Friday, 16 April 2021

एक डॉक्टर की कहानी - 05, 06, 07

 

अध्याय 5

विगत से बिदा

1

 

उस छोटे शहर का नाम था मेल्युज़ेयेवो. वह काली मिट्टी पर था. उसकी छतों पर टिड्डियों के बादल की तरह काली धूल लटक रही थी, जिसे उसके भीतर से गुज़रती हुई फौजें और मालगाड़ियाँ उड़ाती थीं. वे सुबह से शाम तक दोनों दिशाओं में चलती रहतीं, युद्ध से, और युद्ध पर, और कहना मुश्किल था वह चल रहा है या ख़त्म हो गया.    

हर रोज़, कुकुरमुत्तों के समान, कभी न ख़त्म होने वाली नई ज़िम्मेदारियों का ताँता लगा रहता. और हर काम के लिए उन्हें चुना जाता. उसे ख़ुद को, लेफ्टिनेंट गलिऊलिन को और नर्स अंतीपवा को, और उनकी कम्पनी के कई और आदमियों को, जो बड़े शहरों के रहने वाले थे, अच्छे जानकार थे, और अनुभवी थे.

वे शहर की सरकार में विभिन्न पदों पर कार्य करते, फ़ौज के छोटे-छोटे कामों पर और मेडिकल यूनिट में कमिसार बनते और इन कामों की अदला-बदली को खुली हवा में मनोरंजन जैसा समझते, जैसे पकड़म-पकड़ाई का खेल खेल रहे हों. मगर अक्सर उनका दिल इस खेल से अपने हमेशा के काम पर लौटने को चाहता.

काम के सिलसिले में अक्सर झिवागो और अंतीपवा का आमना-सामना हो जाता.

 

2

बारिश में शहर की काली धूल कॉफी के रंग के गहरे-भूरे कीचड़ में बदल जाती, उसकी अधिकांश कच्ची सड़कों को ढाँक देती.

शहर बड़ा नहीं था. उसके भीतर किसी भी जगह से नुक्कड़ पर ही उदास स्तेपी, अँधेरा आसमान, युद्ध का फैलाव, क्रांति का फैलाव नज़र आता.

यूरी अन्द्रेयेविच ने पत्नी को लिखा:

“फौज में विघटन और अराजकता जारी है. सैनिकों में अनुशासन और आक्रामक भाव को बढ़ाने के लिए उपाय किए जा रहे हैं. नज़दीक स्थित यूनिट्स का दौरा किया.

अंत में पुनश्चके स्थान पर, हालाँकि इस बारे में मैं तुम्हें काफ़ी पहले लिख सकता था – यहाँ मैं मॉस्को की नर्स, किसी अंतीपवा के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम करता हूँ, जो मूलतः यूराल से है.

तुम्हें याद है, तुम्हारी मम्मा की मृत्यु वाली भयानक रात को क्रिसमस पार्टी में एक लड़की ने एडवोकेट पर गोली चलाई थी? उस पर, शायद बाद में मुकदमा चलाया गया था. मुझे ऐसा याद आता है, कि मैंने तभी तुमसे कहा था, कि इस लड़की को, जब वह स्कूल में पढ़ती थी, मैंने और मीशा ने होटल के गलीज़ कमरे में देखा था, जहाँ हम तुम्हारे पापा के साथ, याद नहीं किसलिए गए थे, रात में, कड़ाके की ठण्ड में, जैसा कि अब मुझे लगता है, प्रेस्न्या के सशस्त्र विद्रोह के दौरान. ये ही अंतीपवा है.

कितनी ही बार घर आने की कोशिश की. मगर ये इतना आसान नहीं है.           

प्रमुख रूप से काम हमें यहाँ नहीं रोक रहे हैं, जिन्हें हम आसानी से औरों को सौंप सकते हैं. मुश्किलें पेश आ रही हैं यात्रा में. रेलें या तो बिल्कुल नहीं चलती हैं, या फिर इतनी खचाखच भरी होती हैं कि उनमें बैठना संभव नहीं है.

फिर भी, ज़ाहिर है, ऐसा हमेशा तो नहीं चल सकता, और इसलिए, कई लोगों ने, जो ठीक हो चुके हैं, जिन्होंने फ़ौजी नौकरी छोड़ दी है और जिन्हें मुक्त कर दिया गया है, जिनमें मैं, गलिऊलिन और अंतीपवा भी हैं, ये फ़ैसला किया है कि चाहे जो भी हो, अगले हफ़्ते से हम चले जाएँगे, और ट्रेन में जगह मिले, इसलिए अलग-अलग दिन, एक-एक करके निकलेंगे.

किसी भी दिन आ धमकूँगा. फिर भी, टेलिग्राम भेजने की कोशिश करूँगा.

मगर प्रस्थान से पहले यूरी अन्द्रेयेविच को अंतनीना अलेक्सान्द्रव्ना का जवाबी ख़त मिल गया.

इस ख़त में, जिसमें हिचकियों ने वाक्यों की रचना को बिगाड़ दिया था और पूर्ण विरामों की जगह पर आँसुओं के निशान और स्याही के धब्बे थे, अंतनीना अलेक्सान्द्रव्ना ने ज़ोर देकर पति से कहा था, कि वह वापस मॉस्को न लौटे, बल्कि सीधे इस ग़ज़ब की नर्स के पीछे-पीछे सीधे यूराल चला जाए, जो ज़िंदगी की इतनी आश्चर्यजनक और संयोगों से भरी राह पर जा रही है, जिनका तोन्या की ज़िंदगी की सीधी-सादी राह से कोई मुकाबला नहीं है.              

“साशेन्का के और उसके भविष्य के बारे में परेशान न होना,” उसने लिखा था. “उसकी वजह से तुम्हें कभी शर्मिन्दा नहीं होना पड़ेगा. वादा करती हूँ, कि उसका पालन-पोषण उन्हीं नियमों के अनुसार करूँगी, जिनका उदाहरण तुम बचपन में हमारे घर में देख चुके हो.” 

“तुम्हारा दिमाग ख़राब हो गया है, तोन्या,” यूरी अन्द्रेयेविच फ़ौरन जवाब लिखने लगा. “कैसे शक! क्या तुम नहीं जानतीं, या तुम्हें अच्छी तरह से मालूम नहीं है, कि तुम्हारे ख़याल और तुम्हारे और घर प्रति  वफ़ादारी ही युद्ध के इन दो भयानक और विनाशकारी सालों के दौरान मुझे मृत्यु से और हर तरह के विनाश से बचाते रहे हैं? ख़ैर, ये सब कहने से कोई फ़ायदा नहीं है. जल्दी ही हम मिलेंगे, पुरानी ज़िंदगी शुरू होगी, सब कुछ साफ़ हो जाएगा.

मगर ये बात, कि तुम मुझे इस तरह से जवाब लिख सकीं, मुझे किसी और ही तरह से डरा रही है. अगर मैंने ऐसे जवाब के लिए थोड़ा सा भी कारण प्रस्तुत किया है, तो हो सकता है कि मैं वाकई में दुहरी ज़िंदगी जी रहा हूँ, और तब मैं उस औरत के सामने भी गुनहगार हूँ, जिसे उलझन में डाल रहा हूँ, और जिससे मुझे माफ़ी माँगनी पड़ेगी. जैसे ही वह निकट के कुछ गाँवों का राउण्ड ख़त्म करके लौटेगी, मैं ये करूँगा. ज़ेम्स्त्वा, जो पहले प्रदेशों और काउंटीज़ में ही था, अब छोटे-छोटे गाँवों में भी आ गया है. अंतीपवा अपनी एक परिचिता की सहायता करने के लिए गई है, जो इन नई विधायी इकाइयों के लिए प्रशिक्षक का काम करती है.

ताज्जुब की बात है, कि अंतीपवा के साथ एक ही बिल्डिंग में रहते हुए भी मुझे आज तक नहीं मालूम कि उसका कमरा कहाँ है और मैंने इस बात में कोई दिलचस्पी भी नहीं ली.”

 

3

मेल्यूज़ेयेवो से पूरब और पश्चिम की ओर दो बड़े रास्ते जाते थे.

एक, कच्चा रास्ता, जंगल से होते हुए गेंहूँ के व्यापार केंद्र वाली जगह, ज़िबूशिना जाता था, जो प्रशासनिक रूप से मेल्यूज़ेयेवो के आधीन था, मगर सभी लिहाज़ से उससे आगे था. दूसरा, जिस पर बजरी बिछी थी, गर्मियों में सूख गए दलदली चरागाहों से बिर्यूची की ओर जाता था, बिर्यूची मेल्युज़ेवो से कुछ दूर दो रेल्वे-लाइनों का जंक्शन था.     

जून में ज़िबूशिना में दो हफ्ते आज़ाद ज़िबूशिन्स्की रिपब्लिक चलती रही, जिसकी घोषणा ज़िबूशिन्स्की के चक्की-मालिक ब्लाझैका ने की थी.

रिपब्लिक दो सौ बारहवीं इन्फैंट्री रेजिमेन्ट के भगोड़ों के समर्थन पर निर्भर थी, जिन्होंने शस्त्रों के साथ अपनी जगह छोड़ दी थी और इस तख़्तापलट के समय वे बिर्यूची से होते हुए ज़िबूशिना पहुँच गए थे. 

रिपब्लिक ने अस्थाई सरकार को मान्यता नहीं दी और वह शेष रूस से अलग हो गई. ब्लाझैका सेक्टेरियन (किसी धार्मिक पंथ का अनुयायी – अनु.) था, जिसने जवानी में टॉल्स्टॉय से पत्र-व्यवहार किया था, उसने नए सहस्त्राब्दी ज़िबूशिन्स्की साम्राज्य की घोषणा कर दी, जिसके विशेषता थी साझा श्रम और साझी सम्पत्ति और उसने स्थानीय कौन्सिल को एपोस्टल-सीट’ (धर्मप्रचारक-केंद्र) का नाम दिया.

ज़िबूशिना हमेशा से लोक कथाओं और अतिशयोक्तियों का स्त्रोत रहा था. वह ऊँघते हुए जंगलों में स्थित था, “अस्पष्ट-युग” (17वीं शताब्दी के प्रथम गृह युद्ध का काल – अनु.) के दस्तावेज़ों में उसका उल्लेख था, और उसकी सीमाओं पर हाल ही तक डाकुओं की गतिविधियों की प्रचुरता थी. उसके व्यापारियों की सम्पन्नता और उसकी धरती के उपजाऊपन के किस्से मशहूर थे. कुछ मान्यताएँ, प्रथाएँ और बोली की विशेषताएँ, जो इस, अग्रिम मोर्चे के पश्चिमी भाग की विशेषता थीं, ज़िबूशिना की ही देन थीं.

अब ऐसे ही किस्से ब्लाझैका के प्रमुख सहायक के बारे में भी कहे जाते थे. इस बात पर ज़ोर दिया जाता था, कि वह जन्म से गूँगा-बहरा था, जो किसी चमत्कारवश बोलने की शक्ति प्राप्त करता था और बाद में इसकी समाप्ति पर उसे फिर से खो भी देता था.

जुलाई में ज़िबूशिन्स्की रिपब्लिक का पतन हो गया. उसकी जगह अस्थाई सरकार की वफ़ादार फ़ौजी टुकड़ी घुस गई, भगोड़ों को ज़िबूशिना से भगा दिया गया, और वे बिर्यूची की ओर पीछे हट गए.                          

वहाँ रेल्वे लाइनों के पीछे कई मीलों तक कटे हुए पेड़ों के ठूँठ थे, जो जंगली स्ट्राबेरीज़ से लदे थे, ईंधन की पुरानी लकड़ियाँ पड़ी थीं और वहाँ पर कभी काम कर रहे मौसमी लकड़हारों की मिट्टी की भग्न झोंपड़ियाँ थी. भगोड़े यहीं बस गए.

 

4

फौजी अस्पताल, जिसमें डॉक्टर अपने इलाज के लिए रुका था, जिसमें बाद में उसने काम किया और अब जिसे छोड़ने वाला था, काउन्टेस झब्रीन्स्काया की हवेली में था, जिसने युद्ध के आरंभ में ही उसे घायलों के उपयोग के लिए समर्पित कर दिया था.

दोमंज़िला हवेली मेल्यूज़ेयेवो के बढ़िया भागों में से एक में स्थित थी. वह शहर की मुख्य सड़क और सेन्ट्रल स्क्वेयर वाले चौराहे पर थी, जिसे परेड ग्राउण्ड कहते थे, जहाँ पहले सैनिकों की ट्रेनिंग होती थी, और अब शाम को मीटिंग्स होती थीं.

चौराहे पर स्थित होने के कारण हवेली से कई तरफ़ के अच्छे नज़ारे दिखाई देते थे. मुख्य सड़क और स्क्वेयर के अलावा उसमें से पड़ोसियों का कम्पाऊण्ड भी दिखाई देता था, जिससे वह जुड़ा हुआ था, - ग़रीब, प्रांतीय गृहस्थी, जो ग्राम्य जीवन से ज़रा भी अलग नहीं थी. वहाँ से काउण्टेस का पुराना बाग भी दिखाई देता था, जहाँ हवेली की पिछली दीवार थी.

झब्रीन्स्काया की नज़र में हवेली का कोई ख़ास महत्व नहीं था. उसके पास जिले में राज़्दोल्नोएनामक एक बड़ी इस्टेट थी, और शहर का घर सिर्फ तभी इस्तेमाल होता था, जब उसे कामकाज के सिलसिले में शहर आना पड़ता, और मेहमानों के लिए भी काम आता था, जो गर्मियों में बड़ी संख्या में देश के सभी कोनों से इस्टेट में इकट्ठा होते थे.         

अब हवेली में फ़ौजी अस्पताल था, और मालकिन को पीटर्सबुर्ग में गिरफ़्तार कर लिया गया था, जहाँ उसका स्थायी निवास था.

पुराने स्टाफ़ में से हवेली में दो जिज्ञासु औरतें बची थीं, काउन्टेस की बेटियों की (जो अब शादीशुदा हैं),  बूढ़ी गवर्नेस, मैडम फ्लेरी, और काउन्टेस की भूतपूर्व रसोइन, उस्तीन्या.

सफ़ेद बालों वाली और गुलाबी-गुलाबी बुढ़िया, मैडम फ्लेरी, अपने जूते घसीटती, ढीले-ढाले पुराने, मैले-कुचेले जैकेट में, पूरे अस्पताल में घूमती रहती, जहाँ उसकी सबसे घनिष्ठता हो गई थी, जैसी कभी झब्रीन्स्की परिवार से थी. वह अपनी टूटी-फूटी भाषा में, फ्रांसीसी तर्ज़ पर रूसी शब्दों के अंतिम हिस्से निगलते हुए, किस्से सुनाती. वह शानदार अंदाज़ में खड़ी रहती, हाथ हिलाती और अपनी किस्सागोई के अंत में भर्राए हुए ठहाके लगाती, जो हमेशा लम्बी असहनीय खाँसी से समाप्त होते.

मैडम को नर्स अंतीपवा के बारे में सब कुछ मालूम था. उसका ख़याल था कि डॉक्टर और नर्स को एक दूसरे को पसंद करना चाहिए.

जोड़ियाँ बनाने के शौक के चलते, जो रोमन स्वभाव में निहित था, मैडम उन दोनों को इकट्ठा देखकर ख़ुश होती, अर्थपूर्वक ढंग से उँगली से उन्हें धमकाती और शरारत से आँख मारती. अंतीपवा परेशान हो जाती, डॉक्टर गुस्सा होता, मगर मैडम, सभी सनकियों की तरह, अपने भ्रमों की कद्र करती और किसी भी कीमत पर उन्हें छोड़ने को तैयार नहीं थी.    

उस्तीन्या का स्वभाव और भी ज़्यादा जिज्ञासु था. उसका जिस्म बेडौल तरीके से ऊपर की ओर सिकुड़ा हुआ था, जिसके कारण वह ऐसी मुर्गी जैसी प्रतीत होती जो अण्डे से रही हो. उस्तीन्या सूखे और गंभीर स्वभाव की थी, जो ज़हरीला हो जाता था, मगर इस विलक्षणता से वह काल्पनिक कथा रच लेती थी. जिसमें अंधविश्वास ठूँस ठूँस कर भरे होते थे.

उस्तीन्या कई तरह के जादू-टोने जानती थी और जब उसे बाहर जाना होता, तो भट्टी की आग पर सम्मोहन किए बिना, और चाभी के सूराख को फुसफुसाकर बुरी ताकतों से दूर रहने को कहे बिना घर से बाहर कदम नहीं रखती थी. वह मूलतः ज़िबूशिना की थी. कहते थे, कि वह गाँव के जादू-टोना करने वाले की बेटी थी.   

उस्तीन्या सालों तक चुप रह सकती थी, मगर जब उसे बोलने का दौरा पड़ता, तो वह जैसे फूट पड़ती. तब उसे रोकना असंभव हो जाता. सत्य के पक्ष में खड़े होना उसका जुनून था.

ज़िबूशिन्स्की रिपब्लिक के पतन के बाद मेल्यूज़ेयेवो की कार्यकारिणी समिति ने शहर से आ रही अराजकतावादी प्रवृत्तियों से संघर्ष करने की मुहिम चलाई. हर रोज़ शाम को अपने आप परेड ग्राउण्ड पर थोड़े से लोगों की शांतिपूर्ण सभाएँ होतीं, जिनमें मेल्यूज़ेयेवो के वे नागरिक जो व्यस्त नहीं थे, जमा हो जाते, जैसे पहले गर्मियों के दिनों में खुले आसमान के नीचे फायर-स्टेशन के गेट के पास बैठा करते थे. मेल्यूज़ेयेवो की सांस्कृतिक-प्रबुद्धता  समिति इन सभाओं को प्रोत्साहित करती और चर्चाओं के मार्गदर्शन के लिए अपने या बाहर से आए हुए कार्यकर्ताओं को भेजती. वे ज़िबूशिनो से संबंधित किस्सों में से सबसे ज़्यादा बेतुका मानते थे बोलने वाले गूँगे-बहरे का किस्सा, और अपने पर्दाफ़ाश करने वाले भाषणों में अक्सर उसका उल्लेख करते. मगर मेल्यूज़ेयेवो के छोटे-मोटे कारीगर, सैनिकों की बीबियाँ और सामंतों के पुराने सेवकों की राय अलग थी. बोलने वाला गूँगा-बहरा उन्हें ज़रा भी बेतुका प्रतीत नहीं होता.

वे उसका बचाव करते.

बिखरी हुई ज़ोर की आवाज़ों में, जो उसके पक्ष में भीड़ से उठती, अक्सर उस्तीन्या की आवाज़ सुनाई पड़ती. पहले तो वह बाहर आने का फ़ैसला नहीं कर पाई, स्त्री सुलभ लज्जा उसे रोक रही थी. मगर धीरे-धीरे उसने अधिकाधिक हिम्मत से वक्ताओं पर हमला करना शुरू कर दिया, जिनकी राय मेल्यूज़ेयेवो में पसंद नहीं की जाती थी. इस तरह अनजाने ही वह मंच से बोलने वाली सचमुच की वक्ता बन गई.  

हवेली की खुली हुई खिड़कियों से परेड-ग्राउण्ड की आवाज़ की एकसुर गुनगुनाहट सुनाई देती, और विशेष रूप से ख़ामोश रातों में तो भाषणों के कुछ अंश भी सुनाई देते. अक्सर, जब उस्तीन्या बोल रही होती, तो मैडम भागकर कमरे में आती, वहाँ उपस्थित लोगों को सुनने के लिए मनाती और, शब्दों को तोड़ते-मरोडते हुए, सहृदयता से नकल उतारती:

“रास्पू! रास्पू! त्सार ...! ज़िबूश! गूँगाबह...! द्रोह! द्रोह!”

दिल ही दिल में मैडम को इस ज़ुबान की तेज़-तर्रार झगडालू-अम्मा पर गर्व था. दोनों औरतों के बीच एक नाज़ुक प्यार भरा रिश्ता था और वे लगातार एक दूसरे पर गुर्राती रहतीं.                              

  

5

धीरे-धीरे यूरी अन्द्रेयेविच जाने की तैयारी करने लगा. वह उन घरों और दफ़्तरों में गया जहाँ किसी से बिदा लेनी थी और ज़रूरी कागज़ात ठीक करता रहा.

इसी समय मोर्चे के इस सेक्टर का नया कमिसार फ़ौज में जाते हुए शहर में रुका. उसके बारे में कह रहे थे कि जैसे अभी वह बिल्कुल लड़का है.

ये एक नये हमले की तैयारी करने का समय था.

सैनिकों के समूहों की मानसिकता में परिवर्तन लाने की कोशिश की जा रही थी.

सेनाओं को चुस्त बनाया जा रहा था. क्रांतिकारी-मिलिट्री अदालतों की स्थापना की जा रही थी और मृत्युदण्ड, जिसे हाल ही में हटा दिया गया था, फिर से बहाल कर दिया गया था.

जाने से पहले डॉक्टर को कमांडेंट के पास नाम लिखवाना था. मेल्यूज़ेवो में यह काम मिलिट्री प्रमुख देखता था, जिसे संक्षेप में “काउन्टी” कहते थे.

उसके पास अक्सर भारी भीड़ होती थी. भीड़ ना तो ड्योढ़ी में समा सकती थी, ना ही आँगन में और दफ़्तर की खिड़कियों के सामने वाली आधी सड़क भी उसने घेर रखी थी. मेज़ों के पास जाना नामुमकिन था. सैकड़ों आवाज़ों के शोर में किसी को भी कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था.

वह मुलाकातों का दिन नहीं था. खाली और सुनसान दफ़्तर में अधिकाधिक उलझती कागज़ी कार्रवाइयों से नाखुश क्लर्क्स एक दूसरे पर व्यंग्यात्मक नज़रें डालते हुए चुपचाप लिखे जा रहे थे. प्रमुख के कक्ष से प्रसन्न आवाज़ें आ रही थीं, जैसे वहाँ जैकेट के बटन खोलकर लोग ठण्डे पेय का मज़ा ले रहे हों.

वहाँ से बाहर दफ़्तर में आया गलिऊलिन, उसने झिवागो को देखा और अपने धड़ से भागने की मुद्रा बनाते हुए, इशारे से डॉक्टर को भीतर हो रहे हँसी-मज़ाक में हिस्सा लेने का इशारा किया.

डॉक्टर को वैसे भी प्रमुख के दस्तख़त के लिए भीतर जाना ही था, वहाँ उसे सब कुछ अत्यंत कलात्मक रूप से अस्तव्यस्त नज़र आया.

उस छोटे से शहर की सनसनीखेज़और उस दिन का हीरो’, नया कमिसार, अपने उद्देश्य का पालन करने के बजाय वहाँ, उस कक्ष में था, जिसका स्टाफ़ के महत्वपूर्ण विभागों और सामरिक गतिविधियों से कोई लेना देना नहीं था. वह कागज़ी-युद्ध साम्राज्य के प्रशासकों के सामने था, उनके सामने खड़ा होकर भाषण दे रहा था.

“ये रहा हमारा एक और सितारा,” “काउन्टी” ने डॉक्टर का कमिसार से परिचय करवाते हुए कहा, जिसने उसकी तरफ़ देखा भी नहीं, वह अपने आप में मगन था, और “काउन्टी” ने अपनी मुद्रा, सिर्फ इसलिए बदली ताकि डॉक्टर द्वारा सामने किए गए कागज़ पर हस्ताक्षर करे, वापस अपने पहले वाले अंदाज़ में आ गया और प्यार से डॉक्टर की ओर देखते हुए हाथ के इशारे से कमरे के बीच पड़ी हुई गद्देदार नीची कुर्सी पर बैठने का इशारा किया.

वहाँ उपस्थित लोगों में सिर्फ डॉक्टर ही इन्सान की तरह बैठा था. बाकी लोग अजीब-अजीब तरह से और पसर कर बैठे थे. “काउन्टी” सिर के नीचे हाथ रखे पिचोरिन जैसे अंदाज़ में लिखने की मेज़ के पास झुका हुआ था, उसका सहायक उसके सामने सोफे के हत्थे पर बैठा था, पैरों को अपने नीचे दबाये, जैसे जनाना काठी पर बैठा हो. गलिऊलिन कुर्सी के ऊपर बैठा था, जिसकी पीठ सामने की ओर रखी हुई थी, उसने पीठ को दोनों हाथों में लपेटा था और उस पर सिर रखा था, और जवान कमिसार कभी खिड़की के दासे तक हाथ फैलाता, कभी उससे दूर हटता और, घूमते हुए लट्टू की तरह, एक भी मिनट रुके बिना, छोटे-छोटे तेज़ कदमों से कमरे में घूम रहा था. वह लगातार बोले जा रहा था. बात बिर्यूची के भगोड़ों के बारे में हो रही थी.    

कमिसार के बारे में जो अफ़वाहें सुनी थीं, वे सच निकलीं. ये एक दुबला-पतला, सुडौल नौजवान था, जो अब तक बिल्कुल अनुभवहीन था, जो महानतम आदर्शों से मोमबत्ती की तरह जल रहा था. कहते थे, कि वह एक अच्छे परिवार से है, शायद सिनेटर का बेटा है, और फरवरी में अपनी कम्पनी को सबसे पहले स्टेट ड्यूमा में ले जाने वालों में से एक था. उसका कुलनाम, जो गिन्त्से या गिन्त्स था, जो डॉक्टर को उसका परिचय करवाते समय अस्पष्ट रूप से बताया गया था. कमिसार का लहज़ा अस्सल पीटरबुर्गी था, स्पष्ट-बेहद स्पष्ट, कुछ-कुछ बाल्टिक जैसा.

वह तंग जैकेट में था. शायद उसे अटपटा लग रहा था कि वह अभी तक इतना जवान है, और, बड़ा दिखने के लिए उसने चेहरे पर चिड़चिड़ेपन का भाव ओढ़ लिया था और कृत्रिम कूबड़ निकाला था. इसके लिए उसने हाथों को अपनी घुड़सवारी की पतलून की जेबों में गहरे घुसा लिया था, और कंधों के कोनों को नई, कड़ी शोल्डर-स्ट्रैप्स में ऊपर उठाया था, जिसके कारण उसकी आकृति वाकई में घुड़सवार-सैनिक जैसी सरल हो गई थी, ताकि उसे कंधों से पैरों तक दो नीचे जाती हुई रेखाओं द्वारा खींचा जा सकता था.           

रेल्वे लाइन पर, यहाँ से कुछ स्टेजेस की दूरी पर एक कज़ाक रेजिमेंट है. लाल, विश्वसनीय, समर्पित. उन्हें बुलाया जाएगा, विद्रोहियों को घेर लिया जाएगा और काम ख़तम. कोर-कमाण्डर उनके शीघ्र निःशस्त्रीकरण पर ज़ोर दे रहा है,” ‘काउन्टीकमिसार को जानकारी दे रहा था.

“कज़ाक? किसी हालत में नहीं!” कमिसार उत्तेजित हो गया. “किसी 1905 की, क्रांतिपूर्व यादें! यहाँ हमारे विचार आपसे एकदम विपरीत हैं, यहाँ आपके जनरल्स ने काफी चालाकी दिखाई है.”

“अभी तक कुछ भी नहीं किया गया है. सब सिर्फ प्लान में है, कल्पना है.”

“परिचालन संबंधी सूचनाओं में दखल न देने के बारे में मिलिट्री कमांड से समझौता हुआ है. मैं कज़ाकों को नहीं हटाऊँगा. मान लेते हैं. मगर मैं अपने विवेक के अनुसार कुछ कदम उठाऊँगा. क्या वहाँ उनका पड़ाव है?”

“क्या कह सकते हैं. हर हाल में कम से कम कैम्प तो है. सुरक्षित.”

“बहुत अच्छे. मैं उनके पास जाना चाहता हूँ. मुझे ये तूफ़ान, ये जंगली डाकू दिखाइये. चाहे वे विद्रोही ही हों, चाहे भगोड़े भी हों, मगर ये लोग (जनता) हैं, महाशय, ये बात आप भूल रहे हैं. और लोग बच्चे की तरह होते हैं, उसे समझना चाहिए, उसकी मानसिकता को समझना चाहिए, यहाँ ख़ास तरह से उनसे पेश आने की ज़रूरत है. उनके दिल के बेहतरीन, संवेदनशील तारों को छूने की ज़रूरत है, ताकि वे झंकार करने लगें. मैं उनके पड़ाव पर जाऊँगा और उनसे खुलकर बात करूँगा. आप देखेंगे कि वे कितने अनुकरणीय तरीके से वापस अपनी छोड़ी हुई जगहों पर लौटते हैं. शर्त लगाते हैं? आपको यकीन नहीं हो रहा है?”

“शक है! मगर ख़ुदा करे ऐसा ही हो!”

मैं उनसे कहूँगा : “भाइयों, मेरी तरफ़ देखो. मैंने, जो इकलौता बेटा हूँ, अपने परिवार की उम्मीद हूँ,  किसी बात का अफ़सोस नहीं किया, अपना नाम छोड़ा, अपनी हैसियत छोड़ी, माँ-बाप का प्यार छोड़ा, ताकि आपके लिए आज़ादी प्राप्त कर सकूँ, जैसी दुनिया में एक भी देश में नहीं है. मैंने और मेरे जैसे कई नौजवानों ने ये किया, हमारे शानदार पूर्वजों के वयोवृद्ध सैनिकों की, यातना शिविरों में सज़ा भुगत रहे जनवादियों और श्लीसरबुर्ग-जनता की आवाज़ के बारे में न भी कहूँ तो. क्या हमने अपने लिए तकलीफ़ें झेली थीं? क्या हमें इसकी ज़रूरत थी? अब, आप मामूली फ़ौजी नहीं हो, जैसे पहले थे, बल्कि दुनिया की पहली क्रांतिकारी सेना के योद्धा हो. अपने आप से ईमानदारी से पूछो, क्या आपने इस महान उपाधि के साथ न्याय किया है?  उस समय, जब मातृभूमि, खून में लथपथ, आख़िरी ताकत से कोशिश कर रही है अपने चारों ओर पड़े कालसर्प जैसे दुश्मन की कुण्डलियों से ख़ुद को आज़ाद करने की, आप अनजान बदमाशों की टोली के बहकावे में आ गए और ख़ुद को नासमझ टुच्चे लोगों में, गैर ज़िम्मेदार गुण्डों में परिवर्तित कर लिया, जो आज़ादी को निगल गए, जिन्हें, चाहे जो भी दो, कम ही लगता है, बिल्कुल वैसे ही, जैसे सुअर को मेज़ के पास बिठाओ, और वह मेज़ पर ही पाँव रख लेगा – ओह, मैं उन्हें पकडूँगा, मैं उन्हें शर्मिंदा करूँगा!”

“नहीं, नहीं, इसमें ख़तरा है,” काउन्टी ने चुपके से, काफ़ी अर्थपूर्ण नज़रों से सहायक की ओर देखते हुए प्रतिरोध करने की कोशिश की.

गलिऊलिन ने कमिसार को उसके इस बेवकूफ़ी भरे प्लान से रोकने की कोशिश की. वह 212वीं टुकड़ी के दिलेर सैनिकों को डिविजन के समय से जानता था, जिसका हिस्सा उसकी रेजिमेंट थी, और जिसमें वह पहले रह चुका था. मगर कमिसार ने उसकी बात नहीं सुनी.

यूरी अन्द्रेयेविच पूरे समय उठकर वहाँ से जाने के लिए कसमसा रहा था. कमिसार का भोलापन उसे परेशान कर रहा था. मगर इन दोनों छुपे रुस्तम जोकरों - काउन्टी और उसके सहायक का चालाक बनावटीपन भी उससे बढ़कर नहीं था. ये बेवकूफ़ी और ये चालाकी एक दूसरे के लायक ही थे.

और ये सब जो अनावश्यक, अस्तित्वहीन, धुँधला था, जिससे ज़िंदगी भी बचना चाहती है, शब्दों के प्रवाह में बह गया.

ओह, कभी कभी कितना जी चाहता है, इस प्रतिभाशून्य-महिमामंडित, निराशाजनक बातूनीपन से प्रकृति की ख़ामोशी में, लम्बे, अथक परिश्रम की स्तब्धता में, गहरी नींद की निःशब्दता में, असली संगीत में और ख़ामोश, हार्दिक स्पर्श से परिपूर्ण हुई आत्मा की स्तब्धता में जाने को.

डॉक्टर को याद आया कि उसे अंतीपवा से बात करनी है, जो हर हाल में अप्रिय होने वाली है. उससे हर हाल में मिलने के ख़याल से वह ख़ुश हो गया, इसके लिए चाहे जो भी कीमत चुकानी पड़े. मगर वह शायद ही वापस आई हो.

पहला मौका मिलते ही डॉक्टर उठा और चुपके से कक्ष से बाहर निकल गया.

 

6

पता चला कि वह घर में ही है. मैडम ने उसके वापस आने के बारे में डॉक्टर को बताया और आगे कहा, कि लरीसा फ़्योदरव्ना थकी हुई लौटी थी, उसने जल्दी-जल्दी खाना खाया और अपने कमरे में चली गई, ये कहकर कि मेहेरबानी करके उसे परेशान न किया जाए.

“वैसे, दरवाज़ा खटखटा लीजिए,” मैडम ने सलाह दी. “वो, शायद, अभी सोई न हो.”

“उसके पास जाऊँ कैसे?” डॉक्टर ने अपने सवाल से मैडम को अचरज में डाल दिया.

पता चला कि अंतीपवा का कमरा ऊपर वाले कॉरीडोर के अंत में है, उन कमरों की बगल में, जहाँ झब्रीन्स्काया का पूरा सामान तालों में रखा गया है, और जहाँ डॉक्टर ने कभी झाँका तक नहीं था.

इस बीच जल्दी से अँधेरा हो गया. रास्ते कुछ तंग नज़र आने लगे. शाम के अँधेरे में घर और बागड़ एक गठरी में सिमट गए. पेड़ आँगनों की गहराई से खिड़कियों की ओर खिसक आए, जलते हुए लैम्पों के नीचे. रात गर्म और उमस भरी थी. ज़रा सी भी हरकत से पसीना आ रहा था. केरोसिन की रोशनी के पट्टे, जो आँगन में पड़ रहे थे, गंदी भाप की धाराएँ बनाते हुए पेड़ों के तनों पर बह रहे थे.

आख़िरी सीढ़ी पर डॉक्टर रुक गया. उसने सोचा, कि जो इन्सान सफ़र से थक कर आया हो, उसे खटखटाहट से परेशान करना ठीक नहीं है, ये बदतमीज़ी होगी. बेहतर है कि बातचीत को अगले दिन तक टाल दिया जाए. हड़बड़ाहट में, जो बदले हुए निर्णयों के कारन होती है, वह कॉरीडोर के दूसरे सिरे तक गया. वहाँ दीवार में एक खिड़की थी, जो बगल के कम्पाऊँड में खुलती थी. डॉक्टर ने खिड़की से बाहर झाँका.

रात ख़ामोश, रहस्यमय आवाज़ों से भरी थी. कॉरीडोर में, बगल में ही बेसिन से पानी की मोटी-मोटी बूँदें रुक-रुककर टपक रही थीं. कहीं, खिड़की के बाहर, फुसफुसाहट हो रही थी. कहीं, जहाँ बाग शुरू होते थे, क्यारियों में खीरों को पानी दिया जा रहा था, और कुँए से पानी निकालकर एक बाल्टी से दूसरी में डालते हुए जंज़ीर की खड़खड़ाहट हो रही थी.

अचानक दुनिया भर के फूलों की ख़ुशबू फैल गई, मानो धरती दिन में बेहोश पड़ी थी, और अब इन ख़ुशबुओं से उसकी चेतना वापस लौट आई हो. और काउन्टेस के सदियों पुराने बाग से, जो टूटी हुई टहनियों से इस कदर अटा पड़ा था, कि अभेद्य हो गया था, पुराने लीपा वृक्षों से, जिन पर बहार आई थी, धूल भरी ख़ुशबू की लहर - पेड़ों जितनी ऊँची, एक बड़ी इमारत की दीवार जैसी - सराबोर कर गई.      

दाईं ओर, बागड़ के बाहर सड़क से चीखें सुनाई दे रही थीं. वहाँ छुट्टी पर आया हुआ एक सैनिक दंगा कर रहा था, दरवाज़ें धड़ाम-धड़ाम कर रहे थे, किसी गाने के टुकड़े सुनाई दे रहे थे.

काउण्टेस के बाग में कौओं के घोंसलों के पीछे आश्चर्यजनक रूप से बड़ा गहरा-लाल चाँद दिखाई दे रहा था. पहले तो वह ज़िबूशिना में ईंटों की पनचक्की जैसा नज़र आ रहा था, मगर बाद में पीला हो गया, बिर्यूची के रेल्वे स्टेशन के पम्प हाउस जैसा.

और नीचे, खिड़की के नीचे आँगन में रात रानी की ख़ुशबू के साथ ताज़ी घास की मीठी-मीठी ख़ुशबू मिल गई थी, फूलों वाली चाय की.

यहाँ हाल ही में दूर गाँव में खरीदी हुई गाय लाए थे. उसे दिन भर चलाकर लाया गया था, वह थक गई थी, अपने पीछे छूटे हुए झुण्ड को याद कर रही थी और नई मालकिन के हाथ से घास नहीं ले रही थी, जिसकी उसे अभी तक आदत नहीं हुई थी.

“चल, चल, नखरे न कर, मैं दूँगी, शैतान, दो लगाऊँगी,” मालकिन फुसफुसाकर उसे धमका रही थी, मगर गाय कभी गुस्से से एक ओर से दूसरी ओर सिर हिला देती, कभी गर्दन निकाल कर, पागलपन और दयनीयता से रँभाती, और मेल्यूज़ेयेवो की अँधेरे खलिहानों के पीछे तारे टिमटिमा रहे थे, और उनसे गाय तक अदृश्य सहानुभूति के तार खिंचे आ रहे थे, जैसे वे दूसरी दुनिया के मवेशियों के बाड़े हों, जहाँ उस का दर्द समझ कर उस पर दया दिखाई जा रही थी.

चारों ओर की हर चीज़ अस्तित्व के जादुई खमीर से घूम रही थी, बढ़ रही थी और ऊपर उठ रही थी. जीवन के प्रति उत्साह, ख़ामोश हवा की तरह, विशाल लहर की तरह धरती पर और शहर में, न जाने कहाँ बहा जा रहा था, दीवारों और बागड़ों को फांदते हुए, पेड़ों से और जिस्म से होकर, रास्ते की हर चीज़ में कँपकँपाहट भरते हुए. इस प्रवाह की प्रतिक्रिया को दबाने के लिए डॉक्टर परेड ग्राउण्ड पर मीटिंग में हो रही बातचीत को सुनने के लिए गया.

     

7

चाँद आसमान में ऊपर आ चुका था. हर चीज़ उसके गाढ़े, पिघले हुए जस्ते जैसे प्रकाश में नहा रही थी.

पत्थर के, स्तम्भों वाले सरकारी भवनों की ड्योढ़ियों में, जिन्होंने पूरे चौक को घेर रखा था, काले कालीनों जैसी उनकी चौड़ी-चौड़ी परछाइयाँ बिछी थीं.

मीटिंग चौक की विरुद्ध दिशा में हो रही थी. इच्छा होने पर, गौर से सुनकर, परेड ग्राउण्ड के इस पार समझ में आ सकता था कि वहाँ क्या बोला गया था. मगर डॉक्टर का ध्यान एक शानदार दृश्य ने आकर्षित कर लिया. वह सड़क के उस पार से सुनाई दे रही आवाज़ों की ओर ध्यान दिए बिना फ़ायर स्टेशन के गेट के पास वाले स्टाल पर बैठ गया, और चारों ओर देखने लगा.       

छोटी-छोटी, अंधी गलियाँ चौक के किनारों से आकर उसमें समा रही थीं. उनकी गहराई में जर्जर, टेढ़े-मेढ़े छोटे-छोटे घर दिखाई दे रहे थे. इन गलियों में इतना गहरा कीचड़ था, जैसा गाँवों में होता है. विलो-वृक्षों से बुनी हुई रस्सियों की लम्बी-लम्बी बागड़ें कीचड़ से झाँक रही थीं, जैसे तालाब में फेंके गए जाल, हों, या डूबी हुई टोकरियाँ, जिनसे केंकड़े पकड़ते हैं.      

घरों की खुली हुई खिड़्कियों के काँच धुँधली चमक बिखेर रहे थे. किचन गार्डन से पसीने से नहाए भूरे बालों वाले भुट्टे कमरों के भीतर झाँक रहे थे, उनके बाल और लटकते गुच्छे ऐसे चमक रहे थे, जैसे तेल से भीगे हों. झोल पड़े बेंत की बागड़ के पीछे से कुछ अकेले से, दुबलाए गुलखैरू के पौधे कहीं दूर नज़र लगाए थे, कमीज़ें पहनी खेतों में काम करने वाली औरतों के समान, जिन्हें गर्मी ने ताज़ी हवा में साँस लेने के लिए उमस भरी झोंपड़ियों से बाहर भगाया हो.

चाँद की रोशनी से प्रकाशित रात अचरज में डाल रही थी, जैसे किसी अतीन्द्रिय दृष्टि की दया या उसका उपहार हो, और अचानक इस उजली, झिलमिलाती परीकथा में किसी परिचित की नपी तुली, टूटी-टूटी आवाज़ों के हथौड़े पड़ने लगे. जैसे इस आवाज़ को अभी-अभी सुना हो. आवाज़ सुन्दर थी, जोशीली और दृढ़ विश्वास से भरी हुई. डॉक्टर ने गौर से सुना और फ़ौरन पहचान लिया कि यह कौन है. यह था कमिसार गिन्त्स. वह परेड़ ग्राउण्ड पर बोल रहा था.

स्थानीय शासकों ने, शायद, उससे विनती की थी कि अपने अधिकार का प्रयोग करके उनका समर्थन करे, और वह बड़े आवेश में मेल्यूज़ेयेवोवासियों को उनकी अव्यवस्था के लिए फटकार रहा था, इस बात के लिए दोष दे रहा था कि वे कितनी आसानी से भ्रष्ट बोल्शेविकों के बहकावे में आ गए, जो ज़िबूशिना की घटनाओं के, जैसा कि वह यकीन दिला रहा था, वास्तविक दोषी हैं. उसी जोश में, जिसमें वह फ़ौजी दफ्तर में बोल रहा था, उसने क्रूर और शक्तिशाली दुश्मन की याद दिलाई और मातृभूमि के लिए परीक्षा की घड़ी का वास्ता दिया. भाषण के बीच से ही लोग उसकी बात काटने लगे.

वक्ता के भाषण को रोकने की विनती के साथ ही असहमति की चीखें भी सुनाई दे रही थीं. विरोधी नारे अधिकाधिक बढ़ने लगे और तेज़ होने लगे. गिन्त्स के साथ आया हुआ कोई व्यक्ति जिसने अध्यक्ष की ज़िम्मेदारी ली थी, चिल्ला रहा था, कि अपनी जगह टिप्पणियाँ करने की इजाज़त नहीं है और उसने व्यवस्था बनाए रखने की अपील की. कुछ लोगों ने माँग की, कि भीड़ में से एक नागरिक को बोलने दिया जाए, दूसरे लोग बाधा न डालने के बारे में चिल्ला रहे थे.

उल्टे रखे गए बक्से के पास, जो मंच का काम दे रहा था, भीड़ को चीरती हुई एक औरत आई. बक्से पर चढ़ने का उसका कोई इरादा नहीं था, और उसके पास घुस कर वह तिरछी खड़ी हो गई.

उस औरत को सब पहचानते थे. ख़ामोशी छा गई. औरत ने भीड़ का ध्यान आकर्षित कर लिया. यह उस्तीन्या थी.

“तो, आप कहते हैं ज़िबूशिना, कॉम्रेड कमिसार, और फिर आँखों के बारे में, आँखें, कहते हैं, कि होनी चाहिए और ये, कि बहकावे में नहीं आना चाहिए, मगर फिर ख़ुद ही, मैं आपको सुन रही थी, सिर्फ इतना ही जानते हैं, कि बोल्शेविक-मेन्शेविक, बस, इल्ज़ाम लगाए जा रहे हैं, बोल्शेविक और मेन्शेविक, कुछ और तो आपके मुँह से सुना नहीं. और आपस में लड़ाई न करें और भाइयों की तरह रहें, इसे कहते हैं ख़ुदा की मेहेरबानी, न कि मेन्शेविक, और फैक्ट्रियाँ और कारखाने गरीबों को, ये भी बोल्शेविक नहीं, बल्कि इन्सानी दया है. और गूँगे-बहरे के बारे में भी, आपके बिना ही काफ़ी कुछ सुन चुके हैं, सुनते-सुनते उकता गए. चढ़ गया आपके हत्थे! और , उसकी कौन सी बात आपको परेशान करती है? कि चल रहा था, चल रहा था गूँगा, और अचानक, बिना किसी की इजाज़त लिए, बोलने लगा? सोचो, अजीब बात हो गई. ऐसा भी होता है!

ये गधी, मिसाल के तौर पर, सब को मालूम है. “ बलाम, बलाम, बोली, ईमानदारी से कहती हूँ, उधर मत जा, ख़ुद ही पछताएगा”. ख़ैर, सबको पता है, उसने नहीं सुना, चलने लगा. जैसे आप कहते हैं : “गूँगा-बहरा”.

सोचता है, उसकी बात क्या सुनना – गधी है, जानवर. नफ़रत करता था जानवरों से. मगर बाद में कैसा पछताया. सबको पता है, कि ये कैसे ख़तम हुआ.”

“कैसे?” भीड़ में से किसी ने उत्सुकता से पूछा.

“अच्छ,” उस्तीन्या रुखाई से बोली. “ज़्यादा जानोगे, तो बहुत जल्दी बुढ़ा जाओगे.”

“नहीं, ऐसे नहीं चलेगा. तू बता, कैसे,” वह आवाज़ ख़ामोश नहीं हुई.

“कैसे क्या कैसे, कटीला चिपकू! नमक के खम्भे में बदल गया.”

“शरारत कर रही हो, अम्मा! ये लोत है. लोत की बीबी,” चीखें आने लगीं.

सब हँसने लगे. अध्यक्ष ने व्यवस्था बनाये रखने की अपील की.

डॉक्टर सोने के लिए चला गया.

 

8

दूसरे दिन शाम को वह अंतीपवा से मिला. उसे वह पैन्ट्री में मिली. लरीसा के सामने धुले हुए कपड़ों का ढेर था. वह इस्त्री कर रही थी.

पैन्ट्री ऊपरी मंज़िल के पीछे वाले एक कमरे में थी और बाग में खुलती थी. उसमें समोवार रखे जाते, प्लेटों में खाने की चीज़ें रखी जातीं, जिन्हें किचन से हाथ से चलाने वाली लिफ्ट से ऊपर लाया जाता, गन्दी प्लेटों को धोने के लिए नीचे भेजा जाता. पैन्ट्री में हॉस्पिटल का सामान रखा गया था. वहाँ सूचियों के अनुसार चादरों और प्लेटों की गिनती की जाती, खाली समय में आराम करते और एक दूसरे से  मुलाकातें भी होतीं.

गार्डन की तरफ वाली खिड़कियाँ खुली थीं. पैन्ट्री में लीपा वृक्षों की ख़ुशबू, सूखी टहनियों की कड़वी गंध फैली थी, जैसी पुराने पार्कों में होती है, और दो दहकती इस्त्रियों की गर्म बू भी थी, जिनसे लरीसा फ्योदरव्ना, इस्त्री कर रही थी. वह उन्हें एक के बाद एक बाहर जाने वाले गर्म पाइप में रखती, जिससे वे गर्म रहें.

“आपने कल दरवाज़ा क्यों नहीं खटखटाया? मुझे मैडम ने बताया. वैसे, आपने ठीक ही किय. मैं लेट चुकी थी और आपको भीतर नहीं बुला सकती थी. अच्छा, नमस्ते. ध्यान से, देखिए दाग न लगें. यहाँ कोयला बिखरा है.”

“ऐसा लग रहा है, कि आप पूरे अस्पताल की चादरों पर इस्त्री कर रही हैं?”

“नहीं, इसमें बहुत कुछ मेरे हैं. देखिए, आप सब लोग मुझे चिढ़ाते थे, कि मैं यहाँ से कभी भी नहीं निकल पाऊँगी. मगर इस बार मैं गंभीर हूँ. देखिए, तैयारी कर रही हूँ, सामान रख रही हूँ. रख लूँगी – और बाय-बाय. मैं युराल, आप मॉस्को. और बाद में कभी यूरी अन्द्रेयेविच से पूछेंगे : “ क्या आपने इस शहर मेल्युज़ेयेवो के बारे में सुना है?” – “कुछ याद नहीं आता”. “और अंतीपवा कौन है?” – “समझ में नहीं आ रहा है”.

“चलो, मान लेते हैं – आप का गाँवों का सफ़र कैसा रहा? गाँव में अच्छा लगता है?”

“ऐसे, दो लब्ज़ों में बताना मुश्किल है. – कोयले कितनी जल्दी ठण्डे हो जाते हैं! मुझे नई इस्त्री दीजिए, प्लीज़, अगर आपको तकलीफ़ न हो तो. वो, पाइप में रखी है. और इसे वापस, पाइप में. ऐसे. धन्यवाद.”

“अलग अलग तरह के गाँव हैं. सब कुछ वहाँ के लोगों पर निर्भर करता है. कुछ गाँवों में आबादी मेहनत पसंद, काम करने वाली है. वहाँ कोई बात नहीं है. मगर कुछ गाँवों में, सही में, सिर्फ पियक्कड़ होते हैं. वहाँ वीरानी. उनकी ओर देखने में डर लगता है.

“बेवकूफ़ी. कहाँ के पियक्कड़? आप कुछ ज़्यादा ही समझ रही हैं. असल में कोई भी नहीं है, मर्दों को फौज में खींच लिया है. चलो, ठीक है. और ज़ेम्स्त्वा, नई क्रांतिकारी कौंसिल, कैसी है?”

“पियक्कड़ों के बारे में आप सही नहीं हैं, मैं आपसे बहस करूँगी. मगर ज़ेम्स्त्वा?

ज़ेम्स्त्वा के साथ लम्बे समय तक परेशानी रहेगी, निर्देशों का पालन नहीं किया जा सकता, गाँवों में कोई है ही नहीं, जिसके साथ काम किया जा सके. किसानों को फ़िलहाल सिर्फ ज़मीन के सवाल में दिलचस्पी है. मैं रज़्दोल्नए गई थी. कैसी ख़ूबसूरती है! आपको जाना चाहिए था. बसन्त में कुछ-कुछ जला दिया, लूट लिया. खलिहान जल गया, फलों के पेड़ कोयले बन गए, दर्शनीय भाग कालिख से ख़राब हो गया. मगर ज़िबूशिना नहीं गई, संभव नहीं हुआ. मगर, सारी जगहों पर यकीन दिलाते हैं कि गूँगा-बहरा कोरी कल्पना नहीं है. उसके व्यक्तित्व का वर्णन करते हैं. कहते हैं – नौजवान, पढ़ा लिखा है.”

“कल परेड ग्राउण्ड पर उस्तीन्या उसके लिए सूली पर चढ़ गई.”

जैसे ही वापस आई, रज़्दोल्नए से फिर से पूरी गाड़ी भर के रद्दी सामान आ गया. कितनी बार कहा, कि हमें चैन से रहने दें. हमारे पास अपने ही ग़म क्या कम हैं! और आज सुबह कमाण्डेंट के ऑफिस से चौकीदार “काउन्टी” का पर्चा लाए. उन्हें काउन्टेस के चाँदी के टी-सेट और क्रिस्टल के वाइन-सेट की फ़ौरन ज़रूरत है. सिर्फ एक शाम के लिए, वापस कर देंगे. पता है हमें ये वापस कर देंगे’. आधी चीज़ें तो मिलती नहीं हैं. कहते हैं, पार्टी है. कोई मेहमान आया है.”

“ओह, मैं अंदाज़ लगा सकता हूँ. मोर्चे का नया कमिसार आया है. मैंने इत्तेफ़ाक से उसे देखा. भगोड़ों का फ़ैसला करने वाला है, घेरा डालकर, निःशस्त्र करके. कमिसार अभी एकदम कच्चा है, कामकाज में भी बच्चा है.

यहाँ के लोग कज़ाकों की मदद लेने का सुझाव दे रहे हैं, मगर वह आँसुओं से उन्हें जीतना चाहता है. लोग, कहता है, बच्चों की तरह होते हैं और ऐसा ही बहुत कुछ और सोचता है कि ये सब बच्चों के खेल हैं. गलिऊलिन उसे मना रहा है, कह रहा है, कि ऊँघते हुए जानवर को मत जगाइये, ये हम पर छोड़ दीजिए, मगर क्या ऐसे आदमी को मना सकते हैं, जब उसने दिमाग में कुछ ठान लिया हो. सुनिये. एक मिनट के लिए इस्त्रियाँ रख दीजिए और सुनिये. जल्दी ही यहाँ ऐसा घमासान होने वाला है, जिसकी कल्पना भी नहीं कर सकते.

उसे रोकना हमारे बस में नहीं है. मैं कितना चाहता हूँ, कि आप इस हंगामे से पहले निकल जाएँ!”

“कुछ भी नहीं होगा. आप बढ़ा-चढ़ाकर कह रहे हैं. मगर, वैसे भी मैं जाने वाली ही हूँ.”

मगर इस तरह आनन-फ़ानन में नहीं – और, तंदुरुस्त रहिए. स्टॉक सौंपना होगा – लिस्टों के मुताबिक, वर्ना ऐसा लगेगा, जैसे मैंने कुछ चुरा लिया है.

मगर ये सब किसके हवाले करूँ? ये भी एक सवाल है. इस सारे सामान की वजह से मुझे कितनी तकलीफ़ उठानी पड़ी है, मगर बदले में मिलते हैं सिर्फ ताने और इल्ज़ाम. मैंने झब्रीन्स्काया की चीज़ें हॉस्पिटल के नाम पे लिख ली थीं, क्योंकि आदेश का मतलब वही था. मगर अब, ऐसा लगता है, कि मैंने ये जानबूझकर किया है, जिससे इस बहाने मालकिन की चीज़ों की हिफ़ाज़त करूं. कैसा घिनौनापन है!”

“ओह, थूकिये भी आप इन कालीनों पर, क्रॉकरी पर, जाने दीजिए उन्हें भाड़ में. ये भी कोई चीज़ है, जिसकी वजह से परेशान हुआ जाए! हाँ, हाँ, बेहद अफ़सोस है, कि हम कल नहीं मिल सके. मैं इतने जोश में था! मैं आपको पूरी खगोलीय प्रक्रिया समझा देता, सभी ख़तरनाक सवालों के जवाब दे देता! नहीं, मज़ाक नहीं कर रहा, मेरा दिल इतनी शिद्दत से चाह रहा था सब कुछ कहने को. अपनी बीबी के बारे में बताने को, बेटे के बारे में, अपनी ज़िंदगी के बारे में. शैतान ले जाए, क्या एक बड़े आदमी को बड़ी औरत से बातें नहीं करनी चाहिए, जिससे कोई फ़ौरन शक न करने लगे, किसी “लाइनिंग” के बारे में न सोचने लगे? फू... शैतान ले जाए इन सब कपड़ों को और लाइनिंग्स को!

“आप इस्त्री करती रहिये, इस्त्री करती रहिए, प्लीज़, मतलब, चादरों पर इस्त्री करती रहें, और मेरी तरफ़ ध्यान न दें, और मैं बोलता रहूँगा. मैं काफी देर तक बोलता रहूँगा.

आप सोच रही हैं कि कैसा वक्त आ गया है! और हम लोग इस वक्त में जी रहे हैं! ऐसी अनहोनी पूरी चिरंतनता में सिर्फ एक बार होती है.

सोचिये, पूरे रूस से छत उड़ गई है, और सभी लोगों के साथ हम भी खुले आसमान के नीचे आ गए हैं. और हमारी जासूसी करने वाला कोई नहीं है.

