Friday, 16 April 2021

एक डॉक्टर की कहानी - 1

 

 

डॉक्टर झिवागो 

 लेखक

बरीस पस्तरनाक

 

हिंदी अनुवाद

आ. चारुमति रामदास

 



1

अध्याय 1


पाँच बजे वाली एक्स्प्रेस ट्रेन

1

वे चल रहे थे और चलते-चलते “चिर स्मृति” गाते जा रहे थे, और जब वे रुकते, तो ऐसा लगता, कि उनके पैर, घोड़े, हवा के झोंके भी निरंतर गाते जा रहे थे.

रास्ता चलते लोग इस जुलूस को जगह देते, पुष्पचक्र गिनते, सलीब का निशान बनाते.

उत्सुक लोग जुलूस में शामिल हो जाते, पूछते : “किसे दफ़ना रहे हैं?” उन्हें जवाब मिलता “ झिवागो को” “ये बात है, तब सब समझ में आ गया.” – “अरे पति को नहीं. पत्नी को”. – “एक ही बात है. ख़ुदा जन्नत बख़्शे. शानदार जनाज़ा है”.

अंतिम क्षण आ पहुँचे, गिने चुने, वापस न लौटने वाले.

ये ज़मी और जो कुछ उसमें है, ख़ुदा का है, पूरी कायनात और उस पर रहने वाले सभी”.      

पादरी ने सलीब का निशान बनाते हुए मुट्ठी भर मिट्टी मारिया निकलायेव्ना के जिस्म पर फेंकी. उन्होंने “पवित्र आत्माओं से” गाया. भयानक भाग-दौड़ मच गई. ताबूत को बन्द करके उसमें कीलें ठोंक दी गईं, और उसे नीचे उतारने लगे.

शोर मचाते हुए मिट्टी की बारिश होने लगी, जिसे चार फ़ावडों द्वारा जल्दी जल्दी कब्र पर धकेला जा रहा था. उसके ऊपर एक छोटा सा टीला बन गया. उस पर दस साल का एक बालक चढ़ गया.

सिर्फ दिङ्मूढ़ता और संज्ञाहीनता की स्थिति में ही, जो अक्सर बड़े अंतिम संस्कार के अंत में उत्पन्न हो जाती हैं, ऐसा प्रतीत हो सकता था कि बालक माँ की कब्र पर कुछ कहना चाहता है.   

उसने सिर उठाया और ऊँचाई से शरद ऋतु की वीरान धरती और मॉनेस्ट्री के गुम्बदों की ओर खोई-खोई नज़र से देखा. उसका चपटी नाक वाला चेहरा विकृत होने लगा. उसकी गर्दन बाहर को निकल आई. अगर कोई भेड़िये का पिल्ला इस तरह से अपना सिर उठाता, तो पता चल जाता कि अब वह चीख़ना चाहता है. हाथों से चेहरा ढाँककर वह सिसकियाँ लेने लगा. उसके निकट आता हुआ बादल उसके हाथों और चेहरे पर ठण्डी बौछारों की मार करने लगा.

कसी हुई बाहों वाली काली पोशाक पहने एक आदमी कब्र के पास आया. ये मृतक महिला का भाई और रोते हुए बालक का मामा, भूतपूर्व प्रीस्ट निकलाय निकलायेविच विदेन्यापिन था, जिसे उसकी प्रार्थना पर प्रीस्टशिप से हटा दिया गया था. वह बालक के पास आया और उसे कब्रिस्तान से बाहर ले गया.

 

2.

रात उन्होंने मॉनेस्ट्री के एक कमरे में गुज़ारी जो कोल्या अंकल को पुरानी पहचान के कारण दिया गया था. “इंटरसेशन” (निवेदन-प्रार्थना) की पूर्व संध्या थी. दूसरे दिन उसे मामा के साथ दूर – साउथ में, वोल्गा क्षेत्र के एक प्रांतीय शहर में जाना था, जहाँ फ़ादर निकलाय एक प्रकाशन गृह में काम करता था, जो उस इलाके का एक प्रगतिशील अख़बार निकालता था. ट्रेन के टिकिट ख़रीद लिए गए थे, सामान बाँध दिया गया था और कमरे में रखा था. बगल में ही स्थित रेल्वे स्टेशन से हवा दूर कहीं शंटिंग कर रहे इंजिनों की कराहती हुई सीटियाँ ला रही थी.

शाम तक ठण्ड काफ़ी बढ़ गई. ज़मीन से लगी हुई दो खिड़कियाँ उपेक्षित किचन-गार्डन के कोने में खुलती थीं, जिसमें पीले अकासिया की झाड़ियाँ थीं, पगडंडी के जमे हुए डबरों और कब्रिस्तान के उस छोर पर, जहाँ दिन में मारिया निकलायेव्ना को दफ़नाया गया था. गार्डन वीरान था, सिर्फ ठण्ड से नीली पड़ गई गोभी की कुछेक क्यारियों को छोड़कर. जब हवा चलती, तो अकासिया की पर्णहीन झाडियाँ उड़ने लगतीं, दानवों के समान, और रास्ते पर बिछ जातीं.

रात को खिड़की पर हुई दस्तक ने यूरा को जगा दिया. अँधेरी कोठरी को एक सफ़ेद, फड़फड़ाती रोशनी अलौकिक रूप से आलोकित कर रही थी. एक कमीज़ में ही यूरा खिड़की के पास भागा और उसने ठण्डे शीशे से चेहरा सटा लिया.

खिड़की के बाहर ना तो पगडंडी थी, ना कब्रिस्तान, ना ही गार्डन. आँगन में बर्फ का तूफ़ान तांडव कर रहा था, हवा से बर्फ की भाप निकल रही थी. ऐसा लग रहा था, कि बर्फीले तूफ़ान ने यूरा को देख लिया है, और अपनी भयानकता को महसूस करते हुए, उस पर हो रहे परिणाम का मज़ा ले रहा है. वह सीटियाँ बजा रहा था और चिंघाड़ रहा था और सभी उपायों से यूरा का ध्यान आकर्षित करने की कोशिश कर रहा था. आसमान से ज़मीन पर निरंतर एक अंतहीन सफ़ेद वस्त्र खुलता जा रहा था, मानो उसे कफ़न में लपेट रहा हो. धरती पर बर्फीला तूफ़ान अकेला ही था, कोई भी उसका मुकाबला नहीं कर रहा था.

खिड़की की सिल से उतरने के बाद यूरा के मन में इच्छा हुई कि गर्म कपड़े पहने और बाहर भागे, ताकि कुछ कर सके.

कभी उसे डर लगता कि मॉनेस्ट्री की गोभी दब जायेगी और उसे बाहर नहीं निकाल पायेंगे, कभी ये डर लगता कि बाहर उसे माँ दिखाई देगी, और वह इस बात का प्रतिकार करने में असमर्थ होगी, कि उससे अधिकाधिक दूर, और ज़्यादा गहरे-गहरे ज़मीन के भीतर जा रही है.

इसका अंत आँसुओं से ही हुआ. मामा जाग गए, उन्होंने उसे येशू के बारे में बताया और सांत्वना दी, और फिर उबासी ली, खिड़की के पास गए और कुछ सोचने लगे. वे कपड़े पहनने लगे. उजाला हो रहा था.

 

3

जब तक माँ ज़िंदा थी, यूरा को मालूम नहीं था, कि पिता ने उन्हें कब का छोड़ दिया है, वह साइबेरिया के विभिन्न शहरों में और विदेशों में घूमते हैं, ख़ूब शराब पीते हैं और ऐयाशी करते हैं, और ये कि उन्होंने काफ़ी पहले ही करोड़ों की पारिवारिक सम्पत्ति धूल में उड़ा दी थी. यूरा को हमेशा यही बताया गया कि वह कभी पीटर्सबुर्ग में है, या कभी किसी मेले में, ज़्यादातर इर्बित में हैं.

