Friday, 13 September 2024

कैफियत

 कैफ़ियत (व्याख्या)

                                                            बरीस पस्तरनाक 

                                                       अनुवाद: आ. चारुमति रामदास 



ज़िंदगी लौट आई उसी तरह अकारण,

जैसे कभी अजीब तरह से रुक गई थी

मैं हूँ उसी प्राचीन सड़क पर,

जैसे तब थाउसी गर्मियों वाले दिन और उसी समय.

     

वे ही हैं लोग और वही परेशानियाँ.

और सूर्यास्त की आग बुझी नहीं थी,

जब उसे मानेझ की दीवार से

मौत की शाम ने जल्दबाज़ी में कील से ठोंक दिया था.

 

     सस्ते फूहड़ कपड़ों में औरतें

उसी तरह रातों को जूते कुचलती हैं,

फिर उन्हें लोहे की छत पर

अटारियों में सूली पर चढ़ाती हैं.

 

थकी हुई चाल से एक औरत

धीरे-धीरे देहलीज़ पर आती है

और तहखाने से ऊपर आकर,

आँगन को तिरछा पार करती है.

मैं फिर से बहाने बनाता हूँ,

और फिर से हर चीज़ के प्रति लापरवाह हो जाता हूँ.

और पड़ोसन चक्कर लगाकर पिछवाड़े का,

हमें छोड़ देती है अकेला.

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रोओ नहींसूजे हुए होंठों को न सिकोड़ो,

उन्हें न भींचो.

बसंत के बुखार के छाले की

सूखी पपड़ी खुल जायेगी.

 

मेरे सीने से अपनी हथेली हटा लो,

हम हैं विद्युन्मय तार.

देखना, एक दूसरे से,

यूँ ही चिपक जायेंगे.

 

गुज़र जायेंगे सालबंध जाओगी शादी के बंधन में,

भूल जाओगी बेतरतीबियाँ.

औरत होना – एक महान कदम है,

पागल बना देना – वीरता.

 

और मैं औरतों की हाथों के,

पीठोंऔर कंधोंऔर गर्दनों के चमत्कार के सम्मुख

सेवकों जैसे स्नेह भाव से

ज़िंदगी भर सजदे में रहा हूँ.

 

मगर कितना ही क्यों न जकड़ ले रात

पीड़ादायक बंधन से मुझे,

सबसे तीव्र है चाहत दूर छिटकने की

और ललचाती है ख़्वाहिश बंधन तोड़ने की.

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* प्रेमिका (लारा) के बारे मेंजिससे कवि संबंध तोड़ना चाहता है.

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