आज़ादी! सचमुच की, असली, न तो लब्ज़ों में, ना ही उम्मीदों में, बल्कि आसमान से टपकी है, उम्मीद से परे. आज़ादी, संयोगवश, ग़लतफ़हमी से.

और सब कैसे हैरान-महान हो गए हैं! आपने गौर किया? जैसे हर कोई अपने ही बोझ तले कुचला जा रहा है. अपनी वीरता से, जिसका अभी-अभी ज्ञान हुआ है.

हाँ, आप इस्त्री करती रहिए, मैं बोल रहा हूँ. ख़ामोश रहिए. आप उकता तो नहीं गईं? मैं आपकी इस्त्री बदल देता हूँ.

कल मैंने रात वाली मीटिंग का निरीक्षण किया. चौंकाने वाला दृश्य था.

माँ-रूस गतिमान हो गई है, वह अपनी जगह पर नहीं रुक सकती, चलती है, चलते-चलते थकेगी नहीं; बोलती है, पूरी बात ख़त्म ही नहीं होती. और ये बात नहीं, कि सिर्फ लोग ही बोल रहे थे. सितारे और पेड़ भी नीचे आकर बातें कर रहे थे, रात के फूल चिंतन कर रहे हैं और पत्थरों की इमारतें सभाएँ कर रही हैं. कुछ-कुछ शुभ-समाचारोंजैसा, है ना? जैसा देवदूतों के ज़माने में होता था. याद है, पावेल के साथ? “ज़ुबानों से बोलो और भविष्यवाणी करो. स्पष्टीकरण के दान के लिए प्रार्थना करो”.

“सभाएँ कर रहे पेडों और सितारों के बारे में मैं समझ रही हूँ. मुझे मालूम है, कि आप क्या कहना चाहते हैं. मेरे अपने साथ भी ऐसा हुआ था.”

“आधा काम युद्ध ने किया था, बचा हुआ क्रांति ने पूरा कर दिया.

युद्ध जीवन का एक कृत्रिम अंतराल था, जैसे कि अस्तित्व को कुछ समय के लिए स्थगित किया जा सकता हो (कैसी निरर्थक बात है!). क्रांति अपने आप ही फट पड़ी, काफ़ी लम्बे समय तक रोकी हुई सांस के समान.

हर कोई जी उठा, उसका पुनर्जन्म हो गया, सबके जीवन में परिवर्तन आये, उथल-पुथल हुई.

ये कहना चाहिये था कि हर व्यक्ति के साथ दो क्रांतियाँ हुईं ; एक अपनी, व्यक्तिगत, और दूसरी सार्वजनिक. मुझे लगता है, कि समाजवाद – एक समुंदर है, जिसमें नदियों की तरह ये व्यक्तिगत, अलग-अलग क्रांतियाँ मिलनी चाहिए, समुंदर जीवन का, समुंदर मौलिकता का. समुन्दर जीवन का, मैंने कहा, उस जीवन का, जिसे तस्वीरों में देखा जा सकता है, प्रतिभा का जीवन, जो रचनात्मकता से समृद्ध हो. मगर अब लोगों ने उसे किताबों में नहीं, बल्कि ख़ुद पर आज़माना शुरू किया है, कल्पना में नहीं, बल्कि व्यवहार रूप में.

आवाज़ में अप्रत्याशित रूप से हो रही थरथराहट से डॉक्टर की परेशानी ज़ाहिर हो रही थी. एक मिनट को इस्त्री रोक कर लरीसा फ़्योदरव्ना ने गंभीरता और अचरज से उसकी ओर देखा. वह गड़बड़ा गया, कि किस बारे में बात कर रहा था. थोड़ा रुककर उसने फिर से बोलना शुरू किया.

फिर अचानक उसने ख़ुदा जाने क्या कहा. उसने कहा:

“आजकल इतना जी चाहता है ईमानदारी से और रचनात्मक रूप से ज़िंदगी जीने को! इस आम उत्साह का हिस्सा बनने को जी चाहता है! और सबको अपने आगोश में लेनेवाली इस ख़ुशी के बीच मैं देखता हूँ आपकी अबूझ दुखी नज़र, जो न जाने कहाँ खो गई है, सात समुन्दर पार. मैं कुछ भी दे देता, ताकि ये नज़र वैसी न रहे, ताकि आपके चेहरे पर लिखा हो कि आप अपने भाग्य से संतुष्ट हैं और आपको किसी से भी कुछ नहीं चाहिए. ताकि कोई ऐसा आदमी, जो आपका करीबी हो, आपका दोस्त या पति (सबसे बढ़िया होता, अगर वह कोई फ़ौजी होता!) मेरा हाथ पकड़कर मुझसे कहता, कि आपकी किस्मत के बारे में परेशान न होऊँ, और अपनी तवज्जो से आपको मुसीबत में न डालूँ. मैं हाथ छुड़ा लेता, झटक देता, और...आह, मैं कहीं खो गया! माफ़ कीजिए, प्लीज़.”

आवाज़ ने फिर से डॉक्टर को धोखा दे दिया. उसने हाथ हिलाया और निराशाजनक सकुचाहट से उठा और खिड़की की ओर गया. वह कमरे की तरफ़ पीठ करके खड़ा था, हथेली पर गाल रखे, खिड़की के दासे पर कोहनियाँ टिकाए, और अंधेरे से ढँके बाग की गहराई में बेचैन, सुकून ढूँढ़ती हुई, कुछ भी न देखती हुई नज़र गड़ाए.

इस्त्री वाले बोर्ड का चक्कर लगाकर, जो मेज़ से दूसरी खिड़की के किनारे पर टिका हुआ था, लरीसा फ़्योदरव्ना डॉक्टर के पीछे जाकर कुछ कदमों की दूरी पर, कमरे के बीच में रुक गई.

“आह, कैसे मैं हमेशा इस बात से डरती थी!” उसने धीमी आवाज़ में, मानो अपने आप से कहा. “कैसी ख़तरनाक उलझन है! बस कीजिए, यूरी अन्द्रेयेविच, ऐसा न कहिए. आह, देखिए, आपकी वजह से ये मैंने क्या कर डाला!” वह ज़ोर से चहकी और इस्त्री वाले बोर्ड की ओर भागी, जहाँ छोड़ी हुई इस्त्री के नीचे जला हुआ ब्लाउज़ धुँए की हल्की लकीर छोड़ रहा था.                               

“यूरी अन्द्रेयेविच,” उसने गुस्से से इस्त्री को बर्नर पर पटकते हुए आगे कहा, “अक्ल से काम लीजिए, एक मिनट के लिए बाहर जाइए, मैडम के पास, थोड़ा पानी पीजिए, मेरे प्यारे, और वापस आइए, वैसे ही जैसी मुझे आपको देखने की आदत है और जैसा मैं चाहती हूँ. सुन रहे हैं, यूरी अन्द्रेयेविच? मुझे मालूम है कि आप ये कर सकते हैं. ये कीजिए, विनती करती हूँ.”

इसके बाद कभी ऐसी बातचीत उनके बीच नहीं हुई. एक हफ़्ते बाद लरीसा फ्योदरव्ना चली गई.

 

9

कुछ दिनों बाद डॉक्टर भी जाने की तैयारी करने लगा.

उसके प्रस्थान की पूर्व रात को मेल्यूज़ेयेवो में भयानक तूफ़ान आया.

बवण्डर का शोर बारिश के शोर में मिल गया था, जो कभी छत पर सीधी मार करती, तो कभी हवा के बदलते रुख की वजह से सड़क पर जा रही थी, जैसे अपनी उफ़नती लहरों की मार से हर कदम पर अपने लिए रास्ता बना रही हो.

बिजली की कड़क लगातार एक के बाद आ रही थी, और वह एक लम्बी गरज में बदल गई. बिजली की लगातार चमक से गहराई में भागती हुई सड़क झुके हुए और उसी दिशा में भागते हुए पेड़ों सहित दिखाई दे रही थी.

रात को मैडम फ्लेरी को प्रमुख द्वार पर हो रही उत्तेजित दस्तक ने जगा दिया.

वह डर के मारे पलंग पर बैठ गई और ग़ौर से सुनती रही. दस्तक रुक नहीं रही थी.

क्या पूरे अस्पताल में एक भी इन्सान नहीं है, जो बाहर आकर दरवाज़ा खोल दे’, उसने सोचा, और क्या हर चीज़ की फिक्र वह अकेली ही करे, अभागी बुढ़िया, सिर्फ इसलिए कि वह स्वभाव से ईमानदार है और अपने कर्तव्य के प्रति जागरूक है?             

चलो, ठीक है. झब्रीन्स्की अमीर थे, कुलीन थे. मगर हॉस्पिटल, वो तो उनका अपना है, जनता का है. उसको किसके भरोसे छोड़ा है? मिसाल के तौर पर. कहाँ, कोई बताए तो सही, कि सारे मेडिकल वाले कहाँ ग़ायब हो गए? सब भाग गए, ना तो अफ़सर हैं, ना नर्सेस, ना ही डॉक्टर्स. और घर में अभी भी ज़ख़्मी पड़े हैं, दो कटे हुए पैरों वाले – ऊपर सर्जरी वाले कमरे में, जहाँ पहले मेहमानखाना था, और नीचे, लॉन्ड्री की बगल में पूरा स्टोर रूम डिसेन्ट्री के मरीज़ों से भरा है. और ये शैतान उस्तीन्या किसी से मिलने चली गई. देखती है, बेवकूफ़, कि तूफ़ान आने वाला है, मगर नहीं, रुकी नहीं. अब अच्छा बहाना है गैरों के घर में रात गुज़ारने का.

ओह, ख़ुदा की मेहेरबानी, रुक गए, ख़ामोश हो गए. देखा – दरवाज़ा नहीं खोलेंगे, और चले गए, ज़िद छोड़ दी. ऐसे मौसम में तो सिर्फ शैतान ही बाहर निकल सकता है. मगर, हो सकता है कि ये उस्तीन्या हो? नहीं, उसके पास अपनी चाभी है. ख़ुदा, कितना डरावना है, फिर से खटखटा रहे हैं!

मगर, फिर भी कैसा सुअरपन है! चलिए, मान लेते हैं, झिवागो से छीनने जैसा कुछ है ही नहीं. वह तो कल जा ही रहा है, और ख़यालों में वह या तो मॉस्को पहुँच गया है या रास्ते में है.

मगर ये गलिऊलिन कैसा है! वो कैसे ऐसी खटखटाहट को सुनकर खर्राटे ले सकता है या सुकून से लेटा रह सकता है, ये सोचकर, कि आख़िरकार वो ही उठेगी, कमज़ोर और सुरक्षारहित बुढ़िया, और न जाने किसके लिए दरवाज़ा खोलेगी इस ख़तरनाक रात में और इस ख़तरनाक मुल्क में.

गलिऊलिन – अचानक वह चौंक गई. – कहाँ का गलिऊलिन?

नहीं, ऐसी बकवास उसके दिमाग़ से सिर्फ नींद में आ सकती है! कहाँ का गलिऊलिन, जबकि उसका नामो-निशान तक खो गया है? क्या ख़ुद उसीने झिवागो के साथ मिलकर उसे छुपाया नहीं था और उसे सिविलियन कपड़े पहनाए थे, और फिर समझाया था कि इस इलाके में कौन-कौन से रास्ते और गाँव हैं, जिससे उसे मालूम हो, कि कहाँ भागना है, जब ख़ुद ही फ़ैसला करते हुए उन्होंने रेल्वे स्टेशन पर ये ख़तरनाक मार-काट मचाई थी और कमिसार गिन्त्स को मार डाला था, और बिर्यूची से सीधे मेल्युज़ेयेवो तक गलिऊलिन का पीछा किया था, गोलियाँ चलाते हुए, और उसे पूरे शहर में ढूँढ रहे थे. गलिऊलिन!

अगर तब ये मोटर गाड़ियाँ न होतीं, तो शहर में एक भी पत्थर के ऊपर पत्थर न बचता. इत्तेफ़ाक से बख्तरबन्द गाड़ियों की डिविजन शहर से गुज़र रही थी. वे शहर में रहने वालों की मदद के लिए आगे आए, बदमाशों को खदेड़ दिया.

तूफ़ान कमज़ोर पड़ रहा था, दूर जा रहा था. बिजली भी दूर से कभी-कभार ही कड़क रही थी, उसकी कड़क कमज़ोर पड़ गई थी.

बारिश थोड़ी-थोड़ी देर में रुक जाती, और पानी की ख़ामोश लहरें पत्तों के ऊपर से नालियों से होते हुए नीचे की ओर बह रही थीं. बिजली की ख़ामोश चमक मैडम के कमरे में झाँक जाती, उसे आलोकित करती और उसमें एक अतिरिक्त पल के लिए ठहर जाती, जैसे कुछ ढूँढ़ रही हो.

अचानक काफ़ी देर से रुकी हुई दस्तक फिर से दरवाज़े पर होने लगी.

किसी को मदद की ज़रूरत थी और वह बेचैनी से और रह-रहकर दरवाज़ा खटखटा रहा था.

हवा का ज़ोर फिर से बढ़ने लगा. बारिश फिर से थपेड़े मारने लगी.

“”आती हूँ!” मैडम ने न जाने किससे चिल्लाकर कहा और ख़ुद ही अपनी आवाज़ से डर गई.

अचानक एक अंदाज़ से वह खिल उठी. पैर पलंग से नीचे लटकाकर और उन्हें जूतों में घुसाकर, उसने बदन पर गाऊन डाल लिया और झिवागो को जगाने भागी, ताकि अकेली को इतना डर न लगे. मगर उसने भी दस्तक सुन ली थी और ख़ुद ही मोमबत्ती लिए नीचे उतर रहा था. उनका एक जैसा ही विचार था.

“झिवागो, झिवागो! बाहर वाले दरवाज़े पर दस्तक दे रहे हैं, मुझे अकेले खोलने में डर लगता है,” वह फ्रांसीसी में चिल्लाई और रूसी में आगे बोली :

“आप देखना, ये लार है या लेफ्टिनेंट गाउल.”

यूरी अन्द्रेयेविच को भी इस दस्तक ने जगा दिया था, और उसने सोचा कि ये ज़रूर कोई अपना है, जैसे किसी बाधा से रोका गया गलिऊलिन, जो शरण लेने के लिए आया है, जहाँ उसे छुपा देंगे, या फिर किन्हीं मुसीबतों के कारण आधे सफ़र से लौटी नर्स अंतीपवा.

ड्योढ़ी में डॉक्टर ने मैडम के हाथ में मोमबत्ती थमाई, और ख़ुद दरवाज़े में चाभी घुमाकर सिटकनी हटाई. हवा के तेज़ झोंके ने उसके हाथ से दरवाज़ा खींच लिया, मोमबत्ती बुझा दी और बारिश की ठण्डी फुहारों से उन दोनों को दबा दिया.

“कौन है? कौन है? क्या यहाँ कोई है?” मैडम और डॉक्टर बारी-बारी से अँधेरे में चिल्लाते रहे, मगर किसी ने जवाब नहीं दिया.

अचानक उन्हें दूसरी जगह पर पहले जैसी दस्तक सुनाई दी, चोर दरवाज़े की तरफ़ से. या, जैसा कि उन्हें अब लग रहा था, बाग की तरफ़ वाली खिड़की पर.

“शायद, ये हवा है,” डॉक्टर ने कहा. “मगर ताकि मन में कोई शक न रहे, इसलिए चोर दरवाज़े पर जाइए, देख लीजिए, और मैं यहाँ इंतज़ार करूँगा, जिससे अगर सचमुच में कोई है, या कोई और ही वजह हो, तो हम उसे खो न दें.

मैडम घर के भीतर गई, और डॉक्टर बाहर, पोर्च की छत के नीचे आया. उसकी आँखें, अँधेरे की अभ्यस्त होने के बाद निकट आते सूर्योदय के चिह्न देख सकती थीं.

शहर के ऊपर, अधपगलों की तरह, बादल तेज़ी से जा रहे थे, जैसे पीछा करने वालों से अपने आप को बचा रहे हों. उनके गुच्छे इतने नीचे उड़ रहे थे, कि पेड़ों के पीछे छुप रहे थे, जो उसी दिशा में झुके थे, जिससे ऐसा लग रहा था, जैसे मुड़ी हुई झाडुओं की तरह उन्हीं से आसमान में झाडू लगा रहे हों. बारिश घर की लकड़ी की दीवार पर कोड़े बरसा रही थी, और वह भूरी से काली हो रही थी.

“तो?” डॉक्टर ने वापस आती हुई मैडम से पूछा.

“आप सही हैं. कोई नहीं है.” और उसने बताया कि उसने पूरे घर का चक्कर लगाया. पैन्ट्री में लीपा वृक्ष की टहनी की मार से खिड़की का काँच टूट गया है, और फर्श पर बड़े-बड़े पोखर बन गए हैं, ऐसा ही उस कमरे में भी हुआ, जिसे लारा छोड़कर गई है, समुंदर, सचमुच का समुदर, पूरा महासागर.

और यहाँ कुंदा निकल गया है और फ्रेम से टकरा रहा है. देख रही हैं? यही हो रहा था.”

वे और कुछ देर बातें करते रहे, दरवाज़ा बंद किया और सोने के लिए चले गए, दोनों को ही अफ़सोस हो रहा था, कि उत्तेजना झूठी निकली.

उन्हें यकीन था कि दरवाज़ा खोलेंगे और घर के भीतर आयेगी उनकी जानी-पहचानी औरत, जिसका तार-तार गीला है, और जो ठिठुर रही है, और जब तक वह अपने गीले बदन को झटकेगी, वे उस पर सवालों की बौछार करेंगे.

फिर वह कपड़े बदल कर आयेगी, किचन की भट्टी में कल की अब तक ठण्डी न हुई आँच के पास अपने आप को सुखाने के लिए, और उन्हें अपने अनगिनत कारनामों के बारे में बताएगी, बाल ठीक करती रहेगी और मुस्कुराती रहेगी.

उन्हें इस बात में इतना यकीन था, कि जब उन्होंने दरवाज़ा बंद किया, तो इस यकीन का निशान घर के कोने के पीछे, सड़क पर छूट गया, इस औरत की पनीली निशानी या उसकी आकृति के रूप में, जो उन्हें नुक्कड़ पर नज़र आती रही.

 

10

बिर्यूची स्टेशन के टेलिग्राफ़िस्ट कोल्या फ्रोलेन्का को अप्रत्यक्ष रूप से स्टेशन पर हुए सैनिकों के विद्रोह का ज़िम्मेदार ठहराया जा रहा था.

कोल्या मेल्यूज़ेयेवो के मशहूर घड़ीसाज़ का बेटा था. मेल्यूज़ेयेवो में उसे तब से जानते थे जब से वह पैदा हुआ था. बचपन में वह राज़्दोल्नोए के किसी नौकर के घर में रहता और मैडम की देखरेख में उसकी दोनों शिष्याओं, काउन्तेस की लड़कियों के साथ खेलता. मैडम कोल्या को अच्छी तरह जानती थी. तभी उसने थोड़ी बहुत फ्रेंच समझना शुरू कर दिया था.

मेल्यूज़ेयेवो में कोल्या को किसी भी मौसम में बिना कोट के, बिना टोपी के, गर्मियों वाले कॅनवास के जूतों में अपनी साइकिल पर देखा जा सकता था. हैण्डिल पकड़े बिना, पीछे हट कर और सीने पर हाथों का क्रॉस बनाए, वह राजमार्ग पर और शहर में साइकिल पर घूमता रहता और खम्भों और तारों को देखता, नेटवर्क की हालत का जायज़ा लेता.

रेल्वे स्टेशन के टेलिफ़ोन की एक शाखा के द्वारा शहर के कुछ घर स्टेशन से जुड़े थे. इस शाखा का नियंत्रण रेल्वे स्टेशन के टेलिग्राफ़ ऑफिस में कोल्या के हाथों में था.

वहाँ उसके पास गले-गले तक काम था : रेल्वे स्टेशन का टेलिग्राफ़ ऑफिस, टेलिफ़ोन, और कभी-कभी, स्टेशन मास्टर पवारीखिन की लम्बी अनुपस्थिति के दौरान, सिग्नल्स का काम भी देखना पड़ता, जिससे संबंधित यंत्र भी टेलिग्राफ़ ऑफ़िस में रखे थे.

एक साथ कई यंत्रों के काम पर नज़र रखने की आवश्यकता ने कोल्या की बातचीत के तरीके को एक अलग रंग दे दिया था, रहस्यमय, रुकी-रुकी और पहेलियों से भरपूर, जिनका उपयोग कोल्या किया करता, अगर उसे किसी के साथ बातचीत में शामिल न होना होता. लोग ये कहते थे, कि गड़बड़ी वाले दिन वह इस अधिकार का खुलकर उपयोग करता रहा था.

अपनी चुप्पी से उसने गलिऊलिन के सभी अच्छे इरादों को चकनाचूर कर दिया, जो शहर से फ़ोन कर रहा था, और, हो सकता है, अपनी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ उसने बाद में होने वाली घटनाओं को दुर्भाग्यशाली स्वरूप दे दिया.

गलिऊलिन विनती कर रहा था कि वह कमिसार को फ़ोन पर बुलाए, जो स्टेशन पर या कहीं आसपास ही था, जिससे उसे बता सके कि वह फ़ौरन उसके पास आ रहा है जंगल में जाने के लिए, और उससे कहे कि इंतज़ार करे और बगैर उसके कोई भी कार्रवाई न करे. कोल्या ने गलिऊलिन को गिन्त्स को बुलाने से ये कहकर इनकार कर दिया, कि उसकी लाइन बिर्यूची की ओर आ रही ट्रेन को सिग्नल्स भेजने में व्यस्त है, और जबकि उसने ख़ुद इस समय सच्चे-झूठे बहानों से इस ट्रेन को बगल वाले जंक्शन पर रोक दिया, जो बिर्यूची में बुलाए गए कज़ाकों को ला रही थी.

जब फिर भी ये विशेष रेलगाड़ी आ ही गई, तो कोल्या अपनी अप्रसन्नता छुपा न सका.

इंजिन धीरे-धीरे रेंगते हुए प्लेटफॉर्म की अँधेरी छत के नीचे आकर टेलिग्राफ़ ऑफिस की विशाल खिड़की के सामने रुक गया. कोल्या ने किनारों पर रेल्वे के गहरे नीले भारी-भरकम परदे को हटाया जिसके किनारों पर रेल्वे के आद्याक्षर कढ़े हुए थे. पत्थर के दासे पर एक बड़ी ट्रे में पानी से भरी बहुत बड़ी सुराही रखी थी, जिसके पास मोटे काँच का सादा गिलास रखा था. कोल्या ने गिलास में पानी डाला, कुछ घूँट पिए और खिड़की से देखा.

इंजिन ड्राइवर ने कोल्या को देखा और अपने कैबिन से दोस्ताना अंदाज़ में सिर हिलाया. “ऊ, सड़ा हुआ कचरा, खटमल!” कोल्या ने नफ़रत से सोचा, उसने ड्राइवर को ज़ुबान दिखाई और उसे मुट्ठी से धमकाया. ड्राइवर कोल्या के इशारों को न सिर्फ समझ गया, बल्कि उसने ख़ुद भी कंधे सिकोड़कर और डिब्बों की दिशा में सिर घुमाकर ये समझाया : “क्या करें? ख़ुद ही कोशिश करो. उसका हुक्म.” : “फिर भी, कचरा और घिनौना”, कोल्या ने इशारों में जवाब दिया.

घोड़ों को डिब्बों से उतारने लगे. वे अड़ गए, चल नहीं रहे थे. गैंग-वे के लकड़ी के फ़र्श पर खुरों की थाप धीरे-धीरे प्लेटफ़ॉर्म के पत्थर पर नालों की खड़खड़ाहट में बदल गई. प्रतिकार करते घोड़ों को कई सारी रेल की पटरियों से होकर ले जाया गया.

उन्हें दो पंक्तियों में बेकार पड़े, ज़ंग लगे, घास से घिरे पहियों पर खड़े दो रेल के डिब्बों के पास खड़ा किया गया. लकड़ी के विनाश ने, जिससे बारिश ने पेन्ट धो डाला था और जिसे अब नमी और कीड़े खा रहे थे, इन टूटे-फूटे डिब्बों का फिर से नम जंगल से, जो उनके काफ़िले के उस पार था, जंगली कुकुरमुत्तों से, जिनसे बर्च के पेड़ ग्रस्त थे, बादलों से जो उनके ऊपर जमा हो गए थे, रिश्ता वापस लौटा दिया था.

जंगल के किनारे पर निर्देश के अनुसार कज़ाक घोड़ों पर सवार हो गए और साफ़ किए गए क्षेत्र की ओर सरपट भागे. दो सौ बारहवीं डिविजन के अनुशासनहीन सैनिकों को घेर लिया गया. खुली जगह की अपेक्षा पेड़ों के बीच में घुड़सवार हमेशा अधिक ऊँचे और प्रभावशाली प्रतीत होते हैं. उन्होंने सैनिकों पर प्रभाव डाला, हाँलाकि उनके ख़ुद के पास खाइयों में संगीनें थीं. कज़ाकों ने तलवारें निकाल लीं.

घोड़ों के घेरे के भीतर रखी हुई लकड़ियों के ढेर पर, जिन्हें चपटा और समतल किया गया था, गिन्त्स उछल कर चढ़ गया और घिरे हुए सैनिकों को भाषण देने लगा.

फिर से वह, अपनी आदत के मुताबिक फ़ौजी कर्तव्य के बारे में, मातृभूमि के महत्व के बारे में और कई अन्य महान चीज़ों के बारे में बोलने लगा. यहाँ इन भावनाओं को कोई सहानुभूति नहीं मिली. भीड़ काफ़ी बड़ी थी. उसमें शामिल लोगों ने युद्ध में बहुत कुछ सहा था, वे बदतमीज़ हो गए थे, थक गए थे. गिन्त्स के शब्द उनके कानों में कब के खो गए थे. दाईं और बाईं ओर से की जा रही चार महीनों की चाटुकारिता ने इस भीड़ को भ्रष्ट कर दिया था. सीधे-सादे लोगों ने, जो इस भीड़ का हिस्सा थे, वक्ता के गैर रूसी कुलनाम और उसके बाल्टिक लहजे को ठण्डा प्रतिसाद दिया.

गिन्त्स ने महसूस किया कि वह काफ़ी लम्बा बोल रहा है, और उसे अपने आप पर झल्लाहट हुई, मगर उसने सोचा कि वह श्रोताओं के बीच अधिकाधिक पहुँच सके, जो कृतज्ञता के बदले उसके प्रति उदासीनता और अप्रिय उकताहट दिखा रहे हैं. और ज़्यादा चिड़चिड़ाते हुए, उसने फ़ैसला किया कि वह इन लोगों से ज़्यादा कठोर भाषा में बोलेगा और बीच बीच में उन्हें धमकियाँ भी देगा, जिसे उसने बचाकर रखा था. बढ़ती हुई बुदबुदाहट को न सुनते हुए, उसने सैनिकों को याद दिलाया कि फ़ौजी-क्रांतिकारी आदालतों का गठन हो चुका है और वे काम कर रही हैं, और मौत का डर दिखाकर उसने माँग की, कि अपने हथियार रख दें और उन व्यक्तियों को उसके हवाले कर दें, जो उन्हें उकसा रहे हैं. अगर वे ऐसा नहीं करते हैं, गिन्त्स ने कहा, तो वे ये साबित कर देंगे कि वे कमीने देशद्रोही हैं, नासमझ कमीने हैं, अहंकारी गुंडे है. ये लोग इस तरह का लहज़ा भूल चुके थे.

सैकड़ों आवाज़ों का शोर उठा. “बोल चुके. बस हो गया. ठीक है”, कुछ लोग गहरी आवाज़ में और बगैर किसी कड़वाहट के चिल्लाए. मगर घृणा से भरी कुछ उन्मादपूर्ण चीखें भी सुनाई दीं. ये लोग चिल्ला रहे थे:

“सुना, कॉम्रेड्स, कैसे लपेट रहा है? पुराने ज़माने की तरह! अफ़सरों वाली आदतें गई नहीं हैं! तो, ये हमने विश्वासघात किया है? और तू कहाँ का है, बे, महामहिम? उसकी धुन पे क्यों नाचें. क्या देख नहीं रहे हो, जर्मन है, घुसपैठिया. ओय, तू, अपने कागज़ात दिखा, नीले खून वाले! और आपं क्यों मुँह खोले खड़े हो, शांति स्थापित करने वालों? क्या, हमें बाँधोगे, खा जाओगे!”

मगर कज़ाकों को भी गिन्त्स का असफ़ल भाषण ज़रा भी अच्छा नहीं लगा. “सब बदमाश, गुण्डे हैं. ये कहाँ का मालिक है!” वे आपस में फुसफुसा रहे थे. पहले इक्का-दुक्का, और फिर काफ़ी बड़ी तादाद में उन्होंने अपनी तलवारें म्यानों में रखनी शुरू कर दीं. एक के बाद एक घोड़ों से उतरने लगे. जब उनकी संख्या पर्याप्त हो गई तो वे तितर-बितर होकर साफ़ किए गए जंगल के बीच दो सौ बारहवीं बटालियन से मिलने चले.

सब गड्ड-मड्ड हो गया. उनके बीच भाईचारा शुरू हो गया.

“आपको किसी तरह चुपके से ग़ायब हो जाना चाहिए,” उत्तेजित कज़ाक अफ़सर गिन्त्स से कह रहे थे. “”जंक्शन के पास आपकी कार है. हम ये कहलवा रहे हैं कि उसे नज़दीक ले आएँ. फ़ौरन निकल जाइए”.

गिन्त्स ने ऐसा ही किया, मगर, चूँकि चुपके से भागना उसे योग्य प्रतीत नहीं हुआ, वह बिना किसी वांछित सावधानी के, करीब-करीब खुल्लम खुल्ला स्टेशन की ओर चल पड़ा. वह भयानक परेशानी में चल रहा था, गर्व के कारण अपने आप को शांति से और बिना जल्दबाज़ी के चलने पर मजबूर करते हुए.

स्टेशन करीब ही था, जंगल उससे सटा हुआ था. किनारे पर, जब ट्रैक्स नज़र आने लगे, तब उसने पहली बार चारों ओर देखा. उसके पीछे बंदूकें लिए सैनिक चल रहे थे. “इन्हें क्या चाहिए?” गिन्त्स ने सोचा और अपनी चाल तेज़ कर दी.

उसका पीछा करने वालों ने भी ऐसा ही किया. उनकी बीच की दूरी में कोई परिवर्तन नहीं हुआ. सामने टूटे हुए डिब्बों की दोहरी दीवार थी. उनके पीछे जाकर, गिन्त्स भागने लगा.

कज़ाकों को लाने वाली ट्रेन डिपो में ले जाई गई थी. ट्रैक्स ख़ाली थे. गिन्त्स ने भागकर उन्हें पार कर लिया.

वह भागते हुए उछलकर ऊँचे प्लेटफॉर्म पर चढ़ गया. इसी समय टूटे हुए डिब्बों के पीछे से उसका पीछा करने वाले सैनिक भी भागते हुए पहुँच गए. पवारिखीन और कोल्या ने चिल्लाकर गिन्त्स से कुछ कहा और इशारे करने लगे, उसे स्टेशन के भीतर आने के लिए, जहाँ वे उसे बचा लेते.

मगर फिर से पीढ़ियों से चली आ रही सम्मान की भावना, शहरी, शहादत की भावना, जिनका यहाँ कोई मूल्य नहीं था, उसकी सुरक्षा के रास्ते की रुकावट बन गई. इच्छा शक्ति के अमानवीय प्रयत्न से उसने अपने फ़िसलते हुए दिल की धड़कन को थामने की कोशिश की. – “उनसे चिल्लाकर कहना होगा : भाइयों, होश में आओ, मैं कहाँ से जासूस हुआ?”- उसने सोचा. “कोई होश में लाने वाली बात, दिल की बात, जो उन्हें रोक दे.”       

पिछले कुछ महीनों से जीत का एहसास, आत्मा की चीख़ का एहसास उसके भीतर अनजाने ही स्टेज से और मंचों से, कुर्सियों से जुड़ गया था, जिनके ऊपर कूद कर भीड़ को कोई आह्वान दिया जा सकता था, कोई ऐसा आह्वान जो उन्हें प्रज्वलित कर दे.

रेल्वे स्टेशन के दरवाज़े के पास . स्टेशन के घण्टे के नीचे एक ऊँची अग्निशामक टंकी रखी थी. उस पर कसकर ढक्कन लगा था. गिन्त्स उसके ढक्कन पर उछला और उसने नज़दीक आते हुए लोगों से कुछ अमानवीय और असंबद्ध दिल को छू लेने वाले शब्द कहे. उसके आह्वान के पागलपन भरे साहस ने, रेल्वे स्टेशन के खुले हुए दरवाज़ों से दो कदम दूर, जहाँ वह आसानी से भाग कर जा सकता था, उन्हें चौंका दिया और अपनी जगह पर जकड़ दिया. सैनिकों ने हथियार नीचे कर लिए.

मगर ग्लिन्त्स ढक्कन के किनारे पर खड़ा था और उसने उसे उलट दिया. उसका एक पैर पानी में गिर गया, दूसरा टंकी के किनारे पर टँग गया. वह जैसे उसकी किनार पर सवार था.

इस अटपटेपन का सैनिकों ने ठहाकों से स्वागत किया, और सामने वाले पहले सैनिक ने उस अभागे की गर्दन में गोली मारकर उसे ख़त्म कर दिया, और बाकी के मुर्दे के जिस्म में संगीनें भोंकने के लिए लपके.

 

 

 

 

11

मैडम ने कोल्या को फोन करके कहा कि वह डॉक्टर के ट्रेन में आराम से सफ़र करने का इंतज़ाम करे, उसने धमकी दी कि अगर उसने ऐसा नहीं किया तो वह कोल्या के लिए अप्रिय बातों का भण्डाफोड कर देगी.

मैडम को जवाब देते हुए कोल्या, हमेशा की तरह किसी दूसरे टेलिफ़ोन पर भी बातों में उलझा था, और, उसकी बातों में जो दशमलव अंक रुक-रुक कर सुनाई पड़ रहे थे, उनसे ऐसा लग रहा था, कि वह किसी तीसरी जगह टेलिग्राफ़ से कोई कोड भेज रहा है.

“प्स्कोव, कमासेव (यहाँ कमांडर नॉर्थ लाइन से तात्पर्य है – अनु.), मुझे सुन रहे हो? कैसे विद्रोही? कौनसा हाथ? ओह, तुम क्या, मैडम? झूठ, पामिस्ट्री. रुक जाइए, फोन रख दीजिए, आप मुझे तंग कर रहे हैं. प्स्कोव, कमासेव, प्स्कोव.

छत्तीस कॉमा शून्य शून्य पंद्रह. आह, ख़ुदा की मार पड़े, टेप टूट गया. आँ? आँ? सुनाई नहीं दे रहा. ये फिर आप आ गईं मैडम? मैंने आपसे कह दिया रूसी में, कि संभव नहीं है, नहीं कर सकता.

पवारिखीन से बात कीजिए. झूठ, पामिस्ट्री. छत्तीस...ओह, शैतान...ठहरिये, मुझे तंग न कीजिए, मैडम.”

मगर मैडम कहती रही:

“तू मेरी आँखों में धूल न झोंक  पामिस्ट, प्स्कोव, प्स्कोव, पामिस्ट्री, मैं तेरा पूरा पर्दाफ़ाश कर दूँगी, तू कल डॉक्टर को ट्रेन में बिठा रहा है, और इसके आगे मुझे हर तरह के खूनियों और छोटे-मोटे विश्वासघाती जूडा से बात नहीं करनी है.

 

12

 जिस दिन यूरी अन्द्रेयेविच जा रहा था, बड़ी उमस थी. पिछले दो दिनों की तरह फिर से तूफ़ान आ रहा था.

स्टेशन के पास बस्ती में काले, डरावने, आसमान की एकटक नज़र के नीचे सूरजमुखी के बीजों के भूसे से ढँकी हुई मिट्टी की झोंपड़ियाँ और बत्तखें डर के मारे सफ़ेद हो गई थीं.   

स्टेशन की इमारत से लगा हुआ एक चौड़ा मैदान दोनों तरफ़ फैला था. उसके ऊपर की घास कुचली गई थी, और वह पूरी तरह लोगों की अपार भीड़ से भरा था, जो कई हफ़्तों से अपनी ज़रूरत के मुताबिक विभिन्न दिशाओं में जाने वाली रेलगाड़ियों का इंतज़ार कर रहे थे.

भीड़ में मोटे कपड़े के भूरे कफ़्तान पहने हुए बूढ़े थे, जो झुलसाती धूप में एक झुण्ड से दूसरे झुण्ड की ओर आ जा रहे थे, ताकि कोई बात या जानकारी पा सकें.

करीब चौदह साल के ख़ामोश किशोर कुहनी के सहारे एक करवट पर लेटे थे, किसी साफ़ टहनी को हाथ में पकड़े, जैसे मवेशी चरा रहे हों. पैरों के पास कमीज़ें ऊपर किए उनके, गुलाबी नितंबों वाले छोटे भाई-बहन कड़मड़ा रहे थे. उनकी माताएँ अपने पैरों को समेटे ज़मीन पर बैठी टेढ़े मेढ़े कत्थई कोटों को ऊपर करके अपने दूध पीते शिशुओं को सीने से लगाए थीं.

“जैसे ही गोलीबारी शुरू हुई, भेड़-बकरियों की तरह भागते हुए आ गए. मुझे अच्छा नहीं लगा!” स्टेशन मास्टर पवारिखीन डॉक्टर के साथ दरवाज़ों के सामने और स्टेशन के भीतर एक-दूसरे की बगल में लेटे हुए लोगों के बीच से आड़े-तिरछे चलते हुए अप्रसन्नता से कह रहा था.

“अचानक मैदान खाली हो गया! हमने फिर से देखा कि ज़मीन कैसी होती है. ख़ुश हो गए! चार महीनों से इस कैम्प के नीचे देखा ही नहीं था, - भूल गए. -  वो यहाँ पड़ा था. अचरज भरी बात है, युद्ध के दौरान मैं हर तरह के भयानक हादसे देख चुका हूँ, अब उनकी आदत हो जानी चाहिए. मगर, इस समय ऐसी दया आई! ख़ास बात है – ये बेमतलब था. किसलिए? उसने उनका क्या बिगाड़ा था? क्या ये इन्सान हैं? कहते हैं – परिवार का दुलारा था. और अब दाएँ, ऐसे, ऐसे, यहाँ, कृपया, मेरे कैबिन में. इस ट्रेन में जाने के बारे में तो सोचिए ही नहीं, धक्का मुक्की में मर जाएँगे. मैं दूसरी ट्रेन में आपका इंतज़ाम कर दूँगा, लोकल ट्रेन में. हम ख़ुद ही उसे बनायेंगे, अभी बनाना शुरू करेंगे. बस, सिर्फ ट्रेन में बैठने तक आप एकदम चुप रहिए, किसी से भी एक भी शब्द न कहिए! अगर बोले, तो वे डिब्बे जोड़ने से पहले ही उसे तोड़ देंगे. रात में सुखिनिची में आपको ट्रेन बदलनी होगी.”

13

 

जब रहस्य की पर्तों में रखी हुई इस ट्रेन को बनाया गया और डिपो की बिल्डिंग के पीछे से पीछे-पीछे चलाकर स्टेशन के पास लाया जा रहा था, तो लॉन में मौजूद पूरी भीड़ धीरे-धीरे चलती हुई ट्रेन की ओर तीर की तरह भागी. लोग टीलों से मटर के दानों की तरह लुढ़कते हुए तटबंध की ओर भाए. एक दूसरे को धकेलते हुए, कुछ लोग उछल कर चलती हुई ट्रेन के बफ़र्स और पायदानों पर चढ़ गए, कुछ डिब्बों की खिड़कियों में घुस गए और छतों पर चढ़ गए. पल भर में ही और रुकने से पहले ही ट्रेन पूरी भर गई, और जब उसे प्लेटफॉर्म पर डाला गया, तो वह खचाखच भरी थी, और उस पर ऊपर से नीचे तक मुसाफ़िर लटक रहे थे.       

आश्चर्यजनक तरीके से भीड़ में घुसकर डॉक्टर प्लेटफ़ोर्म पर आया, और उससे भी ज़्यादा अवर्णनीय तरीके से वह डिब्बे के कॉरीडोर में घुसा.

पूरे रास्ते वह कॉरीडोर में ही रहा, और सुखिनिची तक का सफ़र उसने फ़र्श पर अपनी चीज़ों के ऊपर बैठकर किया.

तूफ़ानी बादल कब के छँट चुके थे. सूरज की जलती हुई किरणों से नहाए खेतों पर एक किनारे से दूसरे किनारे तक टिड्डों की लगातार चहचहाहट हो रही थी, जो ट्रेन के चलने की आवाज़ को डुबा रही थी.

खिड़की के पास खड़े मुसाफिर बाकी लोगों तक प्रकाश पहुँचने से रोक रहे थे. उनकी दुहरी-तिहरी तह की हुई परछाइयाँ फर्श पर, बेंचों पर और पार्टीशन्स पर पड़ रही थीं. ये परछाइयाँ डिब्बे में नहीं समा रही थीं. पीछे वाली खिड़कियाँ उनके लिए रुकावट बन रही थीं, और वे तटबंध के दूसरी ओर फुदकते हुए अपनी चलती हुई ट्रेन की परछाई के साथ फ़ुदक रही थीं,

चारों ओर लोग गला फ़ाड़ रहे थे, गाने गा रहे थे, गालियाँ दे रहे थे और ताश खेल रहे थे. स्टेशनों पर डिब्बे के भीतर हो रहे हंगामे में बाहर से ट्रेन को घेरने वाली भीड़ का शोर भी शामिल हो जाता. आवाज़ों का शोर समुद्री तूफ़ान के बहरा कर देने वाले शोर जितना ऊँचा हो जाता. और जैसे कि समुंदर में होता है, पड़ाव के बीच में अचानक समझ में न आने वाली ख़ामोशी छा जाती. ट्रेन की बगल से तेज़ी से जाते हुए कदमों की आहट, सामान वाले डिब्बे के पास हो रही भागदौड़ और बहस, बिदा करने आये लोगों के दूर से आते अलग-अलग शब्द, मुर्गियों की हल्की कुटकुटाहट और स्टेशन की बगिया में पेड़ों की सरसराहट सुनाई देने लगती.

तब सफ़र के दौरान प्राप्त हुए टेलिग्राम की तरह, या मेल्यूज़ेयेवो से आई शुभकामना की तरह खिड़की में जानी-पहचानी, जैसे यूरी अन्द्रेयेविच से मुख़ातिब, ख़ुशबू तैर जाती. वह ख़ामोश नफ़ासत से कहीं किनारे से महसूस होती और ऐसी ऊँचाई से आई प्रतीत होती, जो आम तौर से खेतों और क्यारियों के फूलों के लिए असाधारण थी.

धक्का-मुक्की की वजह से डॉक्टर खिड़की के पास नहीं जा सकता था. मगर बिना देखे ही वह अपनी कल्पना में इन पेड़ों को देख रहा था. वे, शायद, बिल्कुल पास ही में लगे थे, डिब्बों की छतों की ओर आराम से अपनी टहनियाँ फैलाए, जिनके पत्ते रेल्वे-स्टेशन की गहमा-गहमी के कारण धूल से अटे और घने थे, जैसे छोटे-छोटे, मोम के, चमकते तारों के गुच्छों से सजी रात हो.

ये पूरे रास्ते चल रहा था. हर जगह भीड़ शोर मचा रही थी. हर जगह लिन्डेन वृक्षों पर बहार आई थी.

सर्वत्र विद्यमान ये ख़ुशबू जैसे उत्तर की ओर जा रही ट्रेन के आगे-आगे भाग रही थी, जैसे सभी जंक्शनों, चौकियों और छोटे स्टेशनों पर फ़ैल चुकी कोई अफ़वाह हो, जिससे मुसाफ़िर सब जगह रूबरू होते रहे हो, जिसकी पुष्टि हो चुकी हो.

 

14

रात को सुखीनिची में पुराने ज़माने के एक मददगार कुली ने, डॉक्टर के साथ अँधेरे ट्रैक्स पार करके, अभी-अभी पहुँची, ट्रेन के दूसरे दर्जे के डिब्बे में पीछे की तरफ़ से बिठाया. यह ट्रेन किसी टाइम टेबल के अनुसार नहीं थी.

कुली ने अभी मुश्किल से कंडक्टर की चाभी से पिछला दरवाजा खोल कर डॉक्टर के सामान को भीतर डाला, उसकी कण्डक्टर के साथ छोटी सी झड़प हो गई, जो फ़ौरन उनका सामान बाहर फेंकने लगा, मगर यूरी अन्द्रेयेविच के शांत करने के बाद, वह ठण्डा हो गया और जैसे ज़मीन में गड़प हो गया.

ये रहस्यमय ट्रेन किसी ख़ास मकसद से जा रही थी और वह काफ़ी तेज़ गति से जा रही थी, थोड़ी-थोड़ी देर के लिए स्टेशन्स पर रुक कर, हथियारबन्द सुरक्षा गार्ड्स के साथ. कम्पार्टमेन्ट बिल्कुल ख़ाली था.

वह कुपे, जिसमें झिवागो घुसा, छोटी-सी मेज़ पर जल रही मोमबत्ती से प्रकाशित था, जिसकी लौ आधी गिरी हुई खिड़की से भीतर आती हवा के कारण फ़ड़फ़ड़ा रही थी.

मोमबत्ती कुपे में बैठे हुए इकलौते मुसाफ़िर की थी. ये हल्के सुनहरे बालों वाला युवक था, और उसके लम्बे-लम्बे हाथों और पैरों को देखते हुए, शायद, बहुत ऊँचा था. वे जोडों पर बेहद आसानी से घूम रहे थे, जैसे फोल्डिंग चीज़ों के बुरी तरह जोड़े हुए हिस्से हों. नौजवान खिड़की के पास वाली सीट पर आराम से पीछे झुककर बैठा था. झिवागो के आते ही वह शिष्टाचारवश कुछ उठा और अधलेटी स्थिति छोड़कर सही ढंग से बैठ गया.

उसके दिवान के नीचे फर्श पोंछने वाले चीथड़े जैसा कुछ पड़ा था.

अचानक उस चीथड़े का कोना हिलने लगा और दिवान के नीचे से लटकते हुए कानों वाला शिकारी कुत्ता परेशानी के भाव से बाहर सरका. उसने यूरी अन्द्रेयेविच को देखा और उसे सूँघा. और कुपे में एक कोने से दूसरे कोने में भागने लगा, वैसी ही आसानी से अपने पंजे उछालते हुए, जैसे उसका दुबला-पतला मालिक पैर पर पैर रखे बैठा था. जल्दी ही उसके हुक्म के मुताबिक वह दिवान के नीचे रेंग गया और फर्श पोंछने वाले चीथड़े जैसी अपनी पहली स्थिति में आ गया.

सिर्फ तभी यूरी अन्द्रेयेविच ने खोल में रखी दुनाली बंदूक, कारतूसों वाली चमड़े की बेल्ट और शिकार किए गए पंछियों से भरी शिकारी बैग देखी, जो कुपे में हुकों से लटके हुए थे.

नौजवान शिकारी था.

वह बहुत बातूनी था और फ़ौरन प्यार से मुस्कुराते हुए डॉक्टर के साथ बातचीत में शामिल हो गया. ऐसा करते हुए वह लाक्षणिक अर्थ में नहीं, बल्कि सीधे अर्थ में पूरे समय डॉक्टर के मुँह की ओर देख रहा था.

नौजवान की आवाज़ ऊँची और अप्रिय थी, जो ऊपर जाकर धातु की आवाज़ जैसी कृत्रिम हो जाती थी. दूसरी अजीब बात : पूरी तरह रूसी होते हुए भी, वह एक स्वर, “ऊ” बड़े ख़ास तरीके से कह रहा था. वह उसे फ्रांसीसी “उ” या  जर्मन ü  की तरह मृदु कर देता था. ऊपर से इस बिगाड़े हुए “उ” का उच्चारण  करने में उसे बहुत कोशिश करनी पड़ती थी, वह भयानक तनाव से, कुछ चिल्लाते हुए इस आवाज़ को बाकी आवाज़ों से ऊँचे सुर में कहता. बिल्कुल शुरू में ही उसने यूरी अन्द्रेयेविच को इस वाक्य से चौंका दिया:

“अभी कल स्युबह ही मैंने बत्त्यखों का शिकार किया था”.

कभी-कभार, ज़ाहिर हो रहा था, कि जब, वह अपने आप को नियंत्रण में रखता है, वह इस गलती को सुधार लेता था, मगर जैसे ही वह भूल जाता, वह फिर से फिसलकर आ जाती.

“कैसी शैतानियत है?” झिवागो ने सोचा, “कुछ पढ़ा हुआ-सा, जाना-पहचाना. एक डॉक्टर की हैसियत से मुझे ये मालूम होना चाहिए था, मगर दिमाग़ से उड़ गया. कोई दिमागी समस्या है, जिसके कारण उच्चारण में दोष उत्पन्न हो जाता है. मगर ये चिरचिराहट इतनी अजीब है कि गंभीर बने रहना मुश्किल है. बातें करना एकदम असंभव है. बेहतर है कि ऊपर वाली बर्थ पर चढ़कर सो जाऊँ”

डॉक्टर ने ऐसा ही किया. जब वह ऊपर वाली बर्थ पर लेटने जा ही रहा था, नौजवान ने पूछा कि क्या वह मोमबत्ती बुझा दे, जो, शायद, यूरी अन्द्रेयेविच को परेशान करेगी. डॉक्टर ने धन्यवाद देते हुए उसका सुझाव मान लिया. पड़ोसी ने मोमबत्ती बुझा दी. अँधेरा हो गया. कुपे में खिड़की का काँच आधा गिरा हुआ था.

“क्या हमें खिड़की का काँच बंद नहीं करना चाहिए?” यूरी अन्द्रेयेविच ने पूछा. “आपको चोरों से डर नहीं लगता?”

पड़ोसी ने कोई जवाब नहीं दिया. यूरी अन्द्रेयेविच ने बहुत ज़ोर से सवाल दुहराया, मगर उसने फिर भी प्रतिसाद नहीं दिया.

तब यूरी अन्द्रेयेविच ने दियासलाई जलाई, ताकि देख सके कि पड़ोसी को हुआ क्या है, कहीं इतने छोटे-से पल में वह कुपे से बाहर तो नहीं निकला है और कहीं वह सो तो नहीं रहा है, जो और भी अविश्वसनीय होता.

मगर नहीं, वह खुली हुई आँख़ों से अपनी जगह पर बैठा था और ऊपर से झाँक रहे डॉक्टर की ओर देखकर मुस्कुराया.

दियासलाई बुझ गई. यूरी अन्द्रेयेविच ने नई तीली जलाई और उसके प्रकाश में तीसरी बार वही दुहराया जो उसे समझाना था.

“जैसा चाहें, वैसा कीजिए,” शिकारी ने बिना देर किए जवाब दिया. “मेरे पास चुराने जैसी कोई चीज़ नहीं है. मगर, खिड़की बंद न करना ज़्यादा अच्छा होगा. उमस है.”

“क्या ग़ज़ब की चीज़ है!” झिवागो ने सोचा. “अजीब है, शायद, सिर्फ पूरी रोशनी में ही बोलने की आदत है. और अभी उसने कैसे हर शब्द का साफ़ उच्चारण किया, बिना अपनी ख़ास गलतियों के! समझ से बाहर की बात है!”

 

15

पिछले सप्ताह की घटनाओं, प्रस्थान से पूर्व के आन्दोलनों, सफ़र की तैयारियों और सुबह ट्रेन में चढ़ने के अनुभव से ख़ुद को टूटा हुआ महसूस कर रहा था. उसका ख़याल था कि जैसे ही आरामदेह जगह पर थोड़े हाथ-पैर फ़ैलायेगा, उसकी आँख लग जाएगी. मगर ऐसा नहीं हुआ. अत्यधिक थकान के कारण उस पर अनिद्रा हावी हो गई. वह सुबह ही सो पाया.

इन लम्बे घण्टों के दौरान उसके दिमाग़ में घूम रहे विचारों का बवण्डर चाहे जितना भी उथल-पुथल मचा रहा हों, उन्हें, ख़ास तौर से दो समूहों में रखा जा सकता था, जो कभी आपस में उलझ जाते, तो कभी सुलझ जाते थे.  

एक समूह में तोन्या के बारे में, घर के बारे में और पुरानी सुव्यवस्थित ज़िंदगी के बारे में विचार थे, जिसकी हर छोटी-छोटी बात कविता से महकती थी, और सौहार्द्रता तथा पवित्रता में लिपटी थी.

डॉक्टर इस ज़िंदगी के बारे में परेशान था और उसकी सुरक्षा और सम्पूर्णता की इच्छा करता था और, रात वाली इस एक्स्प्रेस ट्रेन में उड़ते हुए, दो साल से अधिक की जुदाई के बाद, बेसब्री से वापस इस ज़िंदगी की ओर खिंचा जा रहा था.

क्रांति के प्रति वफ़ादारी और उसकी सराहना भी इस समूह में थे.

ये थी क्रांति उस अर्थ में, जैसी मध्यम वर्ग स्वीकार कर रहा था, और जैसा उसे सन् उन्नीस सौ पाँच का नौजवान विद्यार्थी, जो ब्लॉक के सामने शीश झुकाने वाला विद्यार्थी समझ रहा था.

इस समूह में जो उसका अपना, जाना-पहचाना था, नये ज़माने के वे लक्षण, वे वादे और पूर्वाभास भी शामिल थे, जो युद्ध से पूर्व ही, सन् 1912-14 के दौरान रूसी चिंतन में, रूसी कला में और रूसी भाग्य में, सामान्यत: समूचे रूस के भाग्य में और उसके अपने, झिवागो के भाग्य में, क्षितिज पर दिखाई दे रहे थे.

युद्ध के बाद इन्हीं प्रवृत्तियों की ओर वापस लौटने को जी चाह रहा था, उनके नवीनीकरण और निरंतरता के लिए, वैसे ही जैसे जुदाई के बाद वह घर की ओर खिंचा जा रहा था.

नयाभी दूसरे समूह के विचारों का विषय था, मगर कितना अलग, कितना भिन्न! ये अपना, जाना-पहचाना, ‘पुरानेद्वारा बनाया गया नयानहीं था, बल्कि सहज, स्थिर नयाथा, वास्तविकता द्वारा निर्धारित, किसी झटके की तरह अकस्मात्.

ऐसा नया था युद्ध, उसका खून और भयानकताएँ, उसका बेघरपन और जंगलीपन. ऐसी नईथीं उसकी कसौटियाँ और सांसारिक ज्ञान जो युद्ध ने सिखाया. ऐसे नयेथे वे दूर दराज़ के शहर जहाँ युद्ध ले गया, और लोग जिनसे उसका सामना हुआ. ऐसी नईथी क्रांति, वैसी नहीं जिसे सन् उन्नीस सौ पाँच में विश्वविद्यालयों ने आदर्श रूप में प्रस्तुत किया था, बल्कि ये, आज की, युद्ध से उत्पन्न हुई, खूनी, किसी की भी परवाह न करने वाली सैनिक क्रांति, जिसका इस तत्व के विशेषज्ञ, बोल्शेविक  नेतृत्व कर रहे हैं.               

ऐसी नईथी नर्स अंतीपवा जिसे उस ज़िंदगी से, जिसके बारे में यूरी अन्द्रेयेविच को पता नहीं था, युद्ध ने न जाने कहाँ फेंक दिया था, जो किसी को भी किसी भी बात में दोष नहीं देती थी और अपनी ख़ामोशी से हमेशा दर्दनाक प्रतीत होती थी, रहस्यमय रूप से बहुत कम बोलने वाली और अपनी ख़ामोशी से इतनी दृढ़ थी. ऐसी नईथी यूरी अन्द्रेयेविच की ईमानदार कोशिश अपनी पूरी शिद्दत से उससे प्यार न करने की, उसी तरह जैसे पूरी ज़िंदगी वह सब लोगों से प्यार से पेश आने की कोशिश करता रहा, परिवार और निकट के लोगों की तो बात ही छोड़िए.      