और फिर माँ की, जो हमेशा बीमार रहती थी, तपेदिक की बीमारी का पता चला. वह इलाज के लिए दक्षिणी फ्रान्स या इटली के उत्तरी भागों में जाने लगे, जहाँ दो बार यूरा भी उसके साथ गया था. तो, यूरा का बचपन एक अस्तव्यस्त वातावरण में और निरंतर पहेलियों के बीच अक्सर पराये लोगों के साथ बीता, जो हमेशा बदलते रहते थे. उसे इन परिवर्तनों की आदत हो गई, और हमेशा के इस बेतरतीब वातावरण में पिता की अनुपस्थिति उसे आश्चर्यचकित नहीं करती थी.

उसे अपने बचपन का वह ज़माना याद है जब उसके पारिवारिक नाम से कई चीज़ें जानी जाती थीं.

 इनमें थीं झिवागो फैक्ट्रियाँ, झिवागो बैंक, झिवागो बिल्डिंग्स, झिवागो टायपिन, कोई एक गोल-गोल, रम बेचने वाली महिला जैसा केक भी झिवागो के नाम से जाना जाता था, और एक समय मॉस्को में बस गाड़ीवान से चिल्लाकर कहना काफ़ी था, “झिवागो के यहाँ!”, बिल्कुल जहन्नुम में चलो!” कहने जैसा, और वह स्लेज गाड़ी में आपको दूर की जादूनगरी में ले जाता. एक ख़ामोश पार्क आपको घेर लेता. फ़र के पेड़ों की लटकती टहनियों पर, उनके ऊपर जमी हुई बर्फ को गिराते कौए बैठते. सूखी टहनियों की चरमराहट जैसी उनकी काँव-काँव चारों ओर गूँजती. सड़क के दूसरी ओर से, नई इमारतों के पीछे की गली से, ऊँची नस्ल के कुत्ते भागते. वहाँ अलाव जलाए जाते. शाम होने लगती. अचानक ये सब बिखर गया, वे निर्धन हो गए.

 

4

सन् 1903 की गर्मियों के एक दिन दो घोड़ों वाली गाड़ी में खेतों से होते हुए यूरा अपने मामा के साथ उपयोगी ज्ञान के लोकप्रिय लेखक और शिक्षक इवान इवानविच वस्काबोयनिकव से मिलने सिल्क-मिल के मालिक और कला के महान संरक्षक कलाग्रीवव की जागीर दुप्ल्यान्का जा रहा था.

कज़ान-माता का उत्सव था, फ़सल कटाई का मौसम. या तो दोपहर के भोजन का समय था, या त्यौहार के कारण खेतों में कोई भी दिखाई नहीं दे रहा था. कैदियों के अधमुंडे सिरों जैसे खेतों की अधकटी फ़सल वाले हिस्सों पर सूरज आग बरसा रहा था.     

खेतों के ऊपर पंछी मंडरा रहे थे. शांत हवा में गेंहूँ के पौधे अपनी बालियाँ झुकाए सीधे खड़े थे, या अपने डंठल पर झुककर रास्ते से दूर किसी नोकदार छड़ की तरह खड़े थे, देर तक उनकी ओर देखने से ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानो कुछ आकृतियाँ चल-फिर रही हों, जैसे क्षितिज के छोर पर ज़मीन नापने वाले घूम रहे हों और कुछ लिख रहे हों.

“और ये,” निकोलाय निकोलायेविच ने प्रकाशन गृह के चौकीदार और मज़दूर पावेल से पूछा, जो कोचवान वाले बक्से पर तिरछा बैठा था, कंधे झुकाए और पैर पर पैर रखे, ये दिखाने के लिए कि वह नियमित कोचवान नहीं है और व्यवसाय के नियमों के आधीन नहीं है – “और ये वाले किसके हैं, ज़मीन्दार के या किसानों के?”

“ये वाले मालिकों के,” पावेल ने जवाब दिया और उसने सिगरेट जलाई, “और ये वाले”, एक गहरा कश लेकर, उसने लम्बी ख़ामोशी के बाद चाबुक के सिरे से दूसरी तरफ़ इशारा करते हुए कहा, “ ये अपने हैं.”

“ऐ, सो गए क्या?” वह बार-बार घोड़ों पर चिल्लाता, जिनकी पूँछों और पुट्ठों पर वह पूरे समय नज़र रख रहा था, जैसे कोई इंजिन-ड्राइवर अपने मैनोमीटर्स की ओर देखता रहता है.

मगर घोड़े, दुनिया के सभी घोड़ों की तरह चल रहे थे, मतलब, शाफ्ट वाला घोड़ा स्वभावगत सरलता से जा रहा था, और दूसरा किसी नासमझ गाड़ीवान को आलसी नज़र आ रहा था, जो सिर्फ इतना ही जानता था, कि, हँस की तरह गर्दन निकालकर घण्टियों की आवाज़ के साथ उछले, जो उसीकी टापों से उत्पन्न हो रही थी.                   

निकलाय निकलायेविच वस्काबोयनिकव के पास “ज़मीन के प्रश्न” पर लिखी उसकी किताब के प्रूफ़्स ले जा रहा था, जिसे, सेन्सर के बढ़ते हुए दबाव को देखते हुए, प्रकाशक ने दुबारा देखने की विनती की थी.

“जिले में लोग शरारत कर रहे हैं,” निकलाय निकलायेविच ने कहा. “पान्कोव्स्काया कस्बे में व्यापारी का गला रेत डाला, ग्राम सभा का घोड़ों का फ़ार्म जला दिया. तुम इस बारे में क्या सोचते हो? तुम्हारे यहाँ गाँव में इस बारे में क्या कहते हैं?”

मगर पता चला कि पावेल चीज़ों की ओर और भी निराशा से देखता है, सेन्सर से भी ज़्यादा, जिसने वस्काबोयनिकव के कृषि संबंधी शौक को संयमित कर दिया था.

“क्या कहते हैं? लोगों को छूट दे दी है. कहते हैं, सिर चढ़ गए हैं. क्या हमारे भाई-बन्दों के साथ कुछ हो सकता है? किसान को छूट दो, तो वो एक दूसरे को ही दबाएँगे, जैसे सचमुच ख़ुदा हों. ओय, सो गए क्या?”          

मामा- भाँजे की दुप्लान्का की ये दूसरी यात्रा थी. यूरा का ख़याल था कि उसे रास्ता याद है, और हर बार जब चौड़े खेत भागते और अपनी महीन सीमा-रेखा से जंगलों को आगे-पीछे से  ढाँक लेते, यूरा को लगता कि वह उस जगह को पहचान लेगा जहाँ से रास्ता दाईं ओर मुड़ेगा, और मोड़ से ही दस मील का कलाग्रीवव का दृश्य, दूर बहती चमकती नदी और उसके पीछे भागती रेल की पटरियों सहित लुका-छिपी खेलेगा. मगर वह हर बार धोखा खा रहा था. खेतों के बाद खेत निकलते रहे. उन्हें बार-बार जंगल ढाँक लेता. स्थानों का ये परिवर्तन उदात्त मानसिकता का कारण था. भविष्य के बारे में सोचने और सपने देखने का मन हो रहा था.

निकलाय निकलायेविच को बाद में जिन पुस्तकों से प्रसिद्धि प्राप्त हुई, उनमें से एक भी तब तक नहीं लिखी गई थी. मगर उसके विचार मूर्त रूप ग्रहण कर रहे थे. वह नहीं जानता था कि उसका समय कितना करीब था.

जल्दी ही तत्कालीन साहित्य के प्रतिनिधियों, विश्वविद्यालय के प्रोफेसरों और क्रांति के दार्शनिकों के बीच यह आदमी प्रकट होने वाला था, जो उनके सभी विषयों पर सोचता था और जिसका शब्दावली के सिवा उनसे कोई लेना-देना नहीं था.      

