अध्याय – 17
यूरी झिवागो की
कविताएँ
यह
अध्याय उपन्यास का अंतिम अध्याय है. जब मॉस्को में यूरी अन्द्रेयेविच के मित्र
उसकी कविताओं की पुस्तक पढंते हुए महसूस करते हैं कि ‘आत्मा की स्वतंत्रता आ गई है’. इस संकलन में उन्हें यूरी अन्द्रेयेविच के मानसिक विश्व के दर्शन होते हैं.
अपने
आप में अनूठा है यह अध्याय – गद्यात्मक रचना को पद्यात्मक रूप से समाप्त करने
वाला. यह परिशिष्ट नहीं, अपितु उपन्यास का अभिन्न अंग है.
यूरी
झिवागो के संकलन में कुल पच्चीस कविताएँ हैं. कुछ तो उसके ज़िंदगी के अनुभव को प्रकट करती हैं और कुछ के उद्गम के बारे में
कहना कठिन है.
मोटे
तौर से इन कविताओं को तीन भागों में बांट सकते हैं: प्रेम के बारे में, प्रकृति के बारे में और
ईसा मसीह के जीवन से संबंधित कुछ प्रमुख घटनाओं के बारे में. ये तीनों विषय यूरी
को बहुत प्रिय हैं और वह उन्हें कविता के माध्यम से भली प्रकार व्यक्त कर सकता है.
- अनुवादिका
1
हैम्लेट
थम गया शोर. आया
मैं रंगमंच पर.
झुककर दरवाज़े की
चौखट पर ,
सुनता हूँ दूर की
आवाज़
क्या हो रहा है
मेरे ज़माने में.
रात का धुंधलका
केंद्रित है मुझ पर
हज़ारों दूरबीनों
से.
ख़ुदाई बाप, यदि संभव
है,
तो ले जा इस
प्याले को.
तुम्हारी ज़िद्दी योजना पसंद है मुझे
और तैयार हूँ मैं यह भूमिका निभाने के लिये.
मगर अभी चल रहा है नया नाटक,
और इस बार मुझे बख़्श दे.
मगर अंकों का क्रम निश्चित हो गया है,
और रास्ते का अंत अपरिवर्तनीय है.
मैं अकेला, सब कुछ डूब रहा है पाखण्ड में.
ज़िंदगी जीना – खेत में टहलने जैसा
नहीं है.
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* यह कविता शेक्सपियर के नाटक के पात्र पर आधारित है.
यह कविता जैसे वचन पूर्ति को, यूरी को जीवन द्वारा दी गई चुनौती को प्रकट करती है. भविष्य को जानते हुए भी
हेम्लेट चुनौती को स्वीकार करता है. हेम्लेट में ईसा मसीह, यूरी झिवागो और ख़ुद बरीस
पस्तरनाक का प्रतिरूप देखा जा सकता है.
2
मार्च
सूरज तपा रहा है
बेतहाशा,
और चिंघाड़ रही है
पगला गई खाई.
हट्टी कट्टी
चरवाहन के काम की तरह,
बसंत का काम भी
उफ़ान पर है.
नष्ट हो रही है
बर्फ और बीमार है रक्त की कमी से
निर्बल नीली नसों की शाखाओं में.
मगर जीवन उफ़न रहा
है गौशाला में,
कांटेदार पंजे दमक
रहे हैं ताकत से.
ये रातें, ये दिन और
रातें!
बूंदों की टपटप
दोपहर में,
छतों पर पिघलते
बर्फ के कण,
निद्राहीन रातों
की बातों का प्रवाह!
पूरे खुले हैं, अस्तबल और
गौशाला,
बर्फ में चुनते जई
के दाने कबूतर,
सभी हैं देनेवाले, और सभी
लेनेवाले, -
खाद महकती है ताज़ी
हवा सी.
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बसंत के आरंभिक दिनों का वर्णन है, जब बर्फ पिघलती है और हवा में ताज़ी खाद की ख़ुशबू भर जाती है.
3
पवित्र सप्ताह
अभी चारों ओर है रात की उदासी.
भोर होने में इतनी देर है,
कि आसमान में तारों की कोई गिनती ही नहीं है,
और हरेक है दिन की तरह उजला,
और यदि संभव होता तो धरती,
ईस्टर गुज़ार देती सोकर
स्तुति-गीतों को सुनते हुए.
अभी चारों ओर है रात की उदासी.