रेल पूरी तेज़ी से भागी जा रही थी. सामने से आती हुई हवा खुली हुई खिड़की से यूरी अन्द्रेयेविच के बालों को बिखेर रही थी, उनमें धूल भर रही थी. रात वाले स्टेशनों पर भी वही सब हो रहा था, जो दिन वाले स्टेशनों पर हो रहा था, भीड़ उमड़ रही थी और लीपा वृक्षों की सरसराहट हो रही थी.

कभी कभी रात की गहराई से खड़खड़ाती हुई गाड़ियाँ और दो पहियों वाली माल ढोने वाली गाड़ियाँ स्टेशनों की ओर आतीं. आवाज़ें और पहियों की गड़गड़ाहट पेड़ों के शोर के साथ मिल जाते.

इन क्षणों में समझ में आ रहा था, कि इन रात की परछाइयों को सरसराने और एक दूसरे की ओर झुकने पर किसने मजबूर किया था, और वे फुसफुसाते हुए, लड़खड़ाती, सीटी सी बजाती ज़ुबानों के समान, मुश्किल से अपनी उनींदी, भारी हो गई पत्तियों को मोड़ते हुए क्या कह रही हैं. ये वही था, जिसके बारे में अपनी ऊपर वाली बर्थ पर करवटें बदलते हुए यूरी अन्द्रेयेविच सोच रहा था, निरंतर बढ़ते हुए आंदोलनों और विद्रोहों से ग्रस्त रूस के बारे में, क्रांति के बारे में, उसके विनाशकारी और कठिन दौर के बारे में, उसकी संभाव्य अंतिम महानता के बारे में.   

 

16

दूसरे दिन डॉक्टर देर से उठा. ग्यारह बज चुके थे. “मार्कीज़, मार्कीज़!”- दबी ज़ुबान में पड़ोसी अपने गुरगुराते हुए कुत्ते को रोक रहा था. यूरी अन्द्रेयेविच को आश्चर्य हुआ कि वह कुपे में शिकारी के साथ अकेला ही था, रास्ते में कोई भी कुपे में नहीं बैठा था.

बचपन से जाने-पहचाने स्टेशनों के नाम दिखाई देने लगे. ट्रेन अब कालुगा प्रांत को छोड़कर मॉस्को प्रांत में काफ़ी गहरे आ चुकी थी.

युद्ध पूर्व के आराम से अपनी प्रातर्विधियाँ पूरी करके डॉक्टर सुबह के नाश्ते के लिए कुपे में वापस आया, जिसे उसके दिलचस्प हमसफ़र ने पेश किया था. अब यूरी अन्द्रेयेविच ने ग़ौर से उसकी ओर देखा.

इस व्यक्ति की ख़ासियत थी उसका बेहद बातूनीपन और चुलबुलापन. इस अनजान आदमी को बोलना पसन्द था, मगर बातचीत और विचारों का आदान-प्रदान उसके लिए प्रमुख नहीं था, बल्कि ख़ुद बात करने की प्रक्रिया, शब्दों का उच्चारण और आवाज़ें उत्पन्न करना.

बातें करते समय वह दीवान पर स्प्रिंग की तरह उछल रहा था, खोखलेपन से और बेवजह ठहाके लगाता, प्रसन्नता से जल्दी-जल्दी हाथ मलता, और जब ये भी उसके जोश को प्रकट करने में अपर्याप्त प्रतीत होता, तो आँसू आने तक हँसते हुए वह अपने घुटनों पर हाथ मारता.

बातचीत कल वाली सभी विचित्रताओं के साथ आरंभ हुई.

अनजान व्यक्ति बातचीत में ग़ज़ब का अस्थिर था. कभी वह स्वीकारोक्तियों पर उतर आता, जिनके बारे में किसी ने उसे मजबूर नहीं किया था, या, कभी बिना सुने, आसान से सवालों के जवाब भी नहीं देता.

अपने बारे में उसने ढेर सारी, अत्यंत काल्पनिक और असंबद्ध जानकारी उँडेल दी. शायद वह कुछ झूठ भी बोल जाता था. अपने मतों का वह बड़े पुरज़ोर समर्थन कर रहा था और सामान्य रूप से मान्य मतों को नकार रहा था.....      

ये सब किसी पूर्व परिचित बात की याद दिला रहा था. ऐसी कट्टरपंथी की भावना से पिछली शताब्दी के शून्यवादी बोलते थे और कुछ समय बाद दस्तयेव्स्की के कुछ नायक, और बाद में, अभी हाल ही में उनका सीधा अनुसरण करने वाले, मतलब पूरा शिक्षित रूसी प्रांत, जो अक्सर राजधानियों से आगे चलता था, उस मूलभूत सम्पूर्णता की बदौलत, जो दूर-दराज़ के प्रांतों में सुरक्षित है, जो राजधानियों में पुराने ढर्रे की और आउट ऑफ फ़ैशनमानी जाती है.

नौजवान ने बताया कि वह एक प्रसिद्ध क्रांतिकारी का भतीजा है, मगर इसके विपरीत उसके माता-पिता प्रतिगामी थे, जिन्हें सुधारा नहीं जा सकता था, अड़ियल, जैसा कि उसने बताया. मोर्चे के क्षेत्र में उनकी अच्छी ख़ासी इस्टेट थी. वहीं पर नौजवान बड़ा हुआ. उसके माता-पिता ज़िंदगी भर चाचा से दुश्मनी निभाते रहे, मगर चाचा प्रतिशोधी नहीं हैं और अब अपने प्रभाव से उन्हें कई परेशानियों से बचाते हैं.

वह ख़ुद, अपनी धारणाओं में चाचा जैसा है - बातूनी नमूने ने कहा, - जीवन के, राजनीति के और कला के हर प्रश्न पर अतिवादी-अधिकतमवादी. फिर पेतेन्का विर्खोवेन्स्की ( दस्तायेव्स्की की रचना दि डेमन्स का एक पात्र – अनु.) का आभास हुआ, वामपंथी अर्थ में नहीं, बल्कि भ्रष्टाचार और खोखली बकवास के अर्थ में.

अब वह स्वयम् को भविष्यवादी कहेगा,’ डॉक्टर ने सोचा, और वाकई में बात भविष्यवादियों के बारे में होने लगी. और अब खेलों के बारे में बोलेगा,’ डॉक्टर ने पहले से ही अनुमान लगाता रहा, - ‘घुडदौडों के बारे में, स्केटिंग रिंक्स के बारे में, या फ्रेंच कुश्ती के बारे में’. और सचमुच, बातचीत शिकार पर आ गई.

नौजवान ने बताया कि अपने वतन में वह शिकार भी करता था, उसने शेख़ी भी मारी के वह महान तीरंदाज़ है, और अगर उसमें शारीरिक कमी न होती, जो उसके सैनिक बनने में रुकावट थी, तो वह युद्ध में भी अपनी अचूक निशानेबाज़ी के लिए जाना जाता.

झिवागो की प्रश्नार्थक नज़र पकड़कर वह चहका:

“क्या? क्या आपने गौर नहीं किया? मैं सोच रहा था, कि आपने मेरी कमी के बारे में अंदाज़ लगा लिया है.”

और उसने जेब से दो विज़िटिंग कार्ड्स निकालकर यूरी अन्द्रेयेविच की ओर बढ़ा दिए. एक उसका विज़िटिंग कार्ड था. उसका कुलनाम दुहरा था.

उसका नाम था मक्सीम अरिस्तार्खविच क्लिन्त्सोव-पगरेव्शिख, या सिर्फ पगरेव्शिख. उसने विनती की, कि उसे उसके चाचा के सम्मान में इसी नाम से बुलाया जाए, जो ख़ुद को इसी नाम से बुलाता था.

दूसरे कार्ड पर एक तालिका बनी हुई थी, जिसमें कई सारे ख़ाने थे. इन ख़ानों में विभिन्न प्रकार से जुड़े हुए हाथों की अलग-अलग तरह से रखी हुई उँगलियों के चित्र थे. ये गूँगे-बहरों की संकेतों द्वारा प्रदर्शित वर्णमाला थी. अचानक सब समझ में आ गया.

पगरेव्शिख गार्तमान या अस्त्राग्राद्स्की के याने गूँगे-बहरों के स्कूल का अद्भुत प्रतिभाशाली विद्यार्थी था, जिसने अविश्वसनीय पूर्णता के साथ आवाज़ सुनकर नहीं, बल्कि आँख़ों को देखकर, शिक्षक के गले की माँसपेशियों की हरकत को देखकर बोलना सीखा था, और उसी तरह वह अपने साथ वार्तालाप कर रहे व्यक्ति की बात समझता था.

तब दिमाग़ में इस बात से तुलना करते हुए कि वह कहाँ से है, और किन जगहों पर शिकार करता रहा है, डॉक्टर ने पूछा:

“मेरी इस धृष्ठता को क्षमा करें, आप चाहें तो जवाब न दें, - ये बताइये कि क्या आपका ज़िबूशिन्स्की रिपब्लिक से और उसके निर्माण से कोई सम्बंध रहा है?”

“मगर आपको कहाँ से...”

“माफ़ कीजिए...तो, आप ब्लाझैका को जानते थे?”

“था, था! बेशक, संबंध था,” पगरेव्शिख ख़ुशी से चहकने लगा, ठहाके लगाते हुए, पूरा शरीर एक तरफ़ से दूसरी तरफ़ झुलाते हुए और अनचाहे ही अपने घुटनों पर मारते हुए. और फिर से बकवास शुरू हो गई.

 

पगरेव्शिख ने कहा कि ब्लाझैका उसके लिए एक साधन था, और ज़िबूशिना उसके अपने विचारों को क्रियान्वित करने का एक निष्पक्ष स्थान.

यूरी अन्द्रेयेविच को उसकी प्रस्तुति को समझने में मुश्किल हो रही थी.

पगरेव्शिख का तत्वज्ञान आधा अराजकतावाद पर आधारित था, और आधा शिकारी की साफ़ बकवासों पर.

किसी भविष्यवक्ता के शांत सुर में पगरेव्शिख ने निकट समय में भयानक उथल-पुथल की घोषणा की. यूरी अन्द्रेयेविच मन ही मन इस बात से सहमत था, कि हो सकता है, यह अपरिहार्य हो, मगर जिस आधिकारिक शांत भाव से ये अप्रिय लड़का भविष्यवाणियाँ कर रहा था, उसने उसे गुस्सा दिला दिया.

“रुकिए, रुकिए,” उसने डरते-डरते प्रतिवाद किया. “ये सब, हो सकता है, हो जाए. मगर, मेरे विचार में हमारे यहाँ चल रही अराजकता और विनाश के बीच, दुश्मन के दबाव के सामने इन ज़ोखिम भरे प्रयोगों को करने का ये अनुकूल समय नहीं है. एक क्रांति दूसरी में जाने से पहले देश को अपने आप को संभालने का, साँस लेने का समय देना चाहिए. किसी तरह की अपेक्षाकृत शांति और व्यवस्था के लौटने का इंतज़ार करना चाहिए.”

“ये बचपना है,” पगरेव्शिख ने कहा. “वो, जिसे आप विनाश कह रहे हैं, वैसी ही सामान्य घटना है, जैसी आपकी प्रशंसित और प्यारी व्यवस्था. ये विनाश – एक विशाल संरचनात्मक योजना का प्राकृतिक और प्रारंभिक अंग है.

समाज का अभी पर्याप्त विनाश नहीं हुआ है. ज़रूरी है कि उसका पूरी तरह विघटन हो जाए, और तब असली क्रांतिकारी सरकार, उसके हिस्से इकट्ठा करके उसे बिल्कुल भिन्न सिद्धातों के आधार पर बनायेगी.”   

यूरी अन्द्रेयेविच को बेचैनी होने लगी. वह बाहर कॉरीडोर में आया.

ट्रेन अपनी रफ़्तार बढ़ाते हुए मॉस्को के बाहरी भागों से जा रही थी. हर मिनट खिड़कियों के सामने से बर्च वृक्षों के झुरमुट, पास-पास बनी हुई समर-कॉटेजेस समेत भागते हुए गुज़र जाते. कॉटेजेस के निवासियों के साथ बिना छत वाले तंग प्लेटफॉर्म उड़े जा रहे थे, ट्रेन द्वारा उत्पन्न धूल के बादल में दूर एक ओर गुम हो रहे थे, और ऐसे घूम रहे थे, जैसे हिंडोले में हों. ट्रेन एक के बाद एक सीटी बजाए जा रही थी, और खाली, नली जैसा और खोखला जंगल साँस रोके उसकी सीटी की गूंज को दूर तक ले जा रहा था.    

अचानक, इन दिनों में पहली बार यूरी अन्द्रेयेविच को साफ़ तौर पर समझ में आया कि वह कहाँ हैं, उसे क्या हो रहा है और घण्टे-दो घण्टे बाद उसका सामना किससे होने वाला है.

परिवर्तनों के, अनिश्चितता के, स्थानान्तर के तीन साल, युद्ध, क्रांति, उथल-पुथल, गोलीबारी, विनाश के दृश्य, मौत के दृश्य, उड़ाए गए पुल, खण्डहर, अग्निकांड – ये सब अचानक एक विशाल रिक्त स्थान में परिवर्तित हो गया, जिसमें कुछ नहीं था.

पहली सच्ची घटना, जो लम्बे अंतराल के बाद हो रही थी, वो थी रेल की ये सिर चकराने वाली यात्रा, जो उसे घर के निकट ले जा रही थी, घर, जो अभी सही-सलामत है और जिसका अभी भी अस्तित्व है, और जहाँ का हर कंकड़ भी उसे प्रिय है. ये थी ज़िंदगी, ये था अनुभव, ये ही वह चीज़ थी, जिसके पीछे साहसी मतवाले पड़े रहते हैं, यही थी कला – अपनों के पास आना, अपने आप के करीब लौटना, अस्तित्व का नवीनीकरण.

झुरमुट ख़त्म हो गए. पत्तों के घने झुरमुट से निकलकर ट्रेन आज़ादी की ओर जा रही थी. एक ढलवाँ मैदान दूर जाकर खाई से निकलते टीले से मिलकर दूर चला गया. वह पूरा गहरे हरे आलुओं के पौधों की कतारों से ढँका था. मैदान के ऊपर, आलू के खेत के अंत में, काँच की चौखटें ज़मीन पर पड़ी थीं, जिन्हें ग्रीन-हाउसेस से निकाला गया था. मैदान के सामने, जाती हुई ट्रेन की पूँछ के पीछे गहरा-बैंगनी बादल आधे आसमान को ढाँक रहा था. उसमें से सूरज की किरणें फूटी पड़ रही थीं, जो सभी दिशाओं में पहिये की तरह निकल रही थीं, और जाते-जाते ग्रीन हाउस वाली फ्रेम्स को दबा रही थीं, उनके काँच को अपनी असह्य चमक से जला रही थीं.

अचानक बादल से धूप में चमकती बारिश की तिरछी, मोटी-मोटी बूंदें गिरने लगीं. उसकी बूँदें उतनी ही तेज़ी से गिर रही थीं, जितनी तेज़ी से भागती हुई ट्रेन के पहिए खड़खड़ा रहे थे, जैसे उसे पकड़ने के, या उससे पीछे रह जाने के डर से गिर रही हों.

डॉक्टर इस ओर ध्यान भी नहीं दे पाया था, कि पहाड़ के पीछे से क्राइस्ट दि सेवायरका चर्च दिखाई दिया और अगले ही पल – पूरे शहर के गुम्बज़, छतें और घर दिखाई देने लगे.

“मॉस्को,” उसने कुपे में लौटते हुए कहा. “तैयार होने का समय हो गया.”

पगरेव्शिख उछला, अपने शिकारी बैग में कुछ ढूँढ‌ने लगा और उसमें से एक काफ़ी मोटी बत्तख निकाली.

“लीजिए,” उसने कहा. “यादगार के तौर पर. मैंने इतनी प्यारी सोहबत में पूरा दिन बिताया.”

डॉक्टर ने काफ़ी मना किया, मगर कोई फ़ायदा न हुआ.

“अच्छा, ठीक है,” उसे सहमत होना ही पड़ा, “मैं आपकी तरफ़ से ये तोहफ़ा बीबी के लिए ले रहा हूँ.”

“बीबी के लिए! बीबी के लिए!: पगरेव्शिख ख़ुशी से दुहराने लगा, जैसे उसने ये शब्द पहली बार सुना हो, और वह अपने पूरे जिस्म को हिलाते हुए इस तरह ठहाके लगाने लगा कि मार्कीज़ भी उछल कर बाहर आ गया और उसकी ख़ुशी में शामिल हो गया.

ट्रेन प्लेटफॉर्म की ओर आई. डिब्बे में रात जैसा अँधेरा छा गया. गूँगे-बहरे ने डॉक्टर की ओर किसी छपे हुए पर्चे में लिपटी जंगली बत्तख बढ़ाई.

 

अध्याय – 6

मॉस्को का पड़ाव

 

1

रास्ते में उस तंग कुपे में बिना हिले डुले बैठे रहने से ऐसा लग रहा था, कि सिर्फ ट्रेन चल रही है, और समय वहीं रुका हुआ है, और ये कि अभी भी दोपहर ही है.

मगर जब गाड़ीवान डॉक्टर और उसके सामान को लिए स्मलेन्स्की मार्केट की भारी भीड़ से होते हुए मुश्किल से राह निकाल रहा था, तो शाम हो चली थी.

हो सकता है, ऐसा ही हो, और हो सकता है, डॉक्टर के उस समय के प्रभावों पर बाद के वर्षों का अनुभव हावी हो गया हो, मगर बाद में अपनी यादों में उसे ऐसा लगा कि उस समय भी  मार्केट में लोगों के झुण्ड सिर्फ आदत के कारण जमा हो जाते थे, और उनके पास भीड़ करने की कोई वजह नहीं थी, क्योंकि खाली दुकानों के तिरपाल गिरा दिए गए थे और उन पर ताले भी नहीं लगाए गये थे, और उस गंदे चौक में, जिस पर अब झाडू भी नहीं लगाई जाती, बेचने के लिए कुछ भी नहीं था.

और उसे लगा, कि तब भी वह फुटपाथ पर सिमट कर खड़े हुए दुबले-पतले, सलीके से कपड़े पहने हुए बूढ़े मर्दों और औरतों को देखता था, जो ख़ामोश उलाहने से बगल से गुज़रने वालों को देखते और बिना कुछ कहे किसी ऐसी चीज़ को बेचने की पेशकश करते, जिसे कोई नहीं लेता था और जिसकी किसी को ज़रूरत भी नहीं थी : कृत्रिम फूल, कॉफी उबालने के लिए गोल स्प्रिट लैम्प – काँच के ढक्कन और सीटी वाले, काले महीन कपड़े के गाऊन, ऐसे दफ़्तरों के युनिफॉर्म जिन्हें बंद कर दिया गया था.

साधारण लोग ज़रूरत की चीज़ें बेच रहे थे : सूखे हुए, खुरदुरे, जल्दी सड़ जाने वाले राशन की काली ब्रेड के टुकड़े, गंदे, नम शकर के क्यूब्स, और तम्बाकू के दो हिस्सों में काटे गए पचास-पचास ग्राम्स के पैकेट्स.

और पूरे मार्केट में कोई रहस्यमय चीज़ बेची जा रही थी, जिसकी कीमत सभी हाथों में घूमने के बाद बढ़ जाती थी.

गाड़ीवान चौक से लगी एक गली में मुड़ गया.

पीछे सूरज डूब रहा था और उनकी पीठ में किरणों की मार कर रहा था. उनके सामने एक गाड़ीवान अपना उछलता हुआ खाली छकड़ा खड़खड़ाते हुए जा रहा था. वह अस्त होते हुए सूर्य की किरणों में काँसे जैसी चमकती धूल के बादल उड़ा रहा था.  

आख़िरकार वे छकड़े से आगे निकल गए जो उनका रास्ता रोक रहा था. वे ज़्यादा तेज़ी से जा रहे थे. रास्तों और फ़ुटपाथों पर चारों ओर बिखरे हुए पुराने अख़बारों और इश्तेहारों के ढेर देखकर डॉक्टर चौंक गया जिन्हें घरों और फेन्सिंग्स से खींचा गया था. हवा उन्हें  एक ओर को खींचती, और आने जाने वाले खुर, पहिये और जूते – दूसरी ओर.

जल्दी ही कुछ चौराहों के बाद दो गलियों के नुक्कड़ पर अपना घर दिखाई दिया. गाड़ीवान रुक गया.

जब गाड़ी से उतरकर वह मुख्य प्रवेशद्वार की ओर गया और घंटी बजाई, तो यूरी अन्द्रेयेविच की साँस रुक गई और दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगा. घण्टी का कोई असर नहीं हुआ. यूरी अन्द्रेयेविच ने दुबारा घण्टी बजाई. जब इस कोशिश का भी कोई परिणाम न निकला, तो वह बढ़ती हुई परेशानी से एक के बाद एक, ज़ोर-ज़ोर से घण्टी बजाने लगा. सिर्फ चौथी घण्टी पर भीतर से कुण्डी की खड़खड़ाहट सुनाई दी, और उसने खुलते हुए दरवाज़े के साथ अंतनीना अलेक्सान्द्रना को देखा, जो उसे पूरा खोल रही थी. इस अप्रत्याशितता से पल भर के लिए वे दोनों बुत बन गए और उन्हें सुनाई ही नहीं दिया कि वे चिल्ला रहे हैं. मगर, चूँकि अंतनीना अलेक्सान्द्रव्ना के हाथ में खुला हुआ दरवाज़ा था, जो पूरी तरह बाँहें फ़ैलाने से उसे रोक रहा था, तो वे होश में आ गए, और पागलों की तरह एक दूसरे के गले से लिपट गए. एक मिनट बाद, एक दूसरे की बात काटते हुए वे एक साथ बोलने लगे.

“सबसे पहले, आप सब ठीक-ठाक तो हैं?”

“हाँ, हाँ, इत्मीनान रखो. सब ठीक है. मैंने तुम्हें बेवकूफ़ी भरी बातें लिख दी थीं. माफ़ करना. मगर बात करनी होगी. तुमने टेलिग्राम क्यों नहीं भेजा? अभी मार्केल तुम्हारा सामान ले आएगा. और, मैं, समझती हूँ, कि तुम इस बात से परेशान हो कि ईगरव्ना ने दरवाज़ा क्यों नहीं खोला? ईगरव्ना गाँव में है.”

“और तुम दुबली हो गई हो. मगर कितनी जवान और छरहरी! मैं अभी गाड़ीवान को भेजकर आता हूँ.”

“ईगरव्ना आटा लाने गई है. बाकियों को निकाल दिया है. अभी सिर्फ एक नई है, तुम उसे नहीं जानते, न्यूशा नाम है, साशेन्का को संभालती है, और उसके अलावा कोई और नहीं है. सबको बता दिया था कि तुम आने वाले हो, सब बेसब्री से इंतज़ार कर रहे हैं. गर्दोन, दुदोरव, सब”.

“साशेन्का कैसा है?”

“ठीक है, ख़ुदा की मेहेरबानी. अभी-अभी उठा है. अगर तुम सफ़र से न आये होते, तो अभी उसके पास जा सकते थे.”

“पापा घर में हैं?”

“क्या तुम्हें नहीं लिखा था? सुबह से देर रात तक डिस्ट्रिक्ट ड्यूमा में व्यस्त रहते हैं. प्रेसिडेंट हैं. ज़रा सोचो. क्या तुमने गाड़ीवान को पैसे दे दिए? मार्केल! मार्केल!”

वे बास्केट और सूटकेस लिए फुटपाथ के बीच में खड़े थे, रास्ता रोके हुए, और आने जाने वाले उनके पास से गुज़रते हुए पैर से सिर तक उन्हें गौर से देखते और देर तक जाते हुए गाड़ीवान को देखते और पूरे खुले प्रवेश द्वार को, ये इंतज़ार करते हुए कि आगे क्या होगा.

इस बीच सूती कमीज़ पर जैकेट पहने मार्केल गेट से भागता हुआ नौजवान मालिकों के पास आया, हाथ में दरबान की टोपी पकड़े वह चिल्ला रहा था:

“आह, ख़ुदा, कहीं यूरच्का तो नहीं? ऐसे कैसे! ऐसा ही है, वही है, मेरा नन्हा बाज़! यूरे अन्द्रेयेविच, हमारी नज़रों के तारे, हमें भूले नहीं हैं, हम, जो तुम्हारे लिए प्रार्थना करते हैं, अपने घर आए हैं! आपको और क्या चाहिए? हाँ? क्या नहीं देखा?” वह उत्सुक लोगों पर गुर्राया – “जाइए, बड़े लोगों. आँखें फाड़ रहे हैं!”

“नमस्ते, मार्केल, आ. गले मिलें. अरे, दीवाने, टोपी पहन. क्या हाल है, कोई ख़ुशख़बरी? बीबी, बच्ची कैसे हैं?”

“उन्हें क्या होना है. बड़े हो रहे हैं. शुक्रिया. और नया – तुम तो वहाँ हीरोगिरी दिखा रहे थे, और हमने, देख रहे हो, उबासी तक नहीं ली.

ऐसा शराबखाना और गलीज़ माहौल बना रखा है , कि भाई, शैतानों को भी उबकाई आ जाए, समझ में नहीं आता – करें तो क्या करें – क्या करें! रास्तों पर झाड़ू नहीं लगती, घर-छप्पर की मरम्मत नहीं हुई, पेट में – जैसे फ़ाका कर रहे हों, एकदम साफ़, बगैर कुछ लिए-दिए.”   

मैं यूरी अन्द्रेयेविच से तेरी शिकायत करूँगी, मार्केल. यूरच्का, ये हमेशा से ऐसा ही है. इसके बेवकूफ़ लहजे को बर्दाश्त नहीं कर सकती. और शायद तुम्हारे लिए कोशिश कर रहा है, तुम्हें ख़ुश करना चाहता है. मगर ख़ुद, वैसे, बहुत चालाक है. छोड़, छोड़, मार्केल, सफ़ाई देने की ज़रूरत नहीं है. गँवार है तू, मार्केल. समझदार होने का वक्त आ गया है. आख़िर, तुम अनाज के व्यापारियों के यहाँ तो नहीं रहते हो.”

जब मार्केल ने ड्योढ़ी में सामान लाकर धड़ाम् से प्रवेश द्वार बंद किया, तो वह धीमी आवाज़ में और गोपनीय सुर में आगे बोला:

“अन्तनीना अलेक्सान्द्रव्ना गुस्सा कर रही हैं, सुना मैंने. हमेशा ही ऐसा करती हैं. कहती हैं, तू, कहती है, मार्केल, पूरा काले दिल वाला है, जैसे चिमनी की कालिख. अब, कहती है, तू छोटा बच्चा तो नहीं है, अब, तो छोटे-छोटे पालतू कुत्ते भी समझदार और अकल वाले हो गए हैं. ये, बेशक, बहस कौन करता है, मगर सिर्फ, यूरच्का, चाहे तू यकीन कर या न कर, मगर सिर्फ जानकार लोगों ने ही किताब को देखा है, कोई मैसन (यहाँ मैसनरी से तात्पर्य है – अनु.) आएगा, एक सौ चालीस साल पत्थर के नीचे दबी रही, और अब, मेरी ऐसी राय है, हमें बेच दिया गया है, यूरच्का, समझ रहे हो, बेच दिया, बेच दिया बिना कौड़ी कै, बिना सिक्के के, बिना तम्बाकू के. नहीं देंगी, देख, अंतनीना अलेक्सान्द्रव्ना बोलने नहीं देगी, फिर से, देख रहे हो, हाथ से जाने को कह रही हैं.”

“और, कैसे नहीं कहेंगी. चल, ठीक है. सामान फर्श पर रख और शुक्रिया, अब जा, मार्केल. ज़रूरत पड़ेगी तो यूरी अन्द्रेयेविच बुला लेंगे.”

 

2

“चलो, आख़िर, रुक गया, पीछा छूटा. तुम उस पर यकीन करो, करो यकीन. पक्का जोकर है. दूसरों के सामने बस बेवकूफ़, पूरा बेवकूफ़ होने का नाटक करता है, मगर उसके पास पर चाकू तैयार है. क्या पता कब ज़रूरत पड़ जाए. अभी तय नहीं किया है, कि चाकू किसके लिए है, ग़रीब अनाथ.

“ओह, तुम तो पीछे ही पड़ गईं. मुझे लगता है, कि वह सिर्फ नशे में है, इसीलिए नाटक कर रहा है, और कोई बात नहीं है.”

“और तुम बताओ, वह कब होश में होता है? चलो, जाने दो उसे भाड में. मुझे डर है कि साशेन्का कहीं फिर न सो जाए. अगर ये रेलगाड़ी वाला टायफॉइड न होता...तुम्हारे बदन पर जुएँ तो नहीं हैं?”

“शायद, नहीं हैं. मैं आराम से आया हूँ, जैसा युद्ध से पहले होता था. क्या थोड़ा-सा मुँह हाथ धो लूँ? किसी तरह, जल्दी से. और बाद में ज़्यादा अच्छी तरह से. मगर तुम कहाँ जा रही हो? ड्राइंग रूम से होकर क्यों नहीं? क्या अब आप लोग दूसरी तरफ़ से ऊपर जाते हो?”

“ओह, हाँ! तुम्हें कुछ भी मालूम नहीं है. मैंने और पापा ने सोचा, बहुत सोचा, और निचली मंज़िल का हिस्सा एग्रिकल्चर अकादमी को दे दिया. वर्ना सर्दियों में हम ख़ुद तो घर को गर्मा नहीं सकेंगे. और फिर ऊपर भी काफ़ी जगह है.”

उनके सामने प्रस्ताव रखा है. अभी नहीं ले रहे हैं. उनकी कई वैज्ञानिक प्रयोगशालाएँ हैं, हर्बेरियम है, बीजों के संग्रह हैं. कहीं चूहे न ले आएँ. आख़िर – अनाज जो है. मगर फ़िलहाल तो कमरों को साफ़-सुथरा रखा है. आजकल इसे लिविंग स्पेसकहते हैं. यहाँ, यहाँ. कैसे नासमझ हो! पीछे वाली सीढ़ी का चक्कर लगाकर. समझ गए? मेरे पीछे आओ, मैं दिखाती हूँ.”

“बहुत अच्छा किया जो कमरे दे दिए. मैं जिस हॉस्पिटल में काम करता था, वह भी कुलीन परिवार की हवेली में था. अनगिनत कमरे, कहीं-कहीं फ़र्श सलामत था. गमलों में लगाए गए चीड़ के पेड़ रातों को पलंगों के ऊपर उँगलियाँ फैलाते, जैसे कोई भूत हों. ज़ख़्मी, भूतपूर्व सैनिक, युद्ध से आये हुए, डर जाते और नींद में चिल्लाते. मगर, जो पूरी तरह सामान्य नहीं थे, बुरी तरह चौंक जाते. उन्हें बाहर ले जाना पड़ा. मैं ये कहना चाहता हूँ, कि समृद्ध लोगों के जीवन में कुछ अस्वस्थता थी. अंतहीन अनावश्यक चीज़ें. घर में अनावश्यक फ़र्नीचर और अनावश्यक कमरे, भावनाओं की अनावश्यक नज़ाकत, अनावश्यक हाव-भाव. बहुत अच्छा किया, कि अपने आप को सिकोड़ लिया. मगर अभी भी ये कम है. और ज़्यादा करना चाहिए.”

“ये तुम्हारे पास पैकेट से क्या झाँक रहा है? पंछी की चोंच, बत्तख़ का सिर. कितना ख़ूबसूरत! जंगली बत्तख़? कहाँ से? आँखों पर विश्वास नहीं होता! आजकल तो ये जैसे पूरा ख़ज़ाना है!”

“कुपे में किसी ने दी है. लम्बी कहानी है, बाद में बताऊँगा. क्या कहती हो, खोल कर किचन में रख दें?”

“हाँ, बेशक. अभी न्यूशा को इसके पर निकालने और साफ़ करने के लिए भेजती हूँ. कहते हैं कि सर्दियों में हर तरह की भयानक बातें, भूख, ठण्ड होने वाली है.”

“हाँ, इस बारे में हर जगह बात हो रही है. अभी मैं कम्पार्टमेन्ट की खिड़की से देख रहा था और सोच रहा था. परिवार में शांति और काम से ज़्यादा ऊँचा क्या हो सकता है?

बाकी तो हमारे बस में नहीं है. ज़ाहिर है, सही में, कई लोगों का दुर्भाग्य से सामना होने वाला है. कुछ लोग साउथ में जाकर अपने आप को बचाने के बारे में सोच रहे हैं, कॉकेशस में, जितना संभव हो उतनी दूर भागने की सोच रहे हैं. ये मेरे सिद्धांतों में नहीं है.

एक बड़े आदमी को दाँत भींच कर मातृभूमि का भाग्य बाँटना चाहिए. मेरे ख़याल से, ये ज़ाहिर सी बात है. दूसरा काम – आप लोग हो. कितना जी चाहता है मेरा कि आप लोगों की आपदाओं से रक्षा करूँ, किसी ज़्यादा सुरक्षित जगह भेज सकूँ, जैसे फ़िनलैण्ड. या कहीं और. मगर, यदि हम आधा-आधा घण्टा एक-एक सीढ़ी पर खड़े रहेंगे, तो हम कभी भी ऊपर नहीं पहुँच पाएँगे.”

“रुको, सुनो! एक ख़बर है. और वो भी कैसी! मगर मैं भूल गई. निकलाय निकलायेविच आये हैं.”

“कौन से निकलाय निकलायेविच?”

“कोल्या मामा.”

“तोन्या! हो ही नहीं सकता! कैसे?”

“देखो, ऐसे. स्विट्ज़रलैण्ड से. लंदन जा रहे थे, चक्करदार रास्ते से. फ़िनलैण्ड होते हुए.”

“तोन्या! तुम मज़ाक तो नहीं कर रहीं? क्या आप लोग उनसे मिले? वह कहाँ हैं? क्या उन्हें फ़ौरन यहाँ लाया जा सकता है, इसी पल?”

“कितनी बेसब्री! वह शहर से बाहर है, किसी की समर-कॉटेज में.

परसों लौटने का वादा किया है. बहुत बदल गए हैं, तुम्हें निराशा होगी. पीटर्सबुर्ग में फँस गए और पूरे बोल्शेविक हो गए.

पापा तो गला फ़ाड़कर उनके साथ बहस करते हैं. मगर हम क्यों, सही में, हर कदम पर रुक रहे हैं? चलें. मतलब, तुमने भी सुना , कि आगे कुछ भी अच्छा होने वाला नहीं है, मुसीबतें, ख़तरे, अनिश्चितता है?”

मैं ख़ुद भी ऐसा ही सोचता हूँ. तो फिर क्या. संघर्ष करेंगे. सभी को तो ख़त्म नहीं होना है. देखेंगे कि दूसरे क्या करते हैं.”

“कहते हैं, कि बिना ईंधन के बैठे रहेंगे, बिना पानी के, बिना बिजली के.

पैसे बंद हो जाएँगे. सप्लाई नहीं होगी. और हम फ़िर खड़े हो गए. चलो.

सुनो. लोहे के चपटे स्टोव्ह की आजकल बड़ी तारीफ़ हो रही है, अर्बात के वर्कशॉप में हैं. अख़बार की आग पर खाना बन जाता है. मेरे पास पता है.

जल्दी खरीदना पड़ेगा, इससे पहले कि वे ख़त्म हो जाएँ.”

“सही है. खरीदेंगे. होशियार हो, तोन्या! मगर कोल्या मामा, कोल्या मामा! ज़रा सोचो! मैं होश में नहीं आ सकता!”

“मेरा ऐसा प्लान है. ऊपर किनारे वाला कोई कोना ख़ाली करके हम लोग पापा, साशेन्का और न्यूशा के साथ रह जाएँगे, मतलब, दो या तीन कमरों में, जो एक दूसरे से जुड़े हुए हों, कहीं ऊपरी मंज़िल के अंत में, और बचे हुए घर को पूरी तरह ख़ाली कर देंगे.

सड़क से पूरी तरह अपने आप को अलग कर लें. सिर्फ एक लोहे का स्टोव्ह, बीच वाले कमरे में, चिमनी- वेंटिलेटर में, कपड़े धोना, खाना पकाना, लंच, मेहमानों का स्वागत, सब कुछ यहीं पर, जिससे कमरों को गरम रखने को सही साबित कर सकें, और, क्या पता, हो सकता है, ख़ुदा करे, सर्दियाँ बिता दें.”

“और क्या? ज़ाहिर है, सर्दियाँ बितायेंगे. बगैर किसी शक के. ये तुमने बहुत अच्छी बात सोची. शाबाश! और, पता है? तुम्हारे प्लान को मनाएँगे. मेरी बत्तख़ पकायेंगे और कोल्या मामा को नये घर की दावत पे बुलाएँगे.”

“बढ़िया. और गर्दोन से कह दूँगी कि स्प्रिट ले आए. वह किसी लैब से लायेगा. और अब देखो. ये रहा वो कमरा, जिसके बारे में मैं कह रही थी. मैंने इस वाले को चुना है. ठीक लगता है? फ़र्श पर सूटकेस रखो और बास्केट के लिए नीचे जाओ. मामा और गर्दोन के अलावा, इन्नोकेंती और शूरा श्लेज़िंगर को भी बुला सकते हैं. तुम्हें ऐतराज़ तो नहीं? तुम भूल तो नहीं गए, कि हमारा बाथरूम कहाँ है? वहाँ कोई कीटाणुनाशक छिड़क लो. और मैं साशेन्का के पास जाती हूँ, न्यूशा को नीचे भेजती हूँ, और जब संभव होगा, तुम्हें बुला लूँगी.”

3

मॉस्को में उसके लिए सबसे महत्वपूर्ण समाचार था ये बच्चा. जैसे ही साशेन्का पैदा हुआ, यूरी अन्द्रेयेविच को युद्ध पर बुला लिया गया था. बेटे के बारे में वह क्या जानता था?

एक बार, जब वह युद्ध पर जाने की तैयारी कर रहा था, यूरी अन्द्रेयेविच जाने से पहले तोन्या को देखने के लिए क्लिनिक में आया. वह ठीक उसी समय पहुँचा, जब बच्चों को दूध पिलाया जा रहा था. उसे तोन्या के पास नहीं जाने दिया गया.

वह प्रवेश कक्ष में बैठकर इंतज़ार करने लगा. इस समय दूर का बच्चों वाला कॉरीडोर, जो मुड़ कर प्रसूति गृह की ओर जाता था, जिसकी बगल में माताएँ लेटी थीं, दस-पंद्रह शिशुओं के एक सुर में रोने की आवाज़ों से भर गया, और नर्सें जल्दी-जल्दी, ताकि कम्बलों में लिपटे नवजात शिशु सर्दी न खा जाएँ, उन्हें सामानों से भरे बड़े पैकेट्स के समान, दो-दो करके बगलों में दबाए, माताओं के पास दूध पिलाने के लिए ले जाने लगीं.

“इयाँ, इयाँ’ – लगभग बिना किसी भावना के, जैसे ये उनका कर्तव्य हो, नवजात शिशु एक सुर में चीख रहे थे, और इस कोरस से सिर्फ एक आवाज़ अलग-थलग आ रही थी. ये बच्चा भी “इयाँ, इयाँ”, और वह भी बगैर किसी दुख की भावना के ही चिल्ला रहा था, मगर, ऐसा लग रहा था, कि वह कर्तव्य-भावना से नहीं, बल्कि एक गहरी आवाज़ में चिल्ला रहा था, जो सोची-समझी, उदास अमैत्रीपूर्ण थी.

यूरी अन्द्रेयेविच ने तभी तय कर लिया था कि बेटे का नाम ससुर के सम्मान में अलेक्सान्द्र ही रखेगा. पता नहीं, उसने ऐसा क्यों सोचा कि इस तरह से उसका ही बेटा चिल्ला रहा है, क्योंकि ये एक भारी-भरकम रुदन था, इन्सान के भावी चरित्र और उसके भाग्य को दर्शाता हुआ, ऐसी खनखनाती आवाज़ में, जिसमें बच्चे का नाम था, ये नाम अलेक्सान्द्र था, जैसी यूरी अन्द्रेयेविच ने कल्पना की.

यूरी अन्द्रेयेविच गलत नहीं था. जैसा कि बाद में पता चला, ये वाकई में साशेन्का ही रो रहा था. ये थी पहली बात, जो वह अपने बेटे के बारे में जानता था.

यूरी अन्द्रेयेविच का उससे अगला परिचय तो तस्वीरो के माध्यम से ही हुआ, जो उन्हें ख़तों के साथ मोर्चे पर भेजे जाते थे. उनमें एक हँसमुख, प्यारा, गुबला-गुबला, बड़े-से सिरवाला बच्चा, होठों को कमान की तरह बंद किए पैरों को मोड़े फ़ैले हुए कम्बल पर खड़ा था और, दोनों हाथ ऊपर उठाकर, जैसे डान्स कर रहा था. तब वह साल भर का था, चलना सीख रहा था, अब दूसरा साल पूरा हो गया है, वह बोलना शुरू कर रहा था.

यूरी अन्द्रेयेविच ने फ़र्श से सूटकेस उठाई और उसके पट्टे खोलकर उसे खिड़की के पास ताश वाली मेज़ पर रख दिया. पहले ये कौनसा कमरा हुआ करता था? डॉक्टर उसे पहचान नहीं पाया. ज़ाहिर था, कि तोन्या ने उसमें से फर्नीचर निकाल दिया है या उसमें कोई नया वॉलपेपर चिपका दिया है.

डॉक्टर ने सूटकेस खोली, जिससे उसमें से शेविंग किट निकाल सके. खिड़की के सामने ही चर्च के घंटाघर के स्तम्भों के बीच साफ़, पूरा चाँद दिखाई दिया. जब उसका प्रकाश सूटकेस के भीतर पड़े अंतर्वस्त्रों, किताबों और प्रसाधन सामग्री पर पड़ा, तो कमरा किसी और ही तरह से प्रकाशित हो गया और डॉक्टर ने उसे पहचान लिया.              

ये स्वर्गीय आन्ना इवानव्ना का स्टोअर रूम था जिसे खाली किया गया था. वह पुराने ज़माने में इसमें टूटी हुई मेज़ें और कुर्सियाँ, ऑफ़िस का रद्दी सामान फेंक देती थी. यहाँ उसका पुरानी पारिवारिक चीज़ों का संग्रह था, यहीं संदूकें भी थीं जिनमें गर्मियों में सर्दियों वाली चीज़ें छुपा दी जातीं. आन्ना इवानव्ना के जीवन काल में कमरे के कोने छत तक सामान से अटे रहते थे, और अक्सर उस कमरे में किसी को जाने नहीं दिया जाता था. मगर बड़े त्यौहारों पर, भीड़-भाड़ वाली बच्चों की पार्टियों में, जब उन्हें पूरी ऊपरी मंज़िल में भागने की और मस्ती करने की छूट होती थी, तो इस कमरे को भी खोल दिया जाता, और वे इसमें डाकुओ का खेल खेलते, मेज़ों के नीचे छुप जाते, जले हुए कॉर्क की कालिख चेहरों पर पोत लेते और छद्म वेष बनाये घूमते.

डॉक्टर कुछ देर खड़ा रहा, ये सब याद करते हुए, मगर फिर निचली ड्योढ़ी में बास्केट लाने गया, जहाँ उसे छोड़ा था.               

नीचे किचन में न्यूशा, डरपोक और शर्मीली लड़की ज़मीन पर, चूल्हे के सामने बैठकर फैले हुए अख़बार पर बत्तख साफ़ कर रही थी. यूरी अन्द्रेयेविच के हाथों में वज़न देखते ही वह खसखस के फूल की तरह लाल हो गई और एप्रन से चिपके हुए पंख झटकती हुई नज़ाकत से उठी, और अभिवादन करके, मदद करने की पेशकश की. मगर डॉक्टर ने उसे धन्यवाद दिया और कहा कि बास्केट वह ख़ुद ही ले जाएगा.

वह आन्ना इवानव्ना के भूतपूर्व स्टोअर रूम में पहँचा ही था, कि दूसरे या तीसरे कमरे से बीबी ने उसे पुकारा:

“आ सकते हो, यूरा!”

वह साशेन्का के पास गया.

बच्चों का कमरा आजकल उसके और तोन्या के पहले वाले क्लास-रूम में है. छोटे से पलंग के भीतर बैठा बच्चा बिल्कुल वैसा ख़ूबसूरत नहीं था, जैसा वह तस्वीरों में था, मगर वह यूरी अन्द्रेयेविच की माँ, स्वर्गीय मारिया निकालायेव्ना झिवागो की हूबहू प्रतिकृति था, बिल्कुल उसकी चौंकाने वाली नकल, उसकी बची हुई तस्वीरों से भी ज़्यादा उसके समान था.

“ये पापा हैं, ये तेरे पापा हैं, पापा को हाथ हिलाओ,” अंतनीना अलेक्सान्द्रव्ना पलंग की जाली हटाते हुए ज़ोर दे रही थी, जिससे बाप आसानी से बच्चे को बाँहों में लेकर उसे उठा सके.

साशेन्का ने अनजान और बढ़ी हुई दाढ़ी वाले आदमी को पास आने दिया, जो, शायद उसे डरा रहा था और दूर हटा रहा था, और जब वह झुका, तो झटके से उठा, माँ का स्वेटर पकड़ लिया, और गुस्से से ज़ोर से उसके मुँह पर तमाचा जड़ दिया. अपने ही साहस ने साशेन्का को इतना डरा दिया, कि वह फ़ौरन माँ के सीने से लिपट गया, उसकी ड्रेस में मुँह छुपा लिया और ज़ार-ज़ार रोने लगा.

“फू, फू,” अंतनीना अलेक्सान्द्रव्ना उसे चिढ़ा रही थी. “ऐसा नहीं करते, साशेन्का. पापा सोचेंगे कि साशा बुरा बच्चा है, साशा याक्-याक्!

“दिखाओ, तुम कैसे किस्सीकरते हो, पापा को किस्सीदो. रोओ नहीं, रोने की ज़रूरत नहीं है, किसलिए रो रहा है, बेवकूफ़?”

“उसे छोड़ दो, तोन्या,” डॉक्टर ने कहा. “उसे तंग मत करो और ख़ुद भी परेशान न हो. मुझे मालूम है, कि तुम्हारे दिमाग़ में कैसे बेवकूफ़ी भरे ख़याल आ रहे हैं. कि ये ठीक नहीं है, ये बुरा शगुन है. ये छोटी-सी बात है. और स्वाभाविक है. बच्चे ने मुझे पहले कभी नहीं देखा है.

कल ग़ौर से देखेगा, तब उसे मुझसे अलग न कर पाओगी.”

मगर वह ख़ुद भी अजीब मनःस्थिति में कमरे निकला, जैसे उसका दिल डूब रहा हो. एक बुरे पूर्वाभास के साथ.

 

4

 अगले कुछ दिनों के दौरान ये महसूस हुआ कि वह कितना अकेला है. उसने इसमें किसी को भी दोष नहीं दिया. ज़ाहिर है, वो ख़ुद ही ऐसा चाहता था, और उसने इसे हासिल कर लिया.

दोस्त भी अजीब तरह से मुरझा गए थे, बेरंग हो गए थे. किसी के भी पास अपनी ज़िंदगी नहीं बची थी, अपनी राय नहीं रह गई थी. उसकी यादों में वे ज़्यादा प्रखर थे. शायद, पहले वह उन्हें कुछ ज़्यादा ही आँकता था.  

जब तक सामाजिक ढाँचा समृद्ध लोगों को निर्धन लोगों की कीमत पर ख़ुश और बढ़िया रहने की इजाज़त देता था, तो इस ख़ुशी और निठल्लेपन के अधिकार को वास्तविक चेहरा और मौलिकता समझना कितना आसान था, जिसका फ़ायदा कम ही लोग उठाते थे, जबकि अधिकांश लोग बर्दाश्त करते रहते थे!

मगर जैसे ही निचला वर्ग उठा, और उच्च वर्ग के अधिकार ख़त्म हो गए, कितनी जल्दी सब मुरझा गए, बगैर अफ़सोस किए कैसे अपनी ही राय से दूर हट गए, जो ज़ाहिर है, किसी के भी पास थी ही नहीं!

अब सिर्फ वे ही लोग यूरी अन्द्रेयेविच के करीब थे, जो मुहावरेदार और करुण रस से ओत प्रोत नहीं थे - पत्नी और ससुर, और दो-तीन सहयोगी डॉक्टर, गरीब श्रमिक, मामूली मज़दूर.

बत्तख और स्प्रिट वाली पार्टी उसके आने के दो-तीन बाद हो गई, जब वह सभी आमंत्रितों से मिल चुका था, तो, मतलब, ये उनकी पहली मुलाकात नहीं थी.

मोटी बत्तख उन, भुखमरी के आरंभिक दिनों में, ग़ज़ब के ठाठ-बाट की चीज़ थी, मगर उसके साथ खाने के लिए ब्रेड नहीं थी, और इस कारण इस पकवान की शान बेतुकी हो गई, बल्कि चिड़चिड़ाहट भी होने लगी.

गर्दोन फ़ार्मेसी वाली बोतल में स्प्रिट लाया था, जिस पर काँच का ढक्कन था. स्प्रिट काला बाज़ारियों की सबसे पसंदीदा विनिमय की चीज़ थी.

अन्तनीना अलेक्सान्द्रव्ना बोतल को हाथ से छोड़ ही नहीं रही थी और ज़रूरत के मुताबिक थोड़ी-थोड़ी मात्रा में उसमें पानी मिला रही थी, अपनी मर्ज़ी से, इससे कभी वह बहुत कटु, तो कभी बेहद पतला हो जाता. इससे ऐसा लग रहा था, कि बदलते हुए इस पेय के कारण कई लोगों को ये असमान नशा बेहद नागवार लग रहा है. इससे भी चिड़चिड़ाहट हो रही थी.

सबसे ज़्यादा दुख की बात ये थी, कि उनकी ये पार्टी उस समय के हालात के अनुरूप नहीं थी. ये कल्पना करना असंभव था कि इस गली में सामने वाले घरों में लोग इसी समय इसी तरह से खा-पी रहे होंगे. खिड़की से बाहर था गूँगा, अँधेरा और भूखा मॉस्को.

उसकी दुकानें खाली थीं, और जंगली बत्तख और वोद्का जैसी चीज़ों के बारे में सोचना भी लोग भूल गए थे.

और ऐसा लगा कि सिर्फ वही जीवन, जो चारों ओर के लोगों के जीवन के समान है और उसमें पूरी तरह घुल मिल गया है, वही वास्तविक जीवन है, और अलग-थलग सुख कोई सुख नहीं होता, कि बत्तख और स्प्रिट, जो शहर में शायद इकलौते हैं, वह भी बिल्कुल बत्तख नहीं है, और बिल्कुल स्प्रिट नहीं है. इसका सबसे ज़्यादा दुख हो रहा था.

मेहमान भी इन उदासी भरे विचारों का स्त्रोत थे. गर्दोन तभी तक अच्छा था, जब तक वह गहराई से विचार कर रहा था, और उनींदे और बेतरतीब तरीके से स्वयम् को प्रकट कर रहा था. वह यूरी अन्द्रेयेविच का बेहतरीन दोस्त था. स्कूल में सब उसे पसन्द करते थे.

मगर अब वह ख़ुद को ही नापसंद करने लगा था और अपनी नैतिक छबि में असफ़ल संशोधन करने लगा था. वह ख़ुद पर ही ख़ुश हो रहा था, मज़ाकिया चेहरा बनाता, पूरे समय कुछ न कुछ व्यंगात्मक जैसा सुना रहा था, और अक्सर “दिलचस्प” और “मनोरंजक” इन शब्दों का प्रयोग कर रहा था, ये शब्द उसके शब्दकोष में नहीं थे, क्योंकि गर्दोन जीवन को कभी भी मनोरंजक नहीं समझता था.

दुदोरव के आने से पहले वह उसकी शादी के बारे में एक मज़ाकिया, जैसा उसे लगता था, किस्सा सुना रहा था, जो मित्रों को ज्ञात था. यूरी अन्द्रेयेविच इस बारे में नहीं जानता था.

लगता है, कि दुदोरव की शादी साल भर तक चली, और फिर वह बीबी से अलग हो गया. इस साहसी कारनामे का असंभव-सा सारांश इस प्रकार था:

दुदोरव को गलती से फ़ौज में ले लिया गया था. जब तक वह काम करता रहा और इस ग़लतफ़हमी की जाँच होती रही, उसे सब से ज़्यादा सज़ा अपने भुलक्कड़पन और रास्ते पर अफ़सरों को सैल्यूट न करने के लिए मिलती थी. जब उसे आज़ाद किया गया तो काफ़ी समय तक फ़ौजी अफ़सरों को देखते ही उसका हाथ ऊपर उठ जाता, आँखों के सामने धुँध छा जाती और हर जगह कंधों पर लगे पदसूचक फ़ीते ही नज़र आते.        

उन दिनों वह हर काम अंधाधुंध तरीके से करता, कई गलतियाँ कर देता, गलत कदम उठाता. इसी समय वोल्गा के तट पर उसी स्टीमर का इंतज़ार कर रही दो लड़कियों से मिला, दोनों बहनें थीं, और आसपास कई सारे फ़ौजियों के होने के कारण और अपनी सैल्यूट करने की आदत से लाचार, भुलक्कड़पन में, उसने ठीक से नहीं देखा, ग़लती से प्यार करने लगा और जल्दी से छोटी बहन से शादी का प्रस्ताव कर बैठा.

“मज़ेदार है, है ना?” गर्दोन ने पूछा. मगर उसे अपने वर्णन को रोकना पड़ा. दरवाज़े के पीछे कहानी के नायक की आवाज़ सुनाई दी.

दुदोरव कमरे में आया.

उसमें बिल्कुल विपरीत परिवर्तन हो गया था. पहले वाला चंचल और सनकी छिछोरा लड़का अब एक एकाग्र विद्वान में परिवर्तित हो गया था.

जब उसे जवानी में राजनैतिक पलायन के आयोजन में भाग लेने के लिए स्कूल से निष्कासित कर दिया गया था, तो कुछ समय तक वह अनेक कला-विद्यालयों के चक्कर लगाता रहा, मगर आख़िर में क्लासिकल साहित्य के किनारे पर पहुँच गया. अपने मित्रों के मुकाबले दुदोरव ने देर से युद्ध के सालों के दौरान विश्वविद्यालय की शिक्षा पूरी की और उसे दो विभागों में रख लिया गया – रूसी और सामान्य इतिहास विभागों में. पहले विभाग में उसने इवान दि टेरिबल की भूमि संबंधी नीति पर कुछ लिखा, और दूसरे में सेन्ट-जूस्ट के बारे में शोध कार्य किया.

अब वह हर चीज़ के बारे में प्यार से धीमी आवाज़ में तर्क करता, जैसे उसे ज़ुकाम हो गया हो, एक ही बिंदु की ओर देखते हुए, मानो सपना देख रहा हो और नज़र हटाए और उठाए बिना, जैसे भाषण पढ़ रहा हो.       

पार्टी के आख़िर में, जब शूरा श्लेज़िंगर किसी आक्रामक की तरह घुसी, और सभी, जो वैसे भी तैश में थे, एकसाथ चिल्ला रहे थे, इन्नोकेन्ती ने, जिससे यूरी अन्द्रेयेविच स्कूल के दिनों से ही “आप” से मुख़ातिब होता था, कई बार पूछा :   

“क्या आपने “युद्ध और शांति” और “स्पाइन-फ्ल्यूट” पढ़ी है?

यूरी अन्द्रेयेविच उससे पहले ही कह चुका था कि इस बारे में क्या सोचता है, मगर चारों ओर चल रही बहस के कारण दुदोरव ने सुना नहीं था और इसलिए, कुछ देर रुक कर फिर से पूछा:

“क्या आपने “स्पाइन–फ्ल्यूट” और “इन्सान” पढ़ी है?”