वे सब किसी न किसी सिद्धांत से जुड़े थे और सिर्फ शब्दों तथा दृश्यों से संतुष्ट हो जाते थे, मगर फ़ादर निकलाय एक प्रीस्ट थे, जो टॉल्स्टॉयवाद और क्रांति देख चुके थे और हमेशा अपने समय से आगे रहते थे. उन्हें परों वाले - किसी भौतिक विचार की तलाश थी, जो सहजता से परिभाषित राह पर चले और दुनिया में अच्छे परिवर्तन लाए और जो किसी बालक को और अनाड़ी को भी समझ में आ जाए, जैसे बिजली की चमक या तूफ़ान की गड़गडाहट. उसे नयेपन की लालसा थी.

यूरा को मामा का साथ अच्छा लगता था. वह माँ जैसा था. उसी की तरह वह आज़ाद ख़याल, किसी भी असाधारण चीज़ के ख़िलाफ़ पूर्वाग्रह से वंचित था. उसके दिल में माँ की ही तरह हर सजीव प्राणि के प्रति समानता की कुलीन भावना थी. वह भी, उसी की तरह, पहली ही नज़र में सब समझ जाता था और विचारों को उसी रूप में प्रकट कर सकता था, जिसमें वे पहली बार दिमाग़ में अवतरित होते हैं, जब तक वे जीवित हैं और अर्थहीन नहीं हो जाते.

यूरा को इस बात की ख़ुशी थी, कि मामा उसे अपने साथ दुप्ल्यान्का ले जा रहे हैं. वहाँ बेहद ख़ूबसूरत था, और उस जगह की मनोहरता माँ की याद भी दिलाती थी. इसके अलावा, यूरा को ये भी अच्छा लग रहा था कि वह फिर से नीका दुदोरव से मिलेगा, जो स्कूल में पढ़ता था और वस्काबोयनिकोव के यहाँ रहता था, जो शायद उसका तिरस्कार करता था, क्योंकि उससे दो साल बड़ा था, और जो हस्तांदोलन करते समय ज़ोर से हाथ नीचे खींचता था और अपना सिर इतना नीचे झुकाता था, कि बाल माथे पर आ जाते और उसके चेहरे को आधा ढाँक लेते.

 

5

“दरिद्रता का प्रमुख कारण है,” निकलाय निकलायेविच ने संशोधित पाण्डुलिपि से पढ़ा.

“मेरा ख़याल है, ‘मूलतत्त्व कहना बेहतर होगा,” इवान इवानविच ने कहा और प्रूफ़ में ज़रूरी सुधार कर दिया.

वे शीशे लगी टेरेस के धुँधलके में काम कर रहे थे. आँख को बेतरतीब पड़े हुए बागवानी के औज़ार और पौधों को पानी देने के हज़ारे नज़र आ रहे थे. आधी टूटी कुर्सी की पीठ पर एक रेनकोट पड़ा था. कोने में दलदली जूते खड़े थे जिन पर जमी हुई गंदगी सूख कर कड़ी हो गई थी और उनके शैफ्ट ज़मीन तक लटक रहे थे.

“फिर जन्म और मृत्यु के आँकड़े बताते हैं,” निकलाय निकलायेविच लिखवा रहा था.

“यहाँ संबंधित वर्ष सम्मिलित करना होगा,” इवान इवानविच ने कहा और नोट कर लिया.

 टेरेस कुछ ऊबड़-खाबड़ थी. ब्रोश्यूर के पन्नों पर ग्रेनाइट के टुकड़े रखे थे ताकि वे उड़ न जाएँ.

जब काम ख़त्म हो गया तो निकलाय निकलायेविच तत्परता से घर जाने के लिए उठा.

“आँधी-तूफ़ान आ रहा है. चलना चाहिए.”

“ऐसा सोचिये भी नहीं. नहीं जाने दूँगा. अभी चाय पियेंगे.”

“मुझे शाम तक हर हालत में शहर पहुँचना है.”

“कोई फ़ायदा नहीं. मैं कुछ भी सुनना नहीं चाहता.”

सामने वाले बगीचे से समोवार के तपने की गंध आई, जिसने तम्बाकू और फूलों की ख़ुशबू को दबा दिया. वहाँ आउटहाउस से खट्टा क्रीम, बेरीज़ और चीज़केक लाया गया. अचानक सूचना मिली कि पावेल नहाने के लिए नदी पर गया है और घोड़ों को भी नहलाने के लिए ले गया है. निकलाय निकलायेविच को मानना ही पड़ा.

“चलिए, चट्टान पर चलते हैं, थोड़ी देर बेंच पर बैठेंगे, तब तक चाय आ जायेगी.

इवान इवानविच दोस्ती की ख़ातिर रईस कलाग्रीवव के यहाँ कारिन्दे के आउट हाउस में दो कमरों में रहता था. ये छोटा सा घर, सटे हुए बाग समेत पार्क के पुराने अर्ध गोलाकार प्रवेश मार्ग सहित अँधेरे, वीरान हिस्से में था. प्रवेश मार्ग पर घनी घास ऊग आई थी. अब उस पर कोई आवागमन नहीं था, सिर्फ मिट्टी और निर्माण सामग्री का कूड़ा खाई में डालने के लिए लाया जाता था, जो सूखे कचरे को अपने भीतर समेट लेती थी. प्रगतिशील विचारों वाला और करोड़पति, क्रांति के प्रति सहानुभूति रखने वाला कलाग्रीवव ख़ुद अभी विदेश में था. जागीर में सिर्फ उसकी बेटियाँ नाद्या और लीपा अपनी गवर्नेस और थोड़े-से नौकरों के साथ रहती थीं.

कारिन्दे के छोटे से बाग को काली कलीना’ (क्षारपर्णी वनस्पति – वाइबर्नम – अनु.) की घनी बागड़ पूरे पार्क से – उसके पोखरों, डबरों समेत और मालिक के घर से अलग करती थी. इवान इवानविच और निकलाय निकलायेविच ने इस बागड़ को बाहर से पार किया, और जैसे जैसे वे चल रहे थे, उनके सामने समान अंतराल से चिड़ियों के एक जैसे झुण्ड उड़कर बाहर आते, जिनसे कलीनाकी झाड़ियाँ आबाद थीं. इससे वातावरण में एकसुर में ऐसा शोर होने लगा, मानो इवान इवानविच और निकलाय निकलायेविच के सामने बागड़ के साथ-साथ पाइप में पानी बह रहा हो.

वे ग्रीनहाउस के, माली के क्वार्टर के और पत्थरों के किन्हीं भग्नावशेषों के सामने से गुज़रे. वे विज्ञान और साहित्य में नई, युवा प्रतिभाओं के बारे में बात कर रहे थे.                      

“प्रतिभावान व्यक्ति दिखाई दे जाते हैं,” निकलाय निकलायेविच कह रहा था. “मगर आजकल विभिन्न मंडलों और गठबंधनों का चलन है. हर झुण्ड प्रतिभाहीनता के लिए शरणस्थल है, चाहे वो सलव्योव के प्रति या काण्ट के प्रति, या मार्क्स के प्रति वफ़ादारी हो. सत्य की तलाश सिर्फ इक्के-दुक्के लोग ही करते हैं और उन सबसे संबंध तोड़ लेते हैं, जो उससे पर्याप्त प्रेम नहीं करते. क्या दुनिया में विश्वास के लायक कोई चीज़ है? ऐसी चीज़ें बहुत कम हैं. मैं सोचता हूँ कि अमरत्व के प्रति वफ़ादार होना चाहिए, जो जीवन का दूसरा नाम, कुछ ज़्यादा प्रभावशाली है.

अमरत्व के प्रति वफ़ादारी को सुरक्षित रखना चाहिए, क्राइस्ट के प्रति वफ़ादार होना चाहिए!

आह, आप मुँह बना रहे हो, अभागे इन्सान. आप फिर कुछ नहीं समझे.”

