे और फिर माफ़ कर देंगे, सज़ा को किन्हीं शर्तों के साथ जोड़कर.”
“ख़ैर, हम बातों में बह गये. काम पर वापस आते हैं. फील्ड-हॉस्पिटल
का पुनर्गठन. सबसे पहले मैं इस पर ध्यान देना चाहूँगा.”
“ठीक
है. मगर मुझे कहना पड़ेगा कि मानसिक रोगों से बचाव के बारे में आपके प्रस्ताव में
कोई आश्चर्य की बात नहीं है. मेरी भी यही राय है. कुछ अजीब तरह के मानसिक रोग
प्रकट हुए हैं और उनका प्रसार हो रहा है, जिनमें
समय के विशिष्ठ लक्षण हैं,
जिनका इस युग की
ऐतिहासिक विशेषताओं से सीधा संबंध है. हमारे यहाँ त्सार की फ़ौज का एक सिपाही है, बहुत जागरूक, उसमें
जन्मजात वर्ग-प्रवृत्ति है,
पाम्फिल पलीख. वह इसी के
कारण पगला गया है,
अपने निकट सम्बंधियों के
लिये डर से, कि यदि वह मारा गया, और वे
श्वेत गार्ड्स के हाथ पड़ जायेंगे और उसके कामों के लिए जवाबदेह होंगे. बहुत उलझी
हुई मनःस्थिति है. उसके परिवार के लोग,
शायद, शरणार्थियों की गाड़ियों में हैं और वे हमें पकड़ लेंगे.
भाषा के अपर्याप्त ज्ञान के कारण मैं उससे पूरी बात पूछने में असमर्थ हूँ.
अंगेल्यार या कामेन्नाद्वोर्स्की से पूछ लीजिये. उसकी जाँच करनी होगी.
“मैं
पलीख को बहुत अच्छी तरह जानता हूँ. कैसे नहीं जानूँगा. एक समय मिलिट्री कौन्सिल
में टकरा गया था . ऐसा साँवला,
क्रूर, सँकरे माथे वाला. समझ में नहीं आता, कि आपको उसमें क्या अच्छी बात नज़र आई. हमेशा परले सिरे
की, कड़ाई की,
मृत्यु दण्ड की बात करता
है. और हमेशा मुझे उससे घृणा होती रही. ठीक है, मैं
उसकी ओर ध्यान दूँगा.”
7
साफ़
धूप वाला दिन था. शांत,
सूखा मौसम था, जैसा पिछले पूरे सप्ताह था.
कैम्प
की गहराई से इन्सानों की एक बड़ी बस्ती से
दूर से आती समुंदर की गर्जना जैसा शोर सुनाई दिया. बीच बीच में जंगल में घूमते हुए
कदमों की आहट,
लोगों की आवाज़ें, कुल्हाडियों की खटखट, निहाइयों
पर हो रही टन्-टन्,
घोडों की हिनहिनाहट, कुत्तों का भौंकना और मुर्गों की बाँग सुनाई दे रही
थी. जंगल से धूप से भूरे हो गये,
सफ़ेद दाँतों वाले, मुस्कुराते हुए लोगों के झुण्ड जा रहे थे. उनमें से
कुछ लोग डॉक्टर को जानते थे और वह झुककर उसका अभिवादन कर रहे थे, दूसरे,
जो उसके लिये अपरिचित थे, बिना अभिवादन किये पास से गुज़र रहे थे.
हालाँकि
पार्टिज़ान फॉक्स पॉइन्ट से जाने को तैयार नहीं थे जब तक उनके पीछे-पीछे गाड़ियों पर
आ रहे उनके परिवार उनसे मिल नहीं जाते,
जो कैम्प से कुछ ही दूर
थे और जंगल में शीघ्रता से कैम्प को उखाड़ कर उसे और आगे पूरब में ले जाने की
तैयारियाँ चल रही थीं. किसी चीज़ की मरम्मत की जा रही थे, सफ़ाई की जा रही थी, संदूकों
को बंद किया जा रहा था,
गाड़ियों की गिनती की जा
रही थी और उनकी हालत का मुआयना हो रहा था.
जंगल
के बीच में पैरों से कुचला गया एक बड़ा मैदान था, किसी
टीले या किले जैसा,
जिसे स्थानीय भाषा में ‘बुयविश्चे’
कहते थे. यहाँ पर अक्सर
फ़ौजी सभाएँ होती थीं. आज भी वहाँ कोई महत्वपूर्ण घोषणा करने के लिये एक सामान्य
सभा होने वाली थी.
जंगल
में अभी काफ़ी ऐसी हरियाली थी जो पीली नहीं पड़ी थी. बिल्कुल गहराई में वह अभी तक
ताज़ा और हरा था. भोजन के बाद का नीचे जाता हुआ सूरज उसे पीछे से अपनी किरणें चुभो
रहा था. पत्ते सूरज के प्रकाश को जाने दे रहे थे और उनकी भीतरी सतह पारदर्शक हरी
बोतल के काँच की तरह चमक रही थी.