 “मैं आपको जवाब दे चुका हूँ, इन्नोकेन्ती. आपने सुना नहीं, ये आपका कुसूर है. चलिए, जैसी आपकी मर्ज़ी. फ़िर से कहता हूँ. मायकोव्स्की मुझे हमेशा से अच्छा लगता था. ये, जैसे दस्तयेव्स्की की निरंतरता है. या ज़्यादा सही होगा ये कहना, कि ये काव्य है, जिसे उसके कनिष्ठ आंदोलनकारी पात्रों में से किसी एक ने, जैसे इप्पोलित, रास्कोल्निकव, या दि टीन एजर” के नायक लिखा है. प्रतिभा की कैसी सब कुछ आत्मसात करने की शक्ति है! कैसे ये एक ही बार, मगर हमेशा के लिए, कठोरता से और दो टूक कहा गया है! और ख़ास बात, कैसी बहादुरी से ये सब समाज के मुँह पर, और उससे भी कहीं आगे, समूचे अंतरिक्ष में फेंका गया है!    

मगर पार्टी का प्रमुख आकर्षण, बेशक, मामा थे. अंतनीना अलेक्सान्द्रव्ना ने गलत कहा था, कि निकलाय निकलायेविच समर-कॉटेज में हैं. वो भाँजे के आगमन वाले दिन ही लौट आये थे और शहर में ही थे.

यूरी अन्द्रेयेविच उनसे दो-तीन बार मिल चुका था और उनसे जी भर के बातें कर चुका था, “ओह”, “आह” कर चुका था और ख़ूब ठहाके लगा चुका था.

उनकी पहली मुलाकात एक भूरी, बादलों से ढँकी शाम को हुई.

पनीली धूल जैसी हल्की बारिश हो रही थी. यूरी अन्द्रेयेविच निकलाय निकलायेविच के कमरे में आया. होटल में सिर्फ शहर के अधिकारियों के ज़ोर देने पर ही प्रवेश दिया जाता था. मगर निकलाय निकलायेविच को हर जगह लोग जानते थे. उनके पुराने सम्पर्क यथावत् थे.

होटल पागलखाने जैसा लग रहा था, जिसे उसके प्रशासनीय अधिकारी छोड़कर भाग गए थे. खालीपन, बदहवासी, सीढ़ियों और कॉरीडोर्स को उनके हाल पर छोड़ दिया गया था.

अव्यवस्थित कमरे की खिड़की से उन जुनून भरे दिनों का विस्तीर्ण सुनसान चौक झाँक रहा था, डराता हुआ, जैसे वह होटल की खिड़की के सामने न हो, बल्कि जिसे रात को सपने में देखा हो.

यह एक अद्भुत, अविस्मरणीय, महत्वपूर्ण मुलाकात थी! उसके बचपन का आदर्श, उसकी जवानी के विचारों का शासक, ज़िन्दा, हाड-माँस सहित फिर से उसके सामने खड़ा था.

निकलाय निकलायेविच के ऊपर सफ़ेद बाल बहुत फ़ब रहे थे. विदेशी चौड़ा सूट उनके ऊपर चुस्त बैठा था. अपनी उम्र के हिसाब से वह अभी भी जवान और ख़ूबसूरत लगते थे.

बेशक, अपने आसपास हो रहे परिवर्तनों की विशालता से उन्होंने काफ़ी कुछ खोया था. घटनाओं का साया उन पर पड़ रहा था. मगर उन्हें इस पैमाने से मापने की बात भी यूरी अन्द्रेयेविच के दिमाग़ में नहीं आई.

उसे निकलाय निकलायेविच के शांत स्वभाव से, ठण्डे मज़ाकिया लहज़े से, जिसमें वह राजनीतिक विषयों पर बोल रहा था, बड़ा आश्चर्य हुआ. अपने आप पर नियंत्रण रखने की उसकी क्षमता वर्तमान रूसियों से कहीं अधिक थी. इस लक्षण से प्रतीत होता था, कि वह आगंतुक है. ये लक्षण आँखों में खटकता था, पुराने फ़ैशन का और अटपटा लगता.

आह, ये सब बिल्कुल भी नहीं था, जिसने उनकी मुलाकात के आरंभिक कुछ घण्टों को स्नेहमय बना दिया था, एक दूसरे से गले मिलने पर मजबूर किया था, रोने और परेशानी से रुँधे गले से आहें भरने पर, पहले वार्तालाप की तेज़ी और गर्मजोशी के बीच बार-बार विराम लेने पर मजबूर किया था.

ये दो सृजनशील व्यक्तित्वों का मिलन था, जिनके बीच पारिवारिक संबंध था, और हालाँकि विगत मानो फिर से जीवित हो उठा, यादें हिलोरें लेने लगीं और जुदाई के दौरान हुई घटनाएँ सतह पर आ गईं, मगर जैसे ही बातचीत मुख्य मुद्दे पर आई, उन चीज़ों के बारे में जो रचनात्मक प्रकृति के लोगों को ज्ञात होती हैं, तो सारे संबंध लुप्त हो गए, सिर्फ इस एक कड़ी को छोड़कर, तब न तो मामा बचे, न भाँजा, न उम्र का फ़र्क, बल्कि बची सिर्फ निकटता प्रकृति की प्रकृति से, ऊर्जा की ऊर्जा से, सिद्धांत और सिद्धांत निकटता.

पिछले दस सालों से निकलाय निकलायेविच को लेखकत्व के आकर्षण और रचनात्मक लक्ष्य के सार के बारे में कुछ कहने का मौका ही नहीं मिला था, वो भी ऐसे वातावरण में जो उनके अपने विचारों के अनुरूप हो और स्थान के अनुकूल हों, जैसा अभी प्राप्त हुआ था. दूसरी ओर, यूरी अन्द्रेयेविच को भी ऐसी टिप्पणियाँ सुनने को नहीं मिली थीं, जो इतनी सटीक और प्रेरणादायी हों, जैसा ये विश्लेषण था.

दोनों हर मिनट चिल्ला रहे थे और कमरे में भाग रहे थे, एक दूसरे के अनुमानों की अचूकता पर सिर पकड़ते हुए, या आपसी समझ के प्रमाणों से हैरान होकर खिड़की के पास जाकर ख़ामोशी से काँच पर ज़ोर-ज़ोर से उँगलियाँ बजाते.

ऐसी थी उनकी पहली मुलाकात, मगर बाद में डॉक्टर कई बार निकलाय निकलायेविच से सभाओं में - सोसाइटी में मिला, और लोगों के बीच वह एकदम अलग, पहचान में न आनेवाला व्यक्ति था.

वह मॉस्को में अपने आप को मेहमान समझता था और इस एहसास से दूर नहीं होना चाहता था. क्या ऐसा करते समय वह पीटरबुर्ग या किसी और जगह को अपना घर समझता था, अस्पष्ट ही रहा.

राजनीतिक भाषणपटु और सामाजिक सम्मोहक की भूमिका उसे अच्छी लगती थी.

हो सकता है, उसने कल्पना की थी, कि मॉस्को में राजनीतिक-दीर्घाएँ खुलेंगी, जैसे पैरिस में कन्वेन्शन से पूर्व मैडम रोलाँ की दीर्घा थी.

वह अपनी महिला मित्रों, मॉस्को की ख़ामोश गलियों में रहने वाली मेहमान नवाज़ महिलाओं के पास गए, और बेहद प्यार से उनका और उनके पतियों का अधूरी सोच और पिछड़ेपन के लिए, हर बात का अपने ही घण्टाघर से निर्णय करने की आदत का मज़ाक उड़ाया. और अब वह अख़बारों के व्यापक ज्ञान को प्रदर्शित करता, जैसे कभी एपोक्रिफ़ के बारे में और ओर्फियस के लेखों के बारे अपनी विद्वत्ता प्रदर्शित किया करता था.     

कहते थे, कि स्विट्ज़रलैण्ड में उसका एक नया युवा शौक था, कुछ अधूरे काम थे, अधूरी लिखी हुई किताब थी और ये भी, कि वह अपनी पितृभूमि के तूफ़ानी भँवर में सिर्फ डुबकी लगाएगा, और अगर सही-सलामत ऊपर आया, तो फिर से अपने आल्प्स चला जाएगा, सब देखते रह जाएँगे.

वह बोल्शेविकों के साथ था और अक्सर उसके समान विचारधारा के दो वामपंथी समाजवादी-क्रांतिकारियों के नाम लेता था : पत्रकार, जो मिरोश्का पमोर के छद्म नाम से लिखता था और पत्रकार सिल्विया कतेरी.     

अलेक्सान्द्र अलेक्सान्द्रविच ने भुनभुनाते हुए उसे ताना दिया:

“कितना ख़ौफ़नाक है, आप कहाँ चले गए, निकलाय निकलायेविच! ये आपके मिरोश्की. कैसा गड्ढा है! और फिर आपकी लीदिया पकोरी.

“कतेरी,” निकलाय निकलायेविच ने उसे सुधारा. “और – सिल्विया.”

“ख़ैर, एक ही बात है, पकोरी हो या पोटपुरी, शब्द से कोई फ़र्क नहीं पड़ता.”

“मगर, फिर भी, माफ़ी चाहता हूँ, कतेरी,” निकलाय निकलायेविच ने फ़ौरन ज़ोर देकर कहा. उसके और अलेक्सान्द्र अलेक्सान्द्रविच के बीच ये संवाद हो रहा था:

“हम किस बारे में बहस कर रहे हैं? कुछ तथ्यों को सिद्ध करना बस शर्मनाक है. ये वर्णमाला है. आम लोगों का एक बड़ा हिस्सा सदियों से इस तरह जी रहा था, जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती. इतिहास की कोई भी पाठ्य पुस्तक उठाइये. उसका चाहे जो भी नाम हो, सामन्तवाद हो या कृषिदासत्व, या पूंजीवाद और फैक्ट्री-उद्योग, एक ही बात है, ऐसी व्यवस्था की अप्राकृतिकता और उसके अन्याय पर बहुत पहले ही ध्यान दिया गया है, और काफ़ी पहले ही क्रांति की तैयारी की जा चुकी है, जो लोगों को प्रकाश में लाएगी और हर चीज़ सही जगह पर रखेगी.

आपको मालूम है, कि पुरानी व्यवस्था का अंशतः नवीनीकरण यहाँ अनुकूल नहीं है, उसे जड़ से मिटाने की ज़रूरत है. हो सकता है कि इससे पूरी इमारत ही ढ़ह जाए. तो, फ़िर क्या? इस बात से, कि ये भयानक है, ये निष्कर्ष नहीं निकलता, कि ऐसा नहीं होगा? ये वक्त का सवाल है. इस पर बहस कैसे की जा सकती है?”

“ऐह, बात इस बारे में नहीं हो रही है. क्या मैं इस बारे में कह रहा हूँ? मैं क्या कह रहा हूँ?” अलेक्सान्द्र अलेक्सान्द्रविच गुस्सा हो गया और बहस गर्म हो गई.

“आपकी पोटपुरी और मिरोश्की का कोई ज़मीर नहीं है. कहते कुछ हैं, और करते कुछ और हैं. और पता है, इसमें तर्क कहाँ है? कोई तालमेल ही नहीं है.”

“नहीं, आप रुकिए, अभी मैं आपको दिखाता हूँ.”

और वह खड़खड़ाहट के साथ लिखने की मेज़ की दराज़ें खोलते और बंद करते हुए विवादास्पद लेख वाली कोई पत्रिका ढूँढ़ने लगा और इस धमाकेदार कसरत से अपनी वाक्पटुता को उत्तेजित कर रहा था.

अगर बातचीत के दौरान कोई बाधा डाले, और ये बाधाएँ उसके अस्पष्ट विरामों, उसकी “ए-ए-ए” और “अम्-अम्–अम्”वाली बड़बड़ाहट को औचित्य प्रदान करें, तो अलेक्सान्द्र अलेक्सान्द्रविच को अच्छा लगता था. अक्सर किसी खोई चीज़ को ढूँढ़ते समय वह बातूनी हो जाता, जैसे, प्रवेश कक्ष के धुँधलके में एक गलोश के लिए दूसरी गलोश ढूँढ़ते हुए, या फिर जब कँधे पर तौलिया डाले वह बाथरूम की देहलीज़ पर खड़ा रहता, या खाने की मेज़ पर भारी बर्तन स्थानांतरित करते हुए, या मेहमानों के जामों में वाईन डालते हुए.                                  

यूरी अन्द्रेयेविच प्रसन्नता से श्वसुर की बात सुन रहा था. उसे यह भली-भाँति परिचित पुराने मॉस्को की सुरीली बोली बेहद पसन्द थी, जो नर्म, गले से आती हुई लगती, जो ग्रमेका की ख़ासियत थी.

पतली-पतली मूँछों वाले अलेक्सान्द्र अलेक्सान्द्रविच का ऊपरी होंठ निचले होंठ से कुछ बाहर निकलता था. वैसे ही उसकी बो-टाई भी सीने पर फूली होती थी. इस होंठ और टाई में कोई बात मिलती-जुलती थी, और वह अलेक्सान्द्र अलेक्सान्द्रविच को एक दिल को छू लेने वाली, बच्चों जैसी विश्वसनीयता प्रदान करती थी.          

देर रात को, जब मेहमान करीब-करीब जाने ही वाले थे, शूरा श्लेज़िंग़र प्रकट हुई. वह किसी मीटिंग से जैकेट और ड्यूटी-कैप में सीधे यहाँ पहुँची थी, निर्णायक कदमों से कमरे में आई और, बारी-बारी से हाथ मिलाते हुए सबका अभिवादन करते हुए ही तानों और इल्ज़ामों में लिप्त हो गई.

“नमस्ते, तोन्या. नमस्ते सानेच्का. कुछ भी कहिए, ये ओछापन है. सब जगह से सुनकर आ रही हूँ, कि आ गया है, सारा मॉस्को इस बारे में कह रहा है, मगर आपके मुँह से सबसे आख़िर में सुना. चलो, शैतान ले जाए. ज़ाहिर है, मैं इस लायक नहीं थी. कहाँ है वह, जिसकी कबसे राह देख रहे हैं? जाने दीजिए.

दीवार की तरह घेर कर खड़े हो गए. ओह, नमस्ते! शाबाश, शाबाश. पढ़ा मैंने. कुछ भी समझ में नहीं आया, मगर शानदार है. फ़ौरन पता चल जाता है. नमस्ते, निकलाय निकलायेविच. मैं अभी तुम्हारे पास लौटती हूँ, यूरच्का. मुझे तुमसे एक ख़ास, लम्बी बात करनी है. नमस्ते, नौजवानों. आह, और तू भी यहाँ है, गोगच्का? गुसी, गुसी, गा-गा-गा, कुछ खाना है, आ-आ-आ?”

ये अंतिम उद्गार ग्रमेका के दूर के रिश्तेदार गोगच्का के लिए था, जो हर उभरती हुई ताकत का प्रशंसक था, जिसे बेवकूफ़ी और मज़ाहियापन के लिए अकूल्का कहते थे, और लम्बे कद और दुबलेपन के लिए – फ़ीता कृमि.    

“और आप सब यहाँ गा रहे हैं और खा रहे हैं? अभी मैं आपको पकड़ती हूँ. आह, महाशय, महाशय. आप लोग कुछ भी तो नहीं जानते, कुछ भी नहीं देखते!

दुनिया में क्या हो रहा है! कैसी कैसी घटनाएँ हो रही हैं! किसी असली ज़मीनी स्तर की मीटिंग में जाइए, असली मज़दूरों के साथ, अकाल्पनिक सैनिकों के साथ, जो साहित्य से नहीं निकले हैं. वहाँ युद्ध के बारे में कुछ कहिए, अंतिम विजय प्राप्त होने तक. वहाँ आपको अंतिम विजय दिखाएँगे! मैं अभी एक नाविक को सुन रही थी! यूरच्का, तुम पागल हो जाते! कैसा जुनून! कैसी प्रामाणिकता!”

शूरा श्लेज़िंगर को बीच बीच में टोकते रहे. सब चिल्ला रहे थे, कोई लकड़ियों के बारे में, कोई ईंधन के बारे में. वह यूरी अन्द्रेयेविच के पास बैठ गई, उसका हाथ पकड़ा और, उसके पास मुँह ले जाकर, ताकि औरों से ज़्यादा ज़ोर से चिल्ला सके, बिना आवाज़ को ऊपर-नीचे किए चिल्लाई, जैसे लाउडस्पीकर में चिल्लाते हैं.  

“कभी मेरे साथ चलो, यूरच्का. मैं तुम्हें लोग दिखाऊँगी.

तुम्हें ज़रूर, ज़रूर जाना चाहिए, समझ रहे हो, अंटेयस के समान धरती को छूना चाहिए. ये तुम आँखें क्यों निकाल रहे हो? शायद, मैं तुम्हें आश्चर्यचकित कर रही हूँ? क्या तुम नहीं जानते कि मैं पुराना युद्ध का घोड़ा हूँ, पुरानी बेस्तुझेविस्ट हूँ, यूरच्का. आरंभिक कैद क्या होती है, जानती हूँ, बैरिकेड्स पर लड़ चुकी हूँ.

“बेशक! और तुमने क्या सोचा? ओह, हम लोगों को नहीं जानते! मैं अभी-अभी वहाँ से, उनके बीच से आई हूँ. मैं उनके लिए लाइब्रेरी बना रही हूँ.”

वह एक घूँट पी चुकी थी और ज़ाहिर था कि उस पर नशा चढ़ रहा था मगर यूरी अन्द्रेयेविच के सिर में भी झनझनाहट हो रही थी. उसने ग़ौर ही नहीं किया कि कैसे शूरा श्लेज़िंगर कमरे के एक कोने में चली गई, और वह दूसरे कोने में, मेज़ के अंत में. वह खड़ा था और सभी लक्षणों को देखते हुए, अपनी अपेक्षा से परे, बोल रहा था. ख़ामोशी फ़ौरन नहीं छाई.

“महाशय, मैं चाहता हूँ...मीशा! गोगच्का! मगर करें क्या, तोन्या, अगर वे सुनें नहीं तो? महाशय, मुझे दो शब्द कहने दीजिए. कुछ अनसुना-सा अभूतपूर्व-सा होने वाला है. इससे पहले कि वह हमें दबोच ले, मेरी आपके लिए ये कामना है. जब वह होगा, ख़ुदा करे कि हम एक-दूसरे को न खो दें और अपनी आत्मा को न खो दें. गोगच्का, आप हुर्रेबाद में चिल्लाना. मैंने अपनी बात अभी ख़त्म नहीं की है. वहाँ कोनों में. कृपया बातें बंद करें और ध्यान से सुनें.

युद्ध के तीसरे साल में लोगों के मन में ये धारणा पक्की हो गई थी, कि देर-सबेर मोर्चे और पिछली पंक्तियों की सीमा रेखा मिट जाएगी, खून का सैलाब हरेक के पास पहुँचेगा और उन सब को डुबो देगा, जो बैठे रहे और जिन्होंने अपने आप को खाइयों में छुपा लिया.

क्रांति ही ये सैलाब है.

उसके दौरान हमें ऐसा लगता रहेगा, जैसा कि हमें युद्ध में लगता है, कि ज़िंदगी रुक गई है, सब कुछ, जो व्यक्तिगत है, ख़त्म हो गया है, कि दुनिया में इसके बाद कभी कुछ नहीं होगा, और सिर्फ या तो मारेंगे या मरेंगे, और अगर हम वक्त के इस दौर के बारे में नोट्स और यादें लिखने तक ज़िंदा रहे, और इन यादों को पढेंगे, तो हमें यकीन हो जायेगा कि इन पाँच या दस सालों में हमने अपेक्षाकृत कहीं ज़्यादा सहा है, जो अन्य लोगों ने पूरी शताब्दी में झेला है.

मैं नहीं जानता, कि क्या लोग ख़ुद उठेंगे और दीवार की तरह आगे बढ़ेंगे, या ये उनके नाम से किया जाएगा. इतने विशाल परिमाण की घटना से किसी नाटकीय प्रमाण की माँग नहीं की जाती. मैं इसके बिना ही उस पर विश्वास कर लूँगा. विशाल घटनाओं के कारणों को ढूँढ़ना ओछापन है. वे होते नहीं हैं.

घरेलू झगड़ों के अपने कारण होते हैं, और एक दूसरे को बालों से पकड़कर खींचने और कुछ बर्तन फ़ोड़ने के बाद, ये समझना मुश्किल है कि शुरुआत किसने की थी. मगर वास्तविक महान कार्य का कोई आरंभ नहीं होता, ब्रह्माण्ड की तरह. वह अचानक प्रकट हो जाता है, बिना उत्पत्ति के, जैसे हमेशा से ही विद्यमान था या आसमान से टपका था.

मैं ये भी सोचता हूँ, कि विश्व में रूस का पहला समाजवादी राज्य बनना तय है. जब ये होगा, तो दीर्घकाल तक हमें स्तब्ध कर देगा, और, होश में आने पर हम खोई हुई याद वापस नहीं लौटा पायेंगे. हम विगत का अंश भूल जायेंगे और इस अभूतपूर्व घटना का स्पष्टीकरण नहीं ढूँढेंगे. नई व्यवस्था हमें चारों ओर से घेर लेगी – क्षितिज पर फ़ैले जाने पहचाने जंगल की तरह या सिर के ऊपर छाए बादलों की तरह. वह हमें चारों ओर से घेर लेगी. कुछ और होगा ही नहीं.”

उसने कुछ और भी कहा और इस बीच पूरी तरह होश में आ गया. मगर पहले ही की तरह उसे अच्छी तरह सुनाई नहीं दे रहा था, कि उसके चारों ओर क्या बातें हो रही हैं, और सही जवाब नहीं दे रहा था. उसने अपने प्रति सबका स्नेह उमड़ता हुआ देखा, मगर उस दुःख़ को भगा नहीं पा रहा था, जिसके कारण वह अपने आप में नहीं था. और उसने ये कहा:

शुक्रिया, शुक्रिया. मैं आपकी भावनाएँ देख रहा हूँ. मैं उनके योग्य नहीं हूँ. मगर इतनी कंजूसी से और इतनी जल्दबाज़ी से प्यार न कीजिए, जैसे डर के मारे कर रहे हों, कहीं फिर से और ज़्यादा शिद्दत से प्यार न करना पड़ जाए.”

सबने इसे जानबूझ कर किया गया मज़ाक समझकर ठहाके लगाए और तालियाँ बजाईं, मगर वह नहीं जानता था कि भलाई करने की अपनी पूरी ललक और सुख पाने की योग्यता के बावजूद, निकट आते हुए दुर्भाग्य के एहसास से, भविष्य में अपनी सत्ताहीनता की चेतना से बचकर कहाँ जाना है.

मेहमान जाने लगे. थकान के कारण सबके चेहरे लम्बे हो गए थे. उबासियाँ उनके जबड़ों को भींच रही थीं और खोल रही थीं, उन्हें घोड़ों जैसा बना रही थीं.

बिदा लेते हुए खिड़की का पर्दा हटा दिया. खिड़की खोल दी.

पीली-सी भोर दिखाई दी, गीला आसमान गंदे, मटमैले-फीके बादलों से ढँका हुआ.

“लगता है, जब हम बकवास कर रहे थे तो तूफ़ान आया था,” किसी ने कहा.

आपके पास आते हुए मुझे रास्ते में बारिश ने पकड़ लिया था. मुश्किल से भाग कर पहुँची थी,” शूरा श्लेज़िंगर ने पुष्टि की.            

सुनसान और अभी भी अँधेरी गली में पेड़ों से गिरती बूँदों की टपटप सुनाई दे रही थी, जिसमें गीली चिड़ियों की लगातार चहचहाहट भी शामिल हो जाती.

बिजली कड़की, जैसे किसी ने हल चलाकर पूरे आसमान में लकीरें बना दी हों, और सब कुछ शांत हो गया. और फिर रुक-रुककर चार बार उछलती हुई कड़क सुनाई दी, जैसे शरद  में फ़ावड़े से उठाए गए बड़े-बड़े आलू नीचे गिर रहे हों.

इस कड़क ने धूल और तम्बाकू के धुँए से भरे कमरे की भीतरी जगह को साफ़ कर दिया.

अचानक, बिजली के तत्वों के समान, अस्तित्व के तत्व - पानी और हवा, ख़ुशी की चाहत, धरती और आकाश भी महसूस होने लगे.

गली जाते हुए लोगों की आवाज़ों से भर गई. वे ज़ोर-ज़ोर रास्ते में किसी बात पर बहस कर रहे थे, बिल्कुल वैसे ही जैसे वे अभी-अभी घर के भीतर बहस कर रहे थे. आवाज़ें दूर होती गईं और धीरे-धीरे कम होते हुए शांत हो गईं.

“कितनी देर हो गई,” यूरी अन्द्रेयेविच ने कहा. “सोना चाहिए.

दुनिया के सभी लोगों में से मैं सिर्फ तुमसे और पापा से प्यार करता हूँ.”

 

5

अगस्त गुज़र गया. सितम्बर ख़त्म हो रहा था. अवश्यंभावीमंडरा रहा था.

शीत ऋतु पास आ रही थी, और इन्सानों की दुनिया में वह, जो सर्दियों की बेहोशी जैसा, पूर्वनियोजित था, जो हवा में तैर रहा था उसी का ज़िक्र सबके होठों पर था.

सर्दियों के लिए तैयारी करनी थी, खाने-पीने की चीज़ों का, जलाऊ लकड़ियों का संग्रह करना था. मगर पदार्थवाद (भौतिकवाद) की विजय के दिनों में पदार्थ अवधारणामें बदल गया था, भोजन और जलाऊ लकड़ियों की जगह खाद्य सामग्री और ईंधन के प्रश्न ने ले ली थी.

शहरों में लोग असहाय थे, जैसे बच्चे निकट आते अज्ञातके सामने होते हैं, जिसने अपने रास्ते में सभी स्थापित आदतों को बर्बाद कर दिया था और अपने पीछे विनाश छोड़ दिया था, हालाँकि ख़ुद भी शहर का ही आविष्कार था और शहरवासियों की निर्मिति था.

चारों ओर लोग अपने आप को धोखा दे रहे थे, खोखली बातें कर रहे थे. आम ज़िंदगी अभी भी लंगड़ा रही थी, लड़खड़ा रही थी, जर्जर टाँगों से पुरानी आदत के मुताबिक कहीं जा रही थी. मगर डॉक्टर को ज़िंदगी बदरंग नज़र आ रही थी. उसकी नज़रों से उसे मिलने वाला दण्ड छिप न सका. वह ख़ुद को और अपने परिवार को अभिशप्त समझ रहा था. सामने थी कठिन परीक्षाएँ, शायद मौत से भी सामना हो सकता था.

गिने चुने दिन, जो उनके लिए बचे थे, आँख़ों के सामने पिघलते जा रहे थे.

अगर रोज़मर्रा के छोटे-मोटे काम, मेहनत और परेशानियाँ न होतीं तो वह पागल हो जाता. पत्नी, बच्चा, पैसे कमाना – ये उसे सुरक्षित रखे हुए थे, - रोज़मर्रा की सीधी-सादी ज़िंदगी, नौकरी, मरीज़ों के देखने जाना.

वह समझ रहा था, कि भविष्य की इस अजस्त्र मशीन के सामने वह एक बौना है, वह उससे डरता था, इस भविष्य से प्यार करता था और मन ही मन उस पर गर्व करता था, और अंतिम बार, जैसे बिदा ले रहा हो, प्रेरणा की लालची नज़रों से बादलों और पेड़ों को, रास्ते पर चलते हुए लोगों को, इस बड़े, दुर्भाग्य का सामना करते हुए शहर को देख रहा था, और ख़ुद को कुर्बान करने के लिए तैयार था, ताकि कुछ बेहतर हो सके, और कुछ नहीं कर पा रहा था.                   

इस आसमान और आने जाने वालों को वह अक्सर फुटपाथ के बीच से, अर्बात स्ट्रीट पार करते हुए रशियन डॉक्टर्स सोसाइटी की फ़ार्मेसी के पास, स्ताराकन्यूशेन्नी गली के नुक्कड़ पर देखा करता.

वह अपने पुराने हॉस्पिटल में फिर से काम पर जाने लगा. उसे पुराने नाम “होली क्रॉस” से ही जानते थे, हाँलाकि इस नाम की सोसाइटी भंग कर दी गई थी. मगर हॉस्पिटल के लिए अभी कोई उचित नाम नहीं ढूँढ़ पाये थे.

उसमें भेदभाव आरंभ हो गया था. औसत दर्जे के लोगों को, जिनकी बेवकूफ़ी डॉक्टर को गुस्सा दिलाती थी, वह ख़तरनाक प्रतीत होता, राजनीतिक क्षेत्र में दूर जा चुके लोगों को अपर्याप्त “लाल” (यहाँ क्रांतिकारी से तात्पर्य है – अनु.) प्रतीत होता. इस तरह वह न तो इनमें शामिल था, न उनमें, एक किनारे से छिटक गया था, दूसरे पर पहुँच नहीं पाया था.       

हॉस्पिटल में उसके अपने कामों के अलावा डाइरेक्टर ने उसे पूरी सांख्यिकीय रिपोर्टिंग की देखरेख की ज़िम्मेदारी भी सौंप दी. कैसे कैसे फॉर्म्स, प्रश्नावलियाँ उसे देखने पड़ते थे, कैसे कैसे अनुरोध पत्रक भरने पड़ते थे!

म्रुत्यु दर, बीमारी का प्रसार, कर्मचारियों की सांपत्तिक स्थिति, उनकी नागरिक चेतना का स्तर, और चुनावों में भाग लेने का दर्जा, ईंधन, रसद, दवाओं की अपर्याप्त मात्रा में आपूर्ति, केन्द्रीय सांख्यिकी कार्यालय को सबमें दिलचस्पी थी, हर बात का जवाब चाहिए था.

स्टाफ़ रूम की खिड़की के पास अपनी पुरानी मेज़ पर डॉक्टर इन्हीं सब बातों में व्यस्त था. उसके सामने अलग-अलग तरह के ग्राफ़-पेपर्स के गट्ठे पड़े थे, जिन्हें उसने एक ओर सरका दिया था. बीच बीच में अपने चिकित्सा-शास्त्र संबंधी शोधकार्य पर नोट्स लिखने के अलावा वह “लोगों का खेल” नामक अपनी निराशा भरी डायरी या उन दिनों की पत्रिका लिखता, जिसमें गद्य, पद्य और हर तरह की रचनाएँ होतीं, जो इस चेतना से प्रेरित थीं कि लोगों का आधा हिस्सा वो नहीं रहा, जैसा वह है और पता नहीं कौनसी भूमिका खेल रहा है.    

सफ़ेद रंग से पुती दीवारों वाला उजला स्टाफ़ रूम सुनहरे शरद के सूर्य की दूधिया रोशनी से नहाया हुआ था, जो डॉर्मिशन (वर्जिन मेरी के स्वर्ग में प्रस्थान करने का दिन – अनु.) के बाद वाले दिनों की विशेषता है, जब सुबह पहला पाला गिरता है और बिरली होती गई झाड़ियों के शोख़ झुरमुट में नीलकण्ठ एवम् अनेक प्रकार के पंछी उड़कर आते हैं. ऐसे दिनों में आसमान अपनी चरम ऊँचाई तक उठ जाता है और उसके तथा धरती के बीच हवा के पारदर्शक स्तम्भ से उत्तर से बर्फीली गहरी-नीली स्पष्ट चमक बिखेरता है.

दुनिया में हर चीज़ की दृश्यता और श्रव्यता बढ़ जाती है. बर्फीली झंकार में दूरियाँ ध्वनि संचारित करती हैं – स्पष्टता से और अलग-अलग. दूरियाँ साफ़ हो जाती हैं, जैसे पूरी ज़िंदगी से होते हुए अगले अनेक वर्षों तक का दृश्य दिखा रही हों. इस विरलता को बर्दाश्त करना असंभव हो जाता, यदि वह इतने थोड़े समय के लिए न होती और शरद ऋतु के छोटे दिन के अंत में प्रारंभिक धुँधलके की देहलीज़ पर न आई होती.      

ऐसा प्रकाश स्टाफ़ रूम को आलोकित कर रहा था, जल्दी डूबते शरद ऋतु के सूर्य का प्रकाश, रसीला, काँच जैसा और पनीला, जैसे पका हुआ सेब.

डॉक्टर टेबल के पास बैठा था, कलम को स्याही में डुबोते, सोच रहा था और लिख रहा था, और स्टाफ़ रूम की बड़ी-बड़ी खिड़कियों के पास से कुछ ख़ामोश पंछी उड़ रहे थे, कमरे में बेआवाज़ परछाइयाँ डालते हुए, जो डॉक्टर के हाथों को, फॉर्म्स वाली मेज़ को, स्टाफ़ रूम के फर्श को और दीवारों को ढाँक रही थीं, और वैसे ही बेआवाज़ लुप्त हो जातीं.

मैपल के पत्ते झड़ रहे हैं,” भीतर आते हुए चीर-फाड विशेषज्ञ ने कहा, जो कभी हट्टा कट्टा आदमी था, मगर अब दुबला होने के कारण जिसकी खाल लटक रही थी. ”बारिश की झडी ने उसे खूब सींचा, हवाएँ थपेड़े लगाती रहीं, और उसे जीत न सकीं. मगर, देखो सुबह के पाले की एक मार ने क्या कर दिया!”

डॉक्टर ने सिर उठाया. वाकई में, खिड़की के पास से गुज़रते हुए रहस्यमय पंछी असल में रेड-वाइन के रंग के मैपल के पत्ते थे, जो हवा में हल्के से तैरते हुए उड़कर दूर चले गए थे, और उभरे हुए नारंगी सितारों की तरह हॉस्पिटल के लॉन की घास पर पेड़ों के एक ओर पड़े थे.                                

“क्या खिड़कियों को सर्दियों के लिए सील कर दिया?” चीर-फ़ाड़ विशेषज्ञ ने पूछा.

 “नहीं,” यूरी अन्द्रेयेविच ने कहा और लिखता रहा.

“ये क्या बात हुई? समय आ गया है.”

लिखने में डूबे यूरी अन्द्रेयेविच ने कोई जवाब नहीं दिया.

“ऐह, तरास्यूक नहीं है,” चीर-फ़ाड़ विशेषज्ञ कहता रहा. “बढ़िया आदमी था. जूते भी दुरुस्त करता था. और घड़ी भी. और सब करता था. और दुनिया में कोई भी चीज़ हासिल कर लेता था. मगर खिड़कियाँ सील करने का समय हो गया है. ख़ुद ही करना पड़ेगा.”

“पुट्टी नहीं है.”

“मगर आप ख़ुद भी बना सकते हैं. ये रहा तरीका.और चीर-फ़ाड़ विशेषज्ञ ने समझाया कि कैसे अलसी के तेल और चॉक से पुट्टी बनाई जाती है. “चलिए, ठीक है. मैं आपको डिस्टर्ब कर रहा हूँ.”

वह दूसरी खिड़की के पास चला गया और अपने फ्लास्कों और घोलों में व्यस्त हो गया.

अँधेरा होने लगा. एक मिनट बाद उसने कहा:

“आँखें ख़राब कर लेंगे. अँधेरा हो गया है. बिजली नहीं देंगे. चलिए, घर चलें.”

“थोड़ी देर और काम कर लेता हूँ. करीब बीस मिनट.”

“उसकी बीबी यहाँ अस्पताल में दाई है.”

“किसकी?”

“तरास्यूक की”.

जानता हूँ.”

“और वह ख़ुद, पता नहीं कहाँ है. सारी दुनिया में भटकता रहता है. गर्मियों में दो बार मिलने आया था. हॉस्पिटल में आया था. अब किसी गाँव में है. नई ज़िंदगी की नींव रख रहा है. ये बोल्शेविकों के उन सैनिकों में से है, जिन्हें आप मुख्य मार्गों पर या रेलों में देखते हैं. और इस पहेली का जवाब चाहते हैं? तरास्यूक की, मिसाल के तौर पर? सुनिए. ये एक हरफ़नमौला है. कोई भी काम बिगाड़ ही नहीं सकता. चाहे जो भी काम हाथ में ले, उस पर उसका पूरा नियंत्रण होता है. युद्ध में भी उसके साथ यही हुआ. उसे भी सीख लिया – हर कारीगरी की तरह. बेहतरीन निशानेबाज़ निकला. खाइयों में, चुपके से. आँख, हाथ – पहले दर्जे के! सारे तमगे उसे बहादुरी के लिए नहीं, बल्कि इसलिए मिले कि उसका निशाना कभी नहीं चूका. ख़ैर. हर काम उसके लिए जुनून बन जाता है. युद्ध के काम से भी प्यार हो गया. देखा, कि हथियार एक ताकत है, जिसका इस्तेमाल वह कर सकता है. ख़ुद ही ताकत बनने की इच्छा पैदा हो गई. हथियारबन्द आदमी, सिर्फ सीधा-सादा आदमी नहीं रह जाता. पुराने ज़माने ऐसे लोग निशानेबाज़ों से डाकू बन गए. अब उसके हाथ से संगीन छीनो, कोशिश तो करो. और अचानक कमाण्ड सुनाई देती है : “संगीन घुमा” वगैरह. उसने संगीन घुमा दी. यही है पूरी कहानी. और पूरा मार्क्सिज़्म.

“और ऊपर से पूरा असली, सीधे ज़िंदगी से आया है.और आपने क्या सोचा?”                    

 चीर फ़ाड़ विशेषज्ञ अपनी खिड़की के पास चला गया, अपने फ्लास्कों में कुछ ढूँढ़ता रहा. फिर उसने पूछा:

“और भट्टी वाला कैसा है?”

“शुक्रिया, कि आपने उसकी सिफ़ारिश की. बेहद दिलचस्प आदमी है. करीब घण्टा भर हम हेगेल और बेनेडिट्टो क्रोचे के बारे में बहस करते रहे.”

“और क्या! उसके पास हीडेलबर्ग युनिवर्सिटी की दर्शनशास्त्र की डॉक्टरेट है. और भट्टी?”

“पूछिये मत.”

“धुँआ छोड़ती है?”

“बस मुसीबत है.

“उसने पाइप गलत जगह पर लगा दिया. उसे भट्टी के भीतर रखना चाहिए, मगर उसने आराम से भट्टी की खिड़की में निकाल दिया.”

“हाँ, उसने भट्टी में ही लगाया. मगर धुँआ छोड़ रही है.”

“मतलब, धुँए वाला पाइप उसे नहीं मिला, इसलिए खिड़की के रास्ते से ले गया. और फिर निकास पाइप में. ऐह, तरास्यूक नहीं है! मगर आप कुछ सब्र कीजिए. मॉस्को कोई एक दिन में तो नहीं बना था. भट्टी गरमाना पियानो बजाने जैसा नहीं है. सीखना पड़ता है. लकड़ियाँ जमा कर लीं?”

“कहाँ से लाना होगा?”

“मैं आपके पास चर्च के चौकीदार को भेजूँगा. लकड़ी चोर है. फ़ेन्सिंग पर हाथ साफ़ करके ईंधन के लिए लकड़ी चुराता है. मगर आगाह कर देता हूँ. मोल-भाव करना पड़ेगा. या फिर-दवा मार औरत को भेजता हूँ.”

“दवा मार क्यों?” डॉक्टर ने कहा. “हमारे यहाँ खटमल नहीं हैं.”

“ये खटमल कहाँ से आ गए? मैं फ़ोमा के बारे में कह रहा हूँ, और आप कह रहे हैं एरेमा के बारे में. खटमल नहीं, लकड़ियाँ. उसके पास सब कुछ पक्के बिज़नेस के तरीके से होता है. ईंधन के लिए घर और फ्रेम्स खरीदती है. अच्छी सप्लायर है. देखिए, ठोकर न खाइए, अँधेरा कितना गहरा है. मैं कभी आँखों पर पट्टी बाँध कर भी इस भाग में जा सकता था. हर पत्थर को जानता था. प्रेचिस्तेन्स्की का हूँ. मगर फेन्सिंग गिराने लगे, और खुली हुई आँख़ों से भी कुछ भी नहीं पहचान सकता, जैसे पराए शहर में हूँ. ऊपर से कैसे-कैसे ओने-कोने ढूँढ निकाले हैं!

“शाही घर झाड़ियों में, गोल गार्डन टेबल्स, आधी सड़ी बेंचें. कुछ दिन पहले एक खाली जगह से गुज़र रहा था, तीन गलियों के नुक्कड़ पर. देखता क्या हूँ, कि सौ साल की बुढ़िया छड़ी से ज़मीन खोद रही है. “ख़ुदा मदद करे,” मैंने कहा, “दाददी, केंचुए निकाल रही हो, मछलियाँ पकड़ती हो क्या?” ज़ाहिर है, मज़ाक में कहा था. मगर उसने संजीदगी से कहा, “बिल्कुल नहीं, मालिक – कुकुरमुत्ते!” और सही में, शहर जैसे जंगल जैसा हो गया है. सडे हुए पत्तों की, कुकुरमुत्तों की गंध भरी है.”

“मैं इस जगह को जानता हूँ. ये सिरेब्र्यानी और मल्चानोव्का के बीच में है, है न? मेरे साथ तो वहाँ से गुज़रते हुए कई चौंकाने वाली घटनाएँ होती हैं. या तो किसी आदमी से टकरा जाता हूँ, जिसे बीस साल से नहीं देखा, या कोई चीज़ मिल जायेगी. और कहते हैं, कि उस नुक्कड़ पर लूट लेते हैं. हाँ, अचरज की बात नहीं है. वह चौराहा है. स्मोलेन्स्की मार्केट के चोरों के सही-सलामत अड्डों को जाने वाली गलियों का जाल है. पकड़ लेंगे, कपड़े उतार लेंगे, और छू! खेत में हवा ढूँढ़ते रहो.”

“और स्ट्रीट लाइट्स कितनी धुँधली हैं. अचरज की बात नहीं कि खरोंचों को लालटेन कहते हैं. चोट लग ही जाती है.”

                         

6

वाकई में डॉक्टर के साथ इस जगह पर हर संभव घटनाएँ होती थीं. शरद ऋतु बीतते-बीतते, अक्टूबर की लड़ाइयों से कुछ दिन पहले, एक ठण्डी, अँधेरी शाम को इस नुक्कड़ पर वह एक आदमी से टकराया, जो फुटपाथ के बीचोंबीच बेहोश पड़ा था. 

वह आदमी हाथ फ़ैलाये पड़ा था, सिर खम्भे की ओर झुका था और पैर रास्ते पर लटके हुए थे. कभी-कभी वह रुक-रुककर वह कमज़ोर आवाज़ में कराह रहा था. डॉक्टर के ज़ोर से पूछे गए सवालों के जवाब में, जो उसे होश में लाने की कोशिश कर रहा था, वह कुछ कुछ असंबद्ध सा बड़बड़ाया और फिर से कुछ देर के लिए बेहोश हो गया. उसका सिर फूटा हुआ और खून से लथपथ था, मगर डॉक्टर ने सरसरी नज़रों से निरीक्षण करते हुए देखा कि खोपड़ी की हड्डियाँ सही-सलामत थीं. पड़ा हुआ आदमी निश्चय ही सशस्त्र डकैती का शिकार था. “ब्रीफ़केस, ब्रीफ़केस”, दो-तीन बार वह फुसफुसाया.

अर्बात पर स्थित पास ही की फ़ार्मेसी से फोन करके डॉक्टर ने हॉली क्रॉससे जुड़े हुए बूढ़े गाड़ीवान को बुलाया और अनजान व्यक्ति को अस्पताल ले गया.

पीड़ित व्यक्ति प्रसिद्ध राजनीतिक कार्यकर्ता निकला. डॉक्टर ने उसे ठीक किया और उसके रूप में कई वर्षों तक उसे एक संरक्षक मिल गया, जिसने इस संदेहों और अविश्वास से भरे समय में कई ग़लतफ़हमियों से बचाया.

 

7

इतवार का दिन था. डॉक्टर व्यस्त नहीं था. उसे काम पर नहीं जाना था. सिव्त्सेव वाले उनके घर में सर्दियों के लिए वे तीन कमरों में बस गए, जैसा अंतनीना अलेक्सान्द्रव्ना ने सोचा था.

ठण्डा दिन था, खूब हवा चल रही थी, निचले बर्फीले बादलों से ढँका आसमान, अँधेरा हो रहा था, ख़ूब अँधेरा.

सुबह से ही भट्टी गरमाई जा रही थी. धुँआ उठने लगा. न्यूशा गीली लकड़ियों से जूझ रही थी, जो जलने का नाम नहीं ले रही थीं. अंतनीना अलेक्सान्द्रव्ना, जो भट्टी के बारे में कुछ भी नहीं जानती थी, उसे गलत-सलत और ख़तरनाक हिदायतें दे रही थी.

डॉक्टर ने, जो ये सब देख रहा था और समझ रहा था कि क्या करना चाहिए, बीच में पड़ने की कोशिश की, मगर पत्नी ने उसके कंधे पकड़कर उसे कमरे से ये कहते हुए बाहर कर दिया:

“अपने कमरे में जाओ. सिर वैसे ही घूम रहा है और सब कुछ गड़बड़ हो रहा है, तुम्हारी तो आदत ही है कुछ न कुछ बोलने की. तुम समझ क्यों नहीं रहे हो कि तुम्हारी हिदायतें सिर्फ आग में तेल डालने का काम करेंगी.”

“ओह, तेल, तोनेच्का, ये बढ़िया रहेगा! भट्टी में पल भर में लपटें उठने लगतीं. यही तो मुसीबत है, कि मुझे न तो तेल दिखाई दे रहा है, न ही आग.” 

“अलंकार इस्तेमाल करने का भी एक वक्त होता है. कभी-कभी ऐसा भी होता है कि उन्हें इस्तेमाल न करना ही ज़्यादा अच्छा होता है.”

भट्टी वाली असफ़लता ने इतवार के सारी योजनाओं का सत्यानाश कर डाला. सबको उम्मीद थी, कि अँधेरा होने से पहले सारे ज़रूरी काम निपटा लेंगे, शाम तक फ़ुर्सत हो जाएगी, मगर अब ये नहीं हो सकता. दोपहर का भोजन टालना पड़ा, और गर्म पानी से सिर धोने की इच्छा, तथा कुछ दूसरे काम भी स्थगित करने पड़े.

जल्दी ही इतना धुँआ हो गया कि साँस लेना मुश्किल हो गया. तेज़ हवा धुँए को कमरे में वापस खदेड़ रही थी. उसमे काले धुँए का बादल छा गया, जैसे ऊँघते हुए चीड़ के जंगल के बीच परीकथाओं का कोई राक्षस खड़ा हो.              

यूरी अन्द्रेयेविच ने सबको बगल वाले कमरों में भगा दिया और वेण्टिलेटर खोल दिया. भट्टी के भीतर से उसने आधी लकड़ियाँ बाहर फेंक दीं, और बची हुई लकड़ियों के बीच छोटी-छोटी छिपटियों से और बर्च वृक्षों की छाल से आग लगा दी.

वेण्टिलेटर में ताज़ी हवा घुस आई. फड़फड़ाता हुआ खिड़की का परदा ऊपर उड़ गया. लिखने की मेज़ से कई कागज़ उड़ गए. हवा ने किसी दूर वाले दरवाज़े को थपकी दी और, सारे कोनों में घूमते हुए, जैसे बिल्ली चूहे के पीछे भागती है, वैसे बचे हुए धुँए के पीछे पड़ गई.

जलती हुई लकड़ियाँ भड़क उठीं और चटखने लगीं. भट्टी लपटों से भर गई. उसकी लोहे की सतह पर लाल-लाल धब्बे प्रकट हो गए, जैसे तपेदिक के मरीज़ के शरीर पर छाई लाली हो. कमरे में धुँआ विरल होने लगा और फिर पूरी तरह गायब हो गया.      

कमरे में कुछ उजाला हो गया. खिड़कियाँ रोने लगीं, जिन्हें यूरी अन्द्रेयेविच ने कुछ ही दिन पहले चीर फ़ाड़ विशेषज्ञ के कहने पर सील किया था. पुट्टी की गर्म, तेलिया ख़ुशबू की लहर उठी. भट्टी के निकट लकड़ी की सूखी हुई छिपटियों की ख़ुशबू आने लगी: फ़र-वृक्षों की कड़वी, गले में चुभन पैदा करने वाली गंध और एस्पन वृक्षों की ख़ुशबूदार, शौचालय के पानी जैसी, नम, ताज़गी भरी.

इसी समय कमरे में वैसी ही तेज़ी से, जैसे वेण्टिलेटर में हवा घुसी थी, निकलाय निकलायेविच कमरे में घुसा सूचना लेकर.

“रास्तों पर लड़ाई हो रही है. अस्थाई सरकार को समर्थ देने वाले कैडेट्स और बोल्शेविकों को समर्थन देने वाले गैरिसन के सैनिकों के बीच युद्ध जैसी गतिविधियाँ चल रही हैं. लगभग हर कदम पर झड़पें हो रही हैं, विद्रोह के केंद्रों की तो गिनती ही नहीं है. आप लोगों के पास आते हुए रास्ते में मैं दो या तीन बार मुसीबत में पड़ गया, एक बार बल्शाया दिमित्रोव्का के कोने पर और दूसरी बार – निकीत्स्की गेट के पास. सीधा रास्ता तो बचा ही नहीं है, घूमकर आना पड़ रहा है. हुर्रे, यूरा! कपड़े पहन और जायेंगे.

ये देखना चाहिए. ये इतिहास है, ऐसा ज़िंदगी में एक बार होता है.”

मगर वह ख़ुद ही करीब दो घण्टे बोलता रहा, फिर खाना खाने बैठे, और जब घर जाते हुए उसने डॉक्टर को भी अपने साथ घसीटा, तो गोर्दन के आगमन ने उन्हें आगाह किया. गोर्दन उसी तरह उड़ता हुआ आया था, जैसे निकलाय निकलायेविच आया था, उन्हीं सूचनाओं को लेकर.

मगर इस दौरान घटनाएँ आगे बढ़ चुकी थीं. नये विवरण सामने आ रहे थे. गोर्दन तेज़ होती गोलीबारी और मारे गए लोगों के बारे में बता रहा था, जो संयोगवश भटकी हुई गोलियों की चपेट में आ गए थे. उसके अनुसार, शहर में आवा-जाही बिल्कुल बंद है. वह किसी चमत्कारवश ही उनकी गली में घुस सका, मगर उसके पीछे, वापसी का रास्ता बंद हो गया है.

निकलाय निकलायेविच ने उसकी बात सुनी नहीं और सड़क पर झाँकने की कोशिश की, मगर एक ही मिनट बाद वापस लौट आया. उसने बताया, कि गली से बाहर जाने का रास्ता ही नहीं है, उस पर गोलियाँ सनसना रही हैं, कोनों से ईंटों और प्लास्टर के टुकड़े गिराते हुए. रास्ते पर एक भी आदमी नहीं है, फुटपाथ पर संचार टूट गया है.

इन दिनों साशेन्का को ज़ुकाम हो गया.

“मैंने सौ बार कहा है, कि बच्चे को गर्म भट्टी के पास न लाया जाए,” यूरी अन्द्रेयेविच गुस्सा कर रहा था. “अत्यधिक गर्मी ठण्ड से चालीस गुना ज़्यादा हानिकारक है.”

साशेन्का का गला दर्द कर रहा था और उसे तेज़ बुखार हो गया. मितली और वमन का अस्वाभाविक और रहस्यमय डर उसके स्वभाव का विशेष गुण था, उसे हर पल उनके आने का डर सताता रहता.

उसने यूरी अन्द्रेयेविच का लेरिंगोस्कोप वाला हाथ झटके से दूर धकेल दिया, उसे गले में नहीं डालने दिया, मुँह बंद कर लिया, चिल्लाने लगा और उसकी साँस रुकने लगी.

किसी भी तरह के समझाने का, धमकियों का असर नहीं हो रहा था. अचानक साशेन्का ने असावधानी से चौड़ी और मीठी उबासी ली, और डॉक्टर ने इसका फ़ायदा उठाया, जिससे बिजली की तेज़ी से बेटे के मुँह में चम्मच डालकर उसकी ज़ुबान को नीचे दबाए रखे और साशेन्का के लाल गले को देख सके और सफ़ेद धब्बों से ढँके उसके सूजे हुए टॉन्सिल्स को देख सके. उन्हें देखकर यूरी अन्द्रेयेविच सतर्क हो गया.

कुछ देर के बाद ऐसी ही तरकीबों से डॉक्टर साशेन्का के मुँह से थूक निकालने में सफ़ल हो गया. अलेक्सान्द्र अलेक्सान्द्रविच के पास अपना माइक्रोस्कोप था, यूरी अन्द्रेयेविच ने उसे लेकर कामचलाऊ विश्लेषण किया. सौभाग्य से ये डिफ्तेरिया नहीं था.

मगर तीसरी रात को साशेन्का को लेरिंजाइटिस का हल्का-सा दौरा पड़ा. वह बुखार से तप रहा था और उसका दम घुट रहा था. यूरी अन्द्रेयेविच से बेचारे बच्चे की ओर देखा नहीं जा रहा था, वह उसकी तकलीफ़ को दूर करने में असमर्थ था.

अंतनीना अलेक्सान्द्रव्ना को ऐसा लगा कि बच्चा मर रहा है. उसे बाँहों में उठाकर कमरे में घुमाते रहे, और उसे आराम पड़ने लगा.

उसे पिलाने के लिए दूध का, मिनरल वाटर या सोड़े का इंतज़ाम करना ज़रूरी था. मगर रास्ते पर युद्ध अपनी चरम सीमा पर था. बंदूकें और तोपों की गोलाबारी एक मिनट के लिए भी नहीं थम रही थी. अगर यूरी अन्द्रेयेविच अपनी जान को जोखिम में डालकर गोलीबारी के क्षेत्र से बाहर निकलने की हिम्मत भी करता, तो भी उसके बाहर ज़िंदगी का कोई नामो-निशान न मिलता, जो हालात के पूरी तरह स्पष्ट होने तक पूरे शहर में थम गई थी.

मगर हालात स्पष्ट थे. चारों ओर से ख़बरें आ रही थीं, कि मज़दूरों का लपड़ा भारी है. कैडेट्स के कुछ इक्का-दुक्का झुण्ड अभी भी प्रतिकार कर रहे थे, मगर वे एक दूसरे से कट चुके थे और अपने कमाण्डर से उनका सम्पर्क टूट चुका था.

सिव्त्सेव सैनिकों की गतिविधियों के क्षेत्र में था, जो दरगामीलव गेट से केंद्र की ओर दबाव डाल रहे थे. जर्मन युद्ध के सैनिक और किशोर मज़दूर, जो गली में खोदी गई खाई में बैठे थे, आसपास के घरों को जानने लगे थे और वहाँ के निवासियों से पड़ोसियों की तरह हँसी-मज़ाक कर रहे थे, जो अपने-अपने  गेट से बाहर देख रहे थे या रास्ते पर निकल आए थे.

शहर के इस हिस्से में आवागमन शुरू हो गया था.

तब अपनी तीन दिन की कैद के बाद गोर्दन और निकलाय निकलायेविच, जो झिवागो के यहाँ तीन दिनों के लिए अटक गए थे, वापस गए. साशेन्का की बीमारी के मुश्किल दिनों में उनकी मौजूदगी से यूरी अन्द्रेयेविच ख़ुश था, और अंतनीना अलेक्सान्द्रव्ना ने आम अव्यवस्था में उनके द्वारा की जा रही गड़बड़ को माफ़ कर दिया. मगर इस मेहमाननवाज़ी के प्रति आभार प्रकट करते हुए, उन दोनों ने इसे अपना कर्तव्य समझा कि मेज़बानों का निरंतर बातचीत से दिल बहलाते रहें, और यूरी अन्द्रेयेविच इस निरर्थक बकवास से इतना थक गया था कि उनसे बिदा लेते हुए उसे ख़ुशी हो रही थी.

 

8

ऐसी सूचना मिली थी, कि वे सही-सलामत घर पहुँच गए हैं, हाँलाकि इस जाँच से ये पता चल गया कि आम समझौते के बारे में अनुमान समय से पूर्व हैं. अलग-अलग जगहों पर फ़ौजी गतिविधियाँ जारी थीं, कुछ भागों से होकर जाना असंभव था, और डॉक्टर अभी तक अपने हॉस्पिटल नहीं जा पाया था, जिसकी उसे बेहद याद आ रही थी और जहाँ स्टाफ़ रूम में मेज़ की दराज़ में उसकी “खेल” और वैज्ञानिक टिप्पणियाँ पड़ी थीं.