“हुम्,” दुबला-पतला, फुर्तीला, भूरे बालों और लिंकन जैसी दाढ़ी वाला (जिसे वह हर पल सहलाता और उसका सिरा होठों से पकड़ता) इवान इवानविच बुदबुदाया, “मैं, बेशक, कुछ नहीं कहूँगा. आप ख़ुद ही समझते हैं – इन चीज़ों के प्रति मेरा दृष्टिकोण एकदम अलग है. ख़ैर. ये तो बताइये कि आपको प्रीस्टशिपसे कैसे मुक्त किया गया. मैं काफ़ी दिनों से पूछना चाह रहा था. क्या आप बेहद डर गए थे? आपका बहिष्कार किया गया? आँ?”

विषय क्यों बदल रहे हैं? हाँलाकि, वैसे, ठीक है. बहिष्कार? नहीं, आजकल बद्दुआएँ नहीं देते. थोड़ी बहुत अप्रियताएँ ज़रूर हुईं. मिसाल के तौर पर ज़्यादा समय तक सरकारी नौकरी में नहीं रह सकते. राजधानी में आने नहीं देते. मगर, ये बकवास है. अपनी बातचीत पर वापस चलें. मैंने कहा – क्राइस्ट के प्रति वफ़ादार होना चाहिए. अब मैं समझाता हूँ. आप समझ नहीं रहे हैं, कि आप नास्तिक हो सकते हैं, आप इस बात को भी नहीं जानते कि ख़ुदा है या नहीं और वह किसलिए है, मगर साथ ही ये भी जानना चाहिए कि इन्सान प्रकृति में नहीं, बल्कि इतिहास में रहता है, और ये कि आधुनिक विचारधारा के अनुसार उसका आधार क्राइस्ट ने रखा था, कि पवित्र बाइबल उसका आधार है. और इतिहास आख़िर क्या है? ये मृत्यु की पहेली को सुलझाने और भविष्य में उस पर विजय पाने की दिशा में सदियों से किए गये वैज्ञानिक अध्ययनों का संस्थापन है. इसके लिए गणितीय अनंत और विद्युतचुम्बकीय तरंगों का आविष्कार किया जाता है, इसके लिए सिम्फनी लिखी जाती है. इस दिशा में बिना किसी प्रोत्साहन के आगे बढ़ना असंभव है. इन आविष्कारों के लिए आत्मिक संसाधनों की आवश्यकता होती है. उसके बारे में सूचनाएँ पवित्र बाइबल में हैं. ये रही वे : पहली बात, अपने निकट के लोगों से प्यार करो, सजीव ऊर्जा का ये सर्वोच्च प्रकार, जो इन्सान के हृदय से बहती है और बाहर निकलने की और प्रयुक्त होने की माँग करती है, और फिर ये आधुनिक इन्सान के प्रमुख गुण हैं, जिनके बिना उसका कोई अर्थ ही नहीं है, मतलब – स्वतन्त्र अस्तित्व का विचार और जीवन को त्याग समझने का विचार. ध्यान दीजिए, कि ये आज तक बिल्कुल नया है.

इस लिहाज़ से प्राचीन लोगों का इतिहास नहीं था. तब चेचकरू कानिगुलों की खूनी क्रूरता और पाशविकता थी, जिन्हें इस बात का ज़रा भी एहसास नहीं था, कि ग़ुलाम बनाने वाला निम्न कोटि का होता है. संगमरमर के स्तम्भों और ताँबे के स्मारकों की गर्वीली मृतवत् चिरंतनता थी. सिर्फ क्राइस्ट के पश्चात् ही सदियाँ और पीढ़ियाँ खुलकर साँस ले सकीं. सिर्फ उन्हींके पश्चात् पीढ़ियों में जीवन का प्रादुर्भाव हुआ, और अब इन्सान किसी बागड़ के नीचे, सड़क पर नहीं, बल्कि अपने इतिहास में अंतिम साँस लेता है; मृत्यु पर विजय को समर्पित कार्यों की गहमागहमी में, ख़ुद भी इसी विषय को समर्पित होकर, मृत्यु को प्राप्त होता है. ऊफ़! पसीना निकल गया. जैसा कहते हैं. मगर उसके सिर पर चाहे कील भी ठोंक दो!

“तत्वमीमांसा, प्यारे. डॉक्टरों ने मुझे इस से दूर रहने को कहा है, इसे मैं हजम नहीं कर पाता.”

“ख़ुदा आपको सलामत रखे. चलो, रोक देते हैं. भाग्यवान हो! तुम्हारे यहाँ नज़ारा कितना ख़ूबसूरत है – तारीफ़ करते नहीं अघाता! और, ये जीता है और महसूस नहीं करता.

नदी की तरफ़ देखना मुश्किल हो रहा था. वह सूरज की रोशनी में चमक रही थी, लोहे की पतली चादर की तरह ऊपर-नीचे होते हुए. अचानक उसमें सलवटें पड़ने लगीं. इस किनारे से उस किनारे की ओर  घोड़ों से, गाड़ियों से, औरतों से और मर्दों से लदी हुई बड़ी नौका जा रही थी.

“सोचिए, सिर्फ पाँच बजे हैं,” इवान इवानविच ने कहा.

“देखिए, सीज़्रान वाली एक्स्प्रेस ट्रेन. वहाँ से पाँच बजकर कुछ मिनटों में गुज़रेगी.”         

 दूर मैदान में दाईं से बाईं ओर साफ़-सुथरी पीली-नीली रेलगाड़ी जा रही थी, जो दूरी के कारण बेहद छोटी नज़र आ रही थी. अचानक उन्होंने ग़ौर किया कि वह रुक गई है. इंजिन के ऊपर भाप के सफ़ेद बादल उठ रहे थे. कुछ देर बाद उसका ख़तरे का साइरन सुनाई दिया.

“अजीब बात है,” वस्काबोयनिकव ने कहा, “कोई गड़बड़ हो गई है. यहाँ दलदल में इसके रुकने की कोई वजह तो नहीं है.”                       

कुछ हो गया है. चलिए, चाय पियेंगे.”

 

6

नीका ना तो बाग में दिखाई दिया, ना ही घर में. यूरा ने अंदाज़ लगाया कि वह उनसे छुप रहा है, क्योंकि उसे उनके साथ उकताहट होती है, और यूरा का उससे कोई मुकाबला नहीं है.. मामा तो इवान इबानविच के साथ काम करने के लिए टैरेस पर चले गए, यूरा को यूँ ही घर के चारों टहलने के लिए कह दिया गया.

यहाँ ग़ज़ब की ख़ूबसूरती थी! हर एक मिनट बाद ओरियल (पीलक पंछी – अनु.) की तीन सुरों वाली सीटी सुनाई देती, जो रुक-रुक कर मानो इंतज़ार करती कि नम, जैसे पानी के पाइप से निकली हुई आवाज़, पूरी तरह आसपास के वातावरण में घुल जाए. निश्चल, हवा में भटकी हुई फूलों की ख़ुशबू को जैसे ऊष्मा ने क्यारियों से टाँक दिया था. ये सब कितनी याद दिलाते थे एन्टिबा और बोर्डिगेरा की! यूरा हर पल दाएँ-बाएँ मुड़ रहा था. लॉन के ऊपर आवाज़ के सम्मोहन की तरह माँ की आवाज़ का जादू फैला था, पंछियों की संगीतमय आवाज़ और मधुमक्खियों की भिनभिनाहट में वह यूरा के कानों में गूँज रहा था. यूरा थरथरा रहा था, उसे बार-बार ऐसा आभास हो रहा था कि माँ उस पर चिल्ला रही है और उसे कहीं बुला रही है.

वह खाई की तरफ़ गया और नीचे उतरने लगा. विरल और साफ़ जंगल से उतरते हुए, जिसने पूरी खाई को ढाँक रखा था, वह एल्डेर वृक्ष तक पहुँचा, जिसने खाई के तल को अच्छादित किया था.

यहाँ नम अँधेरा था, हवा रुकी हुई थी और सड़ान थी, फूल कम थे और हॉर्सटेल के उलझे हुए डंठल इजिप्ट के गहने जड़े डंडों और भालों जैसे लग रहे थे, जैसा उसकी सचित्र बाइबल में दिखाया गया था.