खुले
लॉन पर अपने संग्रह के पास कम्युनिकेशन प्रमुख कामेन्नाद्वोर्स्की सभी देखे गये और
अनावश्यक कागज़ात जला रहा था,
जो उसे कापेल की फ़ौज के
दफ़्तर से मिले थे,
और जिनमें उसके अपने, पार्टिज़ानों के हिसाब-किताब के कागज़ों के गट्ठे भी थे.
अलाव की आग इस तरह आयोजित थी,
कि वह सूरज के सामने पड़
रही थी. वह पारदर्शी ज्वाला से इस तरह चमक रहा था, जैसे
जंगल की हरियाली से गुज़र रहा हो.
आग
नज़र नहीं आ रही थी,
और सिर्फ गोल-गोल घूमते
अभ्रक के कणों जैसी गर्म हवा की फ़ुहारों से ही निष्कर्ष निकाला जा सकता था, कि कुछ जल रहा है और चमक रहा है.
जंगल
यहाँ-वहाँ हर तरह की पकी हुई शोख बेरीज़ के रंगों से सजा था : दिल के आकार की नाज़ुक
लटकन जैसी बेरीज़,
लाल-भूरी मोटी
एल्डरबेरीज़, गुलदर के रसीले सफ़ेद-लाल गुच्छे. अपने काँच जैसे पंखों
को फड़फड़ाते हुए,
छींटेदार और आग तथा जंगल
की तरह पारदर्शी ड्रैगन फ्लाइज़ (व्याध- पतंग) हवा में हौले-हौले तैर रहे थे.
यूरी
अन्द्रेयेविच को बचपन से ही धुंधलके की आग से प्रकाशित शाम का जंगल अच्छा लगता था.
ऐसे क्षणों में मानो वह भी अपने भीतर इन प्रकाश स्तम्भों को जाने देता था. जैसे
जीवित आत्मा का उपहार उसके सीने में बहाव की तरह प्रवेश कर जाता, उसके समूचे अस्तित्व को छेदकर पंखों की जोड़ी के समान
कंधों की हड्डी के नीचे से बाहर निकलता. ताज़गी की वह प्रतिमा, जो जीवनभर के लिये हरेक के मन में पैंठ जाती है और फिर
हमेशा के लिये उसे अपना भीतरी चेहरा,
अपना व्यक्तित्व प्रतीत होती है, अपने समूचे पहले वाले जोश से उसके भीतर जाग गई, और उसने प्रकृति को, जंगल
को, साँझ की लाली को और हर दृश्य चीज़ को वैसे ही आरंभिक और
सब कुछ अपने आगोश में लेने वाले लड़की-सदृश रूप को धारण करने पर मजबूर कर दिया.
“लारा!” आँखें बंद करके वह हल्के से फुसफुसाया या ख़यालों में अपनी पूरी ज़िंदगी से, ईश्वर की समूची धरती से, हर उस
चीज़ से जो उसके सामने,
सूरज से चमकते क्षेत्र
में फ़ैली थी मुख़ातिब हुआ.
लेकिन
रोज़मर्रा के,
वास्तविक जीवन से
संबंधित सब कुछ चल ही रहा था,
रूस में अक्टूबर क्रांति
चल रही थी, वह पार्टिज़ानों की कैद में था. और, उसे ख़ुद को ही पता नहीं चला कि वह कैसे
कामेन्नाद्वोर्स्की के अलाव के पास पहुँच गया.
“पुराने
दस्तावेज़ नष्ट कर रहे हैं?
अभी तक जलाये नहीं?”
“कहाँ!
ये सब अभी काफ़ी देर तक चलेगा.”
डॉक्टर
ने जूते की नोक से ज़मीन पर पड़े हुए एक गट्ठे को धकेल कर खोला. ये श्वेत गार्डों का
तार द्वारा किया गया पत्र व्यवहार था. एक धुँधला-सा विचार कि इन कागज़ों में उसे
कहीं रान्त्सेविच का नाम दिखाई देगा,
उसके दिमाग में कौंध गया, मगर उसे निराशा मिली. ये पिछले साल के अत्यंत
संक्षिप्त किये गये सांकेतिक संदेशों का संग्रह था, जो
बिल्कुल रोचक नहीं था. जैसे : “ओम्स्क गेनक्वार्वेख पहला कॉपी ओम्स्क नाश्ताओक्र
चालीस मील एनिसेय ओम्स्क का नक्शा नहीं आया.” उसने पैर से दूसरा गट्ठा हटाया.
उसमें से पार्टिज़ानों की पुरानी सभाओं के विवरण फिसल कर बाहर आये. सबसे ऊपर पड़ा था
कागज़ : “अति शीघ्र. छुट्टियों के बारे में. ऑडिट कमिटी के सदस्यों का
पुनर्निर्वाचन. वर्तमान. इग्नाताद्वोर्त्सी गाँव की शिक्षिका द्वारा लगाये गये आरोपों
की पुष्टि न होने के संबंध में,
आर्मी-कौन्सिल का ख़याल
है...”