सिर्फ आसपास के कुछ भागों में लोग सुबह बाहर निकलते और घर से कुछ दूर तक ब्रेड के लिए जाते, सामने से बोतलों में दूध लेकर आ रहे हुए लोगों को रोकते, और उसे घेर कर पूछते कि उसे दूध कहाँ से मिला है. कभी-कभी पूरे शहर में फिर से गोलीबारी शुरू हो जाती, जो लोगों को वापस खदेड़ देती. सभी अनुमान लगा रहे थे कि दोनों पक्षों में कोई बातचीत चल रही है, जिनकी सफ़लता या असफ़लता का अनुमान तेज़ अथवा कमज़ोर गोलाबारी से प्रदर्शित होता.

पुराने अक्टूबर के अंत में (क्रांति से पूर्व रूस में जुलियन कैलेण्डर का चलन था, क्रांति के बाद वहाँ अन्य देशों की तरह ग्रेगोरियन कैलेण्डर अपना लिया गया. – अनु.) रात के करीब दस बजे यूरी अन्द्रेयेविच बिना किसी ख़ास वजह के अपने एक सहयोगी के यहाँ, जो पास ही में रहता था, जल्दी-जल्दी जा रहा था. इन स्थानों पर, जो आम तौर से भीड़-भाड़ वाले होते हैं, बहुत कम लोग थे. जान-पहचान के लोग लगभग मिले ही नहीं.

यूरी अन्द्रेयेविच तेज़ी से चल रहा था. तेज़ हवा के साथ पहली, धूल जैसी महीन बर्फ गिर रही थी. हवा अधिकाधिक तेज़ होती जा रही थी. यूरी अन्द्रेयेविच के देखते-देखते बर्फ तूफ़ान में बदल रही थी.

यूरी अन्द्रेयेविच एक गली से दूसरी में मुड़ रहा था और वह भूल गया कि कितनी बार मुड़ा था, अचानक बर्फ घनी होती गई और बर्फीले बवण्डर में बदल गई, वह बवण्डर जो खुले खेत में चिंघाड़ते हुए धरती पर घिसटता है, और शहर की अंधी, तंग गलियों में भटके हुए इन्सान की तरह भागता है.

कुछ इसी तरह का घटित हो रहा था अंतर्जगत और बाह्य जगत में, पास और दूर, धरती पर और हवा में. कहीं, छोटे-छोटे टापुओं की तरह, टूट चुके विरोध की गोलियों की अंतिम बौछार गूँज रही थी. कहीं क्षितिज पर बुझती हुई आग की क्षीण लपटें गुब्बारे की तरह उठतीं और फूट जातीं. और उसी तरह चिंघाड़ते हुए बवण्डर गीले रास्तों और फुटपाथों पर यूरी अन्द्रेयेविच के पैरों के नीचे से छल्लों और नलियों को खदेड़ रहा था.                          

एक चौराहे पर “आज की ताज़ा ख़बर” चिल्लाते हुए एक अख़बार बेचने वाला छोकरा बगल में ताज़े अख़बारों का गट्ठा दबाये भागते हुए उससे आगे निकल गया.

“चिल्लर रख लो,” डॉक्टर ने कहा. लड़के ने मुश्किल से गठ्ठे से एक नम अख़बार निकाला, उसे डॉक्टर के हाथ में थमाया और उसी तरह लपक कर तूफ़ान में घुस गया, जैसे उसमें से प्रकट हुआ था.   

डॉक्टर दो कदम दूर जल रहे स्ट्रीट लैम्प के पास गया, ताकि फ़ौरन मुख्य ख़बरों पर नज़र डाल सके.

विशेष अंकमें, जो सिर्फ एक ही ओर छपा था, पीटर्सबुर्ग से सरकारी सूचना थी जन-कमिसारों की कौंसिल के गठन के बारे में, रूस में सोवियत शासन की स्थापना और सर्वहारा वर्ग की तानाशाही के आरंभ के बारे में.

आगे नई सरकार के पहले आदेश थे और टेलिग्राम और टेलिफोन्स द्वारा प्रेषित की गईं विभिन्न सूचनाएँ थीं.

बर्फीला तूफ़ान डॉक्टर की आँखों पर बुरी तरह प्रहार कर रहा था और छपी हुई पंक्तियों को नम और कुरकुरी महीन बर्फ से ढाँक रहा था. मगर इससे उसके पढ़ने में कोई बाधा नहीं पड़ रही थी. इस पल की महानता और चिरंतनता ने उसे झकझोर दिया था और संभलने का मौका नहीं दिया.

फिर भी सूचनाओं को पूरा पढ़ने के लिए वह किसी रोशनी वाली जगह की तलाश में इधर उधर देखने लगा, जो बर्फबारी से सुरक्षित हो. पता चला कि वह फ़िर से अपने जादुई चौराहे पर आ गया है और सेरेब्र्यानी और मल्चानोव्का वाले नुक्कड़ पर एक पाँच मंज़िला ऊँची बिल्डिंग के काँच से ढँके पोर्च और बिजली के प्रकाशित से आलोकित विशाल प्रवेश द्वार के पास खड़ा है,     

डॉक्टर भीतर गया और प्रवेश हॉल की गहराई में बिजली के बल्ब के नीचे टेलिग्राम्स पढ़ने में खो गया.

उसके सिर के ऊपर कदमों की आहट सुनाई दी. कोई सीढ़ियों से नीचे उतर रहा था, बीच बीच में रुकते हुए, जैसे किसी अनिश्चय की स्थिति में हो. वाकई में, नीचे उतरने वाले ने अचानक अपना इरादा बदल दिया, वह वापस ऊपर भागने लगा. कहीं दरवाज़ा खुला, और लहर की तरह दो आवाज़ें गूँजीं, मगर वे गूँज के कारण इतनी बदल गई थीं, कि कहना मुश्किल था कि वे औरतों की आवाज़ें हैं या मर्दों की. इसके बाद दरवाज़ा धड़ाम से बंद हुआ, और जो पहले सीढ़ियाँ उतर रहा था, वह अब काफ़ी निश्चय के साथ भागते हुए नीचे आने लगा.

यूरी अन्द्रेयेविच की आँखें, जो पढ़ने में तल्लीन था, नीचे झुकी हुई थीं. उसका आँखें उठाकर अनजान व्यक्ति को देखने का कोई इरादा नहीं था. मगर भागकर नीचे आया हुआ व्यक्ति रुक गया.

यूरी अन्द्रेयेविच ने सिर उठाया और उतरने वाले की ओर देखा.

उसके सामने रेण्डियर की खाल का रोएँदार कड़ा कोट, जैसा साइबेरिया में पहनते हैं, और वैसी ही फर वाली टोपी पहने, करीब अठारह साल का किशोर खड़ा था. लड़के का चेहरा साँवला था, आँखें बारीक थीं, किर्गीज़ जैसी. इस चेहरे में कुछ अभिजात वर्ग जैसी बात थी, वह चंचल चमक, वह छुपी हुई नज़ाकत, जो कहीं दूर से लाई गई हो और जो क्लिष्ट, मिश्रित खून वाले लोगों में पाई जाती है.

लड़के को वाकई में ग़लतफ़हमी हो गई थी, वह यूरी अन्द्रेयेविच को कोई और समझ बैठा था. वह अजीब परेशानी से डॉक्टर की ओर देख रहा था, जैसे उसे मालूम है, कि वह कौन है, और सिर्फ बात करने का निश्चय नहीं कर पा रहा है. इस ग़लतफ़हमी को ख़त्म करने के लिए यूरी अन्द्रेयेविच ने उस पर ठण्डी, हतोत्साहित करती नज़र डाली, जिसने निकट आने की इच्छा को समाप्त कर दिया.

लड़का परेशान हो गया और एक भी शब्द कहे बिना दरवाज़े की ओर बढ़ा. यहाँ, एक बार फिर उसने पीछे मुड़कर देखा, उसने भारी, ख़स्ताहाल दरवाज़े को खोला और झनझनाते हुए उसे बंद करके बाहर निकल गया.

करीब दस मिनट बाद यूरी अन्द्रेयेविच भी उसके पीछे बाहर निकल गया. वह लड़के के बारे में और अपने सहयोगी के बारे में भूल गया था, जिसके घर वह जाने वाला था. वह पूरी तरह पढ़े हुए समाचार में खो गया था और घर की ओर चल पड़ा. रास्ते में एक अन्य घटना ने, जो रोज़मर्रा की मामूली बात थी, जिसका उन दिनों अत्यधिक महत्व था, उसका ध्यान अपनी ओर खींच लिया और वह उसमें डूब गया.

अपने घर से कुछ ही दूरी पर, वह अँधेरे में लकड़ियों के फ़ट्टों और लट्ठों के एक बड़े ढेर से टकराया, जो रास्ते के बीचोंबीच फुटपाथ के किनारे पर गिरा पड़ा था. यहाँ गली में कोई संस्था थी, जिसके लिए शायद, सरकारी ईंधन लाया गया था. जिसे शहर की सीमा से किसी लकड़ी के घर को तोड़ कर इकट्ठा किया गया था.                                   

लट्ठे आँगन में समा नहीं रहे थे और उन्हें बगल वाले रास्ते पर डाल दिया गया था. इस ढेर की हिफ़ाज़त बंदूकधारी चौकीदार कर रहा था, जो आँगन में चक्कर लगा रहा था और कभी कभी बाहर गली में भी निकल आता.

यूरी अन्द्रेयेविच ने, बिना सोचे, उस पल को पकड़ लिया जब चौकीदार आँगन में मुड़ा, और तूफ़ान ने हवा में ख़ूब घना बर्फ का बादल उछाल दिया. वह उस तरफ़ से लट्ठों के ढेर के पास गया जहाँ छाया थी और जहाँ स्ट्रीट लाइट की रोशनी नहीं पड़ रही थी, और धीरे-धीरे हिलाते हुए उस भारी ढेर में सबसे नीचे पड़े हुए लट्ठे को आज़ाद किया. मुश्किल से उसे ढेर से बाहर खींचा और कंधे पर डालने के बाद उसके वज़न का एहसास भूल गया. (अपना बोझ भारी नहीं लगता) और चुपके से अँधेरी दीवारों के पास से उसे सिव्त्सेव में अपने घर ले गया.

ये बिल्कुल ठीक समय पर हुआ था, घर में लकड़ियाँ ख़त्म हो गई थीं. लट्ठे को छीला गया और उससे छोटी-छोटी छिपटियों का ढेर बनाया गया. यूरी अन्द्रेयेविच उकडूँ बैठकर भट्टी गरमाने लगा. भट्टी के थरथराते और खड़खड़ाते दरवाज़े के सामने वह चुपचाप बैठा था. अलेक्सान्द्र अलेक्सान्द्रविच आरामकुर्सी को चलाकर भट्टी के पास लाए और गरमाने के लिए बैठ गए. यूरी अन्द्रेयेविच ने जैकेट की बगल वाली जेब से अख़बार निकाला और ससुर की ओर ये कहते हुए बढ़ा दिया:

“ये देखा? ग़ौर फ़रमाइये. पढ़िये.”

वैसे ही उकडूँ बैठे हुए और छोटे चिमटे से भट्टी में लकड़ियाँ पलटते हुए, यूरी अन्द्रेयेविच अपने आप से ही ज़ोर से बोलने लगा:

“कैसी शानदार सर्जरी है! लो, और एक बार में ही कलात्मक तरीके से काट कर फेंक दो पुराने, गंधाते नासूर! स्पष्ट, बिना लाग-लपेट के, सुना दी सज़ा सदियों पुराने अन्याय को, जिसे इस बात की आदत थी, कि उसके सामने झुकें, घिसटें और उठक-बैठक लगाएँ.

इस बात में कि इसे बिना किसी भय के सम्पन्न किया गया, कुछ जाना-पहचाना, राष्ट्रीय-सा, अपना सा है. कुछ ऐसा, जो पूश्किन के ख़ामोशी से चमक फ़ैलाने जैसा, टॉल्स्टॉय की तथ्यों के प्रति बेहिचक विश्वसनीयता जैसा है.

“पूश्किन के? तुमने क्या कहा? रुको. मैं अभी ख़तम करता हूँ. पढ़ने और सुनने का काम मैं एक साथ नहीं न कर सकता,” अलेक्सान्द्र अलेक्सान्द्रविच ने सोचा कि यूरी अन्द्रेयेविच उनकी नाक के नीचे बैठे हुए उनसे ही कुछ कह रहा है.  

“ख़ास बात, कि आसान क्या है? अगर किसी को नई दुनिया का निर्माण करने की, नया इतिहास रचने की ज़िम्मेदारी दी गई हो, तो उसे सबसे पहले इस बात की ज़रूरत होगी कि संबंधित स्थान को साफ़ किया जाए. वह इंतज़ार करता कि नई शताब्दियों का निर्माण करने से पहले पुरानी ख़त्म हो जाएँ, उसे किसी एक निश्चित तारीख की, एक नए पैराग्राफ़ की, एक खाली पृष्ठ की ज़रूरत होती.

मगर यहाँ, मान न मान, मैं तेरा मेहमान. ये अभूतपूर्व है, ये रहस्योद्घाटन हुआ है रोज़मर्रा की ज़िंदगी की गहमागहमी के बीच, बिना उसके प्रवाह पर ध्यान दिए. इसे आरंभ से नहीं, बल्कि कहीं बीच से शुरू किया गया है, बिना किसी पूर्व चयनित समय सीमा को ध्यान में रखते हुए, सप्ताह के पहले ही दिन, शहर में घूमती ट्राम्स की चरम व्यस्तता के क्षणों में. ये सबसे ज़्यादा शानदार है. सिर्फ सबसे महान ही घटना ही इतनी अनुचित और असामयिक हो सकती है.

9

 

सर्दियाँ आ गईं, जैसा पूर्वानुमान था, वैसी ही. फ़िलहाल वह इतनी भयावह नहीं थीं, जितनी उसके पश्चात् आने वाली अगली दो सर्दियाँ, मगर थी उन्हीं की श्रेणी की, अँधेरी, भूखी और ठण्डी, हर प्रचलित चीज़ को नष्ट करने वाली और अस्तित्व के मूलभूत सिद्धांतों का पुनर्निर्माण करने वाली, अमानवीय कोशिशों से हाथों से फ़िसल रही ज़िंदगी को सुरक्षित रखने की कोशिश कर रही.

ऐसी लगातार तीन सर्दियाँ थीं, ऐसी भयानक सर्दियाँ, एक के बाद एक, और अब ऐसा लगता है कि वह सब जो सन् सत्रह से अठारह के बीच हुआ, वाकई में इसी दौरान घटित नहीं हुआ, बल्कि हो सकता है बाद में हुआ हो. ये, एक दूसरे के पीछे आने वाली सर्दियाँ एक दूसरे में ऐसी समा गई थीं कि उन्हें अलग करना मुश्किल है.

पुरानी ज़िंदगी और नई प्रथाएँ अभी एक दूसरे से मेल नहीं खा रही थीं. उनके बीच ऐसी भयानक दुश्मनी नहीं थी, जैसी साल भर बाद, गृह युद्ध के समय होने वाली थी, मगर उनके बीच संबंध भी नहीं था. ये दो पक्ष थे, एक दूसरे से भिन्न, एक पक्ष दूसरे के विरुद्ध था, और उनमें ज़रा सा भी सामंजस्य नहीं था.

हर जगह प्रबंधन समितियों के पुनः चुनाव हुए : हाउसिंग कमिटियों में, संगठनों में, दफ़्तरों में, जन सेवी संस्थाओं में. उनकी संरचना बदल गई. हर जगह पर कमिसारों की नियुक्तियाँ की गईं, जिनके पास असीमित शक्तियाँ थीं, फ़ौलादी इच्छा-शक्ति वाले लोग, जो चमड़े के काले जैकेट्स पहनते थे, जिनके पास भयभीत करने के उपाय और रिवॉल्वर्स थे, जो कभी-कभार ही दाढ़ी बनाते और बिरले ही सोते थे.

वे मध्यवर्गीय बुर्जुआ किस्म के लोगों को, छोटे-मोटे सरकारी बॉन्ड्स के धारकों को, लालची लोगों को अच्छी तरह जानते थे, और, बिना दया दिखाए, उसे मेस्टोफ़ेल्स जैसा हँसते हुए उसके साथ बातें करते, मानो किसी पकड़े गए चोर से बात कर रहे हों.

ये लोग कार्यक्रम के आदेश के अनुसार सब कुछ उलट देते थे, और उपक्रम के बाद उपक्रम, संस्था के बाद संस्था बोल्शेविक होते जा रहे थे.

होली क्राइस्टअस्पताल का नाम अब दूसरा परिवर्तित” अस्पताल हो गया था. उसमें परिवर्तन हुए. कुछ कर्मचारियों को निकाल दिया गया, और कई लोग अपने आप ही चले गए, क्योंकि वहाँ काम करना उन्हें लाभदायक नहीं लग रहा था.

ये ऐसे डॉक्टर्स थे, जो फ़ैशनेबल प्रैक्टिस से कमाई करते थे, जिन्हें सोसाइटी ने सिर चढ़ा रखा था, जो लच्छेदार और मीठी बातें करते थे. स्वार्थी कारणों से नौकरी छोड़ने को वे प्रतीकात्मक, नागरिकत्व के उद्देश्यों के अनुरूप प्रदर्शित करने से वे नहीं चूके, और बचे हुए कर्मचारियों के साथ तिरस्कारपूर्ण बर्ताव करने लगे, लगभग उनका बहिष्कार ही करने लगे. इन बचे हुए, तिरस्कृत लोगों में झिवागो भी था.

शाम को पति और पत्नी के बीच ऐसी बातें होतीं:

“बुधवार को डॉक्टरों की सोसाइटी के गोदाम से फ्रोज़न आलू लाना न भूलना. दो तीन बोरे. मैं सही-सही बताऊँगा कि मैं कितने बजे हॉस्पिटल से निकलूँगा, जिससे तुम्हारी मदद कर सकूँ. दोनों को मिलकर स्लेज पर जाना होगा.”

“अच्छा. हो जाएगा, यूरच्का. तुम जल्दी से सो जाते. देर हो गई है. एक साथ तो सारे काम तो एक साथ हो नहीं सकते. तुम्हें आराम करना चाहिए.”

“एक व्यापक महामारी. सामान्य थकावट प्रतिरोधक शक्ति को कम करती है. तुम्हारी और पापा की ओर देखने से ही डर लगता है. कुछ न कुछ करना होगा. हाँ, मगर क्या? हम पर्याप्त रूप से अपना ख़याल नहीं रख रहे हैं. और ज़्यादा सावधान रहना होगा. सुनो. तुम सो तो नहीं रही हो?”

“नहीं.”

“मैं अपने बारे में नहीं डरता, मैं काफ़ी मज़बूत हूँ, मगर यदि, उम्मीद के ख़िलाफ़, मुझे कुछ हो गया, तो प्लीज़, बेवकूफ़ी मत करना, मुझे घर में मत रखना. फ़ौरन हॉस्पिटल ले जाना.”

“ये क्या है, यूरच्का! ख़ुदा तुम्हारी हिफ़ाज़त करे. समय से पहले क्यों काँव-काँव कर रहे हो?”

“याद रखो, आजकल कोई ईमानदार नहीं है, कोई दोस्त नहीं हैं, और सबसे बड़ी बात, कोई जानकार भी नहीं हैं. अगर कुछ हो जाए, तो सिर्फ पिचूझ्किन पर भरोसा करना. ज़ाहिर है, अगर वह सही-सलामत रहा तो. तुम सो तो नहीं रही हो?”

“नहीं.”

“ख़ुद ही, शैतान, अच्छी कमाई करने चले गए, और अब, ऐसा लगता है कि ये नागरिकत्व की भावनाएँ, सिद्धांत थे. मिलते हैं, मुश्किल से हाथ मिलाते हैं. “आप उन्हींके पास काम कर रहे हैं?” और भौंहें सिकोड़ते हैं. “वहीं काम करता हूँ”, मैं कहता हूँ, “और विनती करता हूँ कि गुस्सा न हों : अपनी ख़स्ताहाली पर मुझे फ़ख्र है, और वे लोग जो हमें ख़स्ताहाली की ज़िंदगी देकर हमारा सम्मान करते हैं, उनकी मैं इज़्ज़त करता हूँ,”

 

10

लम्बे समय तक अधिकांश लोगों का प्रमुख भोजन उबला हुआ बाजरा और हैरिंग मछली के सिरों का सूप रहा. तली हुई हैरिंग सूप के बाद परोसी जाती. साबुत रई और गेहूँ का प्रयोग करते. उनसे पॉरिज बनाया जाता.  

एक परिचित महिला प्रोफेसर ने अंतनीना अलेक्सान्द्रव्ना को कमरे की ईंटों वाली भट्टी के फर्श पर कस्टर्ड ब्रेड बनाना सिखाया, जिसका कुछ हिस्सा बेचा जा सकता था, जिससे कि प्राप्त होने वाली आमदनी से बड़ी भट्टी के उपयोग को उचित ठहराया जा सके, जैसा पुराने ज़माने में किया जाता था. इससे दुखदाई अस्थाई लोहे की भट्टी से छुटकारा मिल सकता था, जो धुँआ छोड़ती थी, अच्छी तरह गरम नहीं होती थी और गर्मी नहीं रखती थी.

अंतनीना अलेक्सान्द्रव्ना की ब्रेड तो अच्छी बनी, मगर उसके व्यापार से कुछ भी हासिल नहीं हुआ. इन अव्यावहारिक योजनाओं को छोड़ना पड़ा और फिर से रख दी गई भट्टी को काम में लाना पड़ा. झिवागो परिवार मुश्किल में जी रहा था.

एक बार यूरी अन्द्रेयेविच हमेशा की तरह काम पर चला गया.

घर में ईंधन के लिए सिर्फ दो लट्ठे पड़े थे. अपना फ़र-कोट पहन कर, जिसमें वह कमज़ोरी के कारण गर्म मौसम में भी ठिठुरती थी, अंतनीना अलेक्सान्द्रव्ना “शिकार के लिए” बाहर निकली.

वह करीब आधा घण्टा आसपास की गलियों में घूमती रही, जहाँ कभी-कभी आसपास के गाँवों के किसान सब्ज़ी और आलू लेकर मुड़ जाते थे. उन्हें पकड़ना था. ज़्यादा माल वाले किसानों को रोक दिया जाता था.

जल्दी ही उसे अपनी खोज का लक्ष्य प्राप्त हो गया. किसानों वाला कोट पहने एक नौजवान अंतनीना अलेक्सान्द्रव्ना के साथ हल्की, खिलौने जैसी स्लेज को सावधानी से नुक्कड़ के पीछे ग्रमेका के आँगन में ले गया.

फूस बिछी स्लेज में चटाई के नीचे बर्च के गोल डण्डों का छोटा सा ढेर रखा था, जैसे पिछली शताब्दी की तस्वीरों में पुराने फ़ैशन के फ़ार्म हाउसों की मुण्डेरों में होते थे. अंतनीना अलेक्सान्द्रवना को उनकी कीमत मालूम थी – सिर्फ नाम का ही बर्च था, मगर सबसे बुरी किस्म का, ताज़ा कटा हुआ, भट्टी के लिये अनुपयोगी माल था. मगर चुनने की गुंजाइश नहीं थी, बहस करने का सवाल ही नहीं था.

नौजवान किसान पाँच-छह बार चक्कर लगाकर लकड़ियाँ ऊपर वाले रिहायशी हिस्से में ले गया, और उनके बदले में अपनी जवान बीबी के लिए उपहार स्वरूप अंतनीना अलेक्सान्द्रव्ना की शीशे वाली छोटी अलमारी पीठ पर रखकर नीचे लाया और उसे अपनी स्लेज में रख दिया. चलते-चलते, अगली बार आलुओं का इंतज़ाम करने का वादा करते हुए उसने दरवाज़े के पास रखे पियानो की कीमत पूछ ली.

वापस आने के बाद, यूरी अन्द्रेयेविच ने पत्नी की इस ख़रीदारी के बारे में बहस नहीं की. किसान को दी गई अल्मारी की छिपटियाँ बनाना ज़्यादा व्यावहारिक और फ़ायदेमन्द होता, मगर ऐसा करने के लिए उनका हाथ न उठता.

“तुमने मेज़ पर चिट्ठी देखी?” पत्नी ने पूछा.

“हॉस्पिटल के प्रमुख की? मुझे बता दिया है, मैं जानता हूँ, ये किसी मरीज़ महिला के यहाँ बुलाया है. ज़रूर जाऊँगा. थोड़ी देर आराम करता हूँ, और फिर निकल जाऊँगा. मगर काफ़ी दूर है. ट्रायम्फल कमान के आस-पास. मेरे पास पता लिखा है.”

“फ़ीस के बदले अजीब सी पेशकश कर रहे हैं. तुमने देखा? फिर भी, तुम पढ़ ही लो. विज़िटके लिए जर्मन कन्याक की एक बोतल या महिलाओं की स्टॉकिंग्स की एक जोड़ी. कैसा लालच दे रहे हैं. ये कौन हो सकता है? बेवकूफ़ी भरा लहज़ा और हमारी वर्तमान ज़िंदगी के बारे में बिल्कुल अनजान. शायद कोई नये-नये अमीर हैं.”

हाँ, कोई सप्लायर है.”

रियायत पाने वाले और अधिकृत एजेन्टों के साथ-साथ इस नाम से छोटे-मोटे निजी उपक्रम भी जाने जाते थे, जिन्हें, निजी व्यापार को ख़त्म करने के बाद, सरकारी अधिकारियों ने आर्थिक तंग़ी के दौरान मामूली छूट दे रखी थी, उनके साथ विभिन्न प्रकार की खाद्य सामग्री के लिए अनुबंध और समझौते किए जाते.  

इनमें पुरानी फ़र्मों के हटाए गए प्रमुख नहीं हैं, बड़े उद्योगों के मालिक नहीं हैं. उन्हें जो आघात पहुँचा है उससे वे अब तक संभल नहीं पाए हैं. इस श्रेणी में अल्पकालिक बिज़नेसमेन हैं, जिन्हें युद्ध और क्रांति ने बिल्कुल निचली तह से बाहर निकाला है, नये और अनजान लोग, जिनकी कहीं जड़ें नहीं हैं.

शक्कर डला गर्म पानी पीकर, जिसे दूध से सफ़ेद बनाया गया था, डॉक्टर मरीज़ महिला को देखने निकल पड़ा.

रास्ते और फुटपाथ गहरी बर्फ के नीचे दबे थे, जिसने सड़क को घरों की एक कतार से दूसरी कतार तक ढाँक दिया था. कहीं कहीं तो बर्फ पहली मंज़िल की खिड़कियों तक पहुँच गई थी. बर्फ के इस विस्तीर्ण फैलाव में ख़ामोश, अधमरी छायाएँ चल रही थीं, जो अपनी पीठ पर या स्लेजों पर थोड़ा सा खाने का सामान लेकर जा रही थीं. वाहनों पर जाने वाले करीब-करीब थे ही नहीं.

बिल्डिंगों पर कहीं कहीं अब भी पुराने बोर्ड लटक रहे थे.

उनके नीचे स्थित दुकानें और सहकारी समितियाँ, जिनका ऊपर टँगे नामों से कोई लेना-देना नहीं था, बंद थे, उनकी खिड़कियों पर या तो जालियाँ लगाई गईं थीं या उन पर लकड़ी के तख़्ते ठोंक दिए गए थे, और वे खाली थीं.

वे सिर्फ इसलिए ख़ाली और बंद नहीं थीं, क्योंकि उनमें माल नहीं था, बल्कि इसलिए बंद थीं कि जीवन के सभी पहलुओं का पुनर्निमाण, जिनमें व्यापार भी शामिल था, अभी एकदम सामान्य स्तर पर हो रहा था और उसने बंद दुकानों को, छोटी-मोटी चीज़ समझकर अब तक नहीं छुआ था.       

 

11

जिस घर में डॉक्टर को बुलाया गया था, वह ब्रेस्त्स्काया स्ट्रीट के अंत में त्वेर्स्की गेट्स के पास था.

ये ईंटों की बनी सरकारी बिल्डिंग थी, महाप्रलय से पूर्व का निर्माण, आँगन भीतर की ओर था और लकड़ी की तीन मंज़िला गैलरियाँ थीं, जो आँगन की पिछली दीवार से लगी हुई जा रही थीं.

किराएदारों की पूर्व निर्धारित सामान्य सभा हो रही थी जिसमें डिस्ट्रिक्ट सोवियत की प्रतिनिधि भाग ले रही थी, कि अचानक बिल्डिंग में फ़ौजी कमिटी का दस्ता दौरा करते हुए प्रकट हो गया. वे लोग हथियारों के रखने के परमिटों की जाँच कर रहे थे और बगैर परमिट के हथियारों को ज़ब्त कर रहे थे. दौरे का संचालन करने वाले अफ़सर ने प्रतिनिधि से कहा कि वह कहीं न जाए, उसने यकीन दिलाया कि जाँच में ज़्यादा समय नहीं लगेगा, जैसे-जैसे किराएदार आज़ाद होते जाएँगे, वे धीरे-धीरे इकट्ठा होते रहेंगे, और बीच में रोक दी गई मीटिंग जल्दी ही फिर से शुरू हो जाएगी.

जब वह बिल्डिंग के गेट पर पहुँचा तो दौरा लगभग ख़त्म होने वाला था और कतार में वही क्वार्टर था जहाँ डॉक्टर का इंतज़ार हो रहा था.

गैलरी को जाने वाली एक सीढ़ी के पास रस्सी से बंधी बंदूक लिए रखवाली कर रहे सैनिक ने यूरी अन्द्रेयेविच को भीतर छोड़ने से साफ़ इनकार कर दिया, मगर उनकी बहस में टुकड़ी के प्रमुख ने दखल दी. उसने डॉक्टर के रास्ते में रुकावट न डालने का आदेश दिया और जब तक वह मरीज़ महिला का परीक्षण पूरा न कर ले, तब तक क्वार्टर की जाँच को रोकने के लिए तैयार हो गया.

क्वार्टर के मालिक ने, जो फीके, भूरे चेहरे और काली उदास आँखों वाला विनम्र नौजवान था, डॉक्टर का स्वागत किया. वह कई कारणों से बेहद परेशान था: पत्नी की बीमारी, क्वार्टर की आसन्न तलाशी और चिकित्सा शास्त्र तथा उसके प्रतिनिधियों के प्रति अलौकिक सम्मान. 

डॉक्टर की मेहनत और उसके समय को बचाने के उद्देश्य से, मालिक ने जितना हो सके, संक्षेप में बोलने की कोशिश की, मगर इसी जल्दबाज़ी ने उसकी बात को लम्बा और उलझनभरा बना दिया.

क्वार्टर शानो-शौकत की और सस्ती चीज़ों से अटा पड़ा था, जिन्हें पैसों को किसी स्थाई उपक्रम में निवेश करने की दृष्टि से जल्दबाज़ी में ख़रीदा गया था. अधूरे फ़र्नीचर सेट्स की एक-एक ही चीज़ थी, क्योंकि उनकी जोड़ी नहीं मिल पाई थी. 

क्वार्टर के मालिक का ख़याल था कि उसकी बीबी को कोई मानसिक रोग है, जो अत्यंत भय के कारण हुआ है. मुद्दे से कई बार दूर हटते हुए, उसने बताया कि कैसे उन्हें प्राचीन, बिगड़ी हुई म्यूज़िकल दीवार घड़ी लगभग मुफ़्त में मिल गई थी, जो न जाने कब से नहीं चल रही थी. उन्होंने उसे सिर्फ घड़ी-निर्माण के अनूठे नमूने के तौर पर, एक दुर्लभ वस्तु समझ कर खरीदा था (मरीज़ महिला का पति डॉक्टर को बगल वाले कमरे में घड़ी दिखाने ले गया).

उन्हें संदेह था, कि ये घड़ी कभी दुरुस्त भी की जा सकती है. और अचानक वह घड़ी, जिसे बरसों से चाभी नहीं दी गई थी, ख़ुद-ब-ख़ुद चलने लगी, चलती रही, नन्ही-नन्ही घंटियों से उन्होंने अपनी क्लिष्ट धुन बजाई और रुक गई. बीबी ख़ौफ़ खा गई, नौजवान बता रहा था, ये सोचकर, कि उसका अंतिम समय आ गया है, और अब पड़ी है, बड़बड़ाती रहती है, न खाती है, न पीती है, उसे पहचानती नहीं है.

“इसलिए आप सोचते हैं कि यह मानसिक आघात है?” आवाज़ में संदेह का पुट लिए यूरी अन्द्रेयेविच ने पूछा. “मुझे मरीज़ के पास ले चलिए.”

वे बगल वाले कमरे में आये जिसमें पोर्सेलिन का झुम्बर लटक रहा था और चौड़े डबल बेड के दोनों तरफ़ महोगनी के दो स्टूल रखे थे. उसके किनारे पर कम्बल को ठोढ़ी तक खींचकर बड़ी-बड़ी काली आँखों वाली छोटी-सी महिला लेटी हुई थी. आने वालों को देखते ही उसने कम्बल के नीचे से हाथ निकाल कर इशारे से दूर भगाया, जिससे उसके गाऊन की चौड़ी बाँह बगल तक खिसक गई. उसने पति को नहीं पहचाना और, मानो कमरे में कोई नहीं है, ये सोचकर धीमी आवाज़ में किसी दर्द भरे गीत का मुखड़ा गाने लगी, जिसने उसे इतना दुखी कर दिया कि वह बच्चों की तरह सिसकियाँ लेकर रोने लगी, कहीं-दूर, घर ले जाने की विनती करने लगी. डॉक्टर जिस भी तरफ़ से उसके पास जाता, वह जाँच करवाने का विरोध करती, हर बार उसकी तरफ़ पीठ मोड़ लेती.

“उसे देखना होगा,” यूरी अन्द्रेयेविच ने कहा. ”मगर कोई बात नहीं, मुझे वैसे भी समझ में आ गया है. ये टाइफ़स है, और ऊपर से गंभीर किस्म का टाइफ़स है. वह बहुत तकलीफ़ में है, बेचारी. मैं सलाह दूँगा कि उसे हॉस्पिटल में दाखिल कर दें. बात उन सुविधाओं की नहीं है, जो आप यहाँ उसे देते हैं, बल्कि उसे लगातार डॉक्टर की देखरेख में रहने की है, जो बीमारी के आरंभिक सप्ताहों में ज़रूरी है. क्या आप किसी वाहन का इंतज़ाम कर सकते हैं, कोई टैक्सी, या कम से कम कोई गाड़ी, जिससे मरीज़ को, ज़ाहिर है, अच्छी तरह ढाँक कर बिठाया जा सके? मैं आपके लिए संदर्भ लिखकर देता हूँ.”

“कर सकता हूँ, कोशिश करूँगा. मगर ठहरिये. क्या वाकई में यह टाइफ़स है? कैसी भयानक बात!”

“दुर्भाग्य से.”

“मुझे डर है कि यदि मैं उसे अपने से दूर करूँगा, तो उस खो दूँगा. क्या आप किसी तरह घर में ही उसका इलाज नहीं कर सकते, यथासंभव विज़िट्स बढ़ाते हुए? मैं आपको जितनी चाहें, फ़ीस दूँगा.”

“मैं आपको समझा तो चुका हूँ. उसकी निरंतर देखभाल बेहद ज़रूरी है. सुन रहे हैं? मैं आपको अच्छी सलाह दे रहा हूँ. चाहे धरती के नीचे से ही गाड़ी लाइए, और मैं उसके लिए सिफ़ारिशी ख़त लिख देता हूँ. आपकी हाउसिंग कमिटी में यह करना सबसे अच्छा रहेगा. क्योंकि संदर्भ के ऊपर कमिटी की मुहर ज़रूरी है, और कुछ और भी औपचारिकताएँ पूरी करनी होंगी.”

 

12

जिन किराएदारों की पूछताछ और जाँच पूरी हो चुकी थी वे एक-एक करके गरम स्कार्फ़ और ओवरकोटों में पुराने अण्डों वाले गोदाम में आ रहे थे, जिसे गरमाया नहीं गया था. इसे अब हाउसिंग कमिटी ने ले लिया था.

कमरे के एक छोर पर ऑफ़िस की मेज़ और कुछ कुर्सियाँ थीं, मगर वे इतने सारे लोगों के बिठाने के लिए पर्याप्त नहीं थीं. इसलिए उनके अलावा अंडों के लम्बे, खाली डिब्बे उलट कर बेंचों के समान चारों ओर रख दिए गये थे. ऐसे ख़ाली डिब्बों का छत तक पहुँचता हुआ पहाड़ कमरे के दूसरे छोर पर खड़ा था. वहाँ कोने में जमी हुई लकड़ी की छीलन का ढेर दीवार से लगा दिया गया था, जो टूटे हुए अण्डों से बहते हुए द्रव के कारण चिपक कर गाँठों जैसे हो गई थी. इस ढेर में शोर मचाते हुए चूहे दौड़ रहे थे, कभी-कभी वे दौड़ते हुए पत्थर के फ़र्श की ख़ाली जगह पर आ जाते और फिर से छीलन में छुप जाते.

हर बार, जब ऐसा होता, तो एक बक्से के ऊपर बैठी मोटी, कर्कश महिला चीखते हुए उछलती. फैली हुई उँगलियों से वह छिछोरेपन से अपने स्कर्ट का घेर ऊपर उठाती, ज़ोर-ज़ोर से ऊँचे टॉप के फ़ैशनेबुल जूतों वाले पैर पटकती और जानबूझ कर भर्राई हुई, शराबियों जैसी आवाज़ में चिल्लाती:

“ओल्का, ओल्का, तेरे यहाँ चूहे दौड़ रहे हैं. ऊ, चल भाग, गंदी कहीं की! आय-आय-आय, समझती है, शैतान! गुस्सा हो गई. आययाययाय, डिब्बे पर चढ़ रही है! कहीं स्कर्ट के अंदर न घुस जाए. ओय, डर लग रहा है, ओय, डर लग रहा है!

“मुँह फ़ेर लीजिए, भद्र महाशयों. गलती हो गई, मैं भूल गई, कि अब महाशयनहीं कॉम्रेड नागरिक हैं.”

शोर मचाने वाली महिला ने खुले हुए बटन्स वाला अस्त्राखानी बोरे जैसा कोट पहना था. इसके नीचे तीन सतहों पर, पतली जैली के समान उसकी दोहरी ठोढ़ी, भरापूरा सीना और रेशमी पोषाक में कसा हुआ पेट हिल रहा था. ज़ाहिर था, कि कभी वह छोटे-व्यापारियों और उनके नौकरों के बीच शेरनी के रूप में प्रसिद्ध थी. सूजी हुई पलकों के नीचे से उसकी सुअर जैसी आँखों की झिरी मुश्किल से खुलती थी. पुराने ज़माने में किसी विरोधी औरत ने उसके ऊपर एसिड से भरी बोतल फेंकी थी, मगर निशाना चूक गया, और सिर्फ बाएँ गाल पर दो-तीन छींटे गिरे थे, और मुँह के बाएँ किनारे पर दो निशान पडे थे, जो गौर से न देखने पर आकर्षक लगते थे.

“चिल्लाओ मत, ख्रपुगीना. काम करना मुश्किल हो रहा है,” मेज़ के पीछे बैठी डिस्ट्रिक्ट सोवियत की प्रतिनिधि ने कहा, जिसे सभा का अध्यक्ष चुना गया था.

उसे काफ़ी पहले से बिल्डिंग के पुराने किराएदार जानते थे और वह ख़ुद भी उन्हें अच्छी तरह जानती थी. मीटिंग शुरू होने से पहले वह दबी आवाज़ में बिल्डिंग की पुरानी चौकीदार फ़ातिमा आण्टी से अनौपचारिक रूप से बात कर रही थी फ़ातिमा कभी अपने पति के साथ गन्दे गोदाम में रहा करती थी, मगर अब बेटी के साथ दूसरी मंज़िल के खूब रोशनी वाले कमरों में रह रही थी.

“तो फिर कैसे, फ़ातिमा?” अध्यक्ष ने पूछा.

फ़ातिमा ने शिकायत की, कि वह अकेली इतने बड़े और इतने सारे किराएदारों की देखभाल नहीं कर सकती, जबकि मदद कहीं से नहीं मिलती, क्योंकि कोई भी अपने-अपने हिस्से के आँगन की और रास्ते की सफ़ाई का ध्यान नहीं रखता.

“परेशान न हो, फ़ातिमा, हम उनके सींग उख़ाड़ देंगे, इत्मीनान रखो. ये कैसी कमिटी है? क्या इसकी कल्पना कर सकते हो? आपराधिक तत्व छुपे हैं, संदेहास्पद नैतिकता बगैर रजिस्ट्रेशन के रह रही है. हम उन्हें खारिज करेंगे, और दूसरी कमिटी चुनेंगे. मैं तुम्हें हाउस-मैनेजर बनाऊँगी, तुम सिर्फ लोगों के पीछे न पड़ जाना.”

चौकीदार ने विनती की, कि अध्यक्ष ऐसा न करे, मगर वह सुनने को तैयार ही नहीं थी. उसने कमरे पर नज़र दौड़ाई, देखा कि काफ़ी लोग इकट्ठा हो गए हैं, ख़ामोश रहने की हिदायत दी और छोटी-सी प्रस्तावना से मीटिंग शुरू की.

पहले वाली हाउसिंग कमिटी की निष्क्रियता की भर्त्सना करते हुए उसने सुझाव दिया कि नई कमिटी के चुनाव के लिए उम्मीदवार तय किए जाएँ और फिर अन्य प्रश्नों की ओर मुड़ी. ये ख़तम करने के बाद, उसने, प्रसंगवश, कहा:

“तो, बात ऐसी है, कॉम्रेड्स. खुल कर कहेंगे. आपकी बिल्डिंग काफ़ी बड़ी है, हॉस्टेल के लिए उचित है. ऐसा होता है, कि मीटिंग के लिए प्रतिनिधि आते हैं, और लोगों को ठहराने के लिए कोई जगह नहीं है. ये फ़ैसला किया गया है कि आपकी बिल्डिंग को डिस्ट्रिक्ट सोवियत की देखरेख में दे दिया जाए और उसे कॉम्रेड तिवेर्ज़िन का नाम दिया जाए, जो, जैसा कि सबको मालूम है. निर्वासन से पूर्व इस बिल्डिंग में रहता था. कोई आपत्ति तो नहीं है? अब बिल्डिंग को ख़ाली करवाने के बारे में. ये काम फ़ौरन नहीं होगा, आपके पास एक साल का समय है.

श्रमिक जनता को हम आवास उपलब्ध कराएँगे. जो श्रमिक नहीं हैं, उन्हें आगाह किया जाता है, कि वे अपना आवास ख़ुद ढूँढ़ लें, और उन्हें बारह महीनों का समय दिया जायेगा.     

“और हमारे यहाँ कौन श्रमिक नहीं है? ऐसे लोग हैं ही नहीं जो श्रमिक न हों. सब श्रमिक हैं,” चारों ओर से लोग चिल्लाने लगे, और एक आवाज़ सबसे ऊपर सुनाई दे रही थी.

“ये महा-शक्ति की कौम-परस्ती है! अब सभी कौमें एक समान हैं. मुझे मालूम है कि आपका इशारा किस तरफ़ है!”

“सब एक साथ न बोलें! समझ में ही नहीं आ रहा है, कि किसको जवाब दूँ. कैसी कौमें? यहाँ कौम कहाँ से आ गईं, नागरिक वल्दिर्कीन? मिसाल के तौर पर, ख्रपुगीना की कोई कौम नहीं है, मगर उसे भी निकालेंगे.”

“निकाल! देखेंगे, कि तू मुझे कैसे बाहर निकालती है. चिपटा सोफ़ा! दस मन की!” ख्रपुगीना बेमतलब के नाम ले-लेकर चिल्ला रही थी, जो वह गर्मागर्म बहस के दौरान वह प्रतिनिधि को दे रही थी.

“कैसी नागिन है! कैसी शैतान है! शर्म नाम की चीज़ ही नहीं है!” चौकीदार उत्तेजित हो रही थी.

“बीच में न उलझ, फ़ातिमा. अपनी हिफ़ाज़त मैं ख़ुद कर लूँगी. चुप हो जा, ख्रपुगीना. तुझे मौका दो, तो तू गर्दन पर बैठ जायेगी! ख़ामोश, कह रही हूँ, वर्ना फ़ौरन अधिकारियों के हवाले कर दूँगी, बिना इस बात का इंतज़ार किए कि तुझे कब हाथभट्टी की दारू के लिए और अड्डा चलाने के लिए पकड़ते हैं.

शोर अपनी चरम सीमा पर पहुँच गया. किसी को भी बोलने नहीं दिया जा रहा था. इसी समय गोदाम में डॉक्टर ने प्रवेश किया. उसने दरवाज़े पर जो भी मिला उससे पूछा कि हाउसिंग़ कमिटी से किसी को बुलाए. उसने हाथों को लाउडस्पीकर की तरह मुँह पर रखा और शोर-गुल से भी ऊँची आवाज़ में एक-एक अक्षर बोला:

“ग-ली-उल्-लि-ना! यहाँ आओ. तुम्हें बुला रहे हैं”. डॉक्टर को अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ. एक दुबली-पतली, कुछ झुकी हुई, चौकीदार महिला निकट आई. डॉक्टर को माँ और बेटे का साम्य चौंका गया. मगर उसने अभी तक ख़ुद को ज़ाहिर नहीं किया था. उसने कहा:

“आपके यहाँ एक किराएदार को टाइफ़स हो गया है (उसने उस महिला को कुलनाम से उल्लेख किया). बेहद सावधानी की ज़रूरत है, जिससे संक्रमण न फ़ैले. इसके अलावा मरीज़ को हॉस्पिटल ले जाना होगा. मैं उसके लिए ज़रूरी कागज़ात लिख देता हूँ, जिसे हाउसिंग कमिटी को प्रमाणित करना होगा. ये कैसे और कहाँ करना होगा?”

चौकीदार महिला समझी कि सवाल मरीज़ को ले जाने के बारे में है, न कि उसे साथ दिए जाने वाले कागज़ को लिखने के बारे में.

“कॉम्रेड द्योमिना के लिए डिस्ट्रिक्ट सोवियत से स्लेज आने वाली है,” गलीउल्लिना ने कहा. “कॉम्रेड द्योमिना भली महिला है, मैं कहूँगी, वह अपनी स्लेज दे देगी. परेशान न हो, कॉम्रेड डॉक्टर, तुम्हारी मरीज़ को ले जाएँगे.”

“ओह, मैं उस बारे में नहीं! मैं सिर्फ एक कोना खोज रहा था, जहाँ मैं सिफ़ारिश-पत्र लिख सकूँ. मगर अगर स्लेज भी मिल जाए...माफ़ कीजिए, आप लेफ्टिनेंट गलीउल्लिन, असीप गिमाज़ित्दीनविच की माँ तो नहीं हैं? मैंने फ्रंट पर उसके साथ काम किया था. चौकीदार का पूरा बदन थरथरा गया और वह विवर्ण हो गई. डॉक्टर का हाथ पकड़कर उसने कहा:

“चल, बाहर जाएँगे. आँगन में बात करेंगे.”

देहलीज़ पार करते ही वह जल्दी-जल्दी बोलने लगी:

“धीरे, ख़ुदा न करे, कोई सुन लेगा. मुझे बर्बाद न करो. युसुप्का बुरी राह निकल गया. तू ख़ुद ही फ़ैसला कर, युसुप्का कौन है? युसुप्का वर्कशॉप का शागिर्द. युसुप को समझना चाहिए, आम आदमी की ज़िंदगी अब ज़्यादा अच्छी हो गई है, ये तो अंधा भी देख सकता है, इस पर कैसी बहस. मुझे मालूम नहीं कि तू क्या सोचता है, तुझे, हो सकता है, तू कर सकता हो, मगर युसुप्का के लिए गुनाह है, ख़ुदा माफ़ नहीं करेगा. युसुप का बाप फ़ौजी जैसा मरा, मार डाला, और कैसे, न चेहरा साबुत बचा, न हाथ, न पैर.”

वह आगे नहीं बोल सकी और, हाथ हिला कर अपनी उत्तेजना शांत होने का इंतज़ार करने लगी. फिर आगे बोली:

“चल, जाएँगे. मैं अभी तेरे लिए स्लेज भेजती हूँ. मुझे मालूम है कि तू कौन है.”

वह यहाँ दो दिन था, बता रहा था. तू, कह रहा था, लारा गिशारवा को जानता है. अच्छी लड़की थी. हमारे यहाँ अक्सर आती थी, याद है. और अब कैसी है, कौन जानता है. क्या ऐसा हो सकता है, कि मालिक लोग मालिकों के ख़िलाफ़ हो जाएँ? मगर युसुप्का ने तो गुनाह किया है. चलो, स्लेज माँगते हैं.

कॉम्रेड द्योमिना दे देगी. और कॉम्रेड द्योमिना, पता है, कौन है? ओल्या द्योमिना, लारा गिशारवा की माँ के यहाँ दर्जिन थी. वो है. और वो भी यहाँ से. इसी बिल्डिंग से. चलो.”

 

13

बिल्कुल अँधेरा हो गया था. रात हो चुकी थी. सिर्फ उनसे पाँच कदम आगे द्योमिना के जेबी फ्लैश लाइट का सफ़ेद गोला एक टीले से दूसरे टीले पर उछल रहा था और वह चलने वालों का रास्ता प्रकाशित करने के स्थान पर उन्हें उलझन में डाल रहा था. चारों ओर रात का साम्राज्य था और वह बिल्डिंग पीछे रह गई थी, जहाँ इतने सारे लोग उसे जानते थे, जहाँ वह बचपन में जाती थी, जहाँ, सुनी हुई बातों के मुताबिक, उसके भावी पति, अंतीपव का भी बचपन में लालन-पालन हो रहा था.

द्योमिना उसके साथ संरक्षक जैसी, मज़ाक करती हुई चल रही थी.

“आप क्या वाकई में बिना फ्लैश लाइट के आगे जायेंगे? आँ? वर्ना , मैं दे देती हूँ, कॉम्रेड डॉक्टर. हाँ. मैं कभी उसकी बेहद दीवानी थी, उससे बेहद प्यार करती थी, जब हम लड़कियाँ थे. उनका सिलाई वर्कशॉप था. मैं उनके यहाँ ट्रेनिंग ले रही थी. इस साल उससे मिली थी. यहाँ से गुज़र रही थी. कहीं जाते-जाते मॉस्को में रुकी थी. मैंने उससे कहा, कहाँ जा रही है, बेवकूफ़? यहीं रह जाती. साथ में रहते, तेरे लिए कोई काम मिल जाता. मगर कहाँ! नहीं चाहती. उसकी मर्ज़ी.

दिमाग़ से उसने पाश्का से शादी की थी, दिल से नहीं, तभी से शरारती थी.

चली गई.”

“आप उसके बारे में क्या सोचती हैं?”

“सावधान. यहाँ फिसलन है. कितनी बार कहा है कि दरवाज़े के सामने गंदा पानी न फेंके मगर कोई असर नहीं. उसके बारे में क्या सोचती हूँ? ये “सोचना” क्या है? और सोचने जैसा क्या है. समय ही नहीं है. ये यहाँ मैं रहती हूँ. मैंने उससे छुपाया, उसके भाई को, जो फ़ौजी था, शायद गोली मार दी गई. और उसकी माँ, मेरी पुरानी मालकिन को, मैं शायद बचा लूँगी, उसके लिए कोशिश कर रही हूँ. ओह, मुझे इस तरफ़ जाना है, फ़िर मिलेंगे.”  

और वे जुदा हो गए. द्योमिना की फ्लैशलाइट की किरण एक सँकरी पत्थर की सीढ़ी के भीतर टकराकर आगे की ओर भागी, गंदे रास्ते की धब्बे वाली दीवारों को रोशन करते हुए, और डॉक्टर को अँधेरे ने घेर लिया.

दाईं ओर सदोवाया-त्रिउम्फाल्नाया, बाईं ओर सदोवाया-करेत्नाया स्ट्रीट्स थीं, अँधेरी दूरी में काले बर्फ पर ये बिल्कुल सड़कों की तरह नहीं लग रही थीं, बल्कि पत्थरों की खिंची चली जा रही बिल्डिंग्स के घने तायगा में दो खाली मैदानों की तरह प्रतीत हो रही थीं, जैसा युराल और साइबेरिया के घने जंगलों में होता है.

घर में रोशनी थी, गरमाहट थी.

“इतनी देर क्यों हो गई?” अंतनीना अलेक्सान्द्रव्ना ने पूछा और, उसे जवाब देने का मौका दिए बगैर कहती रही:

“और यहाँ तुम्हारी अनुपस्थिति में एक मज़ेदार घटना हुई. ऐसी अजीब बात जो समझाई नहीं जा सकती. मैं तुम्हें बताना भूल गई थी. कल पापा के हाथ से अलार्म-घड़ी टूट गई और वह बेहद परेशान थे. ये घर की आख़िरी घड़ी थी. दुरुस्त करने लगे, खोल कर देखते रहे, कुछ-कुछ करते रहे, कुछ भी नहीं हुआ. कोने वाले घड़ीसाज़ ने तीन पाऊण्ड ब्रेड की माँग की, जैसा कभी सुना नहीं था. क्या किया जाए? पापा एकदम सिर लटकाकर बैठ गए. और अचानक, सोचो, घण्टा भर पहले कर्कश, बहरा करने वाली घण्टी. अलार्म घड़ी! पता है, अपने आप चलने लगी!”

“ये मेरे टाइफ़स की घण्टी बज गई,” यूरी अन्द्रेयेविच ने मज़ाक किया और उसने अपने लोगों को घण्टे वाली घड़ी की मरीज़ के बारे में बताया.  

 

14

मगर टाइफ़स से वह काफ़ी दिनों के बाद बीमार हुआ. इस बीच झिवागो परिवार की गरीबी चरम सीमा पर पहुँच गई. वे मुसीबत में थे और मर रहे थे.

यूरी अन्द्रेयेविच ने डकैती का शिकार हुए उस पार्टी सदस्य को ढूँढा जिसे उसने बचाया था. उसने डॉक्टर के लिए जितना संभव था, किया. मगर गृह-युद्ध आरंभ हो गया. उसका संरक्षक पूरे समय दौरे कर रहा था.

इसके अलावा, अपने मान्यताओं के अनुसार इस आदमी का यह विचार था कि उस समय की कठिनाइयाँ स्वाभाविक थीं और यह भी छुपा रहा था कि वह ख़ुद भी भूखा मर रहा है.

यूरी अन्द्रेयेविच ने त्वेर्स्की-गेट के पास वाले एजेंट के पास जाने की कोशिश की. मगर इन कुछ महीनों में उसका नामो-निशान भी खो गया था, और उसकी अच्छी हो चुकी बीबी के बारे में भी कोई ख़बर नहीं थी.

बिल्डिंग में रहने वाले किरायेदार बदल चुके थे, द्योमिना मोर्चे पर थी, और मैनेजर गलिऊल्लिना भी उसे नहीं मिली.

एक बार उसे निर्देश के अनुसार सरकारी मूल्य पर ईंधन की लकड़ियाँ प्राप्त हुईं, जिन्हें विन्दाव्स्की रेल्वे स्टेशन से ले जाना था. अंतहीन मेश्शान्स्काया स्ट्रीट पर वह गाड़ीवान और इस अचानक प्राप्त हुई दौलत को खींच रहे घोड़े के साथ चल रहा था. अचानक डॉक्टर को महसूस हुआ कि मेश्शान्स्काया स्ट्रीट मेश्शान्स्काया जैसी नहीं रही, कि उसका सिर घूम रहा है और पैर उसका साथ नहीं दे रहे हैं. वह समझ गया कि वह तैयार है, मामला ख़तरनाक है, और ये – टाइफ़स है.