यूरा की उदासी बढ़ती गई. उसका दिल रोने को करने लगा. वह घुटनों के बल गिरा और आँसुओं में नहा गया.

“ख़ुदा के फ़रिश्ते, मेरे पवित्र रक्षक,” यूरा प्रार्थना कर रहा था, “मेरी बुद्धि को सही राह पर रहने दे और माँ से कह, कि मुझे यहाँ आराम है, कि वह व्याकुल न हो. अगर मृत्यु के बाद का जीवन है, ऐ ख़ुदा, तो माँ को जन्नत में जगह दे, जहाँ संतों और सच्चे लोगों के चेहरे सितारों की तरह दमकते हैं. मेरी प्यारी माँ इतनी अच्छी थी, और ऐसा हो ही नहीं सकता कि उसने पाप किए हों, उस पर रहम कर, ऐ ख़ुदा, और ऐसा कर कि उसे कोई कष्ट न हो. मम्मा!” दिल को चीरने वाले दुःख से वह उसे आसमान से बुलाने लगा, जैसे वह कोई नई संत हो, और अचानक उससे बर्दाश्त नहीं हुआ, वह ज़मीन पर गिर पड़ा और बेहोश हो गया.                         

वह कुछ ही देर बेहोश रहा. जब उसने आँखें खोलीं तो सुना कि मामा ऊपर से उसे बुला रहे हैं. उसने जवाब दिया और ऊपर चढ़ने लगा. अचानक उसे याद आया कि बिना कोई सूचना दिये ग़ायब हो चुके अपने पिता के बारे में तो प्रार्थना की ही नहीं, जैसा कि उसे मारिया निकलायेव्ना ने सिखाया था.  

मगर बेहोशी के बाद उसे इतना अच्छा लग रहा था, कि हल्केपन की इस भावना से अलग होने को उसका मन नहीं कर रहा था और उसे इस भावना के खो जाने का डर था. और उसने सोच लिया कि अगर पिता के बारे में वह कभी और प्रार्थना कर ले तो कोई बुरी बात नहीं होगी.

“इंतज़ार कर लेंगे, सब्र कर लेंगे,” जैसे उसने सोचा. यूरा को उनकी बिल्कुल याद नहीं थी.

 

7.

ट्रेन के दूसरे दर्जे के कूपे में अपने पिता, ओरेनबुर्ग के एटॉर्नी गर्दोन के साथ दूसरी कक्षा का विद्यार्थी, ग्यारह साल का विचारमग्न चेहरे और बड़ी-बड़ी काली आँखों वाला बच्चा, मीशा गर्दोन सफ़र कर रहा था. पिता का तबादला मॉस्को हो गया था, बच्चे को मॉस्को के जिम्नेशियम में दाखिल कर दिया गया था. माँ और बहनें जो पहले ही वहाँ पहुँच चुकी थीं, क्वार्टर को व्यवस्थित करने में व्यस्त थीं.

बच्चा तीन दिन से ट्रेन में सफ़र कर रहा था. गर्म धूल के बादलों में लिपटा, सूरज के कारण चूने जैसा सफ़ेद प्रतीत हो रहा रूस बगल से उड़ा जा रहा था, खेत और मैदान, शहर और गाँव. रास्तों पर गाड़ियाँ जा रही थीं, लेवल-क्रॉसिंग पर वे मुश्किल से सड़क से नीचे उतरतीं, और बेतहाशा भागी जा रही ट्रेन से ऐसा लग रहा था, कि गाड़ियाँ, बिना हिले खड़ी हैं, और घोड़े एक ही जगह पर अपने पैर उठा रहे हैं और वापस गिरा रहे हैं.

बड़े स्टेशनों पर रफ़्तार से पगलाए मुसाफ़िर बुफ़े की ओर भागते, और ढलता हुआ सूरज स्टेशन के बाग के पेड़ों के पीछे से उनके पैरों को रोशन कर रहा था ट्रेन के डिब्बों के पहियों के नीचे चमक रहा था.

दुनिया की हर गति स्वतन्त्र रूप से पूरे होशोहवास में थी, संजीदा थी, मगर कुल मिलाकर जीवन के प्रवाह के कारण, जिसने उन्हें संगठित कर दिया था, बेहिसाब नशे में प्रतीत हो रही थीं. अपनी ही परेशानियों के रचना-तंत्र से गतिशील, लोग मेहनत करते और भाग दौड़ करते.    

मगर ये रचना-तंत्र काम ही नहीं करते, यदि सर्वोच्च और मूलभूत बेफ़िक्री का एहसास उनका प्रमुख नियंत्रक न होता. ये बेफ़िक्री की भावना इन्सानों को एक दूसरे से जुड़े होने के एहसास, उनके एक अवस्था से दूसरी में परिवर्तित होने के विश्वास, एक सुख के एहसास द्वारा प्रदत्त थी, इस बात से, कि सब कुछ न सिर्फ धरती पर घटित हो रहा है, जिसमें मृतकों को दफ़नाते हैं, बल्कि कहीं और भी, वहाँ, जिसे ईश्वरी साम्राज्य कहते हैं, और दूसरे लोग इतिहास और तीसरे कोई और नाम देते हैं.      

बच्चा इस नियम का एक कटु और दर्दभरा अपवाद था.

चिंता उसका प्रमुख स्वभावगत गुण था और बेफ़िक्री की भावना उसे आराम नहीं देती थी और उदात्तता प्रदान नहीं करती थी. उसे विरासत में मिले अपने इस गुण का ज्ञान था और बड़ी सावधानी से अपने स्वभाव में उसके लक्षणों को ढूँढ़ रहा था. इससे बालक परेशान था.

उसकी उपस्थिति से उसे अपमान का अनुभव होता था.  

जब से वह समझने लगा है, उसे निरंतर इस बात का अचरज होता है, कि कैसे एक जैसे हाथ-पैर होते हुए, और भाषा और आदतों की समानता होते हुए, आप वोनहीं होते, जो सब हैं, ऊपर से कुछ ऐसे होते हो जो कुछ लोगों को अच्छे लगते हैं, और जिसे पसन्द नहीं करते? वह उस स्थिति को समझ नहीं पाता था, जब, यदि तुम औरों से बदतर हो, तुम कोशिश भी नहीं कर सकते, जिससे परिस्थिति में सुधार ला सको और बेहतर हो जाओ. यहूदी होने का क्या मतलब होता है? इसका अस्तित्व किसलिए है? इस निहत्थी चुनौती को कैसे पुरस्कृत किया जाता है या उसे जायज़ ठहराया जा सकता है, यदि वह दुःख के सिवा और कुछ नहीं लाती?

जब वह जवाब के लिए पिता के पास आया तो उन्होंने कहा कि उसकी आधारभूत कल्पना ही बेतुकी है और इस तरह से तर्क नहीं किया जा सकता, मगर बदले में उन्होंने ऐसा कोई सिद्धांत पेश नहीं किया जो अपने विचार की गहराई से मीशा को आकर्षित करता और उसे चुपचाप अपरिहार्य के सामने झुकने पर मजबूर करता.    

और धीरे-धीरे माँ और पिता को छोड़कर मीशा का मन सभी बड़े लोगों के प्रति नफ़रत से भर गया, जिन्होंने ऐसी उलझनभरी परिस्थिति पैदा की थी, जिसे सुलझाना उनके बस की बात नहीं थी. उसे यकीन था कि जब वह बड़ा हो जाएगा, तो ये सब सुलझा लेगा.

अभी भी, कोई भी ये नहीं कहता कि उसके पिता ने इस पागल के पीछे भागकर गलती की थी, जब वह बाहर भागते हुए दरवाज़े के पास गया था, और ये कि ट्रेन को रोकना नहीं चाहिए था, जब पागल बलपूर्वक ग्रिगोरी असीपविच को दूर धकेल कर और कम्पार्टमेन्ट का दरवाज़ा खोलकर पूरी रफ़्तार से भाग रही एक्स्प्रेस ट्रेन से तटबंध के ऊपर सिर के बल कूद गया, जैसे स्विमिंगपुल के बोर्ड से पानी के भीतर कूदते हैं

मगर चूँकि ब्रेक वाला हैण्डल किसी और ने नहीं, बल्कि ग्रिगोरी असीपविच ने घुमाया था, तो नतीजा ये हुआ कि ट्रेन उन्हीं की मेहेरबानी से इतने लम्बे समय से खड़ी है.