तभी
कामेन्नाद्वोर्स्की ने अपनी जेब से कुछ निकाला, डॉक्टर
को दिया और कहा:
“अगर
हम कैम्प से कूच करते हैं,
तो ये रही आपकी
मेडिकल-टुकड़ी का सूचीपत्र. पार्टिज़ानों के परिवारों के लेकर आ रही गाड़ियाँ नज़दीक
पहुँच गई हैं. कैम्प के विवाद आज सुलझा लिये जायेंगे. अब किसी भी समय हम जा सकते
हैं.”
डॉक्टर
ने कागज़ पर नज़र डाली और आह भरी.
“मुझे
पिछली बार जितना दिया गया था,
ये तो उससे कम है. और
ज़ख़्मियों की संख्या कितनी बढ़ गई है! जो चल-फिर सकते हैं और जिनकी पट्टी हो चुकी है, वे पैदल चले जाएँगे. मगर ऐसे बहुत कम है. और गंभीर रूप
से ज़ख़्मियों को मैं कैसे ले जाऊँगा?
और दवाएँ, और पलंग,
उपकरण!”
“किसी
तरह इंतज़ाम कर लीजिये. परिस्थितियों के अनुसार समझौता करना चाहिये. और अब दूसरी
बात के बारे में. हम सब की तरफ़ से ये सामूहिक विनती है. यहाँ एक कॉम्रेड है, मंजा हुआ,
अच्छी तरह जाँचा-परखा
हुआ, कर्तव्य के प्रति समर्पित और लाजवाब योद्धा. उसके साथ
कुछ अजीब-सा हो रहा है.”
“पालिख? लायोश मे मुझे बताया है.”
:हाँ.
उसके पास जाइये. जाँच कीजिये.”
“कोई
मानसिक तकलीफ़?”
“ऐसा
ही सोचता हूँ. कुछ कुलबुलाहट की शिकायत करता है. शायद, मतिभ्रम
हो. अनिद्रा. सिरदर्द.”
“ठीक
है. फ़ौरन जाता हूँ. अभी मेरे पास ख़ाली समय है. मीटिंग कब शुरू हो रही है?”
“मेरा
ख़याल है कि बस होने ही वाली है. मगर आप को उससे क्या? देखिये, मैं भी नहीं गया, हमारे बिना
भी काम चल जायेगा.”
“तो
मैं पम्फील के पास जाता हूँ. हालाँकि मेरे पैर थकान से टूट रहे हैं, इतनी नींद आ रही है. लिबेरियस अवेर्कियेविच को रात को
फ़लसफ़ा झाड़ना अच्छा लगता है,
मुझे बेज़ार कर दिया है.
पम्फील के पास कैसे जाऊँ?
वह कहाँ रहता है?”
“भरी
हुई खाई के पीछे बर्च वृक्षों की बगिया मालूम है? बर्च
के पौधे.”
“ढूँढ़
लूँगा.”
“वहाँ
मैदान में कमाण्डर के तम्बू हैं. हमने उन्हीं में से एक पम्फील को दिया है. परिवार
की उम्मीद में. उसकी बीबी और बच्चे गाड़ी में आ रहे हैं. तो, वह कमाण्डर के तम्बुओं में से एक तम्बू में है. बटालियन-कमाण्डर
के अधिकार से. अपनी क्रांतिकारी सेवाओं के लिये.”
8
पम्फील
के पास जाते हुए रास्ते में डॉक्टर को ऐसा महसूस हुआ कि उसमें आगे चलने की ताकत ही
नहीं है. थकान ने उसे दबोच लिया था. वह नींद पर काबू नहीं पा सका, ये कई सारी रातों की अधूरी नींद जमा हो जाने का परिणाम
था. अपनी खंदक में वापस जाकर झपकी लेना संभव था. मगर यूरी अन्द्रेयेविच वहाँ जाने
से डर रहा था. वहाँ किसी भी समय लिबेरियस आ सकता था और उसे परेशान कर सकता था.
वह
जंगल में ऐसी जगह पर लेट गया जहाँ बहुत सारे पेड़-पौधे नहीं थे, और जो आसपास के पेडों से उड़कर आने वाले सुनहरे पत्तो
से आच्छादित थी. पत्ते मैदान पर ‘चेकर-बोर्ड’ के
डिज़ाइन की तरह पड़े थे. सूरज की किरणें भी उसी तरह उनके सुनहरे कालीन पर पड़ी थीं.
ये दुहरी चमक आँखों में चकाचौंध पैदा कर रही थी. वह सुला रही थी, जैसा बारीक अक्षरों वाली किताब पढ़ने से या लगातार एक
जैसी बुदबुदाहट सुनते रहने से होता है.
डॉक्टर
रेशम जैसे सरसराते पत्तों पर लेट गया,
सिर के नीचे रखे हाथ को
काई पर रखकर,
जिसने पेड़ की खूँटों जैसी
जड़ों को तकिये की तरह ढाँक लिया था. वह पल भर में ऊँघने लगा. सूरज के छींटेदार
धब्बे, जिन्होंने उसे सुला दिया था, उसके ज़मीन पर फैले हुए जिस्म को चौखाने जैसे डिज़ाइन से
ढाँक रहे थे,
और जैसे उसे अदृश्य, किरणों और पत्तों के कैलिडोस्कोप का एक अविभाज्य अंग
बना रहे थे, जैसे उसने एक अदृश्य बनाने वाली टोपी पहन ली हो.