गाड़ीवान ने गिरे हुए आदमी को उठाया. डॉक्टर को याद नहीं था कि उसे किस तरह लकड़ियों के ढेर के ऊपर डालकर घर तक कैसे लाया गया.

 

15

वह दो हफ़्तों तक तेज़ बुखार में रुक-रुक कर प्रलाप कर रहा था. उसे ऐसा लगा कि तोन्या ने उसकी लिखने की मेज़ पर दो सदोवाया स्ट्रीट्स रख दी थीं, दाईं ओर सदोवाया-त्रिउम्फाल्नाया, बाईं ओर सदोवाया-करेत्नाया और उनके पास उसका टेबल-लैम्प खिसका दिया है, गर्म, खोजता हुआ, नारंगी. रास्तों पर रोशनी हो गई. काम किया जा सकता है. और वह लिख रहा है.

वह बड़े जोश और असाधारण सफ़लता से लिख रहा है, वो, जो वह हमेशा से लिखना चाहता था और जिसे उसे बहुत पहले लिख लेना चाहिए था, मगर कभी नहीं लिख सका, और अब वह प्रकट हो रहा है. और सिर्फ कभी-कभी संकीर्ण किर्गिज़ी आँखों वाला, एक लड़का व्यवधान डाल रहा है जिसने रेण्डियर की खाल का खुला ओवरकोट पहना है, जैसा साइबेरिया या युराल में पहनते हैं.

 

बिल्कुल स्पष्ट है कि यह लड़का – उसकी मृतात्मा है या, अगर सीधे सादे शब्दों में कहें तो उसकी मृत्यु है. मगर वह उसकी मृत्यु कैसे हो सकता है, जबकि वह उसे कविता लिखने में मदद कर रहा है, क्या मृत्यु से कोई लाभ हो सकता है, क्या मृत्यु सहायता कर सकती है?

वह पुनर्जन्म के बारे में कविता नहीं लिख रहा है, और न ही कब्र के भीतर की अवस्था के बारे में, बल्कि इन दोनों अवस्थाओं के बीच के दिनों के बारे में लिख रहा है. वह लिख रहा है “संभ्रम” के बारे में. कविता लिख रहा है.

वह हमेशा लिखना चाहता था कि कैसे तीन दिनों तक कीड़ों से संक्रमित काली मिट्टी तूफ़ान के रूप में, प्रेम के अमर्त्य मूर्त रूप को दबोच लेती है, उस पर आक्रमण करती है, उसके ऊपर अपने ढेले और कंकर फेंकती है, बिल्कुल वैसे ही जैसे समुंदर की लहरें तैश से भागती हुई आती हैं और किनारे को अपने नीचे दबा देती हैं. कैसे तीन दिनों तक काली मिट्टी का तूफ़ान चिंघाड़ता है, आक्रमण करता है और पीछे हट जाता है. और दो कविता की दो पंक्तियाँ उसका पीछा करती रहीं:

छूकर ख़ुश हैं और ब जागना है.

छूकर ख़ुश हैं नर्क भी, और विनाश भी, और बिखराव भी, और मृत्यु भी, मगर, फिर भी, उनके साथ ही छूकर ख़ुश है बसंत भी, और माग्दालीन भी, और ज़िंदगी भी. और – अब जागना है. मुझे जागना है और खड़े होना है, पुनर्जीवित होना है.

 

16

 वह ठीक होने लगा. पहले, एक भाग्यवान व्यक्ति की तरह, वह चीज़ों के बीच में संबंध नहीं ढूँढ़ता, सब स्वीकार कर लेता, कुछ भी याद न रखता, किसी भी बात से आश्चर्यचकित नहीं होता. बीबी उसे मक्खन लगाकर सफ़ेद ब्रेड खिलाती और शक्कर डालकर चाय पिलाती, उसे कॉफ़ी देती. वह भूल गया था, कि अब ऐसा संभव नहीं है, और स्वादिष्ट भोजन से ख़ुश हो जाता, जैसे कविता या परी-कथा से होते हैं, जो स्वास्थ्यलाभ के लिए वैध और उचित है. मगर जैसे ही उसने विचार करना आरंभ किया, उसने बीबी से पूछा:

“ये सब तुम्हारे पास कहाँ से आया?”

“हाँ, सब कुछ तुम्हारा ग्रान्या लाया है.”

“कौनसा ग्रान्या?”

“ग्रान्या झिवागो.”

“ग्रान्या झिवागो?”

“अरे हाँ, तुम्हारा ओम्स्क वाला भाई एव्ग्राफ़. तुम्हारा सौतेला भाई. तुम बेहोश पड़े थे, वह हमें देखने के लिए आता रहा.”

“रेण्डियर की खाल वाले ओवरकोट में?”

“हाँ, हाँ, मतलब, बेहोशी के दौरान भी तुम्हारा ध्यान गया था? वह किसी घर में सीढ़ियों पर तुमसे टकराया था, मुझे पता है, उसने बताया था. उसे मालूम था, कि ये तुम हो, और अपना परिचय देना चाहा था, मगर तुमने उसे इतना डरा दिया! वह तुम्हारी बहुत इज़्ज़त करता है, तुम्हें पढ़ने की कोशिश करता है. वह ज़मीन के नीचे से ऐसी-ऐसी चीज़ें हासिल कर लेता है! चावल, सूखा मेवा, शक्कर. वह वापस अपने घर चला गया है. और हमें वहाँ बुला रहा है. वह इतना अजीब और रहस्यमय है. मेरे ख़याल में उसके अधिकारियों के साथ अच्छे रिश्ते हैं. वह कहता है कि साल-दो साल के लिए बड़े शहरों से कहीं चले जाना चाहिए, “प्रकृति की गोद” में रहना चाहिए. मैंने उसके साथ क्र्यूगेर परिवार की जागीर के बारे में बात की है. वह बहुत सिफ़ारिश कर रहा है. एक बगीचा लगाएँ, और पास ही में जंगल हो. वर्ना, इतनी आज्ञाकारिता से, भेडों की तरह तो नहीं मरना है.”

उसी साल अप्रैल में झिवागो पूरे परिवार के साथ दूरस्थ युराल के लिए निकल पड़ा, पुरानी जागीर वरीकिनो, युर्यातिन शहर के पास.                      

 

अध्याय 7

 

सफ़र में

1.

 

 

मार्च के अंतिम दिन, साल के पहली गर्माहट भरे दिन आ गए, बसन्त के आगमन के झूठे अग्र-दूत, जिनके बाद हर साल भयानक ठण्ड पड़ती है.

ग्रमेका के घर में जल्दी-जल्दी सफ़र की तैयारी हो रही थी. इन तैयारियों को ठसाठस भरे हुए घर के अनगिनत किराएदारों के सामने, जिनकी संख्या अब सड़क की चिड़ियों से ज़्यादा थी, ईस्टर से पहले की जाने वाली साफ़-सफ़ाई के रूप में दिखाया गया.

यूरी अन्द्रेयेविच इस यात्रा के ख़िलाफ़ था. उसने तैयारियों में कोई ख़लल नहीं डाला, क्योंकि उसे ऐसा लग रहा था कि यह विचार अव्यावहारिक है और उसे उम्मीद थी कि निर्णायक क्षण में वह विफ़ल हो जाएगा. मगर काम आगे बढ़ रहा था और समाप्ति तक पहुँच गया. गंभीरता से बातें करने का समय आ गया था.

उसने एक बार फिर इसके लिए आयोजित पारिवारिक-सभा में बीबी और ससुर को अपने संदेहों के बारे में बताया.

“तो, आप समझते हैं, कि मैं गलत हूँ और, परिणामस्वरूप, हम जा रहे हैं?” उसने अपनी आपत्तियाँ समाप्त करते हुए कहा. बीबी ने बोलना शुरू किया:

“तुम कहते हो कि एक-दो साल बर्दाश्त कर लें, इस बीच ज़मीन के बारे में नए नियम लागू हो जाएंगे, मॉस्को के आस-पास ज़मीन का कोई टुकड़ा माँगा जा सकता है, वहाँ किचन-गार्डन बनाया जा सकता है. मगर इस बीच वाले दौर में रहेंगे कैसे, इस बारे में तुम कुछ नहीं कहते. और यही सबसे ज़्यादा दिलचस्प है, इसी के बारे में सुनने की ख़्वाहिश है.”

“बिल्कुल बकवास,” अलेक्सान्द्र अलेक्सान्द्रविच ने बेटी का समर्थन किया.

“ठीक है, मैं हार मानता हूँ,” यूरी अन्द्रेयेविच सहमत हो गया. “मुझे सिर्फ सम्पूर्ण अनिश्चितता ही रोक रही है.

हम आँखें बंद करके निकल पड़ते हैं, न जाने कहाँ, उस जगह के बारे में ज़रा सी भी जानकारी के बिना. वरीकिनो में रह रहे तीन व्यक्तियों में से दो, मम्मा और नानी, ज़िंदा नहीं हैं, और तीसरा, नानाजी क्र्यूगेर, अगर वह ज़िंदा भी हैं, तो उन्हें बंदी बना लिया गया है और वह जेल में हैं.   

युद्ध के अंतिम वर्ष में उसने जंगल और कारखाने के साथ कुछ किया था, दिखाने के लिए किसी झूठ- मूठ के आदमी को या बैंक को बेच दिया या कुछ शर्तों के साथ किसी के नाम लिख दिया. हम इस सौदे के बारे में क्या जानते हैं? ये ज़मीनें अब किसकी हैं, सम्पत्ति की दृष्टि से नहीं, वे चाहे तो भाड़ में जाएँ, मगर उनके लिए उत्तरदायी कौन है? वे किस विभाग के अंतर्गत हैं? क्या जंगल काट रहे हैं? कारखाने काम कर रहे हैं? और अंत में, वहाँ किसका शासन है, और जब हम वहाँ पहुँचेंगे तो किसका शासन होगा?

आपके पास बचने का एक ही सहारा है – मिकुलीत्सिन, जिसका नाम इतने प्यार से बार-बार दोहराते हो. मगर ये आपसे किसी ने कहा है, कि ये पुराना मैनेजर अभी तक ज़िंदा है और पहले की तरह वरीकिनो में है? और, हम उसके बारे में जानते ही क्या हैं, सिवाय इसके कि नानाजी बड़ी मुश्किल से उसका नाम लेते थे, क्या इसके कारण ही हमें उसकी याद है?

ख़ैर, मगर बहस से क्या फ़ायदा? आपने जाने का फ़ैसला कर लिया है. मैं आपके साथ हूँ. पता लगाना होगा कि आजकल ये सब कैसे करते हैं. देर करने में कोई तुक नहीं है.”

 

2

इस बारे में जानकारी हासिल करने के लिए यूरी अन्द्रेयेविच यारस्लाव्स्की रेल्वे स्टेशन पर गया.

जाने वालों के प्रवाह को रेलिंग वाले फुटब्रिज की सहायता से नियंत्रित किया जा रहा था, जो सभी हॉल्स में फैले हुए थे. हॉल्स के पत्थर के फ़र्श पर भूरे ओवरकोटों में लोग लेटे थे, वे करवटें बदल रहे थे, खाँस रहे थे, थूक रहे थे, और जब एक दूसरे से बात करते तो हर बार बेतुकेपन से ज़ोर से, इस बात की ओर ध्यान दिये बिना कि उन मेहराबों के नीचे आवाज़ कितनी ताकत से गूँजती है.     

इनमें से अधिकांश बीमार थे, जो टाइफ़स से संक्रमित थे. अस्पतालों में मरीज़ों की संख्या अत्यंत अधिक होने के कारण उन्हें बीमारी की चरम सीमा के बाद दूसरे ही दिन अस्पतालों से छुट्टी दे दी गई थी. डॉक्टर होने के कारण ख़ुद यूरी अन्द्रेयेविच को भी ऐसा ही करना पड़ता था, मगर वह ये नहीं जानता था, कि इन अभागों की संख्या इतनी अधिक है और रेल्वे स्टेशन ही उनके लिए आश्रय स्थान हैं.

“सरकारी परमिट ले लो,” सफ़ेद एप्रन पहने एक कुली ने उससे कहा. हर रोज़ यहाँ आना पड़ेगा. रेलें कभी-कभार ही चलती हैं, मौके की बात है. और ख़ुद-ब-ख़ुद ज़ाहिर है...(कुली ने अपने अँगूठे को पास वाली दो उँगलियों पर रगड़ते हुए कहा)...कुछ खाने पीने के लिए. हाथ गीले नहीं करोगे – नहीं जा पाओगे. और, ये सबसे बड़ा (उसने अपने गले पर टकटक किया)...सबसे नेक काम है.”

 

3

लगभग इन्हीं दिनों अलेक्सान्द्र अलेक्सान्द्रविच को राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की सर्वोच्च सोवियत में कई बार परामर्श के लिए आमंत्रित किया गया, और यूरी अन्द्रेयेविच को - गंभीर रूप से बीमार सरकार के सदस्य के इलाज के लिए. दोनों ही को उस समय के हिसाब से सबसे बढ़िया पुरस्कार दिया गया – उस समय स्थापित विशेष वितरक के कूपन्स.

ये सीमनव मॉनेस्ट्री के पास किन्हीं गैरिसन के गोदामों में स्थित था. डॉक्टर श्वसुर के साथ दो आँगन - चर्च का और सरकारी - पार करके सीधे ज़मीन से, पत्थरों की कमानों के नीचे से गहरे, क्रमशः ढलवाँ होते गए बिना देहलीज़ वाले गोदाम में गए.

उसके अंतिम भाग को, जो क्रमशः चौड़ा होता गया था, एक लम्बे काउन्टर की सहायता से अलग किया गया था. काउन्टर के पास एक शांत, स्टोरकीपर था, जो कभी-कभी सामान के लिए आराम से गोदाम में जाता, उसे तौलकर लेने वालों को देता, और पेंसिल के तेज़ झटके से दिए गए सामान को सूची में से फ़ौरन काट देता.

लेने वाले कम ही थे.

“आपके बैग,” स्टोरकीपर ने सरसरी नज़र से उनके इनवॉइसदेखते हुए कहा. दोनों की आँखें जैसे माथे पर चढ़ गईं, जब वह उनकी छोटी थैलियों में, और बड़े मज़बूत थैलों में आटा, दालें, मकारोंनी और शकर डालने लगा. उन्हें चर्बी, साबुन और माचिस भी दी गई और हरेक को कागज़ में लिपटी किसी चीज़ का एक-एक टुकड़ा भी दिया गया, जो बाद में, घर पर पता चला कि कॉकेशियन पनीर का था.

श्वसुर और दामाद फ़टाफ़ट अपनी छोटी-छोटी थैलियों को दो बड़े थैलों में रखकर बाँधने लगे, जिससे कि अपने फूहड़पन से स्टोरकीपर को गुस्सा न दिलाएँ, जिसने अपनी उदारता से उन्हें प्रभावित कर दिया था.

वे गोदाम से ऊपर खुली हवा में शराबियों की तरह झूमते हुए बाहर आए. ये ख़ुशी सिर्फ शारीरिक नहीं थी, बल्कि इस बात के एहसास के कारण थी कि वे भी दुनिया में निरुद्देश्य नहीं जी रहे हैं और,     घर में वे युवा गृहस्वामिनी की प्रशंसा और मान्यता के हकदार भी होंगे.

 

4

जब मर्द विभिन्न संस्थाओं में सरकारी परमिट लेने और उन कमरों के स्वामित्व के कागज़ात प्राप्त करने गए थे, जिन्हें वे छोड़कर जा रहे थे, तो अंतनीना अलेक्सान्द्रव्ना उन चीज़ों को छाँट रही थी, जिन्हें पैक करना था.

वह अधीरता से तीनों कमरों में घूम रही थी, जो ग्रमेका परिवार के हिस्से में आए थे, और छोटी-से-छोटी चीज़ भी पैकिंग वाले ढेर में रखने से पहले हाथ में लेकर अच्छी तरह देखती थी.

उनके व्यक्तिगत सामान में बहुत थोड़ी चीज़ें जा रही थीं, बचा हुआ सामान रास्ते में, और गंतव्य तक पहुँचने पर, आवश्यकतानुसार विनिमय के लिए था.

खुले हुए झरोखे से बसंत की हवा आ रही थी, अभी-अभी खाए हुए ताज़ा फ्रेंच बनजैसी. आँगन में मुर्गे गा रहे थे और खेलते हुए बच्चों की आवाज़ें आ रही थीं. कमरे में जितनी ज़्यादा देर हवा आती, उतनी ही तीव्रता से उसके भीतर की नेफ्थलीन की बू आती, जिससे संदूकों से निकाला हुआ सर्दियों का कबाड़ गंधा रहा था.      

क्या अपने साथ ले जाना चाहिए और किससे बचना चाहिए, इसके बारे में एक पूरी नियमावली मौजूद थी, जिसे पहले जाने वाले बना कर गए थे, उनके बचे हुए परिचितों के बीच उनका अवलोकन होता रहता था.

ये निर्देश, जो संक्षिप्त, निर्विवाद आदेशों की तरह थे, अंतनीना अलेक्सान्द्रव्ना के दिमाग़ में इतने स्पष्ट बैठ गए थे, कि उसे ऐसा लगता कि चिड़ियों की चहचहाट में और खेलते हुए बच्चों के शोर में उन्हें भी आँगन से सुन रही हो, जैसे बाहर से कोई रहस्यमय आवाज़ उसे सुना रही हो.

“कपड़ा, कपड़ा,” ये कल्पनाएँ चिल्ला रही थीं, “ टुकड़ों में काट कर रखना बेहतर है, मगर सफ़र में जाँच होती है, और ये ख़तरनाक है. कट-पीसेज़ को एक दूसरे से टाँक कर रखना अक्लमंदी का काम होगा. आम तौर से थान का कपड़ा, फैब्रिक्स, पोषाक, ऊपरी, जो बहुत ज़्यादा घिसी हुई न हो. रद्दी सामान कम से कम, भारी चीज़ें कोई नहीं. क्योंकि सामान ख़ुद उठाना पड़ता है, इसलिए टोकरियों और सूटकेसों के बारे में भूल जाओ. थोड़ी बहुत, सौ बार छाँटी हुई चीज़ें थैलियों में बंद करो, जिन्हें औरतें और बच्चे भी उठा सकें. नमक और तम्बाकू, साथ में रखना ठीक है, जैसा कि देखा गया है, मगर काफ़ी ख़तरा है. पैसे तकियों में छुपाएँ. सबसे मुश्किल हैं – कागज़ात”. वगैरह, वगैरह.

 

 

5

प्रस्थान की पूर्व-संध्या को बर्फीला तूफ़ान आया. हवा गोल-गोल घूमते हिम कणों के भूरे बादलों को चाबुक से ऊपर आसमान में खदेड़ती, जो सफ़ेद बवण्डर के रूप में धरती पर वापस लौट आते, अंधेरी सड़क की गहराई में उड़ जाते और उसे सफ़ेद चादर से ढाँक देते.

घर की हर चीज़ पैक हो गई थी. कमरों की और उनके भीतर बचे हुए सामान की देखभाल का काम एक बुज़ुर्ग दम्पत्ति को सौंपा गया, जो ईगरव्ना के मॉस्को वाले रिश्तेदार थे. इस दम्पत्ति से अंतनीना अलेक्सान्द्रव्ना का पिछली सर्दियों में परिचय हुआ था, जब उनकी सहायता से उसने पुरानी चीज़ों, चीथड़ों, अनावश्यक फ़र्नीचर के बदले में ईंधन और आलुओं का इंतज़ाम किया था.

मार्केल के ऊपर भरोसा नहीं किया जा सकता था. मिलिशिया में, जिसे उसने अपने लिए राजनीतिक क्लब के रूप में चुना था, उसने ये शिकायत नहीं की थी कि भूतपूर्व मकान मालिक ग्रमेका उसका ख़ून पीते हैं, मगर, पहले वह इस बात के लिए उनकी भर्त्सना करता था कि इतने सालों तक उन्होंने अज्ञान के अँधेरे में रखा, जानबूझ कर उससे छुपाते रहे कि दुनिया की उत्पत्ति बन्दरों से हुई है.       

ईगरव्ना के रिश्तेदार इस दम्पत्ति, भूतपूर्व सेल्स क्लर्क और उसकी पत्नी को अंतनीना अलेक्सान्द्रव्ना आख़िरी बार कमरों में ले जाकर दिखाती रही कि किन तालों की कौन-कौनसी चाभियाँ हैं और कहाँ क्या रखा है, उनके साथ अलमारियों के दरवाज़े खोलती और बंद करती रही, दराज़ों को भीतर बाहर करके दिखाती रही, उन्हें सब कुछ सिखाया और सब समझाया.

कमरों में मेज़ों और कुर्सियों को सरका कर दीवार से लगा दिया गया था, रास्ते की थैलियों को खींच कर एक ओर रख दिया था, सारी खिड़कियों से परदे निकाल दिये गये थे. बर्फीला तूफ़ान सर्दियों के आरामदेह वातावरण की अपेक्षा ज़्यादा आज़ादी से नंगी खिड़कियों से खाली कमरों में झाँक जाता था. उनमें से हरेक को वह किसी न किसी घटना की याद दिला रहा था. यूरी अन्द्रेयेविच को – बचपन की और माँ की मृत्यु की, अंतनीना अलेक्सान्द्रव्ना और अलेक्सान्द्र अलेक्सान्द्रविच को – आना इवानोव्ना की मृत्यु और दफ़न की. उन सब को ऐसा लग रहा था कि इस घर में उनकी यह अंतिम रात है, जिसे वे फिर कभी न देख पाएँगे. इस लिहाज़ से वे गलत थे, मगर एक भ्रम के प्रभाव में, जिसे वे एक दूसरे से साझा नहीं कर रहे थे, ताकि एक दूसरे को आहत न करें, हर एक अपने आप ही अपनी ज़िंदगी को फिर से देख रहा था, जो इस छत के नीचे गुज़री थी, और आँखों में उमड़ते आँसुओं से संघर्ष कर रहा था.   

इससे अंतनीना अलेक्सान्द्रव्ना को अपरिचितों के सामने शिष्ठाचार का पालन करने में कोई परेशानी नहीं हो रही थी. वह उस औरत के साथ लगातार बातें किए जा रही थी, जिसकी देख रेख में सब कुछ सौंप रही थी. अंतनीना अलेक्सान्द्रव्ना उसे सौंपी जा रही ज़िम्मेदारी का महत्व बढ़ाचढ़ा कर बता रही थी.

इस एहसान का बदला कृतघ्नता से न चुकाने की ख़ातिर, वह हर मिनट माफ़ी माँगते हुए पड़ोस के कमरे में जाती, जहाँ से वह इस महिला के लिए भेंट स्वरूप कुछ न कुछ उठा लाती – कोई रूमाल, कोई ब्लाउज़, कोई छींट का या शिफ़ॉन का कपड़ा. और सारी चीज़ें काली पृष्ठभूमि पर सफ़ेद चौखानों या डॉट्स वाले डिज़ाइन की थीं, जैसी सफ़ेद हिमकणों से ढँकी अँधेरी सड़क, जो इस बिदाई की शाम को बिना परदों वाली खिड़कियों से झाँक रही थी.              

 

6

 

पौ फ़टते ही स्टेशन के लिए निकल पड़े. घर की आबादी इस समय तक उठी नहीं थी. किराएदार ज़िवरोत्किना, जो अक्सर छोटे-मोटे और हर तरह के ख़ुशी के कार्यक्रमों की लीडर थी, दरवाज़े खटखटाते और चिल्लाते हुए सोए हुए किराएदारों के पास भागी:

“सुनो, कॉम्रेड्स! अलबिदा कहो! ख़ुशी-खुशी! पुराने गरुमेकव जा रहे हैं.”

अलबिदा कहने के लिए ड्योढ़ी में और पिछली सीढ़ी के पोर्च में (सामने वाले दरवाज़े पर अब पूरे साल ताला  ठुँका रहता था) निकले और उसकी सीढ़ियों पर गोलाकार में खड़े हो गए, जैसे ग्रुप फोटो खिंचवाने जा रहे हों.

उबासियाँ ले रहे किराएदार झुक रहे थे, ताकि कंधों पर डाले हुए पतले कोट, जिनमें वे गुड़ीमुड़ी हो रहे थे, फिसल न जाएँ, और जल्दी-जल्दी फेल्ट के जूतों में घुसाए हुए नंगे पैर बदल रहे थे.

इस शराबबंदी के ज़माने में मार्केल ने चालाकी से कोई ख़तरनाक चीज़ पी ली थी, वह लड़खड़ाते हुए रेलिंग पर गिर गया और उन्हें तोड़ने की धमकी देने लगा. उसने सामान स्टेशन पर ले जाने के लिए तैयार हो गया और उसे बहुत बुरा लगा कि उसकी मदद को ठुकरा रहे हैं. मुश्किल से उससे पीछा छुड़ाया.    

आँगन में अभी तक अँधेरा था. थमी हुई हवा में बर्फ कल रात के मुकाबले और ज़्यादा घनी हो रही थी. बर्फ के मोटे-मोटे झबरे गुच्छे गिर रहे थे, अलसाते हुए, और धरती से कुछ ऊँचाई पर मँडराते हुए, जैसे दुविधा में हों कि उन्हें धरती पर लेटना है या नहीं.

जब गली से निकलकर अर्बात पर आए, तो कुछ उजाला होने लगा था.

बर्फ ने अपनी सफ़ेद फिसलती चादर से पूरी सड़क को ढाँक दिया था, जिसके लहरियेदार किनारे लगातार हिल रहे थे और पैदल जाने वालों के पैरों से उलझ रहे थे, जिससे गति का एहसास ख़त्म हो गया था और उन्हें ऐसा लग रहा था कि वे एक ही जगह पर पाँव पटक रहे हैं.

सड़क पर एक भी आदमी नहीं था. सिव्त्सेव के मुसाफ़िरों को कोई भी नहीं दिखाई दिया. जल्दी ही बर्फ से पूरा लिपटा, मानो गाढ़े घोल से निकला हो, एक गाड़ीवान खाली गाड़ी चलाते हुए उनके पास से गुज़रा, जिसका घोड़ा बर्फ से सफ़ेद हो गया था.  उस समय एक कोपेक से भी कम वाले काम के लिए भारी कीमत लेकर उसने सामान समेत सबको अपनी गाड़ी में बिठा लिया, सिवाय यूरी अन्द्रेयेविच के, जिसे उसकी ही विनती पर बिना सामान के रेल्वे स्टेशन तक पैदल आने के लिए छोड़ दिया.

                                                         

7

 स्टेशन पर अंतनीना अलेक्सान्द्रव्ना पिता के साथ अंतहीन लम्बी कतार में खड़ी हो गई थी, जो लकड़ी के बैरियर्स के बीच दब रही थी. आजकल ट्रेन में मुसाफ़िर प्लेटफॉर्म से नहीं चढ़ते थे, बल्कि उनसे अच्छे ख़ासे आधा मील दूर पटरियों पर काफ़ी भीतर की ओर, निर्गम सिग्नल के पास से चढ़ते थे, क्योंकि प्लेटफॉर्म तक जाने वाले रास्तों की सफ़ाई करने के लिए पर्याप्त लोग नहीं थे, रेल्वे स्टेशन का आधा क्षेत्र कड़ी बर्फ और गंदगी से ढँका था और इंजिन इस सीमा तक नहीं जाते थे.

न्यूशा और शूरच्का माँ और नाना के साथ में नहीं थे. वे बाहरी प्रवेश कक्ष की भारी-भरकम छत के नीचे आराम से घूम रहे थे, सिर्फ कभी-कभी लॉबी से झाँक कर देख लेते, कि बड़े लोगों के पास जाने का वक्त हो गया है अथवा नहीं. उनसे केरोसिन की तेज़ बू आ रही थी, जिसे टाइफ़स की जुओं से बचने के लिए उनके टखनों, कलाइयों और गर्दन पर खूब पोता गया था.

निकट आते हुए पति को देखकर अंतनीना अलेक्सान्द्रव्ना ने उसे हाथ से इशारा किया, मगर उसे नज़दीक नहीं आने दिया और दूर से चिल्लाकर बताया कि किस काउन्टर पर परमिट वाले सफ़र के आदेशों पर सील लगाई जाती है. वह उस तरफ़ चला गया.

“दिखाओ, तुम्हारे कागज़ात पर कैसी सीलेंलगाई हैं,” उसने वापस आने पर उससे पूछा. डॉक्टर ने बैरियर के ऊपर से मोड़े हुए कागज़ात उसकी ओर बढ़ा दिये.

“ये डेलिगेट्स वाला यात्रा-पत्र है,” अंतनीना अलेक्सान्द्रव्ना के पड़ोसी ने उसके कंधे के ऊपर से सर्टिफिकेट के ऊपर लगाए गए स्टाम्पको देखकर पीछे से कहा. उसके आगे वाले पड़ोसी ने जो एक नियमनिष्ठ- वकील था, और किन्ही भी परिस्थितियों में दुनिया के सारे नियम जानता था विस्तार से समझाया:  

“इस सील से आपको “क्लास-कम्पार्टमेन्ट” में जगह पाने का हक है, दूसरे शब्दों में “पैसेंजर्स-कम्पार्टमेन्ट” में, यदि ट्रेन में वे हैं तो.” 

इस बात पर पूरी कतार में बहस होने लगी. आवाज़ें आने लगीं:

“आगे जाओ, देखो, वे हैं या नहीं, “क्लास-कम्पार्टमेन्ट्स”. बहुत भारी पड़ेगा, आजकल तो मालगाड़ी के डिब्बे के बफ़र पर भी बैठ जाओ, तो शुक्र मनाओ.”

“आप उनकी बातें न सुनिये, परमिट वाले साहब. मैं आपको समझाता हूँ, सुनिये. चूँकि आजकल अलग-अलग रेलगाड़ियाँ बंद हो गईं हैं, और सिर्फ एक ही संयुक्त प्रकार की ट्रेन चलती है, वो ही – फ़ौजियों के लिए है, वो ही कैदियों के लिए, वो ही मवेशियों के लिए, और वो ही मुसाफ़िरों के लिए भी. बोलने को तो, जो चाहे बोल दो, ज़ुबान – बड़ी लचीली चीज़ होती है, और आदमी को उलझन में डालने के बजाय, इस तरह समझाना चाहिए कि उसे समझ में आ जाए.”     

“तूने तो समझा दिया ना. कितना अकलमन्द है. ये तो आधी ही बात है कि उनके पास डेलिगेट्स वाला पासहै. तुम उनकी तरफ़ ग़ौर से देखो, और तब बोलो. क्या ऐसे आकर्षक व्यक्तित्व के साथ “डेलिगेट्स-कम्पार्टमेन्ट” में जा सकते हैं?

डेलिगेट्स-कम्पार्टमेन्ट हमारे भाईयों से भरा होता है. जहाज़ी की नज़र बड़ी तेज़ होती है, और ऊपर से उसके पास कमर से लटकती पिस्तौल भी होती है. वह फ़ौरन ताड़ लेगा – अमीर लोग हैं और ऊपर से – डॉक्टर, पुराने मालिकों में से एक. जहाज़ी पिस्तौल पकड़ लेगा, और मक्खी की तरह मसल देगा.”

पता नहीं, डॉक्टर और उसके परिवार के प्रति यह सहानुभूति कहाँ तक पहुँचती, अगर एक नई परिस्थिति न पैदा हुई होती.

भीड़ में से लोग कबसे रेल्वे स्टेशन की चौड़ी खिड़कियों के पार देख रहे थे. लम्बी, दूर तक फ़ैली हुई प्लेटफॉर्म की छतें पटरियों पर गिर रही बर्फ के दृश्य को यथासंभव दूर ले गईं थीं. इतनी दूरी से ऐसा प्रतीत हो रहा था कि हवा में बिना हिले डुले लटक रहे बर्फ के कण धीरे धीरे उसमें डूब रहे हैं, जैसे मछलियों को खिलाए जाने वाले ब्रेड के टुकड़े पानी में डूबते हैं.

इस गहराई में कबसे कुछ लोग झुण्डों में या अकेले जा रहे थे. जब तक उनकी संख्या कम थी, बर्फ के थरथराते जाल के पीछे जा रही इन आकृतियों को लोग रेल्वे कर्मचारी समझ रहे थे, जो अपने काम से पटरियों पर घूम रहे थे. मगर अब उनका एक झुण्ड आगे को लपका. गहराई में, जिस तरफ़ वे बढ़ रहे थे, इंजिन का धुँआ नज़र आया. 

“दरवाज़े खोलो, बदमाशों!” कतार में लोग गरजने लगे. भीड़ उछली और दरवाज़ों की ओर लपकी. पीछे वाले लोग आगे वालों पर दबाव डालने लगे.

“देखो, क्या हो रहा है! यहाँ दीवार से हमें घेर रखा है और वहाँ बिना कतार के बाहरी रास्ते से चढ़ रहे हैं! सारे डिब्बे ऊपर तक खचाखच भर देंगे, और हम, खड़े हैं यहाँ, भेड़ों की तरह! खोलो, शैतानों, - तोड़ देंगे! ऐ, छोकरों, चढ़ जाओ, दबाओ!”

“बेवकूफ़, किससे ईर्ष्या कर रहे हैं,” सर्वज्ञानी वकील बोला.

“ लाम-बंद हैं, इन्हें कठोर श्रम के लिए पेट्रोग्राद से ज़बर्दस्ती भर्ती किया गया है. पहले उन्हें वलोग्दा में भेजा गया था, उत्तरी मोर्चे पर, अब हाँक रहे हैं पूरबी मोर्चे पर. अपनी मर्ज़ी से नहीं, बल्कि कड़े पहरे में जा रहे हैं. खाइयाँ खोदने के लिए.”

 

8

 

तीन दिनों से सफ़र में थे, मगर मॉस्को से ज़्यादा दूर नहीं गए थे.

रास्ते का दृश्य सर्दियों वाला था : रेल की पटरियाँ, खेत, जंगल, गाँवों की छतें – सभी कुछ बर्फ से ढँका था.

सौभाग्य से झिवागो परिवार को बाएँ कोने में सामने वाली ऊपरी बर्थ मिल गईं, छत के ठीक नीचे धुँधली खिड़की के पास, जहाँ वह अपने परिवार सहित व्यवस्थित हो गए, बिना बिखरे.

अंतनीना अलेक्सान्द्रव्ना पहली बार मालगाड़ी के डिब्बे में सफ़र कर रही थी. मॉस्को में चढ़ते समय यूरी अन्द्रेयेविच ने औरतों को डिब्बे के फ़र्श तक हाथों में उठाया, जिसके किनारे पर एक सरकने वाला भारी दरवाज़ा था. आगे सफ़र में औरतों को आदत हो गई और वे अपने आप डिब्बे में चढ़ने उतरने लगीं.

शुरू में तो अंतनीना अलेक्सान्द्रव्ना को ऐसा लगा ये डिब्बे पहियों वाले अस्तबल हैं. ये पिंजरे, उसकी राय में पहले ही झटके या टक्कर में गिर जाने वाले थे. मगर तीन दिनों से वे आगे-पीछे झूल रहे थे और गति में फ़र्क पड़ने से और मोड़ों पर करवट के बल गिर जाते थे, और तीसरे दिन फर्श के नीचे रह-रहकर पहियों की धुरियाँ खड़खड़ा रही थीं, जैसे चाभी वाले खिलौने के ड्रम पर डंडियाँ टनटनाती हैं, और सफ़र सही सलामत चल रहा था और अंतनीना अलेक्सान्द्रव्ना का डर सही साबित नहीं हुआ.   

छोटे छोटे प्लेटफॉर्मों वाले स्टेशनों पर तेईस डिब्बों वाली इस ट्रेन का (झिवागो परिवार चौदहवें डिब्बे में था) सिर्फ एक ही हिस्सा पहुँचता था, या तो अगला सिरा, या पूँछ्, या बीच वाला हिस्सा.

आगे वाले डिब्बे फ़ौजियों के थे, बीच वाले डिब्बों में आज़ाद लोग थे, पिछले डिब्बों में  - कठोर परिश्रम की सज़ा पाये हुए कैदी.

इस श्रेणी के लोगों की संख्या करीब-करीब पाँच सौ थी, इनमें हर उम्र के विभिन्न पदों और व्यवसायों के लोग थे.              

इन लोगों से भरे हुए आठ डिब्बे एक बहुरंगी तस्वीर पेश कर रहे थे. बढ़िया कपड़े पहने हुए अमीरों, पीटरबुर्ग के स्टॉक ब्रोकर्स और वकीलों की बगल में शोषण करने वाले वर्ग से संबंधित लोग भी थे, जैसे लापरवाह ड्राइवर्सगाड़ीवान, फर्श पॉलिश करने वाले, हम्मामों के चौकीदार, रद्दी कचरा चुनने वाले तातार, बंद कर दिये गये पागलखानों से भागे हुए पागल, छोटे-मोटे व्यापारी और प्रीस्ट.

इनमें पहले वाले लाल तपी हुई भट्टियों के पास, जैकेट के बगैर, छोटी-छोटी चौकियों पर बैठे थे. वे जैसे एक दूसरे से कुछ न कुछ कहने की और ज़ोरदार ठहाके लगाने की स्पर्धा कर रहे थे.

ये पहुँच वालेलोग थे. वे हतोत्साहित नहीं थे. उनके लिए घर पर रसूख़दार रिश्तेदार दौड़ धूप कर रहे थे. चरम सीमा में, रास्ते में, वे पैसे देकर आज़ाद हो सकते थे.

दूसरे, जो जूते पहने थे और खुले कफ़्तानों में थे या पतलून के ऊपर लम्बे, ढीले कुर्ते पहने थे और नंगे पैर थे, दाढ़ी वाले और बिना दाढ़ी वाले, उमस भरे डिब्बों के खुले हुए दरवाज़ों के पास खड़े थे, हैण्डल या दरवाज़े पर लगाए गये डंडे पकड़े, उदासी से रास्तों के पास वाली जगहों को और वहाँ के निवासियों को देख रहे थे, और किसी से भी बात नहीं कर रहे थे. उनके कोई रसूखदारपरिचित नहीं थे. उनको किसी बात की उम्मीद नहीं थी.

ये सभी लोग उनके लिए निश्चित डिब्बों में नहीं रखे गये थे. उनमें से कुछ लोगों को ट्रेन के बीच वाले हिस्से में आज़ाद लोगों के साथ भी रखा गया था.

इस किस्म के लोग चौदहवें डिब्बे में भी थे.

9

आम तौर से, जब ट्रेन किसी स्टेशन के पास पहुँच रही होती, तो ऊपर लेटी हुई अंतनीना अलेक्सान्द्रव्ना अटपटेपन से कुछ उठकर देखती. नीची छत के कारण वह सीधा होने में असमर्थ थी. वह सिर को एक ओर झुकाकर थोड़े से खुले दरवाज़े की झिरी से देखकर अंदाज़ लगाती कि सामान की अदला-बदली करने की दृष्टि से ये स्टेशन उसके किसी काम का है या नहीं, और यहाँ बर्थ से उतरकर बाहर जाना चाहिए या नहीं. 

ऐसा ही अभी भी हुआ. ट्रेन की धीमी होती रफ़्तार उसे ऊँघ से बाहर खींच लाई. कई सारे सिग्नल्स, जिनको पार करते हुए डिब्बा अधिकाधिक खड़खड़ाहट कर रहा था, आने वाले स्टेशन के महत्वपूर्ण होने और वहाँ लम्बे समय तक ट्रेन के ठहरने का संकेत दे रहे थे.

अंतनीना अलेक्सान्द्रव्ना झुक कर बैठ गई, उसने अपनी आँखें मलीं, बाल ठीक किये और मोटे कपड़े के झोले की गहराई में हाथ डालकर बिल्कुल नीचे से एक तौलिया निकाला जिस पर मुर्गों, नौजवानों, कमानों और पहियों की कशीदाकारी की गई थी.

इस बीच डॉक्टर भी उठ गया, सबसे पहले बर्थ से नीचे कूदा और बीबी को नीचे उतरने में मदद की.

इस बीच डिब्बे के खुले हुए दरवाज़े की बगल से कई सारे सिग्नल-बूथ और लालटेनों के पीछे-पीछे बर्फ की कई पर्तों से लदे-फँदे स्टेशन के पेड़ तैर रहे थे, जो अपनी सीधी हो गई टहनियों से मानो बर्फ को नमक-रोटी की तरह ट्रेन के स्वागत के लिए पेश कर रहे थे, और अभी भी तेज़ रफ़्तार से चल रही ट्रेन से सबसे पहले अनछुई बर्फ पर उछले नाविक, सबको पीछे छोड़ते हुए वे स्टेशन की इमारत के कोने के पीछे भागे, जहाँ आम तौर से, बगल वाली दीवार के पीछे खाने-पीने की प्रतिबंधित चीज़ें बेचने वाली औरतें छुपा करती थीं.

नाविकों का काला युनिफॉर्म, उनकी बिना फुंदे वाली टोपी के उड़ते हुए फीते और नीचे को चौड़ी होती हुई उनकी पतलूनें उनके कदमों को तेज़ी और साहस प्रदान कर रही थीं, और लोगों को उनके सामने से हटने पर मजबूर कर रही थीं, जैसे किसी भागते हुए स्कीयर्स या पूरे वेग से नीचे की ओर आते हुए स्केटर्स के सामने से फ़ौरन हट जाते हैं.  

स्टेशन के नुक्कड़ के पीछे, एक के पीछे एक छुपते हुए और परेशान होते हुए, जैसे भविष्य जानने वालों के सामने हों, कतार बनाकर आसपास के गाँवों की किसान औरतें खीरे, चीज़, उबला हुआ गाय का माँस और रई की चीज़-केक लेकर खड़ी थीं, जिनकी ख़ुशबू और गर्माहट रुई के बने आवरणों के नीचे बरकरार थी, जिनमें वे लाए गए थे. गरम जैकेट के भीतर टँकी हुई शॉलों से ढँकी औरतें और लड़कियाँ नौसनिकों के मज़ाकों से खसखस के फूलों की तरह लाल हो जातीं, और साथ ही उनसे आग से भी ज़्यादा डरतीं, क्योंकि ख़ासकर नौसैनिकों से ही सट्टेबाज़ी और प्रतिबंधित मुक्त व्यापार से संघर्ष हेतु हर तरह की टुकड़ियाँ बनती थीं. 

किसान औरतों की परेशानी कुछ ही देर रही. ट्रेन रुकने ही वाली थी. बचे हुए मुसाफ़िर भी आ गए. लोग एक दूसरे में मिल गए थे. व्यापार ज़ोर पकड़ रहा था.

अंतनीना अलेक्सान्द्रव्ना इन औरतों का चक्कर लगा रही थी, उसने तौलिए को इस तरह से कंधे पर डाला था, जैसे स्टेशन के पीछे बर्फ से हाथ-मुँह धोने जा रही हो. पंक्तियों में खड़ी औरतें उसे कई बार पुकार चुकी थीं:

“ ऐ, , शहर वाली, तौलिए के बदले क्या चाहती हो?”

मगर अंतनीना बगैर रुके पति के साथ आगे चलती गई.

कतार के अंत में लाल डिज़ाइन वाली काली शॉल ओढ़े एक औरत खड़ी थी. उसने कसीदाकारी वाले तौलिये को देख लिया. उसकी धृष्ठ आँखें जलने लगीं. उसने इधर-उधर नज़र डाली, ये यकीन कर लिया कि कोई ख़तरा नहीं है, फ़ौरन अंतनीना अलेक्सान्द्रव्ना के बिल्कुल पास गई और, और अपने माल से आवरण हटा कर जोश से जल्दी-जल्दी बुदबुदाई:

“देक्खो, क्या है. कभी ऐसा देक्खा है? ललचा रही है ना? सोचने में टाइम न लगा – खींच लेंगे.

तौलिया दे दे अद्धे के लिए.”

अंतनीना अंतिम शब्द समझ नहीं पाई. उसे लगा, कि बात किसी शॉल के बारे में हो रही है. उसने फिर से पूछा:

“तू क्या कह रही है, प्यारी?”

अद्धे से किसान औरत का मतलब था आधे ख़रगोश से, जिसके दो टुकड़े किए गये थे और सिर से पूँछ तक पूरा तला गया था, जिसे वह हाथों में पकड़े थी. उसने फिर से दुहराया:

“दे दे, कह रही हूँ, तौलिया अद्धे के लिए. तू देख क्या रही है?

अरे, कुत्ते का नहीं है. मेरा शौहर शिकारी है. ख़रगोश है ये, ख़रगोश.”

आदान-प्रदान हो गया. दोनों पक्षों को ऐसा लगा कि उन्हें बहुत फ़ायदा हुआ है, और सामने वाले को बहुत नुक्सान हुआ है. अंतनीना अलेक्सान्द्रव्ना को शर्म आ रही थी, कि उसने इतनी बेईमानी से ग़रीब देहातिन को मूंड दिया है. मगर वह, अपने सौदे से ख़ुश, फ़ौरन गुनाह से दूर भाग गई और, अपनी पड़ोसन को, जिसने पूरा सामान बेच दिया था, बुला कर उसके साथ बर्फ पर बुरी तरह कुचली गई, दूर तक जाती हुई पगडंडी पर चल दी.

इसी समय भीड़ में भगदड़ मच गई. एक बुढ़िया कहीं चिल्ला रही थी.

“कहाँ चले, छैला बाबू? और पैसे? तूने कब दिये मुझको, बेशरम? आह, तू, लालची कहीं का, उससे चिल्लाकर कह रहे हैं, और वह चला जा रहा है, देखता भी नहीं है. ठहर जा, कह रही हूँ, ठहर जा, महाशय कॉम्रेड ! संतरी!

डाका पड़ा है! लूट लिया! ये रहा वो, ये रहा, पकड़ो उसे!”

“कौनसा वाला?”

“वो, चिकने थोबड़े वाला, जा रहा है, हँस रहा है.”

“वो, जिसकी आस्तीन पर पैबन्द है?”

“हाँ, अरे हाँ. अरे, मालिकों, लूट लिया!”

यहाँ क्या किस्सा है?”

“बुढ़िया से दूध और भरवाँ पेस्ट्री खरीदी, भरपेट खाया और छूमंतर हो गया.

ये रो रही है, छाती पीट रही है.”

“इसे ऐसे नहीं छोड़ना चाहिए. उसे पकड़ना चाहिये.”

“जाओ, पकड़ो. बेल्ट और कारतूसों से लैस है. वो ही तुझे पकड़ लेगा.

 

10

चौदहवें डिब्बे में कई लोग थे जिन्हें श्रमिक-फ़ौज के लिए जबरन ले जाया जा रहा था. रक्षक दल का वरन्यूक उनकी सुरक्षा कर रहा था. उनमें से कई कारणों से तीन को अलग किया गया था. ये थे: पेत्रोग्राद के सरकारी वाईन-स्टोर का भूतपूर्व कैशियर प्रोखर खरितोनविच प्रित्यूलेव, जिसे डिब्बे में कस्त्येर कहते थे; सोलह साल का वास्या बीर्किन, लोहे की दुकान में काम करने वाला बच्चा, और सफ़ेद बालों वाला क्रांतिकारी-कार्यकर्ता कस्तोयेद-अमूर्स्की, जो पुराने ज़माने में सभी लेबर-कैम्प्स में जा चुका था और अब नये ज़माने में लेबर कैम्प्स का नया सिलसिला शुरू कर दिया था.

ये सभी भर्ती किये गये लोग, जिन्हें यहाँ-वहाँ से पकड़ लिया गया था, एक दूसरे के लिए अनजान थे, और सिर्फ सफ़र के दौरान ही धीरे-धीरे उनका एक दूसरे से परिचय हुआ था. डिब्बे में होती रही बातों से पता चला, कि कैशियर प्रित्यूलेव और दुकानदार का शागिर्द वास्या बीर्किन – एक ही जगह के हैं, दोनों व्यात्का के हैं, और इसके अलावा, उनका उन्हीं जगहों पर जन्म हुआ था, जहाँ से ट्रेन कुछ समय बाद गुज़रने वाली थी.         

मल्मीझ शहर का व्यापारी प्रित्यूलेव नाटा-मोटा, ऊदबिलाव जैसे काटे गए बालों वाला, चेचकरू, फूहड़ आदमी था. उसका भूरा जैकेट जो पसीने के कारण काँख के नीचे काला हो गया था, उसके बदन पर कस कर बैठा था, जैसे किसी औरत के भरेपूरे सीने पर सराफ़ान का ऊपर वाला हिस्सा चिपक कर बैठता है. वह किसी मूर्ति की तरह ख़ामोश था, और घंटों किसी बात के बारे में सोचते हुए अपने झाइयों वाले हाथों के मस्से खींचकर निकालता, जिससे वे लहूलुहान हो जाते और उनमें पीप भर जाती.

साल भर पहले पतझड़ में वह नेव्स्की प्रॉस्पेक्ट पर जा रहा था और लितैनी के नुक्कड़ पर हो रही छापामारी में फँस गया. उससे कागज़ात माँगे गए.

पता चला कि उसके पास चौथी श्रेणी का राशन-कार्ड है, जो गैरश्रमिक तत्वों को दिया जाता है और जिस पर कभी भी कोई राशन नहीं दिया जाता. उसे इसी कारण से पकड़ लिया गया और अन्य कई लोगों के साथ, जिन्हें इसी आधार पर सड़क पर रोक लिया गया था, पहरेदारों के साथ जेल भेज दिया गया. इस तरह एकत्रित किये गए लोगों की पार्टी को, पहले भी इसी तरह अर्खान्गेल्स्क मोर्चे पर खाइयाँ खोदने के लिए बनाई गई श्रमिक-फौज के अनुसार, पहले वलोग्दा भेजने का सुझाव दिया गया, मगर रास्ते से ही उसे वापस बुला लिया गया और मॉस्को होते हुए पूर्वी मोर्चे पर भेज दिया गया.          

प्रित्यूलेव की बीबी लूगा में रहती थी, जहाँ वह पीटर्सबुर्ग में नौकरी करने से पहले, युद्ध पूर्व के वर्षों में काम करता था. उस पर आई मुसीबत के बारे में इधर-उधर से जानकर वह उसे ढूँढ़ने वलोग्दा भागी, ताकि श्रमिक-फ़ौज से बाहर निकाल सके. मगर उसकी खोज के मार्ग से टुकड़ी के रास्ते बदल गये. उसकी मेहनत बेकार गई. सब कुछ उलझ गया.

पीटर्सबुर्ग में प्रित्यूलेव पिलागेया नीलव्ना तिगूनवा के साथ रहता था. उसे नेव्स्की के चौराहे पर ठीक उसी समय रोका गया था, जब वह काम के सिलसिले में दूसरी ओर जाते हुए, नुक्कड़ पर उससे बिदा ले चुका था, और दूर से भी लितेयनाया पर पैदल जा रहे लोगों के बीच उसकी पीठ की झलक देख रहा था, जो जल्दी ही छुप गई थी. 

ये तिगूनवा, भरेपूरे जिस्म वाली, शानदार, मध्यम व्यापारी वर्ग की महिला थी, उसके हाथ ख़ूबसूरत थे और मोटी चोटी थी, जिसे वह गहरी साँसें लेते हुए कभी एक कंधे पर फेंक रही थी, तो कभी दूसरे पर. तिगूनवा स्वेच्छा से प्रित्यूलव के साथ श्रमिक फ़ौज में जा रही थी.

समझ में नहीं आता था कि इन औरतों को, जो उससे चिपकी हुई थीं, प्रित्यूलेव जैसे बुत में क्या नज़र आता था. तिगूनवा के अलावा, इस काफ़िले के एक अन्य डिब्बे में, जो इंजिन के कुछ और करीब था, प्रित्यूलेव की एक और परिचित औरत जा रही थी जो न जाने कैसे ट्रेन में घुस गई थी. ये सुनहरे बालों वाली दुबली-पतली लड़की अग्रिज़्कोवा थी, जिसे तिगूनवा अन्य अपमानजनक गालियों के अलावा “नथुना” और “सिरींज” भी कहती थी.

दोनों प्रतिस्पर्धी औरतें हमेशा जैसे चाकू ताने रहती थीं और एक दूसरे की नज़रों में पड़ने से बचती थीं. अग्रिज़्कोवा कभी भी डिब्बे में नहीं दिखाई देती थी, और ये एक पहेली थी, कि वह अपने प्रिय पात्र से कहाँ मिलती थी. हो सकता है कि जब सारे मुसाफ़िरों द्वारा ट्रेन में ईंधन और कोयला चढ़ाया जा रहा होता, तो वह दूर से ही उसका चेहरा देखकर ही संतुष्ट हो जाती हो.

 

11

वास्का की कहानी कुछ और ही थी. उसके पिता युद्ध में मारे गए थे. माँ ने वास्या को गाँव से चाचा के पास सीखने के लिये पीटर्सबुर्ग भेजा.

सर्दियों में चाचा को, जो अप्राक्सिन कम्पाउण्ड में हार्डवेयर की दुकान का मालिक था, सोवियत में पूछताछ के लिए बुलाया गया. वह गलत दरवाज़े में घुस गया, और सम्मन में उल्लेखित कमरे के बदले बगल वाले कमरे में पहुँच गया.

संयोगवश ये कमरा श्रमिकों की भर्ती करने वाले कमिशन का प्रवेश कक्ष था. उसमें बहुत भीड़ थी. जब इस कमरे में बुलाये गये लोगों की संख्या काफ़ी हो गई तो लाल-सैनिक आये और उन्हें ले जाकर रात बिताने के लिये सिम्योनव्स्की बैरेक्स में रख दिया. सुबह वलोग्दा जाने वाली ट्रेन में चढ़ाने के लिए उन्हें स्टेशन ले जाया गया.

इतने सारे निवासियों को नज़रबन्द किये जाने की ख़बर शहर में फ़ैल गई. दूसरे दिन अधिकांश परिवारों के सदस्य अपने रिश्तेदारों से बिदा लेने स्टेशन की ओर चले. उनमें चाचा को बिदा करने के लिये वास्या भी अपनी चाची के साथ था. 

स्टेशन पर चाचा ने चौकीदार से एक मिनट के लिये उसे बीबी के पास छोड़ने का अनुरोध किया. ये चौकीदार वरन्यूक था, जो अब मालगाड़ी के चौदहवें डिब्बे में इस ग्रुप के साथ जा रहा था. बिना किसी विश्वसनीय ज़मानत के, कि चाचा वापस लौटेगा, वरन्यूक उसे छोड़ने के लिए तैयार नहीं हुआ. ऐसी ज़मानत के तौर पर चाचा और चाची ने भतीजे को चौकीदार के पास पहरे में रखने की पेशकश की. वरन्यूक राज़ी हो गया. वास्या को फ़ेन्स के भीतर लाया गया, चाचा को बाहर लाया गया. चाचा और चाची फिर लौटे ही नहीं.

जब इस धोखाधड़ी का पता चला तो वास्या रोने लगा. वह वरन्यूक के पैरों पर गिर पड़ा और उसके हाथ चूमने लगा, गिड़गिड़ाने लगा कि उसे आज़ाद कर दे, मगर कुछ फ़ायदा नहीं हुआ. पहरेदार टस से मस न हुआ. वह स्वभाव से क्रूर नहीं था, मगर समय बड़ा कठिन था, नियम सख़्त थे. रक्षक को उसे सौंपे गए लोगों की संख्या की कीमत अपनी जान से चुकानी पड़ती, जिसकी हाज़िरी लेकर जाँच की जाती थी. इस तरह से वास्या श्रमिक-फ़ौज में आया था.

कार्यकर्ता कस्तोयेद-अमूर्स्की सभी जेलरों का आदर पात्र था, चाहे वे त्सार के शासन के हों या फिर वर्तमान समय के, और वह सभी से बेतकल्लुफ़ी से पेश आता था. उसने कई बार रक्षक दल के प्रमुख का ध्यान वास्या की असहनीय परिस्थिति की ओर आकर्षित किया. उसने स्वीकार किया कि वाकई में बहुत बड़ी ग़लतफ़हमी हो गई थी, मगर बोला कि कुछ व्यावहारिक कठिनाइयाँ सफ़र के दौरान इस ग़लतफ़हमी को सुलझाने की इजाज़त नहीं दे रही हैं और उसे उम्मीद है कि गंतव्य पर पहुंचने के बाद इसे सुलझा लेगा.