किसी को भी इस देरी का कारण ज्ञात नहीं था. कुछ लोग कह रहे थे कि अकस्मात् रुक जाने के कारण एयर ब्रेक्सको नुक्सान पहुँचा है, कुछ और लोग ये कह रहे थे कि ट्रेन एक खड़ी चढ़ाई पर खड़ी है और एक्सेलेरेशन के बिना इंजिन उसे आगे नहीं ले जा सकता. एक तीसरा विचार भी था, कि चूँकि आत्महत्या करने वाला प्रसिद्ध व्यक्ति था, इसलिए उसके वकील ने, जो ट्रेन में उसके साथ जा रहा था ये माँग की थी कि पास ही के स्टेशन कलाग्रीरोव्का से पंचनामा तैयार करने के लिए गवाहों को बुलाया जाए. इसलिए ड्राइवर का सहायक टेलिफ़ोन के खंभे पर चढ़ा है. ट्रॉली शायद चल पड़ी होगी.

कम्पार्टमेन्ट में टॉयलेट्स से हल्की-सी बू आ रही थी, जिसे यू डी कलोन से कम करने की कोशिश की जा रही थी, और गंदे चीकट कागज़ में लिपटे फ़्राइड चिकन की हल्की सी गंध भी थी. सफ़ेद हो चले बालों वाली पीटर्सबुर्ग की औरतें पहले ही की तरह पावडर लगा रही थीं, रूमाल से हथेलियाँ पोंछ रही थीं और गहरी, चिरचिराती आवाज़ों में बातें कर रही थीं, इंजिन की गर्मी और कॉस्मेटिक्स के कारण वे सब  जिप्सियों जैसी हो गई थीं. जब वे संकरे कॉरीडोर में अपने कंधों को मनचलेपन से उचकाती हुईं गर्दोन वाले कुपे की बगल से गुज़रतीं, तो मीशा को लगता कि वे कुछ-कुछ फ़ुसफ़ुसा रही हैं, या उनके भिंचे हुए होंठों को देखते हुए ये अनुमान लगाया जा सकता है, कि वे फुसफुसा रही हैं : “आह देखिए, कैसी संवेदनशीलता है! हम ख़ास लोग हैं! हम बुद्धिजीवी हैं! हम नहीं बर्दाश्त कर सकते!”

आत्महत्या करने वाले का शरीर तटबंध के पास घास में पड़ा था. जम चुके खून की धार काली होकर उसके माथे से होते हुए आँखों के बीच सीधी रेखा बना रही थी, जैसे इस चेहरे पर सलीब का निशान बना रही हो.  

उसके जिस्म से बहता हुआ खून उसका खून नहीं लग रहा था, बल्कि ऐसा लग रहा था कि उस पर चिपकाया गया है, प्लास्टर की तरह या सूखे हुए कीचड़ की तरह, या फिर बर्च वृक्ष के गीले पत्ते की तरह.

मृत शरीर के चारों ओर उत्सुक और सहानुभूतिपूर्ण लोगों का छोटा-सा झुण्ड लगातार बदल रहा था. उसके निकट त्योरी चढ़ाए भावहीन चेहरे से उसका स्नेही और कुपे में उसका पड़ोसी खड़ा था, हट्टा-कट्टा, अहंकारी, जैसे पसीने से लथपथ कमीज़ पहने कोई अच्छी नस्ल का जानवर हो. वह गर्मी के मारे हाँफ रहा था और अपनी नर्म हैट को पंखे की तरह हिला रहा था. सभी सवालों के जवाब वह अप्रियता से दे रहा था, कंधे सिकोड़ते हुए और बिना मुड़े : “शराबी. क्या समझ में नहीं आ रहा है? ज़बर्दस्त उन्माद का नतीजा.”

मृत शरीर के पास ऊनी पोशाक पहनी, सिर पर लेस वाला रूमाल बाँधे दो-तीन बार एक दुबली-पतली महिला आई. ये विधवा और दो इंजिन ड्राइवरों की माँ, बूढ़ी तिवेर्ज़ीना थी, जिसके पीछे-पीछे उसकी दो बहुएँ थीं. ये लोग सर्विस-टिकट्स पर मुफ़्त में तीसरे दर्जे में सफ़र कर रहे थे. शांत, माथे पर काफ़ी नीचे रूमाल बाँधे ये दोनों औरतें चुपचाप उसके पीछे-पीछे चल रही थीं, जैसे दो नन्स मदर-सुपीरियर के पीछे चलती हैं. लोग इनकी इज़्ज़त कर रहे थे. उनके सामने अलग हट रहे थे.

तिवेर्ज़ीना का पति एक रेल दुर्घटना में ज़िन्दा जल गया था. वह मृत शरीर से कुछ कदमों की दूरी पर खड़ी होती, ऐसे, कि भीड़ के बीच से उसे सब दिखाई देता, और जैसे आहें भरते हुए तुलना करती. “जिसकी किस्मत में जैसा लिखा होता है,” मानो वह कह रही थी. “जैसी ख़ुदा की मर्ज़ी होती है, यहाँ, देखो, कैसे हुआ – समृद्ध जीवन और मतिहीनता से”.

ट्रेन के सारे मुसाफ़िर मृत शरीर के पास आते और वापस कम्पार्टमेन्ट में लौट जाते, सिर्फ इस डर से कि कहीं उनका कोई सामान चोरी न हो जाए.

जब वे  ट्रैक पर उछलते, जिस्म को गर्माते, फूल तोड़ते और हल्की-सी दौड़ लगाते, तो उन सभी को ऐसा प्रतीत होता मानो ये जगह इस अचानक रुक जाने के कारण ही अभी-अभी उत्पन्न हुई है और ये दलदली ऊबड़-खाबड़ घास का मैदान, और चौड़ी नदी, उसके उस पार वाले किनारे पर चर्च के साथ ख़ूबसूरत घर का दुनिया में अस्तित्व न होता, यदि ये दुर्घटना न हुई होती.

सूरज भी, जो स्थानीय ही प्रतीत हो रहा था, शाम की तरह सकुचाते हुए पटरियों के पास वाले दृश्य को आलोकित कर रहा था, डरते-डरते उसके निकट आ रहा था, जैसे बगल ही झुण्ड में चर रही गायों में से कोई गाय पास आकर लोगों की ओर देख रही हो.

मीशा को इस पूरी घटना से बहुत आघात पहुँचा था और संवेदना और भय से वह एकदम रोने लगा. इस लम्बे सफ़र के दौरान आत्महत्या करने वाला कई बार उनके कुपे में कुछ देर बैठने के लिए आया था और कई घण्टों तक मीशा के पिता से बातें करता रहा. उसने कहा कि वह पूरी आत्मा से नैतिक रूप से शुद्ध मौन और उनकी दुनिया की समझ में जा रहा है, और वह ग्रिगोरी असीपविच से अनेक कानूनी बारीकियों और बिलों, उपहारों, दिवालिएपन और धोखाधड़ी के बारे में कई क्लिष्ट प्रश्न पूछता रहा था.

“आह, ऐसी बात है?” वह गर्दोन के जवाबों से हैरान हो रहा था. “आप के कानून ज़्यादा दयालु हैं. मेरे एटॉर्नी की राय कुछ और ही है. वह इन बातों के बारे में ज़्यादा निराशा से सोचता है.

हर बार, जब ये मायूस आदमी शांत हो रहा था, उसके लिए पहले दर्जे के कुपे से उसका पड़ोसी और एटॉर्नी आता और उसे घसीट कर शैम्पेन पीने के लिए सैलून-कार में ले जाता. ये वही हट्टा-कट्टा, बेशरम, चिकनी दाढ़ी वाला और छैला एडवोकेट था, जो इस समय आसपास की किसी भी बात से चकित हुए बिना मृत शरीर के पास खड़ा था. इस एहसास से दूर नहीं हुआ जा सकता था कि उसके क्लाएन्ट की निरंतर उत्तेजित अवस्था किसी तरह से उसके लिए फ़ायदेमन्द साबित हो रही थी.