जल्दी
ही जिस शिद्दत के साथ वह नींद की ज़रूरत महसूस कर रहा था और सोना चाहता था, उसीने उसे जगा दिया. सीधे कारण सिर्फ आनुपातिक सीमा के
भीतर ही काम करते हैं. उससे विचलित होने पर विपरीत प्रतिक्रिया होती है. बेचैन, जागृत चेतना यूँ ही बेकार में पूरे जोश से काम किये जा
रही थी. विचारों के छोटे-छोटे टुकड़े बवण्डर की तरह उठ रहे थे और पहिये की तरह घूम
रहे थे, लगभग खड़खड़ाते हुए, किसी
बिगड़ी हुई कार की तरह. यह मानसिक उलझन
डॉक्टर को परेशान कर रही थी और गुस्सा दिला रही थी.
“हरामी
लिबेरियस”, उसने गुस्से से कहा, “ उसके
लिये क्या यह कम है कि दुनिया में इन्सान को पागल बनाने के लिये सैंकड़ों कारण हैं.
अपनी कैद से,
अपनी दोस्ती से और
बेवकूफ़ीभरी बकवास से वह बेवजह ही एक तंदुरुस्त आदमी को मानसिक रोगी बना रहा है.
मैं किसी दिन उसे मार डालूँगा”.
खुलते
और बन्द होते कपड़े के टुकड़े की तरह धूप की तरफ़ से कत्थई धब्बों वाली तितली उड़ते
हुए गुज़री. उनींदी आँखों से डॉक्टर उसकी उड़ान को देखता रहा. वह उस चीज़ पर बैठती
जिसका रंग उसके अपने रंग से मेल खा रहा था, कत्थई
छींटे वाली पाईन वृक्ष की छाल पर,
जिससे वह पूरी तरह मिल
गई और उसे देखना मुश्किल हो गया. तितली बेमालूम तरीके से उसमें अदृश्य हो गई, जैसे किसी बाहर से देखने वाले के लिये यूरी
अन्द्रेयेविच उसके ऊपर खेल रही धूप-छाँव के जाल के नीचे बिना कोई निशान छोड़े खो
गया था.
जाने-पहचाने
विचारों के समूह ने यूरी अन्द्रेयेविच को दबोच लिया. उसने चिकित्सा-शास्त्र से
संबंधित अपने कई लेखों में अप्रत्यक्ष रूप से उनका ज़िक्र किया था. इच्छा और औचित्य
के बारे में,
जो अनुकूलता में सुधार के परिणाम हैं. मिमिक्री, अनुकरणीय और सुरक्षा प्रदान करने वाले रंग के बारे
में. योग्यतम व्यक्ति के अस्तित्व के बारे में, उस
बारे में, कि,
हो सकता है, प्रकृति द्वारा बनाई गई राह से ही चेतना का विकास और
उद्गम संभव है. विषय क्या है?
उद्देश्य क्या है? उनके तादात्म्य की परिभाषा कैसे दी जाये? डॉक्टर के विचारों में डार्विन की मुलाकात शिलिंग से
हो रही थी, और उड रही तितली की आधुनिक पेंटिंग से, प्रभाववादी (इम्प्रेशनिस्ट) कला से. वह रचना के बारे
में, रचित वस्तु के बारे में, रचनात्मकता
के बारे में और दिखावे के बारे में सोच रहा था.
और
वह फिर से सो गया,
और एक मिनट बाद फिर से
उठ गया. उसे पास ही में दबी ज़ुबान में हो रही बातचीत ने जगा दिया. उस तक आये कुछ
ही शब्द काफ़ी स्पष्ट थे यूरी अन्द्रेयेविच के समझने के लिये, कि किसी गुप्त, गैरकानूनी
बात के बारे में चर्चा हो रही है. ज़ाहिर है, षड़यंत्रकारियों
ने उसे देखा नहीं था,
उन्हें ज़रा भी संदेह
नहीं था कि वह बगल में ही है. अब अगर वह ज़रा भी हिलता और अपनी मौजूदगी को ज़ाहिर
करता, तो उसकी जान जा सकती थी. यूरी अन्द्रेयेविच छुप गया, जम गया और ध्यान से सुनने लगा.