वास्या बहुत अच्छा लड़का था, अच्छे नाक-नक्श वाला, जैसे तस्वीरों में दिखाये गए त्सार के अंगरक्षक या ख़ुदा के फ़रिश्ते होते हैं. वह असाधारण रूप से साफ़-सुथरा और मासूम था. उसका पसंदीदा शौक था, बड़ों के पैरों के पास फ़र्श पर बैठना और घुटनों को हाथों से लपेट कर, सिर पीछे करके सुनते रहना कि वे क्या कह रहे हैं या सुना रहे हैं.

उस समय उसके चेहरे के स्नायुओं की हलचल से, जिनसे वह आँखों में छलक आये आँसुओं को रोकता था या बेतहाशा हँसी को रोकता, उस बात का अंदाज़ लगाया जा सकता था, जो कही जा रही थी. बातचीत का विषय भावुक लड़के के चेहरे पर आईने की तरह परावर्तित होता था.

                              12

कार्यकर्ता कस्तोयेद झिवागो परिवार के साथ ऊपर बैठा था और चटखारे लेकर ख़रगोश के कंधे की हड्डी चूस रहा था, जो उसे पेश की गई थी. उसे हवा के झोंकों और ज़ुकाम से डर लगता था. “कैसी हवा चल रही है! ये कहाँ से है?”- वह पूछता और अपने लिए कोई सुरक्षित जगह ढूँढ़ते हुए बार-बार सरकता.

आख़िर में वह इस तरह बैठ गया कि हवा उस पर न आये, और बोला, “अब ठीक है”. उसने हड्डी को पूरी तरह चूसा, उँगलियाँ चाटीं, उन्हें रूमाल से पोंछा और, मेज़बान को धन्यवाद देकर बोला:

“ये आपके पास खिड़की से आ रही है. उसे अच्छी तरह सीलकरना होगा. ख़ैर, अपनी बहस की ओर लौटते हैं. आप ग़लत हैं, डॉक्टर. तला हुआ ख़रगोश – शानदार चीज़ है. मगर इससे ये निष्कर्ष निकालना कि गाँव ख़ुशहाल है, ये, माफ़ कीजिए, बेधड़क तो नहीं, मगर ख़तरनाक किस्म की छलांग है.”

“ओह, छोड़िये भी,” यूरी अन्द्रेयेविच ने प्रतिवाद किया, “इन स्टेशनों की ओर देखिये. पेड़ काटे नहीं गये हैं. फ़ेन्सिंग सही-सलामत है. और ये बाज़ार!

ये औरतें! सोचिये, कितना संतोष है! कहीं तो ज़िंदगी है.

कोई तो ख़ुश है. सभी आहें नहीं भर रहे हैं. इसीसे सब स्पष्ट हो जाता है."

"ठीक है, अगर ऐसा है तो. मगर ऐसा नहीं है. आपने ये कैसे समझ लिया? रेल्वे प्लेटफॉर्म से पचास मील दूर भीतर की ओर जाइये. चारों ओर किसानों के विद्रोह लगातार जारी हैं. किसके ख़िलाफ़, आप पूछेंगे? 'श्वेत गार्ड्स' (यहाँ बोल्शेविक विरोधियों से तात्पर्य है, बोल्शेविकों को 'लाल' कहा जाता था - अनु.) के ख़िलाफ़ और 'रेड आर्मी' के ख़िलाफ़, ये देखते हुए कि वहाँ किसका शासन है. आप कहेंगे, आहा, किसान हर तरह के शासन का दुश्मन है, वह ख़ुद ही नहीं जानता कि उसे क्या चाहिये. माफ़ कीजिये, जश्न मनाने की जल्दी न कीजिए. वह आपसे बेहतर जानता है, मगर वह 'वो' नहीं चाहता जो हम और आप चाहते हैं.

जब क्रांति ने उसे जगाया, तो उसने फ़ैसला कर लिया कि उसका सदियों का सपना पूरा होने जा रहा है - अलग-थलग रहने का सपना, निरंकुश फार्म में अस्तित्व का, अपने हाथों से किए गए श्रम से जीने का सपना, किसी पर भी निर्भर हुए बिना और दायित्व के बिना. मगर वह पुरानी, अपदस्थ कर दी गई सरकार के चंगुल से निकलकर  नई, क्रांतिकारी 'सुपर'सरकार के अधिक भारी दबाव के नीचे आ गया है. और इसलिए गाँव थपेड़े खा रहा है और उसे कहीं भी चैन नहीं मिल रहा है. और आप कहते हैं कि किसान फलफूल रहा है. मेरे प्यारे, आप कुछ भी नहीं जानते और, जैसा कि मैं देख रहा हूँ, कुछ जानना भी नहीं चाहते. "

तो क्या, सचमुच में नहीं चाहता. बिल्कुल सही है. आह, रुकिये भी! मुझे सब कुछ जानने की और हर चीज़ के लिये सज़ा भुगतने की ज़रूरत ही क्या है? वक्त मेरा साथ नहीं दे रहा है, और मुझ पर जो चाहे वह थोप रहा है. तो मुझे भी तथ्यों को अनदेखा करने की इजाज़त दीजिये. आप कह रहे हैं, मेरी बातें वास्तविकता से मेल नहीं खाती हैं. मगर क्या रूस में इस समय वास्तविकता है?

मेरे ख़याल से, उसे इस कदर डरा दिया गया है कि वह छुप गई है. मैं यकीन करना चाहता हूँ कि गाँव जीत गया है और फलफूल रहा है. अगर ये भी भ्रम है, तो फिर मैं क्या करूँ? कैसे जिऊँ, किसकी बात सुनूँ? मगर जीना तो मुझे है, मैं परिवार वाला आदमी हूँ.”

यूरी अन्द्रेयेविच ने हाथ झटका और, अलेक्सान्द्र अलेक्सान्द्रोविच के ऊपर कस्तोयेद के साथ हो रही बहस को पूरा करने ज़िम्मेदारी छोड़कर बर्थ के किनारे की ओर सरका और सिर लटका कर देखने लगा कि नीचे क्या हो रहा है.

वहाँ प्रित्यूलेव, वरन्यूक, तिगूनवा और वास्या के बीच साधारण बातचीत हो रही थी. अपने वतन के नज़दीक आने की वजह से प्रित्यूलेव को याद आया कि ये सारी जगहें एक दूसरे के साथ कैसे जुड़ी हुई हैं, किस स्टेशन तक जाते हैं, कहाँ उतरते हैं और कैसे पैदल या घोड़ों पर आगे जाते हैं, और वास्या जाने पहचाने देहातों और गाँवों के नामों के उल्लेख पर उछल रहा था, उसकी आँखों में चमक थी और वह उत्तेजना से उनके नाम दुहरा रहा था, क्योंकि उनके नाम उसके कानों में किसी परीकथा की तरह गूँज रहे थे.

“ड्राय फोर्ड पर उतरोगे?” उसने हाँफ़ते हुए पूछा. “बेशक. हमारा जंक्शन है! हमारा स्टेशन! और फ़िर, शायद, बुयस्कोए की ओर जाओगे?”

“फिर बुयस्की वाली गली.”

“मैं भी यही कह रहा हूँ – बुयस्की से. गाँव बुयस्की. कैसे पता नहीं होगा!”

हमारा मोड़. वहाँ से हमारे यहाँ बस दाएँ, दाएँ. विरेतेन्निक को. और आपके यहाँ, चचा खरितोनिच, शायद बाएँ, नदी से सीधे? पेल्गा नदी का नाम सुना है? कैसे नहीं सुना? हमारी नदी है. और हमारे यहाँ जाते हैं किनारे किनारे. और इसी नदी पर, पेल्गा नदी पर ऊपर की ओर हमारा विरेतेन्निकी, हमारा गाँव! बिल्कुल चट्टान पर! किनारा ऊँ-ऊँ-चा!”

“हमारे यहाँ इसे – काऊन्टर कहते हैं. ऊपर खड़े हो जाओ, नीचे देखने में डर लगता है, ऐसी चढ़ाई है. डर लगता है कि कहीं गिर न जाओ: ऐ ख़ुदा, सही में कह रहा हूँ. पत्थर तोड़ते हैं. चक्की के पत्थर. और वहाँ विरेतेन्निकी में है मेरी माँ. और दो बहनें. बहन अल्योन्का. और अरीष्का बहन. मेरी माँ, चाची पलाशा, पिलागेया निलोव्ना, सच कहूँ तो, आप जैसी, जवान, गोरी-गोरी.

वरन्यूक चचा! चचा वरन्यूक! ईसा का वास्ता देकर विनती करता हूँ...चचा वरन्यूक.”

“क्या है? ये तू कोयल की तरह बार-बार “चचा वरन्यूक, चचा वरन्यूक” क्यों कह रहा है? क्या मुझे मालूम नहीं कि मैं आन्टी नहीं हूँ? तू क्या चाहता है, तुझे क्या चाहिये? कि तुझे भाग जाने दूँ? तू क्या कह रहा है? तू निकल भागे और इसके लिए मैं गोली खाऊँ?”

पिलागेया तिगूनवा खोई-खोई नज़रों से कहीं दूर, एक किनारे देख रही थी और ख़ामोश थी. वह वास्या का सिर सहला रही थी और, कुछ सोचते हुए उसके सुनहरे बालों में ऊँगलियाँ फेर रही थी. कभी कभी वह सिर हिलाते हुए, आँखों से और मुस्कुराहट से बच्चे को कुछ इशारे कर रही थी, जिसका मतलब यह था, कि वह बेवकूफ़ी न करे और ऐसी बातों के बारे में वरेन्यूक से सबके सामने, ज़ोर से बात न करे. थोड़ा सब्र कर, सब कुछ अपने आप हो जाएगा, इत्मीनान रख.”

                                                                  

13

जब मध्य रूस के क्षेत्र से पूर्व की ओर जाने लगे तो अनेक अप्रत्याशित घटनाएँ होने लगीं. वे अशांत जगहों से गुज़र रहे थे, जहाँ सशस्त्र डाकुओं के गिरोहों का राज था, और जहाँ हाल ही में हुए विद्रोहों को कुचल दिया गया था.

ट्रेन बार-बार खेतों के बीच में रुक जाती, सुरक्षा-दस्ते डिब्बों का चक्कर लगारे, सामान की चेकिंग होती, कागज़ात की जाँच की जाती.

एक बार रात में ट्रेन किसी जगह रुकी. डिब्बों में किसी ने नहीं झाँका, किसी को उठाया नहीं गया. इस उत्सुकता से कि कोई दुर्घटना तो नहीं हो गई, यूरी अन्द्रेयेविच डिब्बे से नीचे कूदा.

रात अँधेरी थी. ट्रेन बिना किसी स्पष्ट कारण के किसी खेत के बीच में फर-वृक्षों की कतार के पास लगे मील के पत्थर के पास खड़ी थी. यूरी अन्द्रेयेविच के पड़ोसियों ने, जो पहले ही कूद कर बाहर आ गये थे और डिब्बे के सामने पैर पटक रहे थे, बताया कि उनकी जानकारी के अनुसार कुछ भी नहीं हुआ था, बल्कि, इंजिन ड्राइवर ने ख़ुद ही ट्रेन रोक दी थी, ये कहकर कि यह जगह – ख़तरनाक है, और जब तक  ट्रॉली द्वारा पटरियों के सही होने की जाँच नहीं कर ली जाती, वह ट्रेन को आगे नहीं ले जायेगा. कहते हैं कि मुसाफ़िरों के प्रतिनिधि उसे मनाने के लिये गये हैं और, ज़रूरत पड़ने पर, उसे कुछ “दे भी देंगे”. अफ़वाहों के अनुसार नौ सैनिक मामले में दख़ल दे रहे हैं. वे उसे मना लेंगे.

जब यूरी अन्द्रेयेविच को ये सब बताया जा रहा था, तो पटरियों के सामने, इंजिन के बगल वाला बर्फीला मैदान चिमनी से निकलती चिंगारियों और इंजिन के नीचे वाले राख के बर्तन से इस तरह चमक रहा था, जैसे साँस छोड़ती हुई अलाव की लपटों से प्रकाशित हो रहा हो. अचानक एक ऐसी लपट ने बर्फीले खेत के एक टुकड़े, इंजिन और इंजिन की फ़्रेम के किनारे किनारे भागती हुई काली आकृतियों को प्रकाशित किया.       

सबसे आगे, ज़ाहिर है, था ड्राइवर. पुलिया के अंत तक भागकर वह ऊपर की ओर उछला और बफ़र-रॉड को फाँदकर नज़रों से ओझल हो गया. उसके पीछे भागते हुए नौसैनिकों ने भी वैसा ही किया. वे भी जाली के अंत तक गये, हवा में उनकी एक झलक दिखाई दी और वे मानो धरती में गड़प हो गये.

इस दृश्य से आकर्षित होकर यूरी अन्द्रेयेविच कुछ और उत्सुक लोगों के साथ इंजिन की ओर चल पड़ा.

खुले, ट्रेन के सामने खुलते हुए रास्ते के एक भाग में उसे यह दृश्य दिखाई दिया: पटरियों के एक ओर अनछुई बर्फ में आधा धँसा हुआ ड्राइवर दिखाई दे रहा था. उसका पीछा करने वाले – किसी जानवर को हाँकने वालों जैसे, उसे आधा गोल बनाकर घेरते हुए, उसीके समान बर्फ में आधे धँसे थे.

ड्राइवर चिल्ला रहा था:

“शुक्रिया, तूफ़ानी पंछियों! ये भी देखना था! अपने ही भाई के ख़िलाफ़, मज़दूर के ख़िलाफ़ पिस्तौल लिये! इसीलिए मैंने कहा था कि ट्रेन आगे नहीं जायेगी.

कॉम्रेड मुसाफ़िरों, आप गवाह हो, कैसा है यह प्रदेश. जो चाहे, वही मँडराता है और पेंच निकालने लगता है. मैं आपकी माँ को...दादी को...मेरा क्या जाता है? मैं, आपकी पसलियों के नीचे डंडा घुसाकर, अपने बारे में नहीं, आपके बारे में, ताकि आपको कुछ न हो. और इसका मुझे ये बदला मिला है. चलो, ठीक है, मार मुझे गोली, खदान वाली फ़ौज! कॉम्रेड मुसाफ़िरों, गवाही देना, ये रहा वो – मैं छुप नहीं रहा हूँ.”

रेल्वे लाइन के तटबंध पर खड़े झुण्ड में से विविध प्रकार की आवाज़ें सुनाई दे रही थीं. कुछ लोग चौंक कर चहकने लगे:

“तू क्या कह रहा है? होश में आ...कुछ नहीं हुआ है...उन्हें कौन देगा? ये तो उन्होंने यूँ ही...डराने के लिए...”

कुछ और लोग उसे उत्साहित कर रहे थे:      

“शाबाश, गव्रील्का! हारना मत, स्टीम-इंजिन की शान!”

वह नौसैनिक, जो सबसे पहले बर्फ से बाहर निकला था और लाल बालों वाला महाकाय था, जिसका सिर इतना बड़ा था कि चेहरा सपाट नज़र आता था, शांति से भीड़ की ओर मुड़ा और गहरी आवाज़ में हौले से, वरन्यूक की तरह युक्रेनियन लहज़े में, कुछ कहने लगा, उसके शब्द इस असाधारण रात के वातावरण में अपनी सम्पूर्ण शांति के कारण हास्यास्पद लग रहे थे:       

“माफ़ी माँगता हूँ, मगर ये हंगामा किसलिये? इस हवा में आप बीमार हो जाओगे, नागरिकों. ठण्डी हवा से अपने अपने डिब्बों में जाइये!”

जब धीरे धीरे भीड़ अपने-अपने डिब्बों की ओर जाने लगी, तो लाल बालों वाला नौसैनिक ड्राइवर के पास आया, जो अभी तक पूरी तरह अपने आप में नहीं आया था, और बोला:

“ये नाटक बंद करो, कॉम्रेड ड्राइवर. गढ़े से बाहर निकलो.

चलो, जाएँगे.”

 

14

दूसरे दिन आराम से चलते हुए, बर्फ से ढँकी और साफ़ न की गईं पटरियों से फ़िसल जाने के डर से, हर मिनट अपनी गति को कम करते हुए, ट्रेन एक निर्जन स्थान पर रुकी, कोई भी पहचान न पाया कि ये आग से नष्ट हुए स्टेशन के भग्नावशेष हैं.

धुँए से काले हो गये उसके दर्शनीय भाग पर पढ़ा जा सकता था “नीझ्नी केल्मेस”.

अग्निकांड के निशान सिर्फ स्टेशन पर ही नहीं दिखाई दे रहे थे.

स्टेशन के पीछे एक निर्जन और बर्फ से ढँका देहात दिखाई दे रहा था, जिसने, ज़ाहिर है, स्टेशन के साथ उसके दुर्भाग्य को बाँटा था.

देहात का अंतिम घर कोयला हो चुका था, पड़ोस वाले घर में कुछ शहतीरें कोनों से उखड़ गई थीं और उनके सिरे भीतर घुस गए थे, रास्ते पर चारों ओर स्लेज गाड़ियों के टुकड़े, गिरी हुई बागडें, कटी हुई लोहे की चादरें, घर के टूटे हुए बर्तन बिखरे थे. राख और धुँए से गन्दी हो गई बर्फ झुलसे हुए धब्बों के बीच से काली नज़र आ रही थी और उस पर जमी हुई धोवन और बर्फ से ढँके डंडे पड़े थे, जो आग लगने और उसे बुझाने के निशान थे.

देहात और स्टेशन पूरी तरह निर्जन नहीं थे. कहीं कहीं इक्का-दुक्का लोग नज़र आ जाते थे.

“क्या पूरी बस्ती जल गई?” प्लेटफॉर्म पर कूद कर आये ट्रेन-मास्टर ने सहानुभूति से उससे मिलने के लिए एक खण्डहर से बाहर निकल कर आते हुए स्टेशन-मास्टर से पूछा.

“नमस्ते. शुक्र है कि आप सही-सलामत पहुँच गये. जलने को तो जल गये, मगर अब तो अग्निकाण्ड से भी बदतर किस्सा होने वाला है.”

“समझ में नहीं आया.”

“उसकी गहराई में न जाना ही बेहतर है.”

“कहीं स्त्रेल्निकव तो नहीं?”

वही तो है.”

“आपने कौनसा गुनाह किया था?”

“अरे, हमने नहीं. बगल वाले रास्ते पर हुआ था हंगामा. पड़ोसी. हमें भी नुक्सान उठाना पड़ा. देख रहे हैं, दूर, भीतर की ओर वो गाँव? वे हैं गुनाहगार. देहात नीझ्नी केल्मेस, ऊस्त-नेम्दा जिले का. सब उन्हीं की वजह से हुआ.”

और उन्होंने क्या किया था?:

“करीब-करीब सातों ख़तरनाक गुनाह कर डाले. गरीब किसानों की कमिटी को भंग कर दिया, ये हुआ पहला गुनाह; रेड आर्मी को घोड़े देने के आदेश का विरोध किया, और ग़ौर कीजिए कि हरेक तातार – घुड़सवार है - ये था दूसरा गुनाह; और लामबन्दी के आदेश का पालन नहीं किया – तीसरा, जैसा आप देख सकते हैं.”

“अच्छा, अच्छा. तो फ़िर सब समझ में आ गया. और इसके लिए तोप के गोलों से भून दिया?”

“यही हुआ.”

“बख़्तरबन्द ट्रेन से?”

“ज़ाहिर है.”

“बड़े दुख की बात है. सहानुभूति के काबिल. खैर, ये हमारे सोचने की बात नहीं है.”

“फिर बात पुरानी हो गई है. आपको ख़ुश करने के लिये कोई नई ख़बर मेरे पास नहीं है.. दो-एक दिन हमारे यहाँ खड़े रहिये.”

“मज़ाक छोड़िये. मेरे पास कोई मामूली चीज़ नहीं, बल्कि मोर्चे पर भेजी जाने वाली कुमक है. मुझे आदत है – बिना रुके जाने की.”

“कहाँ के मज़ाक. बर्फ के टीले, आप ख़ुद ही देखिये. हफ़्ते भर से पूरे प्रदेश में बर्फानी तूफ़ान का तांडव हो रहा था. बर्फ ने सब कुछ दबा दिया है. और फ़ावडे चलाने के लिये कोई नहीं है. आधा देहात भाग गया है. बचे हुए लोगों को लगाया है, फिर भी हो नहीं पायेगा.”

“आह, कितनी उलझन है आपके यहाँ! गया काम से, गया! तो, अब क्या करना है?”

“किसी तरह साफ़ करेंगे, तब आगे जाइये.”

“क्या बड़े बड़े ढेर हैं?”

“ये नहीं कह सकते कि बहुत बड़े हैं. कहीं कहीं. तूफ़ान तिरछा होकर निकल गया, पटरियों से कोण बनाते हुए. सबसे मुश्किल हिस्सा है कहीं मध्य में.

तीन किलोमीटर की गहरी जगह में खुदाई करनी पड़ेगी. वहाँ वाकई में बहुत मुश्किल होगी. ये जगह सचमुच में ठूँस-ठूँस कर भरी है. मगर उसके आगे कुछ नहीं, तायगा है – जंगल ने बचा लिया. उसी तरह उस गहरी जगह से पहले, खुला मैदान है, घबराने की बात नहीं, हवा उड़ा ले गई.”

“आह, आपको शैतान ले जाये. कितनी डरावनी परिस्थिति है! मैं पूरी ट्रेन को काम पर लगा दूँगा, मदद करने दो.”

“मैंने ख़ुद भी ऐसा ही सोचा था.”

“सिर्फ नौसैनिकों को न छेड़िये और रेड आर्मी वालों को भी. पूरी श्रमिक फ़ौज है. साथ में आज़ाद मुसाफ़िर भी करीब सात सौ हैं.”

“बस, बस, काफ़ी हैं. बस, सिर्फ फ़ावड़े ला रहे हैं, और शुरू कर देंगे. फ़ावड़े कम पड़ रहे हैं. बगल के गाँवों से मंगवाये हैं. मिल जाएँगे.”

“कैसी विपत्ति है, ऐ ख़ुदा! क्या सोचते हैं, हम कर पायेंगे?”

“और नहीं तो क्या. एक साथ मिल जाएँ, - तो जैसा कहते हैं, - “शहर भी खींच सकते हैं. ये रेल मार्ग है. धमनी. आइये.”

 

15

रेल्वे लाइन की सफ़ाई में तीन दिन लग गये. झिवागो परिवार के सभी सदस्यों ने, जिनमें न्यूशा भी शामिल थी, इसमें सक्रिय योगदान दिया. यह उनके सफ़र का बेहतरीन समय था.

उस जगह पर कुछ छुपा-छुपा-सा, अनकहा-सा था. वहाँ से पूश्किन के विचलन में पुगाचेवियत की गंध आ रही थी, अक्साकव के वर्णनों में एशियाईपन महसूस हो रहा था.

इस छोटे से कोने की रहस्यमयता को खण्डहर और वहाँ बचे कुछ लोगों की चुप्पी पूरा कर रही थी, जो डरे हुए थे, ट्रेन के मुसाफ़िरों से बच रहे थे और चुगली किये जाने के डर से एक दूसरे से बात नहीं कर रहे थे.

काम पर श्रेणियों के हिसाब से ले जा रहे थे, सभी तरह के लोगों को एक साथ नहीं बुलाया जाता था. काम के क्षेत्र के चारों ओर पहरेदारों का घेरा था.

रेल्वे लाइन को सभी किनारों से एक साथ साफ़ किया जा रहा था, अलग-अलग जगहों पर विभिन्न ब्रिगेड्स तैनात थीं. अंत तक साफ़ किये गए हिस्सों के बीच में बर्फ के अनछुए टीले थे, जो बगल वाली टुकड़ियों को एक दूसरे से अलग कर रहे थे. इन टीलों को सबसे अंत में साफ़ किया गया, जब सभी ज़रूरी भागों को साफ़ कर दिया गया था.

दिन साफ़ और ठिठुरन भरे थे. उन्हें बाहर ले जाया जाया, वापस अपने डिब्बे में सिर्फ रात बिताने के लिये ही लौटते. छोटी-छोटी पारियों में काम करते, जिससे थकान नहीं होती थी, क्योंकि फ़ावड़ों की कमी थी, और काम करने वाले बहुत ज़्यादा थे. ये बिना थकाने वाला काम सिर्फ ख़ुशी देता था.

वह जगह, जहाँ झिवागो परिवार खुदाई करने के लिये जाता था, खुली, किसी तस्वीर जैसी थी. इस स्थान पर यह भू-भाग पहले रेल की पटरियों से पूरब की ओर नीचे जा रहा था, और फ़िर लहरियेदार चढ़ाव से सीधे क्षितिज तक जा रहा था.

पहाड़ पर एक अकेला, चारों ओर से खुला हुआ घर था. एक बाग उसे घेर रहा था, जो गर्मियों में, शायद, फूलता होगा, मगर अभी तो वह अपने बर्फ से ढँके डिज़ाइन और विरलता के कारण इमारत की रक्षा नहीं कर सकता था.

बर्फ की चादर ने हर चीज़ को ढाँक कर लपेट दिया था. मगर ढलान की मुख्य अनियमितताओं को देखते हुए, जिन्हें वह अपनी बर्फीली सतह से भी छुपाने में असमर्थ थी, शायद बसंत में रेल्वे तटबंध के नीचे वाले पाइप से ऊपर से जल धारा का तेज़ प्रवाह हवा के पाइप से गुज़रता होगा, जो इस समय पूरी तरह गहरी बर्फ में दबा था, जैसे रोंएँदार कम्बल के ढेर के नीचे कोई बालक सिर ढाँककर छुपता है.

क्या इस घर में कोई रहता था, या वह खाली था और प्रदेश या काऊन्टी की भूमि प्रबन्धक कमिटी के द्वारा अपने आधीन करने के बाद धीरे-धीरे नष्ट हो रहा था. वहाँ रहने वाले लोग अब कहाँ थे और उनके साथ क्या हुआ था? क्या वे विदेश जाकर छुप गये? क्या किसानों के हाथों मारे गये? या अच्छा नाम कमाकर जिले के किसी शहर में शिक्षित विशेषज्ञों के रूप में बस गये? अगर वे वहाँ आख़िरी समय तक रहे हों तो क्या स्त्रेल्निकव ने उन्हें छोड़ दिया, या फिर कुलाकों के साथ उसने इन्हें भी सज़ा दी?

घर पहाड़ से उत्सुकता जगा रहा था और उदासी से ख़ामोश था. मगर उस समय सवाल पूछे नहीं जा रहे थे और कोई भी उनके जवाब नहीं दे रहा था. और सूरज बर्फ की चिकनी सतह को ऐसी सफ़ेद चमक से जला रहा था, कि बर्फ की चकाचौंध से आँखें चुँधिया रही थीं. कैसे सही टुकड़ों में फ़ावड़ा उसकी ऊपरी सतह को काट रहा था! इन प्रहारों से कैसी हीरों जैसी चिनगारियाँ बिखर रही थीं! ये दिन कैसे दूर के बचपन की याद दिला रहे थे, जब भेड़ की खाल का कोट पहने, जो रंगीन लेस टंके टोप से काले घुँघराले ऊन में सिले हुकों से टँका था, नन्हा यूरा आँगन में ऐसी ही चकाचौंध करती बर्फ से काट-काटकर पिरामिड्स, क्यूब्स, क्रीम वाले केक, किले और गुफ़ाओं वाले शहर बनाया करता था! आह, कितना लजीज़ था उन दिनों दुनिया में जीना, चारों ओर की हर चीज़ कैसी मनमोहक और स्वादिष्ट थी!

मगर खुली हवा में तीन दिनों की इस ज़िंदगी में भी संतोष का एहसास था. और ये बेवजह नहीं था. शाम को काम करने वालों को भट्टी से निकली गरम-गरम, ताज़ी, सफ़ेद ब्रेड दी जाती, जो न जाने कहाँ से और किसके हुक्म से लाई जाती थी. ब्रेड की पपड़ी मोटी, स्वादिष्ट होती थी, जो किनारों पर कटी होती, जिसकी शानदार, भूरी निचली तह पर छोटे-छोटे कोयले चिपक जाया करते.

 

 

16

उन्हें स्टेशन के खण्डहरों से प्यार हो गया, जैसे बर्फ से ढँके पहाड़ों की सैर के दौरान अल्पकालिक बसेरे से हो जाता है.

उसकी स्थिति याद रह गई, साथ ही उसकी बाह्य आकृति, उसमें हुई टूट फूट की कुछ विशेषताएँ भी याद रह गईं.

स्टेशन पर शाम को ही लौटते, जब सूरज ढल रहा होता.

जैसे भूतकाल के प्रति वफ़ादारी के कारण वह पहले वाले स्थान पर ही अस्त होता था, टेलिग्राफिस्ट के ड्यूटी रूम के सामने वाली खिड़की के बिल्कुल पास लगे पुराने बर्च वृक्ष के पीछे.

इस जगह पर बाहरी दीवार भीतर की ओर गिर गई थी और उसने कमरे को ढाँक दिया था. मगर धँसी हुई दीवार ने बिल्डिंग के पिछले कोने को नहीं दबाया था, जो सही सलामत बच गई खिड़की के सामने था. वहाँ हर चीज़ सही-सलामत थी : कॉफी के रंग के वाल पेपर्स, टाईल्स वाली भट्टी - ज़ंजीर से लटके ताँबे के ढक्कन के नीचे गोल निकास द्वार के साथ, और काली फ्रेम में दीवार पर टँगी इन्वेन्ट्री.

धरती तक उतर आया सूरज, ठीक वैसे ही, जैसे दुर्भाग्य से पहले होता था, भट्टी की टाईल्स तक खिंचा चला जाता, कॉफी के रंग के वॉल पेपर्स को कत्थई रंग से सुलगाता और दीवार पर, किसी महिला की शॉल की तरह, बर्च वृक्ष की टहनियों की परछाई लटका देता.

बिल्डिंग के दूसरे भाग में, रिसेप्शन रूम में लकड़ी के तख़्ते ठोंककर बंद किया हुआ एक दरवाज़ा था, जिस पर यह सूचना थी, जिसे शायद फ़रवरी-क्रांति के आरंभिक दिनों में या उससे कुछ पहले लिखा गया था:

“आदरणीय बीमारों से प्रार्थना की जाती है कि दवाईयों और ड्रेसिंग सामग्री के बारे में कुछ समय के लिए चिंता न करें. प्रत्यक्ष कारणों के चलते मैं दरवाज़े को सील कर रहा हूँ, जिसकी सूचना ऊस्त-नेम्दा के सीनियर मेडिकल ऑफिसर फलाँ-फलाँ को दे रहा हूँ.”                                       

जब साफ़ किये हुए भागों के बीच में खड़े बर्फ के आख़िरी टीले हटा दिये गये, तो समतल, तीर की तरह दूर जाती हुई रेल की पूरी पटरी दिखाई देने लगी. उसके किनारों पर फेंके गए बर्फ के सफ़ेद टीले थे, जिनके किनारे-किनारे पूरी लम्बाई तक काले देवदार के जंगल की दो दीवारें जा रही थीं.

जहाँ तक नज़र जाती थी, पटरियों पर अलग-अलग जगहों पर फ़ावड़ों के साथ लोगों के झुण्ड खड़े थे. वे पहली बार अपने पूरे समूह को देख रहे थे और उन्हें आश्चर्य हो रहा था कि उनकी संख्या इतनी ज़्यादा है.            

 

17

 पता चला कि देर होने और रात के निकट होने के बावजूद ट्रेन कुछ घण्टों बाद निकलने वाली है. उसके प्रस्थान से पूर्व यूरी अन्द्रेयेविच और अंतनीना अलेक्सान्द्रव्ना आख़िरी बार साफ़ की गई रेल्वे लाइन की ख़ूबसूरती का मज़ा लेने के लिये निकले. ट्रैक्स पर अब कोई नहीं था. डॉक्टर और उसकी पत्नी कुछ देर खड़े रहे, दूर नज़र दौड़ाई, दो-तीन टिप्पणियाँ कीं और वापस अपने डिब्बे की ओर चले.

वापस लौटते हुए उन्होंने ऊँची आवाज़ में दो औरतों को गाली-गलौज करते सुना. उन्होंने फ़ौरन अग्रिज़्कोवा और तिगूनवा की आवाज़ें पहचान लीं. दोनों औरतें उसी दिशा में जा रही थीं जिसमें डॉक्टर पत्नी के साथ जा रहा था, ट्रेन के सिरे से उसकी पूँछ तक, मगर वे ट्रेन के उस तरफ़ थीं, जहाँ स्टेशन था, जबकि यूरी अन्द्रेयेविच और अंतनीना अलेक्सान्द्रव्ना पिछले, जंगल की तरफ़ वाले हिस्से के सामने चल रहे थे. दोनों जोड़ियों के बीच रेल के डिब्बों की श्रृंखला थी, जो उन्हें एक दूसरे से छुपा रही थी. औरतें लगभग डॉक्टर और अंतनीना के बराबर नहीं आईं – कभी वे उनसे थोड़ा सा आगे हो जातीं, तो कभी काफ़ी पीछे.

वे दोनों काफ़ी परेशान थीं. उनकी ताकत हर पल उन्हें धोखा दे रही थी. शायद, चलते-चलते या तो उनके पैर बर्फ में धँस जाते या जवाब दे देते जैसा कि उनकी आवाज़ों से पता चल रहा था जो चाल की असमानता के कारण कभी चीख़ में बदल जातीं, कभी फुसफुसाहट की हद तक नीची हो जातीं. शायद, तिगूनवा अग्रिज़्कोवा का पीछा कर रही थी और, पास आने पर, हो सकता है, उसने उस पर मुक्के चला दिये हों. वह प्रतिस्पर्धी पर चुनी हुई गालियों की बौछार कर रही थी, जो ऐसी मुर्गी जैसी और शानदार महिला के प्यारे होठों से मर्दों की बेशर्म और कर्कश गालियों से भी ज़्यादा भद्दी लग रही थीं.

“आह, तू बाज़ारू औरत, आह, तू घिनौनी औरत,” तिगूनवा चिल्ला रही थी. “एक कदम भी कहीं चल नहीं सकती, फ़ौरन आ धमकती है, स्कर्ट से फर्श पर झाड़ू लगाती, आँखें निकालते हुए! मेरा मरद तेरे लिये काफ़ी नहीं है, जो बच्चे पर डोरे डाल रही है, पूँछ फैला रही है, मासूम बच्चे को बिगाड़ना चाहती है.”

“और तू, क्या वासेन्का की भी कानूनी है?”

“मैं तुझे बताती हूँ कानूनी, कमीनी कहीं की, प्लेग! तू मुझसे ज़िंदा बचकर नहीं जा सकती, मुझे गुनाह करने पर मजबूर न कर!”

“हाथ हिलाना तो बंद कर! अपने हाथ तो हटा, जंगली कहीं की! तुझे मुझसे क्या चाहिये?”

“ ये कि तू ख़त्म हो जाये, गंदी बिल्ली , बेशरम औरत!”

“मेरे बारे में क्या बात है. मैं, बेशक, चुडैल और बिल्ली हूँ, सबको पता है. तू तो कुलीन औरत है. गढ़े में पैदा हुई है, गली में शादी हुई, चूहे से गर्भवती हुई, साही को पैदा किया.

संतरी, संतरी, भले आदमियों! ये चुडैल मुझे मार डालेगी. ओय, लड़की को बचाइये, इस लावारिस को बचाइये...”       

“जल्दी चलो. सुन नहीं सकती, कितना घिनौना,” अंतनीना अलेक्सान्द्रव्ना जल्दी मचाने लगी. “इसका अंत अच्छा नहीं होगा.”

 

18

अचानक स्थान और मौसम, सब कुछ बदल गया. समतल मैदानी भाग खत्म हो गया, रास्ता पहाड़ों के बीच से गुज़रने लगा – टीलों और पहाड़ियों के बीच से.

उत्तरी हवा रुक गई, जो पिछले दिनों बह रही थी. दक्षिण से गर्माहट की ख़ुशबू आने लगी, मानो भट्टी से.

यहाँ जंगल पहाड़ों की ढलानों पर समतल भागों में थे. जब रेल की पटरियाँ उन्हें पार करतीं तो ट्रेन को पहले खूब ऊँची चढ़ाई पर जाना पड़ता, जो बीच में सौम्य ढलान में बदल जाती. ट्रेन कराहते हुए इस हरियाली में रेंगती और उसके साथ घिसटती जाती, जैसे वह कोई बूढ़ा वनपाल हो जो मुसाफ़िरों के झुण्ड को पैदल ले जा रहा हो, जो इधर-उधर देखते हुए हर चीज़ पर गौर कर रहे थे.    

मगर देखने के लिये कुछ और नहीं था. जंगल की गहराई में थी नींद और शांति, जैसी सर्दियों में होती है. सिर्फ कभी कभार कुछ झाड़ियाँ और पेड़ सरसराहट के साथ निचली टहनियों को धीरे धीरे कम होती हुई बर्फ से यूँ आज़ाद कर रही थीं, मानो गले का पट्टा या कॉलर उतार रही हों.

यूरी अन्द्रेयेविच पर नींद हावी होने लगी. इन दिनों वह ऊपर अपनी बर्थ पर लेटा रहता, सोता, जागता, सोचता और कुछ सुनता. मगर फ़िलहाल सुनने के लिये कुछ नहीं था.

 

19

जब तक यूरी अन्द्रेयेविच ने अपनी नींद पूरी की, बसन्त ने उस पूरी बर्फ को गला दिया और पिघला दिया जो उनके प्रस्थान वाले दिन मॉस्को में गिरी थी और पूरे रास्ते गिरती रही थी, उस पूरी बर्फ को, जिसे उन्होंने तीन दिनों तक ऊस्त-नेम्दा में खोदा था, और जो हज़ारों मीलों तक बहुत ज़्यादा मात्रा में और चौड़ी-चौड़ी पर्तों में बिछी हुई थी.

पहले तो बर्फ भीतर से पिघली, चुपचाप और छिपकर. मगर जब ये महान काम आधा हो गया, तो और ज़्यादा छुपना मुमकिन नहीं था. और...अजूबा बाहर आ गया. सरकी हुई बर्फ की चादर से पानी बाहर की ओर दौड़ा और कलकल करने लगा.

दुर्गम, घना जंगल थरथरा उठा, उसके भीतर हर चीज़ जाग उठी.

पानी को उछल कूद मचाने के लिये काफ़ी जगह थी. वह चट्टानों से नीचे की ओर कूदा, तालाबों को लबालब भर दिया, विस्तीर्ण क्षेत्र में फ़ैल गया. जल्दी ही झाड़ियाँ उसके शोर, भाप और धुँध से सराबोर हो गईं. जंगल में साँपों की तरह पानी की धाराएँ रेंग रही थीं, बर्फ से हिलग रही थीं, जो उनके वेग को रोक रहा था; उसमें डूब रही थीं, फुसफुसाते हुए समतल स्थानों पर बह रही थीं और, नीचे छिटकते हुए, पानी की धूल बनकर बिखर रही थीं. धरती और ज़्यादा नमी ग्रहण नहीं कर रही थी. उसे सिर चकराने वाली ऊँचाई से, लगभग बादलों से, सदियों से खड़े देवदार के वृक्ष अपनी जड़ों से पी रहे थे, जिनके पैरों से टकराकर वह सूखे, सफ़ेद-भूरे फेन में बदल रहा था, जैसे पीने वालों के होठों पर बियर का फेन होता है.

बसन्त ने नशे में आकाश के सिर पर प्रहार किया, इस प्रहार से वह धुँधला हो गया और उसने ख़ुद को बादलों से ढाँक लिया. जंगल के ऊपर निचले, नमदे जैसे बादल तैर रहे थे जिनके किनारे लटक रहे थे, जहाँ से गर्म, मिट्टी और पसीने की गंध वाली धाराएँ ज़मीन पर लपकीं, जिन्होंने धरती से बचे खुचे काले बर्फीले बख़्तर के टुकड़ों को भी धो डाला.

यूरी अन्द्रेयेविच उठा, वह आयताकार खिड़की की ओर सरका, जिसकी फ्रेम निकाल दी गई थी, कुहनियों का सहारा लिया और सुनने लगा.

 

20

जैसे जैसे खदानों वाले क्षेत्र के निकट पहुँच रहे थे, आबादी बढ़ती जा रही थी, स्टेशनों के बीच फ़ासला कम होता जा रहा था, स्टेशन जल्दी-जल्दी आ रहे थे. जाने वाले अब उतनी देर से नहीं बदलते थे. बीच वाले छोटे छोटे स्टेशनों पर ट्रेन से उतर रहे थे और उसमें बैठ रहे थे. वे लोग जो कम दूरी वाले स्टेशनों तक जा रहे थे, देर तक डिब्बे के भीतर बैठते नहीं थे और न ही सोते थे, बल्कि रात को डिब्बे के बीच में दरवाज़े के पास कोई जगह ढूँढ़ लेते, धीमी आवाज़ में एक दूसरे के साथ सिर्फ स्थानीय मसलों के बारे में, जो सिर्फ उन्हें मालूम थे, बातें करते और अगले जंक्शन पर या छोटे स्टेशन पर उतर जाते.

यहाँ के लोगों की टिप्पणियों से, जो पिछले तीन दिनों से डिब्बे में एक के बाद एक आ-जा रहे थे, यूरी अन्द्रेयेविच ने यह निष्कर्ष निकाला कि उत्तर में श्वेत गार्ड्स का पलड़ा भारी है और या तो वे युर्यातिन पर कब्ज़ा कर चुके हैं या करने वाले हैं. इसके अलावा, अगर उसके कानों ने उसे धोखा नहीं दिया और यदि ये मेल्युज़ेयेवो के हॉस्पिटल वाले उसके कॉम्रेड का कोई हमनाम न होता, तो ये पता चला कि इस दिशा में श्वेत गार्डों का कमाण्डर यूरी अन्द्रेयेविच का सुपरिचित – गलिऊलिन था.

यूरी अन्द्रेयेविच ने अपने लोगों से इन अनुमानों के बारे में एक भी शब्द नहीं कहा, जिससे, जब तक अफ़वाहों की पुष्टि नहीं हो जाती, उन्हें बेकार ही में परेशान न करे.

 

21

यूरी अन्द्रेयेविच रात के शुरू में ही एक अस्पष्ट सी सुख की भावना से जाग गया, जो इतनी प्रबल थी, कि जिसने उसे जगा दिया. ट्रेन किसी रात वाले स्टेशन पर खड़ी थी.

श्वेत रात के काँच जैसे धुँधलके ने स्टेशन को घेर लिया था. कोई सूक्ष्म और शक्तिशाली चीज़ इस उजले अँधेरे में व्याप्त हो रही थी. वह इस स्थान के विस्तार और खुलेपन की गवाह थी. वह बता रही थी कि जंक्शन विस्तीर्ण और मुक्त दृष्टिकोण वाली ऊँचाई पर स्थित है.

प्लेटफॉर्म पर डिब्बे के सामने से धीमी आवाज़ में बातचीत करते हुए, हल्के कदमों से परछाईयाँ जा रही थीं. ये भी यूरी अन्द्रेयेविच को अच्छा लगा. उसे कदमों और आवाज़ों की सतर्कता में रात की उस घड़ी के प्रति सम्मान और ट्रेन में सो रहे लोगों के प्रति चिंता की भावना नज़र आई, जैसा पुराने ज़माने में, युद्ध से पूर्व होता था.

डॉक्टर गलत था. प्लेटफॉर्म पर वैसा ही हंगामा और जूतों की धमधम हो रही थी जैसी हर जगह होती है. मगर पास ही में एक जलप्रपात था. वह अपनी ताज़गी और आज़ादी से श्वेत रात की सीमाओं को विस्तृत कर रहा था. वह नींद में डूबे डॉक्टर के मन में सुख की भावना जगा रहा था. उसके गिरते हुए जल का निरंतर, कभी न थमने वाला शोर जंक्शन की सभी आवाज़ों पर राज कर रहा था और उन्हें ख़ामोशी का भ्रामक रूप प्रदान कर रहा था.

उसकी उपस्थिति का अंदाज़ न होने के कारण, मगर यहाँ की हवा के अदृश्य लचीलेपन से सुस्त डॉक्टर फिर से गहरी नींद में डूब गया.

डिब्बे में, नीचे दो आदमी बातें कर रहे थे. एक ने दूसरे से पूछा:

“तो, अपने लोगों को शांत कर दिया? उनकी पूँछें मरोड़ दीं?”

“क्या आपका मतलब दुकानदारों से है?”             

“हाँ, अनाज के व्यापारियों की.”

“शांत कर दिया. रेशम जैसे नरम हो गये. जिनकी मिसाल के लिए हवा निकाल दी थी, तो बाकी के भी सीधे हो गये. चंदा वसूल कर लिया.”

“क्या प्रदेश से बहुत कुछ लिया?”

“चालीस हज़ार.”

“झूठ बोल रहे हो.”

“मैं क्यों झूठ बोलने लगा?”

ग़ज़ब हो गया, चालीस हज़ार!”

“चालीस हज़ार पूद (एक पूद – 16.38 किलोग्राम – अनु.)”

“अच्छा है, मारी दुलत्ती, शाबाश! शाबाश!”

“चालीस हज़ार पिसा हुआ अनाज.”

“देख, कैसा अजूबा है. ये जगह – फर्स्ट क्लास. सबसे बेहतरीन आटे का व्यापार . यहाँ रीन्वे से ऊपर युर्यातिन को जाओ, देहात से देहात, बढ़िया पड़ाव, अनाज के डिपो. शिर्स्ताबीतव ब्रदर्स, पिरिकात्चिकव एण्ड सन्स, एक से बढ़कर एक थोक व्यापारी!”

“धीरे चिल्ला. लोगों को जगा देगा.”

“अच्छा.”

बोलने वाले ने उबासी ली. दूसरे ने कहा:

“चल, लेटकर थोड़ा ऊँघ लेते हैं? ठीक है न? लगता है कि निकलने वाले हैं.”

इसी समय पीछे से लगातार तेज़ होता हुआ, कानों को बहरा करने वाला शोर गड़गड़ाया, जिसने जलप्रपात के शोर को दबा दिया, और जंक्शन की दूसरी लाइन पर, उनकी स्थिर खड़ी ट्रेन की बगल से पुरानी तरह की एक्सप्रेस ट्रेन पूरी रफ़्तार से गुज़र गई, वह सीटी बजा रही थी, खड़खड़ा रही थी और, आख़िरी बार अपनी झिलमिलाती रोशनी बिखेरकर कोई भी निशान छोड़े बिना गुम हो गई.

नीचे नये सिरे से बातें शुरू हो गईं.

“लो, हो गई छुट्टी. इंतज़ार करना पड़ेगा.”

“अब जल्दी नहीं जायेगी.”

हो सकता है,स्त्रेल्निकव हो. ख़ास मकसद वाली बख़्तरबन्द ट्रेन थी.”

“ज़ाहिर है, वही था.”

“क्रांति विरोधियों के प्रति वह खूँखार हो जाता है.”

“ये, गलेयेव के पीछे भागा है.”

“कौनसे वाले के?”

कमाण्डर गलेयेव के. कहते हैं कि वह चेक सेना के साथ युर्यातिन के सामने खड़ा है. उस सड़े हुए शलजम ने, घाटों पर कब्ज़ा जमा लिया है.”

“कमाण्डर गलेयेव.”  

“या, हो सकता है राजकुमार गलिलेयेव हो. मैं भूल गया.”

“ऐसे कोई राजकुमार नहीं हैं. ज़ाहिर है, अली कुर्बान है. तू गड़बड़ कर बैठा – हो सकता है कुर्बान हो.”

“वो अलग बात है.”

 

22

सुबह के करीब यूरी अन्द्रेयेविच की आँख फिर से खुल गई. उसे फिर से कोई ख़ुशगवार सपना आया. प्रसन्नता और स्वतंत्रता की भावना, जिसने उसे सराबोर कर दिया था, ख़त्म नहीं हुई थी. ट्रेन फिर से खड़ी थी, हो सकता है नये छोटे स्टेशन पर खड़ी हो, और हो सकता है कि पुराने स्टेशन पर ही खड़ी हो. जलप्रपात फिर से शोर मचा रहा था, शायद वही वाला था, या हो सकता है, कोई दूसरा हो.

यूरी अन्द्रेयेविच फ़ौरन ऊँघने लगा, और ऊँघ के बीच उसे भाग-दौड़ का और हंगामे का आभास हुआ. कस्तोयेद काफ़िले के कमाण्डर से उलझ रहा था और दोनों एक-दूसरे पर चिल्ला रहे थे. बाहर का वातावरण पहले से ज़्यादा बेहतर हो गया था. कोई नई महक आ रही थी, जो पहले नहीं थी. कोई जादुई, कोई बसन्ती, काली-सफ़ेद, बिरली. हल्की, वैसी, जैसे मई की बर्फबारी होती है, जब गीले, पिघलते हुए फ़ाहे, धरती पर गिरकर, उसे सफ़ेद नहीं, बल्कि और ज़्यादा काला बनाते हैं.

कोई पारदर्शी, काली-सफ़ेद, सुगंध वाली चीज़. “बर्ड-चेरी!” – यूरी अन्द्रेयेविच ने नींद में ही पहचान लिया.

 

23

सुबह अंतनीना अलेक्सान्द्रव्ना ने कहा:

“तुम भी ना, ग़ज़ब के इन्सान हो, यूरा. विसंगतियों से बुने हुए. कभी ऐसा होता है, कि मक्खी भी बगल से उड़ जाये तो तुम जाग जाते हो और सुबह तक पलक नहीं झपकाते, और यहाँ इतना हो-हल्ला, बहस, हंगामा, मगर तुम उठने को ही तैयार नहीं हो. रात को कैशियर प्रित्यूलेव और वास्या ब्रीकिन भाग गये. हाँ, सोचो! और तिगूनवा और अग्रिज़्कोवा भी. ठहरो, अभी पूरा नहीं हुआ है. और वरन्यूक. हाँ, हाँ, भाग गया, भाग गया. हाँ, सोचो ज़रा. अब सुनो. वे कैसे छुप गये, एक साथ या अलग-अलग, और किस तरह – पूरी पहेली है. चलो, मान लेते हैं कि, इस वरन्यूक ने, बाकी लोगों के पलायन का पता चलते ही, वाकई में जवाबदेही से बचने का फ़ैसला किया. मगर बाकी के? क्या वे सभी अपनी मर्ज़ी से ग़ायब हो गये या किसी को ज़बर्दस्ती हटाया गया था? मिसाल के तौर पर, शक जाता है औरतों पर. मगर किसने किसको मार डाला, क्या तिगूनवा ने अग्रिज़्कोवा को या अग्रिज़्कोवा ने तिगूनवा को, किसी को पता नहीं है. काफ़िले का प्रमुख ट्रेन के एक सिरे से दूसरे सिरे तक भागता है. “आपने हिम्मत कैसे की,” चिल्लाता है, “ ट्रेन के जाने की सीटी बजाने की. कानून का वास्ता देकर माँग करता हूँ कि भगोड़ों के पकड़े जाने तक ट्रेन को रोक लिया जाये”. ट्रेन का प्रमुख हार नहीं मानता. “आप पागल हो गये हैं”, कहता है, “मेरे पास मोर्चे पर भेजी जा रही अतिरिक्त सेना है, उच्च श्रेणी की प्राथमिकता. आपके घटिया आदेश का इंतज़ार करूँ! देखो, क्या कर डाला!” और दोनों, जानते हो, कस्तोयेद को दोष दे रहे थे. कैसे उसने, कार्यकर्ता ने, समझदार इन्सान ने, बगल में ही होते हुए भी सैनिक को , अनपढ़, अज्ञानी प्राणी को ये ख़तरनाक कदम उठाने से नहीं रोका. “और ऊपर से जनवादी है”, - कहते हैं. मगर कस्तोयेद कहाँ पीछे रहने वाला था.

“मज़ेदार बात है!” उसने कहा. “मतलब, आपके हिसाब से, एक कैदी को काफ़िले के सैनिक का ख़याल रखना चाहिये? ये तो वाकई में वैसा ही है जब मुर्गी मुर्गे की तरह गाने लगे”. मैं तुम्हें कमर में और कंधे से हिला रही थी. “यूरा,” चिल्ला रही थी, “उठो, भाग गये हैं!” मगर क्या फ़ायदा! तोप के गोले से भी तुम्हें उठाया नहीं जा सकता था...मगर माफ़ करना, इसके बारे में बाद में. और अब...नहीं रोक सकती अपने आप को! पापा, यूरा, देखिये, कितना ख़ूबसूरत है!”

उस खिड़की के सामने जिसके पास वे सिर ऊपर करके लेटे थे, एक बाढ़ से पूरी तरह घिरा हुआ क्षेत्र नज़र आ रहा था. कहीं कोई नदी किनारा तोड़ कर भागी थी, और उसकी बगल वाली शाखा का पानी रेल्वे के तटबंध के निकट आ गया था. बर्थ की ऊँचाई से देखने पर, छोटे हो गये नज़ारे में, ऐसा लग रहा था कि आसानी से चल रही ट्रेन सीधे पानी पर फ़िसल रही है.

उसकी चिकनी सतह कुछ जगहों पर लोहे की नीलाई से ढँकी मालूम होती थी. बाकी की सतह पर गर्म सुबह शीशे जैसे तेल के निशान बिखेर रही थी, मानो कोई रसोइया पाई (कचोरी- अनु.) की गर्म सतह पर तेल में डूबा पंख फेर रहा हो.        

इस असीमित जल में चरागाहों, गड्ढों, और झाड़ियों के साथ-साथ सफ़ेद बादलों के स्तम्भ भी डूब गये थे, जो सीधे पानी की तली तक जा रहे थे. 

इस पानी के बीच में कहीं धरती का संकरा भाग दिखाई दे जाता था, जिस पर आसमान और धरती के बीच ऊपर की ओर तथा नीचे की ओर लटकती हुई वृक्षों की दोहरी कतार दिखाई दे जाती थी.

“बत्तख! बच्चे!” अलेक्सान्द्र अलेक्सान्द्रविच उस तरफ़ देखते हुए चिल्लाया.

“कहाँ?”

“टापू के पास. तुम वहाँ नहीं देख रहे हो. दाईं ओर, दाईं ओर. ऐख, शैतान, उड़ गये, डर गये.”

“ओह, हाँ, देख रहा हूँ. मुझे आपसे कुछ बातें करनी होंगी, अलेक्सान्द्र अलेक्सान्द्रविच. किसी और समय – मगर हमारे श्रम-सैनिकों और महिलाओं की तारीफ़ करनी होगी, अच्छा किया जो भाग गये. और, मैं सोचता हूँ – शांति से, किसी को भी कोई नुक्सान पहुँचाये बिना. सिर्फ भाग गये, जैसे पानी भागता है.”

 

24

 

उत्तर की श्वेत रात समाप्त हो रही थी. हर चीज़ दिखाई दे रही थी, मगर ऐसा लग रहा था कि अपने आप पर विश्वास न करते हुए खड़ी हो, जैसे रची गई हो: पहाड़, कुंज और चट्टान.

कुंज मुश्किल से हरा हो रहा था. उसमें बर्ड-चेरी की कुछ झाड़ियाँ खिल रही थीं. कुंज पहाड़ की खड़ी चढ़ाई के नीचे, एक संकरी सतह के ऊपर बढ़ रहा था, जो कुछ दूरी पर जाकर ख़त्म हो जाती थी.  

कुछ दूरी पर जलप्रपात था. वह हर जगह से नहीं, बल्कि कुंज की दूसरी ओर से, चट्टान के आख़िरी सिरे से ही दिखाई देता था. वहाँ जाकर जल प्रपात को देखने के लिये, भय और उत्तेजना का अनुभव करने की वास्या की हिम्मत नहीं था, वह बेहद थक गया था.

चारों ओर जलप्रपात जैसा कुछ नहीं था, कुछ भी उसकी टक्कर का नहीं था. इस इकलौतेपन में वह भयावह था, जिसने उसे जीवन और चेतना द्वारा प्रदत्त किसी अस्तित्व में परिवर्तित कर दिया था, परीकथा के किसी ड्रैगन या इन स्थानों के विशाल-सर्प के रूप में, जो उनसे दान लेकर आसपास के क्षेत्र को नष्ट करता था.