पिता ने बताया कि ये मशहूर अमीर है, भला आदमी और शेलापुत (एक विशेष धार्मिक संप्रदाय – अनु.) और आधा पागल हो चुका है. मीशा की उपस्थिति से न सकुचाते हुए, उसने अपने बेटे के बारे में, जो मीशा का हमउम्र था, और अपनी स्वर्गवासी पत्नी के बारे में बताया, फिर अपने दूसरे परिवार का ज़िक्र करने लगा, जिसे भी वह छोड़ चुका था.

तभी उसे कोई नई बात याद आई, वह ख़ौफ़ से पीला पड़ गया और असंबद्ध बातें कहने लगा, भूलने लगा. 

मीशा के प्रति वह एक अबूझ, स्नेह प्रदर्शित कर रहा था, जो शायद किसी और के लिए था. वह हर मिनट उसे कोई न कोई उपहार देता, जिसके लिए बड़े-बड़े स्टेशनों पर बाहर निकल कर फर्स्ट क्लास वाले वेटिंग रूम्स में जाता जहाँ किताबों के रैक्स थे और खिलौने तथा उस प्रदेश की विशिष्ट वस्तुएँ बेची जाती थी.

वह लगातार पिये जा रहा था और शिकायत कर रहा था कि तीन महीनों से सोया नहीं है और, जब थोड़ी-सी भी देर के लिए होश में रहता है तो ऐसी पीड़ा झेलता है, जिसके बारे में सामान्य आदमी कल्पना भी नहीं कर सकता.   

मरने से एक मिनट पहले वह भागकर उनके कुपे में आया, उसने ग्रिगोरी असीपविच का हाथ पकड़ लिया, कुछ कहना चाहता, मगर नहीं कह सका, और दरवाज़े के पास भागा, ट्रेन से बाहर कूद गया.

मीशा ने युराल के खनिजों का संग्रह देखा लकड़ी की सन्दूकची में – जो स्वर्गवासी का अंतिम उपहार था. अचानक चारों ओर हलचल होने लगी. दूसरे मार्ग से ट्रेन के पास एक ट्रॉली आई. उसमें से फुन्दे वाली कैप पहने एक जाँच अधिकारी उछल कर बाहर आया, डॉक्टर और दो पुलिस वाले भी साथ थे. ठण्डी कामकाजी आवाज़ें सुनाई दे रही थीं. सवाल पूछे जा रहे थे, वे लोग कुछ लिख रहे थे. ऊपर तटबंध पर, कण्डक्टर्स और पुलिस वाले बेतरतीबी से लाश को घसीट रहे थे. कोई औरत रो पड़ी. लोगों को अपने-अपने कम्पार्टमेन्ट्स में जाने के लिए कह दिया गया और सीटी बजाई गई. ट्रेन चल पड़ी.

 

8

“ये फिर से दिए का तेल है!” नीका ने गुस्से से सोचा और कमरे में ढूँढ़ने लगा. मेहमानों की आवाज़ें निकट आ रही थीं. भागने का रास्ता ही नहीं बचा था. शयनकक्ष में दो पलंग थे. वस्काबोयनिकव का और उसका याने नीका का. ज़्यादा सोच-विचार न करते हुए नीका दूसरे पलंग के नीचे घुस गया. वह सुन रहा था कि कैसे उसे ढूँढ़ रहे हैं, दूसरे कमरों में आवाज़ दे रहे हैं, उसके गायब होने पर अचरज कर रहे हैं. फिर वे शयनकक्ष में आए.

“क्या किया जाए,” विदेन्यापिन ने कहा, “घूम फिर आओ, यूरा, हो सकता है, दोस्त बाद में मिल जाए, तब खेल लेना.”

नीका को करीब बीस मिनट तक इस बेवकूफ़ी भरी, शर्मनाक कैद में पड़े रहने को मजबूर करते हुए वे  पीटर्सबुर्ग और मॉस्को के विश्वविद्यालयों में हो रहे आंदोलनों के बारे में कुछ देर बातें करते रहे.  आख़िरकार वे टैरेस पर चले गए. नीका ने हौले से खिड़की खोली, और उसमें से कूद कर पार्क में चला गया.

आज वह अपने आपे में नहीं था और पिछली रात सो नहीं पाया था.          

वह चौदहवें साल में था. वह छोटा रहने से उकता गया था. पूरी रात वह सोया नहीं था और सुबह-सुबह आउट हाउस से निकल गया. सूरज उग रहा था, और पार्क की ज़मीन को पेडों की फन्दों जैसी, दूब से गीली परछाईं ढाँक रही थी. परछाईं काली नहीं, बल्कि गहरे-भूरे रंग की थी, जैसे कोई भीगा हुआ नमदा हो. सुबह की मदहोश करती हुई ख़ुशबू, लगता था, जैसे ज़मीन पर पड़ रही इसी नम परछाई से आ रही थी जो ज़मीन पर किसी लड़की की उँगलियों जैसे लम्बाकार प्रकाश पुंज डाल रही थी.

अचानक उससे कुछ ही कदम की दूरी पर घास पर पड़ी हुई दूब की बून्दों जैसी पारे की चमचमाती धारा बहने लगी. धारा बह रही थी, बह रही थी और ज़मीन उसे सोख नहीं रही थी. अप्रत्याशित रूप से तेज़ झटके के साथ धार एक ओर को छिटक गई और छुप गई. ये एक घास का साँप था.

नीका काँप गया.

वह अजीब लड़का था. उत्तेजित अवस्था में वह अपने आप से ही ज़ोर-ज़ोर से बातें किया करता था. उच्च कोटि की पसन्द और विरोधाभासों की प्रवृत्ति उसे अपनी माँ से मिली थी.

“दुनिया में सब कुछ कितना अच्छा है!” उसने सोचा. “मगर इससे क्यों हमेशा दुख होता है? ख़ुदा, बेशक, है. मगर यदि वह है, तो वह – मैं हूँ. ये, मैं उसे हुक्म देता हूँ”, उसने एस्पन वृक्ष की ओर देखकर सोचा, जो नीचे से ऊपर तक थरथरा रहा था (उसके गीले रंग-बिरंगे पत्ते शायद टीन से काटे गए थे), “मैं उसे हुक्म देता हूँ” – और अपनी शक्ति के चरम उन्माद से वह फुसफुसाया नहीं, बल्कि अपने पूरे अस्तित्व से उसने सोचा और इच्छा प्रकट की : “जम जा!” – और पेड़ फ़ौरन आज्ञाकारिता से निश्चल हो गया. नीका ख़ुशी से हँसने लगा और तेज़ी से नदी की ओर तैरने के लिए भागा. 

उसके पिता, आतंकवादी दिमेन्ती दुदोरव, निष्कासन में कठोर श्रम की सज़ा भुगत रहे थे, जो उन्हें मृत्युदण्ड के बदले सर्वोच्च क्षमा के रूप में दी गई थी. उसकी माँ, जो जॉर्जिया के शाही परिवार, एरिस्तोव की राजकुमारी थी बड़ी जोशीली और अभी भी जवान, ख़ूबसूरत थी, हमेशा किसी न किसी बात से आकर्षित होती थी – क्रांतियों से, क्रांतिकारियों से, चरम सिद्धांतों से, मशहूर कलाकारों से, निर्धन अभागों से.

वह नीका से बेहद प्यार करती थी और उसके नाम इन्नोकेन्ती से उसने कई सारे निरर्थक स्नेहपूर्ण, और बेवकूफ़ी भरे नामों को ईजाद कर लिया था जैसे इनोचेक या नोचेन्का और उसे अपने रिश्तेदारों को दिखाने के लिए तिफ़्लिस ले जाया करती थी. वहाँ जिस घर में वे ठहरते थे, उसके आँगन में लगा विशाल पेड़ परेशान करता था जो किरचियों में टूट चुका था. ये किसी उष्णकटिबंधीय बेढ़ब महाकाय जानवर जैसा प्रतीत होता था.