कुछ
आवाज़ों को वह जानता था. ये मैल था, पार्टिज़ानों का गंदा झाग, वो
आवारा लड़के जो उससे चिपक गये थे – सेन्का पफ्नूत्किन, गोशा
रिबीख, कोस्का निख्वालेनिख और उनके पीछे-पीछे खिंचा हुआ तिरेन्ती
गलूज़िन, गंदी चालों वाले और उपद्रवी. उनके साथ ज़खार गराज़्दीख
भी था, ये नमूना और भी ज़्यादा घिनौना था, जो चोरी से दारू बनाने वालों में भी शामिल था, मगर फिलहाल उस पर कोई मुकदमा नहीं चलाया जा रहा था
क्योंकि उसने मुख्य आरोपियों के नाम बता दिये थे. यूरी अन्द्रेयेविच को इनके बीच
“सिल्वर कम्पनी” के सिवाब्ल्युय की उपस्थिति से आश्चर्य हुआ. सिवाब्ल्युय प्रमुख
के व्यक्तिगत सुरक्षा दस्ते में था. राज़िन और पुगाचोव के समय से चली आ रही परम्परा
के अनुसार, इस घनिष्ठ अनुचर को,
लिबेरियस द्वारा उस पर दिखाये गये विश्वास के कारण प्रमुख का कान भी कहा जाता था.
मतलब, वह भी षड़यंत्र का भागीदार था.
षड़यंत्रकारी
दुश्मनों की अग्रिम टुकड़ियों से भेजे गए लोगों से चर्चा कर रहे थे. इन दूतों की
आवाज़ बिल्कुल सुनाई नहीं दे रही थी,
इतनी धीमी आवाज़ में वे
विश्वासघातियों के साथ योजना बना रहे थे, और
सिर्फ अंतरालों में,
जो उनकी फुसफुसाहट के
बीच हो रहे थे,
यूरी अन्द्रेयेविच ने
अंदाज़ लगाया कि अब दुश्मनों के प्रतिनिधि बात कर रहे हैं.
सबसे
ज़्यादा हर पल गालियाँ देते हुए अपनी भर्राई, बेसुरी
आवाज़ में बोल रहा था शराबी ज़खार गराज़्दिख. वह शायद प्रमुख षड़यंत्रकारी था.
“अब
सुनो. ख़ास बात – ख़ामोश,
गुपचुप. अगर किसी ने
होशियारी दिखाने की कोशिश की तो ये चक्कू देखा है? इसी चक्कू
से आँते बाहर निकाल दूँगा. समझ गये?
अब हमारे लिये कोई और
रास्ता नहीं है,
चाहे कहीं भी जाओ एस्पन वृक्ष
से ही लटकना है. माफ़ी माँग लेना होगी. ऐसा कारनामा करना होगा जो दुनिया ने देखा न
होगा, हटके. वे उसे ज़िंदा माँगते हैं, रस्सियों से बँधा हुआ. अब सुनो, इस जंगल में उनका मुखिया गुलेवोय आ रहा है. (उसे बताया
गया कि सही नाम क्या है,
उसने सुना नहीं और
सुधारा: “जनरल गलेयेव”.) ऐसा मौका दुबारा नहीं आयेगा. ये रहे उनके आदमी. वो
तुम्हें बताएँगे. वे कहते हैं,
बँधा हुआ, ज़िंदा ही पकड़ना है, कोई
गलती न हो. ख़ुद ही कॉम्रेड्स से पूछ लो. बोलो, छोकरों.
उनसे कुछ तो कहो,
भाइयों.”
अजनबियों
ने, जिन्हें भेजा गया था, बोलना
शुरू किया. यूरी अन्द्रेयेविच एक भी शब्द सुन नहीं पाया. आम ख़ामोशी के लम्बे होने
से बात की गंभीरता का अंदाज़ लगाया जा सकता था. गराज़्दिख ने फिर से बोलना शुरू
किया.
“सुना, भाईयों?
अब आप ख़ुद ही देखो, कैसा सोने का ख़ज़ाना हमें मिला है, कैसा मीठा शरबत. क्या ऐसे आदमी के लिये हम जान कुर्बान
करेंगे? क्या ये इन्सान है? ये
बिगड़ा हुआ, खुश रहने वाला
– जैसे कोई बौना या फ़कीर हो. मैं तेरे थोबड़े पे दूँगा, तेरेश्का! तू दाँत क्यों निकाल रहा है, सदोम के पाप? तेरे
दाँत दिखाने के लिये नहीं बोल रहा हूँ. हाँ. जैसे नौजवान फ़कीर. तू उसके हवाले अपने
आपको कर दे, और वह तुझे पूरा फ़कीर, हिजड़ा
बना देगा. बातें कैसी करता है?
हमारे बीच से भगा देंगे, गालियों को, शराबखोरी
को, औरतों से बुरे बर्ताव को. क्या कोई इस तरह जी सकता है? आख़िरी बात. आज शाम को नदी के पास, जहाँ पत्थर रखे हैं. मैं उसे खुले में लाऊँगा. झुण्ड
बनाकर टूट पड़ेंगे. उससे निपटने में चालाकी की क्या ज़रूरत है? फट् से हो जायेगा. तो फिर परेशानी क्या है? वो उसे ज़िंदा चाहते हैं. बांधना होगा. और अगर देखूँगा
कि हमारे हिसाब से काम नहीं हो रहा है,
तो ख़ुद ही संभाल लूँगा, अपने हाथों से काम तमाम कर दूँगा. वो अपने लोगों को
भेजेंगे, मदद करेंगे.”