अपनी आधी ऊँचाई पर जलप्रपात एक बाहर निकलती नुकीली चट्टान से टकराकर दो हिस्सों में बंट जाता था. पानी का ऊपरी स्तम्भ लगभग स्थिर था, मगर निचले दो हिस्सों में एक मिनट के लिये भी पानी का एक ओर से दूसरी ओर को मुश्किल से दिखाई देने वाला प्रवाह जारी रहता था, जैसे जलप्रपात बार-बार फिसल रहा था और सीधा हो रहा था, फ़िसल रहा था और सीधा हो रहा था, और चाहे वह कितनी ही ठोकरें क्यों न खाये, हर बार अपने पैरों पर खड़ा हो जाता.

वास्या ने अपना जैकेट फ़ैलाया और कुंज के किनारे पर लेट गया. जब सुबह होने लगी, तो पहाड़ से एक बड़ा, भारी पंखों वाला पक्षी उड़कर नीचे आया, उसने बड़ी सफ़ाई से उड़ते हुए कुंज का एक चक्कर लगाया और, जहाँ वास्या लेटा था उसके निकट ही देवदार के शिखर पर बैठ गया. उसने सिर उठाया, नीलकंठ के नीले गले और भूरे-नीले सीने को देखा और मंत्रमुग्ध होकर ज़ोर से फुसफुसाया : “रोंझा” – जो उसका उक्रैनी नाम है. फिर वह उठा, धरती से अपना जैकेट उठाया, उसे अपने बदन पर डाला और मैदान पार करके अपनी सहयात्री के पास आया. उसने कहा:

“ चलो, चाची. ओह, ठण्ड खा गईं, दाँत किटकिटा रहे हैं. आप देख क्या रही हैं, इतनी डरी हुई? मैं आपसे इन्सान की ज़ुबान में कह रहा हूँ, जाना चाहिये. होश में आइये, हमें गाँव के नज़दीक जाना चाहिये. गाँव में अपने लोगों को नुक्सान नहीं पहुँचाते, हमें छुपा देंगे. इस तरह से, दो दिनों से कुछ खाये बगैर, हम भूख से मर जायेंगे. शायद चचा वरान्यूक ने हमें ढूँढ़ते हुए हंगामा कर दिया होगा. हमें जाना चाहिये, चाची पलाशा, सिर्फ, लड़ना होगा. आपके साथ तो मुसीबत है, दिन भर में कम से कम एक लब्ज़ तो कहा होता! ये अफ़सोस के मारे आप गूँगी हो गई हैं, ऐ ख़ुदा. किस बात का अफ़सोस कर रही हैं? कात्या चाची को, कात्या अग्रिज़्कोवा को, आपने बगैर किसी बुरी नीयत से डिब्बे से नहीं धकेला था, आपने उसे सिर्फ अपने किनारे पर धकेला था, मैंने ख़ुद देखा था. वह बाद में घास से सही-सलामत उठ गई थी, उठी और भागने लगी. और वैसे ही चाचा प्रोखर, प्रोखर खरितोनिच. वे हमें पकड़ लेंगे, हम सब फिर से एक साथ होंगे, क्या सोच रही हैं? ख़ास बात, अपने आप को तकलीफ़ मत दो, तभी आपकी ज़ुबान चलने लगेगी.

तिगूनवा धरती से उठी और, वास्या को हाथ देते हुए हौले से बोली:

“चल, लाड़ले.”

25

ट्रेन के डिब्बे पूरी तरह चरमराते हुए ऊँचे तटबंध से गुज़र रहे थे.

उसके नीचे मिला जुला नया जंगल उग रहा था, जिसकी ऊँचाई तटबंध तक नहीं पहुँच रही थी. नीचे घास के मैदान थे, जिनके ऊपर से हाल ही पानी का बह गया था. घास, जिसमें रेत मिल गई थी, पटरियों के नीचे बिछाने वाली शहतीरों से ढँकी थी, जो विभिन्न दिशाओं में अस्तव्यस्त पड़ी थीं. शायद उन्हें कहीं पास बेड़े बनाने के लिये तैयार किया गया था, जहाँ से पानी का बहाव उन्हें यहाँ तक ले आया था.

तटबंध के नीचे का जंगल अभी लगभग नंगा ही था, जैसे सर्दियों में होता है.

सिर्फ कलियों पर, जो मोम की बूँदों की तरह चारों ओर बिखरी थीं, कुछ अतिरिक्त चीज़, कुछ बेतरतीबी, कोई अव्यवस्था, गंदगी जैसी या सूजन जैसी नज़र आ रही थी, और ये अतिरिक्त चीज़, ये बेतरतीबी और गंदगी - ज़िंदगी थी, जिसने हरी लपट से जंगल में पहले प्रस्फुटित हुए पेड़ों को जकड़ लिया था.

नई प्रस्फुटित कोंपलों के तीक्ष्ण दाँतों और नुकीले तीरों से विद्ध देवदार के वृक्ष यहाँ-वहाँ पीड़ा से सीधे खड़े थे. उनसे कैसी ख़ुशबू आ रही है, यह देखकर ही बताया जा सकता था. उनसे वैसी ही ख़ुशबू आ रही थी, जैसी उनमें चमक थी. उनसे लकड़ी के स्प्रिट की गंध आ रही थी, जिससे वार्निश बनाया जाता है.

जल्दी ही रास्ता उस जगह के समतल हो गया, जहाँ से, हो सकता है, शहतीरें बह गईं हों. जंगल के मोड़ पर एक खाली जगह दिखाई दी, जिस पर लकड़ी का बुरादा और छिपटियाँ बिखरी थीं, बीच में शहतीरों का एक बड़ा ढेर लगा था.

इस आराघर के पास ड्राइवर ने ब्रेक लगा दिये. ट्रेन थरथराई और उसी स्थिति में रुक गई जिसमें वह थी, बड़े मोड़ की ऊँची कमान पर झुकी हुई.

इंजिन से कई छोटी-छोटी, भौंकती हुई सी सीटियाँ दी गईं और कुछ चिल्लाकर कहा गया. यात्रियों को बिना सिग्नलों के भी मालूम था कि ड्राइवर ने ट्रेन को इसलिये रोका है ताकि ईंधन इकट्ठा कर सके.

डिब्बों के दरवाज़े खुल गये. इस छोटे से शहर की काफी आबादी पटरियों पर निकल आई, सिवाय सामने वाले डिब्बों के विस्थापित किये जा रहे लोगों के, जिन्हें हमेशा आपात्कालीन कार्य से हमेशा दूर रखा जाता था और वे अभी भी इस काम में हिस्सा नहीं ले रहे थे.

मैदान में पड़े हुए भूसे और छिपटियों के ढेर कोयले के डिब्बे को भरने के लिये काफ़ी नहीं थे. इसलिये कुछेक लम्बी शहतीरों को छीलना ज़रूरी था.

इंजिन-ब्रिगेड के साज़-सामान में आरे थे. उन्हें दो-दो के समूहों में इच्छुक लोगों में बाँट दिया गया. प्रोफ़ेसर और दामाद को भी एक आरी मिल गई.

फ़ौजियों के डिब्बों से खुले हुए दरवाज़ों में हँसते हुए चेहरे झाँक रहे थे. ऐसे किशोर जो युद्ध की आग में नहीं गये थे, सीनियर नौसेना प्रशिक्षार्थी, जो, शायद गलती से गंभीर चेहरों के परिवार वाले कामगारों के साथ डिब्बे में ठूँसे गये थे, जिन्होंने भी बारूद नहीं सूँघी थी और मुश्किल से युद्ध की तैयारियों का थोड़ा सा प्रशिक्षण प्राप्त किया था, बड़ी उम्र के नैसैनिकों के साथ मिलकर जानबूझकर शोर मचा रहे थे और बेवकूफ़ियाँ कर रहे थे, जिससे कि सोच में न पड़ जाएँ. सभी को महसूस हो रहा था कि परीक्षा की घड़ी नज़दीक है.

मज़ाक करने वाले आरा चलाने वाले मर्दों और औरतों पर फ़ब्तियाँ कस रहे थे.

“ऐ, दादा जी! बताओ – मैं दूध पीता बच्चा हूँ, मेरी माँ ने अभी मेरा दूध नहीं छुड़ाया है, मैं मेहनत का काम नहीं कर सकता. ऐ, माव्रा! देख, आरे से अपनी स्कर्ट न काट देना, उड़ने लगेगी. – ऐ, जवान छोरी! जंगल में न जा, बेहतर है मुझसे शादी कर ले.

 

26

जंगल में आरा चलाने के लिये एक दूसरे से लगी हुई कई फ्रेम्स थीं, जिनकी टाँगें ज़मीन में गड़ी थीं. कुछेक फ्रेम्स ख़ाली थीं. यूरी अन्द्रेयेविच और अलेक्सान्द्र अलेक्सान्द्रविच उन पर काम करने लगे.

ये बसन्त का वो समय था, जब धरती बर्फ के नीचे से लगभग उसी रूप में बाहर आती है, जिसमें छह माह पूर्व वह बर्फ के नीचे चली गई थी. जंगल नमी से सराबोर था और पिछले साल के पत्तों से अटा पड़ा था. जैसे बिना साफ़ किया हुआ कमरा हो जिसमें ज़िंदगी के कई वर्षों की रसीदें, चिट्ठियाँ और नोटिस फ़ाड़े गए हों, और झाड़ू न लगाई गई हो.

“इतनी जल्दी-जल्दी नहीं, थक जायेंगे,” डॉक्टर ने अपने आरे की गति को धीमी और संतुलित करते हुए अलेक्सान्द्र अलेक्सान्द्रविच से कहा, और कुछ देर आराम करने का सुझाव दिया.

जंगल में अन्य आरों की भर्राई हुई आवाज़ घूम रही थी, जो आगे-पीछे चल रहे थे कभी सब के साथ एक लय में, तो कभी उनसे अलग. कहीं दूर-काफ़ी दूर पहली कोयल अपनी ताकत आज़मा रही थी. कुछ और ही लम्बे अंतरालों से ब्लैकबर्ड भी सीटी बजा रहा था, जैसे बिगड़ी बाँसुरी में फूँक मार रहा हो. इंजिन के पिस्टन से भाप भी जैसे गाती हुई फुसफुसाहट से आसमान की ओर उठ रही थी, जैसे बच्चों के कमरे में स्प्रिट लैम्प पर दूध उबल रहा हो.

“तुम किसी बारे में बात करना चाह रहे थे,” अलेक्सान्द्र अलेक्सान्द्रविच ने याद दिलाया. “भूल तो नहीं गये? ये तब हुआ था जब हम खाड़ी पार कर रहे थे, बत्तखें उड़ रही थीं, तुम सोच में डूब गये और बोले : “मुझे आपसे बात करना होगी.”

“आह, हाँ. पता नहीं, इसे संक्षेप में कैसे कहना चाहिये. देखिये, हम अधिकाधिक गहरे धँस रहे हैं. यहाँ पूरे क्षेत्र में उथल-पुथल मची है. हम जल्दी ही पहुँचने वाले हैं. पता नहीं गंतव्य तक पहुँचने पर हमें क्या देखने को मिले. हर परिस्थिति के लिए एक समझौता कर लेना अच्छा है. मैं विश्वासों के बारे में नहीं कह रहा हूँ. पाँच मिनट में बसन्त के जंगल में उन्हें समझाना या स्थापित करना बेतुकापन होगा. हम एक दूसरे को अच्छी तरह जानते हैं. हम तीनों, आप, मैं और तोन्या, हमारे ज़माने में अन्य कई लोगों के साथ मिलकर एक दुनिया बनाते हैं, और एक दूसरे से सिर्फ उतने अलग हैं कि हम किस हद तक उसे समझते हैं. मैं इस बारे में नहीं कह रहा हूँ.          

ये तो सिर्फ वर्णमाला है. मैं किसी और विषय के बारे में कह रहा हूँ. हमें पहले ही तय कर लेना है कि किन्हीं परिस्थितियों में कैसा बर्ताव करना है, जिससे एक दूसरे के बारे में शर्मिंदा न होना पड़े, और एक-दूसरे पर दोषारोपण न करें.”

“बस. मैं समझ गया. सवाल पूछने का तुम्हारा तरीका मुझे पसन्द आया.

तुमने बिल्कुल सही शब्द चुने हैं. मैं तुमसे ये कहूँगा. तुम्हें वो रात याद है, जब तुम पहले निर्देशों वाला पर्चा लाये थे, सर्दियों में, तूफ़ान की रात को? याद है, कि वह कितना अविश्वसनीय रूप से अनियमित था? उस दो टूक बात ने जीत लिया. मगर ऐसी चीज़ें अपनी आरंभिक पवित्रता में सिर्फ उसके निर्माणकर्ताओं के दिमाग में ही रहती हैं और वह भी सिर्फ घोषणा के पहले दिन. मगर दूसरे ही दिन राजनीति का पाखण्ड उसे पूरी तरह बदल देता है. मैं तुमसे क्या कहूँ? ये विचारधारा मेरे लिये पराई है. यह सत्ता हमारे ख़िलाफ़ है. मुझसे इस विघटन के लिये सहमति नहीं माँगी गई थी. मगर मुझ पर विश्वास किया गया, और मेरे कार्यकलाप, चाहे मैंने उन्हें विवशतापूर्वक ही किया हो, मुझे मजबूर करते हैं.

तोन्या पूछती है कि हमें अपने बागवानी के काम के लिये देर तो नहीं हो जायेगी, कहीं हम बुआई का समय तो नष्ट नहीं कर रहे हैं. मैं उसे क्या जवाब दूँ? मुझे यहाँ की मिट्टी के बारे में कुछ भी मालूम नहीं है. जलवायु की परिस्थितियाँ कैसी हैं? बेहद छोटा गर्मियों का मौसम होता है. क्या यहाँ कुछ उगता भी है?

मगर क्या हम इतनी दूर सिर्फ बागवानी करने जा रहे हैं? इस परिस्थिति में तो : ”खीर खाने के लिये सात मील चलना” ये मुहावरा भी नहीं कह सकते, क्योंकि अफ़सोस है, कि ये मील तीन या चार हज़ार हैं. नहीं, साफ़-साफ़ कहें तो,  हम इतनी दूर बिल्कुल अलग ही उद्देश्य से घिसटते हुए जा रहे हैं. आजकल के हिसाब से निरर्थक जीवन बिताने, और किसी तरह दादाजी की भूतपूर्व सम्पत्ति - जंगलों, मशीनों और साज़ो-सामान को लुटाने जा रहे हैं. उनकी सम्पत्ति को सुधारने के लिये नहीं, बल्कि उसे बर्बाद करने, हज़ारों की सम्पत्ति को सामाजिक रूप से लुटाने, जिससे एक कोपेक पर गुज़ारा कर सकें, और, बेशक औरों की तरह, आधुनिक, अराजक रूप में, जो समझ से बाहर है. मुझ पर चाहे सोने की बारिश कर दो, मैं पुराने उसूलों की ख़ातिर मुफ़्त में भी फैक्ट्री नहीं लूँगा. ये वैसा ही वहशीपन होता, जैसे नंगे होकर भागने लगो, या पढ़ना लिखना भूल जाओ. नहीं, रूस में सम्पत्ति का इतिहास समाप्त हो चुका है. और व्यक्तिगत रूप से हम, ग्रमेका, पिछली पीढ़ी में ही सम्पत्ति अर्जित करने का शौक छोड़ चुके थे.

 

27

गर्मी और उमस के कारण सोना असंभव था.

पसीने से भीगे हुए तकिये पर डॉक्टर का सिर पसीने से लथपथ था.

वह सावधानी से बर्थ के किनारे से उतरा और हौले से, ताकि किसी को न जगाये, डिब्बे का दरवाज़ा थोड़ा सा खोला. चेहरे पर चिपचिपी नमी महसूस हुई, वैसी जब तहख़ाने में चेहरा मकड़ी के जाले में घुस जाने पर होती है. “धुँध है”, उसने अंदाज़ लगाया. “धुँध. दिन शायद उमसदार, झुलसानेवाला होगा. इसीलिये साँस लेने में मुश्किल हो रही है और मन पर भारी बोझ महसूस हो रहा है.”

पटरियों पर उतरने से पहले, डॉक्टर कुछ देर दरवाज़े में खड़े होकर चारों ओर की आहट सुनता रहा.

ट्रेन किसी बहुत बड़े स्टेशन पर खड़ी थी, जो किसी जंक्शन जैसा था. ख़ामोशी और धुँध के अलावा, डिब्बे किसी अस्तित्वहीनता और उपेक्षा में डूबे हुए थे, जैसे उनके बारे में भूल गये हों ये इस बात की निशानी थी कि ट्रेन यार्ड के बिल्कुल पिछले हिस्से में खड़ी थी, और उसके और दूर के रेल्वे स्टेशन के बीच काफ़ी बड़ा फ़ासला था, जो पटरियों के अंतहीन जाल से घिरा था.

दूर से दो तरह की आवाज़ें क्षीणता से सुनाई दीं.

 पीछे से, जहाँ से वे आये थे, सधी हुई छपछप की आवाज़ सुनाई दे रही थी, जैसे वहाँ कोई कपड़े धो रहा हो, या हवा झण्डे के गीले कपड़े से ध्वजस्तम्भ की लकड़ी को थपथपा रही हो. 

सामने से हल्की सी गड़गड़ाहट सुनाई दे रही थी, जिसने युद्ध पर जा चुके डॉक्टर को काँपने और कानों को सतर्क करने पर मजबूर कर दिया.

“दूर तक मार करने वाले हथियार”, उसने नीची, सधी हुई आवाज़ में हो रही एक-सी, शांत गड़गड़ाहट को सुनते हुए फ़ैसला कर लिया. 

“तो ये बात है. बिल्कुल मोर्चे तक पहुँच गये हैं”, डॉक्टर ने सिर हिलाते हुए सोचा और डिब्बे से नीचे ज़मीन पर कूद गया.

वह आगे की ओर कुछ कदम चला. अगले दो डिब्बों के बाद ट्रेन ख़त्म हो गई थी. ट्रेन बिना इंजिन के खड़ी थी, जो सामने वाले, अलग किये गये कुछ डिब्बों के साथ कहीं चला गया था.

जभी कल इतनी शेख़ी मार रहे थे,’ डॉक्टर ने सोचा. ज़ाहिर है, उन्हें महसूस हो रहा था कि जैसे ही उन्हें यहाँ तक पहुँचायेंगे, वहीं से फ़ौरन सीधे आग में झोंक दिया जायेगा.

उसने ट्रेन के आख़िरी सिरे का चक्कर लगाया जिससे पटरियाँ पार करके स्टेशन का रास्ता ढूँढ़ सके. डिब्बे के कोने के पीछे से एक बंदूकधारी संतरी यूँ प्रकट हुआ जैसे धरती से निकला हो. उसने हल्की आवाज़ में रोकते हुए पूछा:

“कहाँ? पास दिखाओ!”

“यह कौनसा स्टेशन है?”

“स्टेशन-वेशन कोई नहीं है. तू ख़ुद कौन है?”

“मैं डॉक्टर हूँ, मॉस्को से. इस ट्रेन से परिवार के साथ जा रहा हूँ. ये रहे मेरे काग़ज़ात.”

“बकवास हैं तेरे काग़ज़ात. इस अँधेरे में पढ़कर अपनी आँखें ख़राब करने के लिये मैं कोई बेवकूफ़ हूँ. देख रहा है, धुँध. बगैर कागज़ात के ही मील भर दूर से ही दिखाई दे रहा है, कि है कि तू कैसा डॉक्टर है. तेरे जैसे डॉक्टर तो बारा-इंची गन से निकलते हैं. तेरी तो जमकर धुलाई करनी चाहिये, मगर अभी नहीं. जब तक सही-सलामत है, पीछे मार्च कर.”

मुझे कोई और समझ रहे हैं’, डॉक्टर ने सोचा. संतरी से बहस करने का कोई फ़ायदा नहीं था. बेहतर है, कि जब तक देर नहीं हो जाती, दूर चले जाना बेहतर है.  डॉक्टर विपरीत दिशा में मुड़ गया.

उसके पीछे की ओर तोपों की गोलीबारी रुक गई थी. उस दिशा में पूरब थी. वहाँ धुँध के धुँए में सूरज निकल रहा था और तैरती हुई धुँध से टिमटिमाते हुए झाँक रहा था, जैसे हम्माम में साबुन के फ़ेन की भाप में नग्न शरीर झाँक जाते हैं.

डॉक्टर ट्रेन के डिब्बों की सीध में चल रहा था. उसने उन्हें पार कर लिया और आगे चलता रहा. हर कदम के साथ उसके पैर ढीली रेत में गहरे-गहरे धँस रहे थे.

छपछपाने की सधी हुई आवाज़ें नज़दीक आ रही थीं. यहाँ ढलान थी. कुछ कदम चलने के बाद डॉक्टर कुछ अस्पष्ट आकृतियों के आगे रुक गया, जिन्हें धुँध ने अप्राकृतिक रूप से काफ़ी बड़ा बना दिया था. एक कदम और, और यूरी अन्द्रेयेविच के सामने धुँध से किनारे पर खींची गई नौकाओं का पृष्ठ भाग प्रकट हुआ.

वह एक चौड़ी नदी के किनारे पर खड़ा था, जो अलसाई लहरों से धीरे-धीरे और थकावट से मछली पकड़ने वाली नौकाओं और गोदी के तख़्तों को थपथपा रही थी.

“तुझे यहाँ मंडराने की इजाज़त किसने दी है?” किनारे से हटकर एक अन्य संतरी ने पूछा.

“ये कौन सी नदी है?” अपनी इच्छा के ख़िलाफ़ डॉक्टर के मुँह से निकला, हाँलाकि हाल ही के अनुभव के बाद वह पूरी शिद्दत से कोशिश कर रहा था कि कुछ भी न पूछे.

जवाब के बदले संतरी ने दाँतों में सीटी दबाई, मगर उसका उपयोग न कर पाया. पहला संतरी, जिसे वह सीटी बजाकर बुलाना चाह रहा था और जो, जैसा कि पता चला, चुपचाप यूरी अन्द्रेयेविच के पीछे-पीछे चल रहा था, ख़ुद ही अपने साथी के पास आया. दोनों बातें करने लगे”

“यहाँ तो सोचने वाली कोई बात ही नहीं है. पंछी की उड़ान ही बता देती है. “ये कौन सा स्टेशन है, ये कौन सी नदी है?” सोचता है, हमें धोखा दे देगा.

तेरा क्या ख़याल है, सीधे जेट्टी पर ले चलें या आगे कम्पार्टमेन्ट में?”

“मेरा ख़याल है, कि पहले कम्पार्टमेन्ट में ले चलें. जैसे चीफ़ कहेगा. – पहचान वाले डॉक्यूमेन्ट्स. – दूसरा संतरी भौंका और उसने डॉक्टर द्वारा सामने किये गये प्रमाण पत्रों का पैकेट लपक लिया.

“होशियारी से, एक ही देस का है,” उसने पता नहीं किससे कहा और पहले वाले संतरी के साथ स्टेशन की ओर जा रही पटरियों की गहराई में जाने लगा.

तब परिस्थिति को समझाने के लिये रेत पर लेटा हुआ आदमी, जो ज़ाहिर है, मछुआरा था, घुरघुराया और आगे बढ़ा:

“तू ख़ुशनसीब है, कि तुझे सीधे उसीके पास ले जाना चाहते हैं. हो सकता है, भले आदमी, वहाँ तू बच जाये. मगर, सिर्फ तू इन पर इल्ज़ाम न लगाना. उनकी ड्यूटी ही ऐसी है. ज़माना लोगों का है. हो सकता है, ये तेरे भले के लिये ही हो रहा हो. मगर अभी, कुछ न कहना. ये, देख रहे हो, तुम्हें कोई और समझ बैठे हैं. ये किसी की तलाश कर रहे हैं, तलाश करते जा रहे हैं.

“और, समझ रहे हैं, - तू ही है, वो, मज़दूरों की सत्ता का दुश्मन. – पकड़ लिया. गलती हो गई. तू, अगर कुछ हो जाये तो चीफ़ के पास जाने की कोशिश करना. मगर इनके हत्थे मत चढ़ना. ये – मज़दूर वर्ग के प्रति सचेत – ख़तरनाक हैं, ख़ुदा बचाये.

“तेरा काम तमाम करना उनके लिये आधे कोपेक जितना भी नहीं है. वो कहेंगे – चल, मगर तू मत जाना. तू कहना – मुझे चीफ़ से मिलना है.”

उस मछुआरे से यूरी अन्द्रेयेविच को मालूम हुआ कि नदी, जिसके सामने वह खड़ा था, मशहूर नदी रीन्वा है, जिसमें जहाज़ चलते हैं, कि नदी के पास वाला रेल्वे स्टेशन – रज़्वील्ये है, जो युर्यातिन शहर का तटीय फैक्ट्री वाला उपनगर है. उसे पता चला कि युर्यातिन को, जो यहाँ एक या दो मील की ऊँचाई पर है, पूरे समय श्वेत गार्ड्स से आज़ाद करने की कोशिश कर रहे थे, और आज़ाद कर चुके हैं. मछुआरे ने उसे बताया कि रज़्वील्ये में भी दंगे हुए थे और उन्हें भी, शायद दबा दिया गया है और अब चारों तरफ़ इतनी शांति है, क्योंकि स्टेशन से लगा हुआ क्षेत्र नागरिकों से ख़ाली करवा लिया गया है और उसके चारों ओर सुरक्षा बलों का घेरा है. उसे पता चला, आख़िर में, कि पटरियों पर खड़ी अनेक ट्रेनों के बीच जिनमें सैनिक संस्थाओं की ट्रेनें भी हैं, प्रदेश के मिलिट्री कमिसार स्त्रेल्निकव की एक ख़ास ट्रेन है, जिसके कम्पार्टमेन्ट में डॉक्टर के कागज़ात ले गये हैं.           

वहाँ से कुछ देर बाद डॉक्टर को बुलाने के लिये एक नया संतरी आया, जो पहले वाले संतरियों से इस बात में अलग था कि वह बंदूक को हत्थे से ज़मीन पर खींच रहा था या उसे अपने सामने खड़ा कर रहा था, जैसे अपने नशे में धुत् दोस्त को हाथ पकड़कर ले जा रहा हो, जो उसके बिना नीचे गिर पड़ता. वह डॉक्टर को मिलिट्री कमिसार के पास ले गया.

 

28

 चमड़े की छत से ढँके गलियारे से जुड़े दो स्पेशल कम्पार्टमेन्ट्स में से एक में, जिसमें पहरेदार को “पासवर्ड” बताकर डॉक्टर के साथ संतरी चढ़ा, हँसी और हलचल सुनाई दे रही थी, जो उनके प्रवेश करते ही फ़ौरन बन्द हो गई.

एक संकरे गलियारे से होते हुए संतरी डॉक्टर को बीच वाले चौड़े विभाग में ले गया. यहाँ शांति और व्यवस्था थी. साफ़-सुथरे, अच्छे कपड़े पहने लोग एक साफ़, आरामदेह कमरे में काम कर रहे थे. डॉक्टर ने एक गैर-पार्टी मिलिट्री-स्पेशलिस्ट के स्टाफ़-क्वार्टर्स की, जो थोड़े ही समय में पूरे क्षेत्र का गौरव और आतंक बन गया था, कुछ और ही कल्पना की थी.

मगर, शायद, उसकी गतिविधियों का केन्द्र यहाँ नहीं, बल्कि कहीं आगे, मोर्चे के हेडक्वार्टर्स में, युद्ध के कार्यकलापों के निकट था, यहाँ उसका व्यक्तिगत भाग था, उसका छोटा सा दफ़्तर और गतिशील शिबिर वाला बिस्तर था.   

इसीलिये यहाँ इतनी शांति थी, जैसे थर्मल समुद्री स्नानगृहों के गलियारों में होता है जो कॉर्क ओक की छाल और कालीनों से ढँके होते हैं और जिन पर नरम जूते पहने कर्मचारी चलते हैं.

कम्पार्टमेन्ट का बीच वाला हिस्सा पुराना डाइनिंग हॉल था, जो कालीन से ढँका था और जिसे डिस्पैच रूम में परिवर्तित कर दिया गया था. उसमें कुछ मेज़ें थीं.

“एक मिनट,” प्रवेश द्वार के सबसे पास बैठे हुए नौजवान फ़ौजी ने कहा. इसके बाद मेज़ों पर बैठे हुए सभी ने डॉक्टर के बारे में भूल जाना अपना कर्तव्य समझा और उस पर ध्यान देना बंद कर दिया. इसी फ़ौजी ने अनमने ढंग से सिर हिलाकर संतरी को बिदा कर दिया और वह बंदूक के हत्थे से कॉरीडोर के धातुई डंडों को टनटनाते हुए चला गया.

डॉक्टर ने देहलीज़ से ही अपने कागज़ात देख लिये. वे आख़िरी मेज़ के किनारे पर, काफ़ी उम्र के पुराने ढंग के कर्नल के सामने पड़े थे. यह कोई सांख्यिकीविद् था.

अपने आप से कुछ भिनभिनाते हुए, वह संदर्भ ग्रंथों में झाँक लेता, युद्ध से संबंधित नक्शे देखता, कुछ तुलना करता, पास-पास रखता, काटता और चिपकाता. उसने एक-एक करके कमरे की सभी खिड़कियों पर नज़र दौड़ाई और बोला, “आज मौसम गर्म रहेगा”, मानो सभी खिड़कियों का निरीक्षण करने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुँचा हो, और ये बात हर खिड़की से एक जैसी स्पष्ट प्रतीत नहीं हो रही थी.

फर्श पर मेज़ों के बीच किसी टूटे हुए तार को जोड़ते हुए मिलिट्री टेक्नीशियन रेंग रहा था. जब वह नौजवान फ़ौजी की मेज़ के नीचे पहुँचा, तो वह खड़ा हो गया, जिससे उसके काम में बाधा न डाले. बगल में मर्दों वाले सुरक्षा जैकेट में एक नकलनवीस महिला बिगड़े हुए टाइपराइटर के साथ संघर्ष कर रही थी. उसकी कैरिजउछलकर एक किनारे को चली गई थी और फ्रेम में अटक गई थी. नौजवान फ़ौजी उसकी स्टूल के पीछे खड़ा हो गया और ऊपर से उसके साथ मिलकर इसका कारण ढूँढ़ने की कोशिश कर रहा था. मिलिट्री टेक्नीशियन रेंगते हुए टाइपिस्ट के पास पहुँचा और उसने नीचे से लीवर और अन्य चीज़ों का निरीक्षण किया. कर्नल जैसा कमाण्डर उनके पास गया. सभी टाइपराइटर में व्यस्त हो गये.  

इससे डॉक्टर को तसल्ली हुई. ये मानना मुश्किल था, कि ये लोग, जिन्हें उसके संभावित भाग्य के बारे में उससे ज़्यादा जानकारी थी, एक मरणोन्मुख अभियुक्त के सामने इतनी लापरवाही से छोटी-छोटी बातों पर ध्यान देंगे.

मगर उन्हें कौन जानता है?’ उसने सोचा. ये शांति उनमें कहाँ से आई? बगल में ही तोपें दाग़ी जा रही हैं, लोग मर रहे हैं, और वे गर्म दिन का – गर्म, युद्ध की दृष्टि से नहीं अपितु मौसम की दृष्टि से अनुमान लगा रहे हैं. या उन्होंने इतना कुछ देख लिया है कि उनकी सभी भावनाएँ कुंद हो गई हैं?’

और, चूँकि करने को कुछ नहीं था, वह अपनी जगह से कमरे की सामने वाली खिड़कियों से बाहर देखने लगा.

 

29

ट्रेन के सामने इस तरफ़ से पटरियाँ खिंची हुई चली जा रही थीं और पहाड़ पर इसी नाम के उपनगर में रज़्वील्ये स्टेशन दिखाई दे रहा था.

पटरियों से स्टेशन तक तीन चौकियों वाली बिना रंगी लकड़ी की सीढ़ी जाती थी.

इस तरफ़ से रेल की पटरियाँ इंजिनों के किसी बड़े कब्रिस्तान जैसी लग रही थीं. बिना कोयले के डिब्बों वाले पुराने लोकोमोटिव इंजिन अपने कटोरों तथा जूतों के टॉप जैसे पाइपों के साथ एक दूसरे से सट कर रेलगाड़ियों के कबाड़ के ढेर में खड़े थे.     

नीचे वाला इंजिनों का कब्रिस्तान और उपनगर का कब्रिस्तान, पटरियों पर पड़ा मुड़ा-तुड़ा लोहा और शहर के बाहर ज़ंग लगी छतें और साइनबोर्ड – सब मिलकर सफ़ेद आसमान के नीचे, जो भोर की गर्मी से झुलस गया था,  परित्यक्तता और जर्जरता का दृश्य प्रस्तुत कर रहे थे.

मॉस्को में यूरी अन्द्रेयेविच भूल ही गया था कि शहरों में कितने सारे साइनबोर्ड्स नज़र आते थे और वे दर्शनीय भाग का कितना बड़ा हिस्सा ढाँक लेते थे. यहाँ के साइनबोर्ड्स का नज़ारा उसे इस बात की याद दिला गया. बड़े अक्षरों के कारण आधे साइनबोर्ड्स तो ट्रेन से ही पढ़े जा सकते थे. वे एक मंज़िला इमारतों की टेढ़ी-मेढ़ी खिड़कियों पर इतने नीचे तक आ गये थे कि ठिगने घर उनके नीचे ग़ायब हो गये थे, जैसे पिता की नीचे खिंची हुई टोपियों के नीचे किसानों के बच्चों के सिर छुप जाते हैं.         

इस समय तक धुँध पूरी तरह छट चुकी थी. सिर्फ दूर पूरब में, आसमान में बाईं ओर उसके निशान थे. मगर वे भी थरथराये, चल पड़े और दूर हट गये, थियेटर के पर्दे की तरह.

वहाँ, रज़्वील्ये से करीब दो मील दूर, पहाड़ पर, जो उपनगर से काफ़ी ऊँचा था, एक बड़ा शहर दिखाई देने लगा, जो शायद जिला या प्रदेश था. सूरज उसके रंगों को पीलापन दे रहा था, दूरी उसकी रेखाओं को सरल बना रही थी. वह उस ऊँचाई पर अनेक सोपानों में बना हुआ था, जैसे सस्ते चित्रों में दिखाया गया माउण्ट एथोस या रेगिस्तानों में रहने वालों का मठ हो, घर के ऊपर घर और सड़क के ऊपर सड़क, उसकी चोटी के बीच में एक बड़े चर्च के साथ.       

“युर्यातिन!” डॉक्टर ने उत्तेजना से महसूस किया. “स्वर्गीय आन्ना इवानव्ना जिसे हमेशा याद करती थीं और सिस्टर अंतीपवा जिसका अक्सर उल्लेख करती थी! कितनी बार मैंने उनके मुँह से इस शहर का नाम सुना है और किन परिस्थितियों में उसे पहली बार देख रहा हूँ!”

इसी समय टाइपराइटर पर झुके हुए फ़ौजियों का ध्यान खिड़की के बाहर किसी चीज़ ने आकर्षित किया. उन्होंने अपने सिर उधर घुमाये.

डॉक्टर ने भी उनकी नज़र का अनुसरण किया.

स्टेशन वाली सीढ़ी से कुछ पकड़े गये या गिरफ़्तार किये गये कैदियों को ले जा रहे थे, उनके बीच एक स्कूली छात्र भी था, जिसके सिर पर चोट लगी थी.

उसकी कहीं पर पट्टी कर दी गई थी, मगर बैण्डेज के नीचे से खून रिस रहा था, जिसे वह हथेली से अपने पसीने से लथपथ, गर्म चेहरे पर पोत देता था.

दो रेड आर्मी के फ़ौजियों के बीच स्कूली छात्र, जो इस समूह के अंत में था न सिर्फ अपनी निर्णायकता से, जिससे उसका ख़ूबसूरत चेहरा दमक रहा था, बरबस ध्यान खींच रहा था, और दया से भी, जो इतना जवान विद्रोही दिल में उत्पन्न कर रहा था. वह और उसके साथ जा रहे दो लोग अपनी फ़ूहड़ हरकतों से भी ध्यान आकर्षित कर रहे थे. वे पूरे समय जो करना चाहिये था, वही नहीं कर रहे थे.            

स्कूली छात्र के बैण्डेज वाले सिर से हर पल उसकी कैप गिर रही थी. उसे निकाल कर हाथ में लेने के बजाय वह बार-बार उसे ठीक करता और नीचे खींचता, जिससे उसकी बैण्डेज की हुई ज़ख़्म को नुक्सान पहुँचता, इस काम में लाल सेना के दोनों फ़ौजी तत्परता से उसकी मदद करते.     

  इस बेतुकेपन में जो सामान्य बुद्धि के विपरीत था, कुछ प्रतीकात्मक–सा था. और उसके अर्थ से प्रभावित, डॉक्टर का दिल भी चाहा कि भाग कर वहाँ जाये और स्कूली छात्र को उन शब्दों से रोक दे, जो उसके भीतर से बाहर आने को मचल रहे थे. उसका दिल लड़के से और कम्पार्टमेन्ट के लोगों से चिल्लाकर यह कहना चाह रहा था कि मुक्ति रूपों के प्रति निष्ठा में नहीं, बल्कि उनसे आज़ाद होने में है.  

डॉक्टर ने नज़र एक ओर को घुमाई. कमरे के बीच में स्त्रेल्निकव खड़ा था, जो अभी-अभी सधे हुए, निर्णायक कदमों से यहाँ आया था.

अपने अनगिनत अस्पष्ट परिचितों के बीच वह, डॉक्टर, अब तक इस स्पष्टता को क्यों नहीं जान पाया, जैसा यह व्यक्ति था? उनकी ज़िंदगी एक दूसरे से टकराई कैसे नहीं थी? उनके रास्ते एक दूसरे से कभी मिले क्यों नहीं थे?      

न जाने क्यों, मगर फ़ौरन स्पष्ट हो गया कि यह आदमी इच्छा शक्ति की परिपूर्णता की अभिव्यक्ति है. वह उस हद तक वैसा था, जैसा वह होना चाहता था, कि उसके उसके ऊपर और उसके भीतर का सब कुछ अपरिहार्य रूप से अनुकरणीय था. एकदम सही अनुपात में और ख़ूबसूरती से स्थापित उसका सिर,  और उसके कदमों की तीव्रता, और उसके लम्बे पैर - ऊँचे जूतों में, जो हो सकता है गंदे हों, मगर जो साफ़ किये हुए लग रहे थे, और उसका भूरे रंग का कोट जिस पर, हो सकता है, सलवटें पड़ी हों, मगर जो इस्त्री किया हुआ, लिनन का प्रतीत हो रहा था.      

इस तरह प्रभाव डाल रही थी प्रतिभासम्पन्नता की उपस्थिति, जो स्वाभाविक थी, तनाव से अनभिज्ञ, यह महसूस करती हुई, कि सांसारिक अस्तित्व की हर हालत में हर परिस्थिति पर उसका नियंत्रण है.

इस व्यक्ति के पास अवश्य ही कोई गुण था, जो ज़रूरी नहीं कि मौलिक हो. वह गुण जो उसकी सभी गतिविधियों से झलक रहा था, अनुकरण करने का गुण भी हो सकता है. उस समय सभी किसी न किसी का अनुसरण करते थे. शानदार ऐतिहासिक सूरमाओं की, जिन्हें मोर्चे पर या शहरों में हो रही गड़बड़ियों के दौरान देखा गया था, और जिन्होंने लोगों की कल्पना को झकझोर दिया था. सर्वाधिक मान्यता प्राप्त लोकप्रिय अधिकारियों की. प्रथम पंक्ति के कॉम्रेड्स की. यूँ ही एक दूसरे की.

उसने शिष्टाचारवश यह नहीं दिखाया कि एक अजनबी की उपस्थिति उसे चौंका रही है या उलझन में डाल रही है.  उल्टे, वह सबसे इस तरह मुख़ातिब हुआ, मानो उसने डॉक्टर को भी उन्हीं में से एक समझ लिया हो. उसने कहा:

“बधाई देता हूँ. हमने उन्हें खदेड़ दिया है. ये किसी युद्ध के खेल जैसा है, न कि वास्तविक युद्ध, क्योंकि वे भी वैसे ही रूसी हैं, जैसे कि हम हैं, सिर्फ उस बेवकूफ़ी के साथ, जिससे वे ख़ुद ही अलग होना नहीं चाहते और जिसे हमें बलपूर्वक हटाना होगा. उनका कमाण्डर मेरा दोस्त था. वह मूलतः मुझसे  ज़्यादा सर्वहारा वर्ग का है. हम एक ही कम्पाऊण्ड में बड़े हुए. उसने ज़िंदगी में मेरे लिये बहुत कुछ किया है, मैं उसका ऋणी हूँ. और मैं ख़ुश हूँ, कि मैंने उसे नदी के पार खदेड़ दिया, या हो सकता है, उससे भी ज़्यादा दूर.

फ़ौरन सम्पर्क स्थापित करो, गुर्यान. सिर्फ संदेशवाहकों और टेलिग्राफ़ के भरोसे नहीं बैठ सकते. आपने गौर किया कि कितनी गर्मी है?

फिर भी मैं घंटे-डेढ़ घंटे किसी तरह सो गया. आह, हाँ...” वह कुछ रुका और डॉक्टर की ओर मुड़ा. उसे जगाये जाने का कारण याद आ गया.

उसे किसी बेवकूफ़ी के कारण जगाया गया था, जिसके कारण यहाँ यह आदमी खड़ा है जिसे रोक कर रखा गया है.

ये?’ डॉक्टर को सिर से पैर तक ताड़ती हुई नज़र से देखते हुए स्त्रेल्निकव ने सोचा.कोई समानता नहीं है. बेवकूफ़!वह हँसने लगा और यूरी अन्द्रेयेविच से मुख़ातिब हुआ.

“माफ़ कीजिये, कॉम्रेड. आपको कोई और समझ लिया गया. मेरे संतरियों से गलती हो गई. आप आज़ाद हैं. कॉम्रेड की वर्क-बुककहाँ है? अहा, ये रहे आपके कागज़ात. धृष्ठता के लिये क्षमा करें, मैं सरसरी नज़र इन पर डाल लेता हूँ. झिवागो...झिवागो...डॉक्टर झिवागो...कुछ मॉस्को जैसा...चलिये, सिर्फ एक मिनट के लिये मेरे पास चलते हैं. ये – सेक्रेटेरिएट है, और मेरा कम्पार्टमेन्ट बगल में ही है. प्लीज़. मैं आपको ज़्यादा देर नहीं रोकूँगा.”

 

30

“ये आदमी आख़िर था कौन? ताज्जुब की बात है कि ऐसा आदमी, जो किसी पार्टी का नहीं था, इतने बड़े ओहदे तक कैसे पहुँच गया और वहीं पर जमा रहा – जिसे कोई नहीं जानता था, क्योंकि हाँलाकि उसका जन्म मॉस्को में हुआ था, वह युनिवर्सिटी ख़त्म करके पढ़ाने के लिये प्रांतों में चला गया, और युद्ध के दौरान काफ़ी समय तक कैदी रहा, अभी हाल ही तक ग़ायब रहा और उसे मृत समझ लिया गया.

प्रगतिशील रेल्वे कर्मचारी तिवेर्ज़िन ने, जिसके परिवार में बचपन में स्त्रेल्निकव का पालन-पोषण हुआ, उसकी सिफ़ारिश की और उसकी ग्यारंटी दी. उन लोगों ने, जिन पर उस समय नियुक्तियाँ करने की ज़िम्मेदारी थी, उस पर विश्वास किया. तीव्र जोश और चरम विचारों के दिनों में स्त्रेल्निकव की क्रांतिकारिता, जो किसी के भी आगे रुकता नहीं था, अपनी मौलिकता के कारण, हठधर्मिता के कारण अलग से दिखाई पड़ती थी, जो किसी और के मुख से नहीं बल्कि उसकी अपनी ज़िंदगी से निकली थी और ये संयोगवश नहीं था.          

स्त्रेल्निकव ने उसके ऊपर दिखाये गये विश्वास को सही साबित किया.

उसके द्वारा हाल ही में किये गये कारनामों में शामिल थे उस्त-नेम्दा और नीझ्नी-केल्मेस की कार्रवाई, गुबासोव्कोए के किसानों का मामला, जो खाद्य-सामग्री की टुकड़ी का सशस्त्र विद्रोह कर रहे थे, और चौदहवीं इन्फैन्ट्री बटालियन द्वारा खाद्य सामग्री की ट्रेन को मेद्वेझ्या पोय्मा स्टेशन पर लूटना. उसकी उपलब्धियों में राज़िन-सैनिकोंका मामला भी शामिल था, जो तुर्कातुय शहर में विद्रोह कर रहे थे और हाथों में हथियार लेकर श्वेत-गार्ड्स की ओर चले गये थे, और चिर्किन-उस नदी के घाट पर फ़ौजी विद्रोह का मामला, जिसमें सोवियत शासन का वफ़ादार कमाण्डर मारा गया था.

इन सभी जगहों पर वह सिर पर गिर रही बर्फ की तरह प्रकट हुआ, फ़ैसला किया, सज़ा सुनाई, सज़ा की तामील करवाई, शीघ्रता से, गंभीरता से, निडरता से.

उसकी गश्ती ट्रेन के कारण प्रदेश में सामूहिक पलायनों पर लगाम लग गई. भर्ती करने वाली संस्थाओं के संशोधनों ने सब कुछ बदल दिया. रेड-आर्मी में सफ़लतापूर्वक भर्ती होने लगी. चयन-कमिटियाँ जी-जान से काम करने लगीं.

आख़िरकार, अभी हाल ही में, जब श्वेत गार्ड्स उत्तर से दबाव डालने लगे और परिस्थिति विस्फ़ोटक होने लगी, तो स्त्रेल्निकव पर नई ज़िम्मेदारियाँ डाली गईं, जो सीधे मिलिट्री से, रणनीति से और परिचालन से संबंधित थीं. उसकी कोशिशों के परिणाम फ़ौरन दिखाई देने लगे.        

स्त्रेल्निकव जानता था, कि अफ़वाहों ने उसे रास्त्रेल्निकव’ (हत्या करने वाला- अनु.) नाम दिया है. उसने इत्मीनान से इसे मान लिया,  वह किसी चीज़ से नहीं डरता था.

वह मॉस्को का निवासी था और एक मज़दूर का बेटा था, जिसने सन् 1905 की क्रांति में भाग लिया था और इसके लिये दुःख झेले थे. बालिग न होने के कारण इन वर्षों में वह क्रांतिकारी आंदोलन से दूर ही रहा, और आगे के वर्षों में भी, जब वह युनिवर्सिटी में पढ़ रहा था, इस वजह से कि गरीब तबके के नौजवान, उच्च शिक्षा संस्थानों में प्रवेश पाने के बाद उसे अमीरों के नौजवानों से ज़्यादा महत्व देते हैं और खूब मेहनत से पढ़ते हैं. संभ्रांत विद्यार्थियों की मस्ती ने उसे नहीं छुआ था.

 

युनिवर्सिटी से वह अथाह ज्ञान प्राप्त करके निकला था. अपने ऐतिहासिक-भाषाशास्त्र के अध्ययन के साथ-साथ, उसने अपने प्रयत्नों से गणित का भी अध्ययन किया.

कानून के अनुसार फौज में जाने के लिये वह बाध्य नहीं था, मगर स्वेच्छा से युद्ध पर चला गया, लेफ्टिनेंट की रैंक से उसे बंदी बना लिया गया और सन् सत्रह के अंत में, यह जानकर कि रूस में क्रांति हो गई है, वह भागकर मातृभूमि आ गया.

दो गुण, दो शौक उसकी विशेषता थे.

वह बेहद स्पष्टता से और सही विचार करता था. उसमें विरले दर्जे की नैतिक शुद्धता और न्यायप्रियता थी, वह उत्साहपूर्ण विचारों वाला और सहृदय था.

मगर एक वैज्ञानिक के कार्यकलाप के लिये, जो नई राहें बनाता है, उसके दिमाग़ में उस जुनून का, उस शक्ति का अभाव था जो अनपेक्षित खोजों से निरर्थक दूरदर्शिता के अर्थहीन सामंजस्य को नष्ट करती है. 

और भलाई करने के लिये, उसकी सैद्धांतिकता में असैद्धांतिक दिल का अभाव था, जो आम घटनाओं से अनभिज्ञ था, और सिर्फ आंशिक घटनाओं से ही वाकिफ़ था, और जो इस कारण महान है कि छोटे काम ही करता है.

स्त्रेल्निकव कम उम्र से ही वह प्राप्त करने का प्रयास कर रहा था, जो सर्वोच्च और उज्ज्वल हो. उसकी राय में जीवन एक विशाल रंगभूमि है, जिसमें नियमों का पालन करते हुए, लोग उच्चतम को प्राप्त करने के लिये प्रतिस्पर्धा करते हैं.              

जब पता चला कि ऐसा नहीं है, तो उसके दिमाग़ में ये ख़याल भी नहीं आया कि वह ग़लत था, जो विश्व की व्यवस्था को सरल समझ रहा था. लम्बे समय तक इस अपमान को भीतर ही भीतर दबाए हुए, वह किसी दिन ज़िंदगी और उसे विकृत करने वाले काले कारनामों का फ़ैसला करेगा, उसकी रक्षा के लिये आगे आयेगा और उसके लिये प्रतिशोध लेगा.

निराशा ने उसे कठोर बना दिया. क्रांति ने उसे हथियारों से लैस कर दिया.

 

31

“झिवागो, झिवागो,” स्त्रेल्निकव कम्पार्टमेन्ट में, जहाँ वे गये, अपने आप से दुहराता रहा. “कुछ व्यापारियों जैसा लग रहा है. या कुलीनों जैसा. हाँ, मॉस्को का डॉक्टर. वरीकिना में. ख़तरनाक. मॉस्को से, और अचानक इस दूरदराज़ के जंगली इलाके में.

“बस, इसी उद्देश्य से. शांति की तलाश में. दूर-दराज़ के, अनजान इलाके में.”

“वाह, कितना काव्यात्मक. वरीकिना? यहाँ की सभी जगहें मुझे मालूम हैं. क्र्यूगर की भूतपूर्व फ़ैक्ट्रियाँ. संयोग से, रिश्तेदार तो नहीं? वारिस?”

“ये व्यंग्यात्मक लहज़ा किसलिये? यहाँ “वारिस” किसलिये? हाँलाकि बीबी वाकई में...”

“ आहा! देखिये. क्या “श्वेतों” की याद आ रही थी? मैं आपको निराश करूँगा. आपने देर कर दी. पूरा इलाके साफ़ कर दिया गया है.”

“क्या आप मज़ाक उड़ाते रहेंगे?”

और ऊपर से – डॉक्टर. फ़ौजी. और युद्ध काल में. वो भी मेरे ही इलाके में. भगोड़ा. हरेभी जंगलों में चले जाते हैं (हरेसे तात्पर्य उन अराजकतावादी किसानों से है, जो श्वेत गार्डों और रेड आर्मी – दोनों से लड़ रहे थे – अनु.). शांति ढूँढ़ते हैं. वजह?”

“दो बार घायल हुआ था और सिर्फ अक्षम होने के कारण सेवामुक्त कर दिया गया.”

अब आप कमिश्नर शिक्षा विभाग या कमिश्नर स्वास्थ्य विभाग से पत्र दिखायेंगे जो यह प्रमाणित करे कि आप “पूरी तरह सोवियत नागरिक” हैं, “सहानुभूति रखने वाले” हैं, और जो आपकी वफ़ादारी को प्रमाणित करे. इस समय धरती पर भयानक, निर्णायक फ़ैसला सुनाया जा रहा है, प्रिय महोदय, विनाश के दूत हाथों में तलवारें लिये और परों वाले भयानक जानवर घूम रहे हैं, न कि पूरी तरह से सहानुभूतो रखने वाले और वफ़ादार डॉक्टर्स. ख़ैर, मैंने, आपसे कहा था, कि आप आज़ाद हैं, और मैं अपनी बात से फिर नहीं जाऊँगा. मगर, सिर्फ इस बार. मैं महसूस कर रहा हूँ, कि हम फिर मिलेंगे, और तब बात दूसरी तरह की होगी, सावधान रहिये.”

धमकी और आह्वान से यूरी अन्द्रेयेविच परेशान नहीं हुआ. उसने कहा:

“मुझे मालूम है कि आप मेरे बारे में क्या सोच रहे हैं. अपनी ओर से आप बिल्कुल सही हैं. मगर ये बहस, जिसमें आप मुझे खींचना चाहते हैं, मैं पूरी ज़िंदगी अपने ख़यालों में किसी काल्पनिक अभियोगी के साथ करता आ रहा हूँ, और सोच सकते हैं, कि मेरे पास किसी निष्कर्ष तक पहुँचने के लिये पर्याप्त समय था. दो लब्ज़ों में इसे नहीं बताया जा सकता. अगर मैं वाकई में आज़ाद हूँ, तो मुझे बिना किसी स्पष्टीकरण के जाने की इजाज़त दीजिये, - और यदि नहीं – तो मेरा फ़ैसला कीजिये. आपके सामने अपनी सफ़ाई देने की मुझे ज़रूरत नहीं है.”

उनकी बातचीत में टेलिफ़ोन की घण्टी ने ख़लल डाला. टेलिफोन का सम्पर्क बहाल हो गया था.
“धन्यवाद
, गुर्यान, रिसीवर उठाकर और उसमें कई बार फूँक मारकर स्त्रेल्निकव ने कहा: “कॉम्रेड झिवागो के साथ जाने के लिये किसी आदमी को भेजो, प्यारे. कहीं फिर से कोई गड़बड़ न हो जाये. और रज़्वील्ये की लाइन मुझे दो, प्लीज़, रज़्वील्ये के ट्रान्सपोर्टचेका( चेका- आपात्कालीन कमिशन- अनु.) से बात करना है.”               

अकेले रह जाने पर स्त्रेल्निकव ने रेल्वे स्टेशन को फोन किया:

“लड़के को यहाँ लाये हैं, वह अपनी कैप लगातार कानों पर खींचे जा रहा है, और सिर पर बैण्डेज बंधा है, क्या बेहूदगी है. हाँ, अगर ज़रूरत हो तो उसे डॉक्टरी सहायता दी जाये. हाँ, आँख की पुतली की तरह , आप व्यक्तिगत रूप से मेरे सामने जवाबदेह रहेंगे.

राशन, अगर चाहिये तो. तो, अब, काम के बारे में. मैं बोल रहा हूँ, मैंने अभी अपनी बात पूरी नहीं की है. आह. शैतान, कोई तीसरा घुस आया. गुर्यान! गुर्यान!”

सम्पर्क कट गया था.

“हो सकता हए, मेरा ही कोई विद्यार्थी हो”, एक मिनट के लिये रेल्वे से बात ख़त्म करने की कोशिश को अलग करके वह सोचने लगा. – “बड़ा हो गया और हमारे ख़िलाफ़ विद्रोह कर रहा है:. – स्त्रेल्निकव ने ख़यालों में अपने यहाँ पढ़ाने के और युद्ध के और कैद के सालों की गिनती की, क्या कुल मिलाकर ये लड़के की उम्र के बराबर है. फिर कम्पार्टमेन्ट की खिड़की से क्षितिज पर दिखाई दे रहे दृश्य में नदी के ऊपर वाले, युर्यातिन से बाहर निकलने वाले रास्ते की बगल में, उस भाग को ढूँढ़ने लगा, जहाँ उनका घर था. और, अचानक, अगर बीबी और बेटी वहीं हुए तो! उनके पास जाना होगा! फ़ौरन, इसी पल! हाँ, मगर क्या ये मुमकिन है? ये, बिल्कुल दूसरी ही ज़िंदगी से है. पहले इसे, नई वाली को ख़त्म करना होगा, उस, बीच ही में टूट गई ज़िंदगी में जाने से पहले.

ये कभी-न-कभी होगा, कभी-न-कभी. हाँ, मगर कब, कब?”

 

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