अपने हाथी के कानों जैसे पत्तों से, वह सुलगते हुए दक्षिणी आसमान से आँगन को बचाता था. नीका को इस ख़याल की आदत नहीं हो सकी, कि ये एक पेड़ है – पैदावार है, न कि कोई जानवर.

बच्चे के लिए पिता का भयानक उपनाम लगाना ख़तरनाक था. इवान इवानविच नीना गलाक्तिआनोव्ना की सहमति से सर्वोच्च अधिकारी को प्रार्थनापत्र लिखने वाला था कि नीका को माँ का उपनाम दिया जाए.

जब वह पलंग के नीचे लेटा था, आवेशपूर्वक दुनिया में हो रही घटनाओं के बारे में विचार करते हुए, तो और बातों के अलावा उसने इस बारे में भी सोचा. होता कौन है ये वस्काबोयनिकव उनके मामले में इस कदर दखल देने वाला?

वह उन्हें सबक सिखाएगा!

और ये नाद्या! अगर वह पंद्रह साल की है, तो क्या इसका मतलब ये हुआ कि उसे नाक चढ़ाकर उससे बच्चों की तरह बात करने का हक है? वह उसे दिखाएगा! “मैं उसे दिखाऊँगा!,” उसने कई बार अपने आप से कहा. “मैं उसे मार डालूँगा! मैं उसे नाव की सैर के लिए बुलाऊँगा और डुबो दूँगा.”

“मम्मा भी अच्छी है. जाते समय उसने, बेशक, उससे और वस्काबोयनिकव से झूठ बोला था. वह किसी कव्काज़-वव्काज़ नहीं गई है, बल्कि पास ही के जंक्शन से सीधे नॉर्थकी ओर मुड़ गई है और आराम से पीटर्सबुर्ग में स्टूडेन्ट्स के साथ मिलकर पुलिस पर गोलियाँ चला रही है. और वो इस बेवकूफ़ गढ़े में ज़िंदा सड़ता रहे! मगर वह उन सब को मात दे देगा. नाद्या को डुबो देगा, स्कूल छोड़ देगा और पिता के पास क्रांति करने के लिए साइबेरिया चला जाएगा.

तालाब के किनारे पर कुमुदिनी के फूलों का घना जाल था. नाव इस झुरमुट से सूखी सरसराहट के साथ जा रही थी. झुरमुट के बीच-बीच में तालाब का पानी घुस रहा था, जैसे तरबूज़ का तिकोना टुकड़ा काटने के बाद उसके भीतर रस दिखाई देता है.

लड़का और लड़की कुमुदिनी के फूल तोड़ने लगे. दोनों ने रबर जैसे मज़बूत एक ही डंठल को पकड़ लिया. वह इन दोनों को अपनी ओर खींच रहा था. बच्चों के सिर एक दूसरे से टकरा गए. जैसे कोई हुक नाव को किनारे की ओर खींचने लगा. डंठल उलझ रहे थे और छोटे होते जा रहे थे, सफ़ेद फूल, जिनका बीजकोष ख़ून जैसी ज़र्दी वाला था, पानी में जैसे डुबकियाँ लगा रहे थे और अपने भीतर से छलकते हुए पानी समेत ऊपर आ रहे थे.

नाद्या और नीका फूल तोड़ते रहे, नाव को अधिकाधिक पानी में झुकाते हुए, और झुके हुए हिस्से में एक दूसरे की बगल में लेटे हुए.

“पढ़ने से उकताहट होने लगी है,” नीका ने कहा. “ज़िन्दगी शुरू करने का, कमाने का, लोगों के बीच जाने वक्त आ गया है.”

“और मैं तुमसे वर्ग समीकरण समझाने के लिए कहने वाली थी. मैं बीजगणित में इतनी कच्ची हूँ, कि पुनःपरीक्षा की नौबत आ गई थी.”

नीका को इन शब्दों में कुछ चुभता हुआ–सा प्रतीत हुआ. हाँ, बेशक, वह उसे अपनी जगह दिखा रही है, ये याद दिलाते हुए कि वह अभी छोटा है. वर्ग समीकरण! और उन्होंने तो अभी बीजगणित सूँघा तक नहीं है.

ये ज़ाहिर न करते हुए कि उसे चोट लगी है, उसने कृत्रिम उदासीनता से पूछा, फ़ौरन ये समझते हुए कि ये कितना बेवकूफ़ी भरा सवाल है:

“जब तुम बड़ी हो जाओगी, तो किससे शादी करोगी?”

“ओह, ये बड़े दूर की बात है. शायद किसी से भी नहीं. मैंने अभी सोचा नहीं.”

“प्लीज़, ऐसा मत सोचना कि मुझे इसमें बहुत दिलचस्पी है.”

“तो फ़िर क्यों पूछ रहे हो?”

“तुम बेवकूफ़ हो.”

वे झगड़ने लगे. नीका को अपनी सुबह की स्त्री-द्वेष वाली बात याद आ गई. उसने नाद्या को धमकाया, कि अगर उसने बदतमीज़ी से बात करना बंद नहीं किया तो वह उसे डुबो देगा.

“कोशिश तो करो!”

उसने नाद्या को पकड़ लिया. उनके बीच हाथा-पाई होने लगी. उन्होंने अपना संतुलन खो दिया और पानी में गिर पड़े.

दोनों को तैरना आता था, मगर कुमुदिनी की बेलें उनके हाथों, पैरों से उलझ रही थीं, और वे अभी तक तालाब के तल को महसूस नहीं कर रहे थे. आख़िरकार, कीचड़ में लिपटे, वे किनारे पर आये. जूतों और जेबों से पानी की धाराएँ बह रही थीं. नीका ख़ासतौर से ज़्यादा थक गया था.

अगर ये कुछ ही दिन पहले हुआ होता, पिछले बसंत में, तो ऐसी परिस्थिति में, गीले-गीले, इस तरह तैरने के बाद वे दोनों निश्चित ही शोर मचाते, एक दूसरे को गालियाँ देते या फिर ठहाके लगाते.

मगर इस समय, इस बेमतलब की घटना के बोझ तले, वे ख़ामोश थे और मुश्किल से साँस ले रहे थे. नाद्या हैरान थी और ख़ामोशी से अपमानित महसूस कर रही थी, और नीका का पूरा शरीर दर्द कर रहा था, जैसे डंडों से उसके हाथ-पैर तोड़ दिये गए हों और पसलियाँ दबा दी गई हों.

आख़िरकार, किसी बड़े इन्सान की तरह नाद्या ने हौले से कहा, “पागल!”

और उसने भी बड़े आदमी की तरह कहा, “मुझे माफ़ कर दो”.

वह चढ़ते हुए घर की ओर जाने लगे, अपने पीछे गीले निशान छोड़ते हुए, जैसे दो पानी से भरी बाल्टियाँ. उनका रास्ता धूल भरी चढ़ाई से होकर जाता था, जिसमें बहुत सारे साँप थे, उस जगह से थोड़ी ही दूर जहाँ नीका ने सुबह साँप देखा था.              

नीका को याद आया रात का बढ़ता हुआ जादू, सवेरा, और अपनी सुबह वाली सर्वशक्तिमानता, जब उसने अपनी इच्छाशक्ति से प्रकृति को आज्ञा दी थी. अब उसे क्या आज्ञा देना चाहिए?’ – उसने सोचा. सबसे ज़्यादा उसे किस चीज़ की ख़्वाहिश है? उसे लगा, कि सबसे ज़्यादा ख़्वाहिश है, कि फिर कभी नाद्या के संग तालाब में गिर जाए और वह काफ़ी कुछ दे देता ये जानने के लिए कि क्या ऐसा कभी होगा या नहीं.

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