बोलने
वाला षड़यंत्र की योजना समझा रहा था,
मगर औरों के साथ वह दूर
जा रहा था, और डॉक्टर उनकी बातें नहीं सुन सका.
“ये
तो लिबेरियस को,
कमीने!” ख़ौफ़ और गुस्से
से डॉक्टर सोच रहा था,
यह भूलकर कि कितनी ही
बार वह अपने सताने वाले को गालियाँ दे चुका है और उसकी मौत की कामना करता रहा है.
“ ये ख़तरनाक लोग या तो उसे श्वेत गार्ड्स के हवाले करना चाहते हैं, या मार डालना चाहते हैं. इसे कैसे रोका जाये? संयोगवश अलाव के पास जाकर, और
किसी का भी नाम न लेते हुए कामेन्नाद्वोर्स्की को जानकारी देना चाहिये. और किसी
तरह लिबेरियस को ख़तरे के बारे में चेतावनी देना चाहिये.”
कामेन्नाद्वोर्स्की
पहले वाली जगह पर नहीं था. अलाव बुझ रहा था. आग पर नज़र रखने के लिये
कामेन्नाद्वोर्स्की का सहायक था,
ताकि आग इधर-उधर न फ़ैल
जाये.
मगर
हमला नहीं हुआ. उसे बीच में ही रोक दिया गया. पता चला, कि
षड़यंत्र के बारे में लोग जान गये थे. इस दिन उसका पूरी तरह पर्दाफ़ाश हो गया और
षड़यंत्रकारियों को पकड़ लिया गया. सिवाब्ल्युय ने दोहरी भूमिका निभाई – जासूस की और
फ़ुसलाने वाले की. डॉक्टर का मन और अधिक वितृष्णा से भर गया.
9
पता चला कि भाग कर आ रही
औरतें और बच्चे सिर्फ कुछ ही दूरी पर हैं. फॉक्स पॉइन्ट पर घरवालों से शीघ्र मिलने
की और इसके बाद नियत कार्यक्रम के अनुसार कैम्प को हटाने और आगे कूच करने की
तैयारियाँ चल रही थीं. यूरी अन्द्रेयेविच पम्फील पालिख के पास गया.
डॉक्टर ने उसे टेंट के प्रवेश
के पास हाथ में कुल्हाडी लिये पाया. टेंट के सामने खम्भों के लिये काटे गये नये
बर्च वृक्षों का ढेर था, पम्फील ने उन्हें अब तक छोटा
नहीं किया था. कुछेक तो वहीं काटे गये थे और, अपने पूरे भार
समेत टूट कर, टूटी हुई टहनियों के नुकीले सिरों से गीली ज़मीन
में घुस गये थे. कुछ और पेड़ों को वह थोड़ी दूर से घसीट कर ला रहा था और ढेर के ऊपर
रख रहा था. थरथराते हुए और ज़िद्दी, लचीली टहनियों पर झूलते
हुए, बर्च के वृक्ष न तो ज़मीन को छू रहे थे, न ही एक दूसरे को. जैसे वह उन्हें तोड़ने वाले पम्फील से छिटक कर दूर जा
रहे थे और जैसे जंगल की समूची जीवित हरियाली से उसे टेंट में जाने से रोक रहे थे.
“प्यारे मेहमानों के
इंतज़ार में,” पम्फील ने समझाया कि वह किस काम
में व्यस्त है. “बीबी, बच्चों के लिये टेंट नीचा पड़ेगा. और
बारिश में पानी से भर जाता है. खंभों से ऊपर उठाना चाहता हूँ. कुछेक काटे हैं.”
“तू ये बेकार ही में सोच
रहा है, पम्फील, कि
परिवार को तेरे साथ टेंट में रहने की इजाज़त देंगे. गैर फ़ौजियों को, औरतों को और बच्चों को सीधे फ़ौजों के बीच रहने देना, कहीं ऐसा देखा है? उन्हें कहीं किनारे पर गाड़ियों के
साथ रखेंगे. खाली समय में उनसे मिलने जाया करना, उनका हालचाल
पूछना. मगर फ़ौजी टेंट में, मुश्किल ही है. मगर बात ये नहीं
है. कह रहे थे कि तू दुबला होता जा रहा है, खाना-पीना छोड़
दिया है, सोता नहीं है? मगर देखने में
तो ठीक-ठाक हो. सिर्फ कुछ खुरखुरे हो गये हो.”
पम्फील पालिख एक
हट्टा-कट्टा मर्द था, बिखरे बालों और दाढ़ी वाला,
माथे पर घूमड़ था, जो माथे की हड्डी के मोटा हो
जाने के कारण था, और किसी अंगूठी या ताँबे के छल्ले जैसा
उसकी कनपटियों को जकड़ता था जिससे दुहरे माथे का आभास होता था. इसके कारण पम्फील के
चेहरे पर दुष्टता, कटुता का भाव आ गया था. ऐसे आदमी का जो काणा
है और कनखियों से देखता है.
क्रांति के आरंभ में,
जब सन् उन्नीस सौ पाँच के उदाहरण को देखते हुए इस बात से डर रहे थे
कि इस बार भी क्रांति उच्च शिक्षित वर्ग के इतिहास में अल्पकालीन घटना होगी और
निचले स्तरों तक नहीं पहुँचेगी और उनके भीतर पैर नहीं जमायेगी, जनता पूरी ताकत से लोगों में प्रचार करने की कोशिश कर रही थी, उन्हें क्रांतिकारी बना रही थी, उन्हें खतरे का
एहसास दिला रही थी, जागृत कर रही थी और उनमें क्रोध भर रही
थी.
इन आरंभिक दिनों में सैनिक
पम्फील पालिख जैसे लोग, जो बिना किसी आंदोलन के,
बुद्धिजीवियों, बार और अफ़सरशाही से उग्र,
क्रूर घृणा करते थे, उत्साही वामपंथियों को एक
उपलब्धि ही प्रतीत होते थे और उनकी भयानक माँग थी. उनकी अमानवीयता को वर्ग चेतना
के चमत्कार के रूप में देखा जाता था, उनकी बर्बरता को सर्वहारा
दृढ़ता और क्रांतिकारी प्रवृत्ति का आदर्श समझा जाता था. ऐसी थी पम्फील की ख्याति.
पार्टिज़ान कैम्पों और पार्टी के नेताओं के लिये वह बेहतरीन लोगों की सूची में था.
यूरी अन्द्रेयेविच को यह
उदास और गुमसुम ताकतवर व्यक्ति हर चीज़ के प्रति उसकी बेदिली के कारण,
एकसारता के कारण, और हर उस चीज़ के प्रति घृणा
के कारण जो उसके निकट थी और उसमें कोई दिलचस्पी जगा सकती थी, सामान्य रूप से विकृत प्रतीत नहीं हुआ.
“टेन्ट में जायेंगे,”
पम्फील ने आमंत्रित किया.
“नहीं,
किसलिये. और मैं भीतर घुस नहीं पाऊँगा. बाहर हवा में ज़्यादा अच्छा
है.”
“ठीक है. जैसी तेरी मर्ज़ी.
सही में, बिल्कुल गुफ़ा जैसा है. हम इन डंडों
पर (ऐसा उसने लम्बाई में काटे गये पेड़ों के बारे में कहा) बैठकर बतियाएँगे.
कहते हैं,
कि कहानी जल्दी से ख़त्म हो जाती है, मगर काम
फ़ौरन नहीं होता. और मेरी तो कहानी भी जल्दी से नहीं ख़त्म होगी. तीन सालों में भी
पूरी नहीं कर पाऊँगा. पता नहीं कहाँ से शुरू करूँ.
ख़ैर,
सुनो. मैं अपनी बीबी के साथ
रहता था. जवान थे हम. वह घर का काम करती थी. मुझे कोई शिकायत नहीं थी, मैं खेती-बाड़ी करता था. बच्चे. फ़ौज में भर्ती कर लिया. पार्श्व सैनिक बना
कर युद्ध पर भगा दिया. ख़ैर, लड़ाई जो थी. मैं तुझे उसके बारे
में क्या बताऊँ. तू उसे देख चुका है, कॉम्रेड डॉक्टर. ख़ैर,
क्रांति. मैं देखने लगा था. सैनिक की आँखें खुल गई थीं. जर्मन वो
नहीं, जो जर्मनी का है, पराया है,
बल्कि वह जो अपना हो. विश्व-क्रांति के सैनिकों, संगीनें धरती में गाड़ो, मोर्चे से घर जाओ, बुर्जुआ से लढ़ो! और इसी तरह का. तू ख़ुद ही ये सब जानता है, कॉम्रेड डॉक्टर. वगैरह, वगैरह. गृह युद्ध.
पार्टिज़ानों के साथ मिल गया. अब मैं बहुत कुछ छोड़ दूँगा, वर्ना
तो ये कभी ख़तम ही नहीं होगा. अब, विस्तार से कहूँ, या संक्षेप में कहूँ, इस समय मैं क्या देखता हूँ?
उसने, परजीवी (पैरासाइट) ने रूसी मोर्चे से पहली
और दूसरी स्ताव्रापोल्स्की रेजिमेंट निकाल ली और पहली ओरेनबुर्ग की कज़ाक रेजिमेंट
हटा ली. मैं क्या छोटा हूँ, समझता नहीं हूँ? क्या मैंने फ़ौज में काम नहीं किया है? हमारी हालत
बुरी है, फ़ौजी डॉक्टर, हमारी हालत बहुत
बुरी है. वह, सुअर, क्या चाहता है?
इन सब को लेकर हम पर हमला करने चला था. वह हमें घेरे में लेना चाहता
था.
अब,
वर्तमान में मेरी बीबी है, बच्चे हैं. अब अगर
वह हम पर कब्ज़ा करता है तो वे उससे बचकर कहाँ जायेंगे? क्या
वह इस बात पर गौर करेगा कि वे बिल्कुल बेगुनाह हैं, उनका कोई
लेना-देना नहीं है? क्या वह इस बात पर ग़ौर करेगा. मेरी वजह
से बीबी के हाथ मरोडेगा, उसे यातनाएँ देगा, मेरी वजह से बीबी और बच्चों को सतायेगा, उनके हाथ-पैर
काट देगा, हड्डियाँ चूर-चूर कर देगा. यहाँ पड़े-पड़े खाते रहो,
सोते रहो, माफ़ करना. बेकार ही में फ़ौलादी
दिखता हूँ, दिल तो टूटता है.”
“अजीब है तू,
पम्फील. मैं तुझे समझ नहीं पा रहा हूँ. इतने साल उनके बगैर गुज़ार
दिये, उनके बारे में तुझे कुछ पता नहीं था, उनके बारे में दुखी नहीं हुआ. और अब, आज-कल में उनसे
मिलने वाले हो, और ख़ुश होने के बजाय उनके लिये शोकगीत गा रहे
हो.”
वो पहले की बात थी,
मगर अब और तब में बहुत फ़र्क है. श्वेत अजगर हमें दबोच रहा है. मगर
बात मेरे बारे में नहीं है. मेरा रास्ता तो कब्र की ओर है. वहीं, लगता है, मुझे जाना है. मगर मैं अपने रिश्तेदारों को
तो अपने साथ दूसरी दुनिया में नहीं ना ले जाऊँगा. वे पीछा करने वाले के चंगुल में
फँस जायेंगे. वह उनके ख़ून की एक-एक बूँद निकाल देगा.”
“और इसलिये तुम्हारे दिमाग़
में कीड़े कुलबुलाते हैं? कहते हैं, तुम्हें कोई कीड़े नज़र आते हैं.”
“नहीं,
बिल्कुल सही नहीं है. मैंने तुम्हें पूरी बात बताई नहीं है. ख़ास बात
नहीं बताई है. चलो, ख़ैर, मेरा चुभता
हुआ सच सुनो, टोकना मत, मैं तुम्हें सब
कुछ साफ़-साफ़ बताऊँगा.
मैंने आपके कई भाईयों को
उस दुनिया में पहुँचाया है, मेरे हाथों पर
बहुत सारा खून है मालिकों का, अफ़सरों का और न जाने किस
किसका. उनके नाम, तादाद याद नहीं हैं, सारा
पानी बह चुका है. मगर एक जोशीला नौजवान मेरे दिमाग़ से जाता
नहीं है, एक नौजवान को मैंने मार डाला, भूल नहीं सकता. मैंने उस छोकरे को क्यों मार डाला? हँसा
रहा था, हँसा-हँसा कर मारे डाल रहा था. हँसते-हँसते मैंने उस
पर गोली चला दी, बेवकूफ़ी से. बिना किसी वजह के.
फरवरी की क्रांति के दौरान
ये हुआ था. केरेन्स्की के ज़माने में. हम विद्रोह कर रहे थे. ये रेलवे स्टेशन पर
हुआ था. हमारे पास एक छोकरे जैसे आंदोलनकारी को भेजा गया था,
जो भाषणों से हमें हमला करने के लिये उकसाये. ताकि हम आख़िरी विजय तक
लढ़ते रहें. ये कैडेट आया अपनी ज़ुबान से हमें दिलासा देने. इतना छोटा-सा था. उसका
नारा था : “अंतिम जीत तक”. यह नारा लगाते हुए वह आग बुझाने वाली पानी की टंकी पर
चढ़ गया. आग बुझाने वाली टंकी स्टेशन पर थी. वह उछल कर, याने, टंकी पर चढ़ गया, जिससे वहाँ से हमें युद्ध के लिये
प्रेरित करे, और अचानक उसके पैरों के नीचे टंकी का ढक्कन
उलटा हो गया, और वह पानी में गिरने लगा. लड़खड़ा गया. ओय,
कितना मज़ेदार था! मैं लोटपोट होने लगा. सोच रहा था कि मर जाऊँगा. ओय,
ख़तरनाक! और मेरे हाथों में बंदूक थी. और मैं ठहाके लगा रहा हूँ,
लगा रहा हूँ, और रोक नहीं पा रहा हूँ. जैसे वह
मुझे गुदगुदा रहा था. तो, मैंने निशाना लगाया और उसे वहीं
ढेर कर दिया. ख़ुद भी समझ नहीं पाया कि ऐसा कैसे हो गया. जैसे किसीने हाथ के नीचे
से मुझे धक्का दिया था.
ये ही हैं कीड़े,
जो मेरे दिमाग़ में कुलबुलाते रहते हैं. रातों को स्टेशन का आभास
होता है. तब तो मज़ा आया था, मगर अब अफ़सोस होता है.
“क्या ये मेल्युज़ेयेवो में
हुआ था, स्टेशन बिर्यूची पर?”
“याद नहीं.”
“क्या ज़िबूशिना के
नागरिकों के साथ विद्रोह कर रहे थे?”
“याद नहीं.”
“मोर्चा कौन सा था?
कौनसे मोर्चे पर? पश्चिमी?”
“शायद पश्चिमी. सब मुमकिन
है. याद नहीं है.”
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