भोर होने में इतनी देर है,
कि जैसे चौक पड़ा हो चिरंतन निद्रा में
चौराहे से नुक्कड़ तक,
और पौ फ़टने तक, और गर्माहट होने तक
अभी सहस्त्राब्दी है बाकी.
धरती अभी भी है निर्वस्त्र-बंजर,
कुछ नहीं है उसके पास
पहनकर
घंटे बजाने के लिये
और गाने वालों का साथ देने के लिये.
और पवित्र गुरूवार से लेकर
पवित्र शनिवार तक
पानी किनारों को आघात पहुँचाता है
और भँवर बुनता है.
जंगल भी निर्वस्त्र है और आवरणहीन है,
और येशू की पीड़ा पर,
प्रार्थना करने वालों की कतार जैसा, खड़ा है
चीड़ के तनों का झुण्ड बनाकर.
और शहर में, छोटी सी जगह पर,
जैसे स्थानीय सभा में,
पेड़ झाँकते हैं नंग-धड़ंग
चर्च की जालियों में.
उनकी नज़रों में है ख़ौफ़,
उनकी बदहवासी समझ में आती है.
भाग रहे हैं बाग अपनी बागड़ तोड़कर,
हो रहा दोलायमान धरती का जीवन:
दफ़ना रहे हैं वे ख़ुदा को.
और देखते हैं प्रकाश शाही दरवाज़े
के पास,
और काला कफ़न और मोमबत्तियों की कतार,
रोए हुए चेहरे –
और अचानक सामने से जुलूस सलीब का
आता है कफ़न के साथ,
और दरवाज़े पर दो बर्च वृक्ष
दूर हटने को हैं मजबूर.
और जुलूस लगाता है चक्कर आँगन का
फुटपाथ के किनारे से,
और लाता है रास्ते से चर्च की ड्योढ़ी में
बसंत, बसंती
संभाषण
हवा में है स्वाद पवित्र ब्रेड का
और बसंत के नशे का.
मार्च उछाल रहा है बर्फ
पोर्च में जमा अपाहिजों पर,
जैसे कोई आदमी आया हो बाहर,
लाया संदूक, और उसे खोलकर.
सब कुछ उन्हें बांट दिया.
गाना चलता रहेगा भोर तक,
और पूरा रो लेने के बाद,
भजन और कविताएँ गाने के बाद
भीतर से निकलते हैं ज़्यादा शांत
बत्तियों के नीचे खाली जगह पर.
मगर आधी रात को हो जाएंगे ख़ामोश देह और प्राण,
सुनकर बसंत की अफ़वाह,
कि जैसे ही मौसम होगा साफ़,
मौत पर काबू पा लेगा
पुनर्जन्म का प्रयत्न.
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ईसा
मसीह की मृत्यु और उनके दफ़नाने के वर्णन को वृक्ष किस प्रकार देखते हैं इसका वर्णन करती हुई यह कविता भी बसंत की पृष्ठभूमि पर आधारित है.
4
श्वेत रात
मुझे सपना आता है गुज़रे हुए ज़माने का,
पीटर्सबुर्ग की तरफ़ वाला घर.
स्तेपी के गरीब ज़मींदार की बेटी,
तुम – ‘कोर्स’ कर रही हो , कुर्स्क में जन्मी हो.
तुम – प्यारी हो, तुम्हारे प्रशंसक हैं.
इस श्वेत रात को हम दोनों,
तुम्हारी खिड़की की सिल पर बैठे हुए,
देख रहे हैं नीचे तुम्हारी गगनचुम्बी इमारत से.
सड़क की बत्तियाँ, जैसे गैस की तितलियाँ हों,
भोर ने छुआ पहली थरथराहट से,
उसे जो मैं हौले से तुमसे कह रहा हूँ,
इतना सोती हुई दूरियों जैसा.
हम जकड़े हैं उसी
रहस्य के प्रति कायर निष्ठा से,
जैसे अपने विशाल दृश्य से फैला हुआ
पीटर्सबुर्ग असीमित नीवा के पार.
वहाँ दूर, घनी सीमाओं में,
बसन्त की इस श्वेत रात में,
बुलबुलें गुँजा रही हैं जंगल की सीमाओं को,
गाकर ज़ोर-शोर से प्रशंसा-गीत.
गूंजती है शरारती चहचहाहट,
नन्हे पंछी की ठण्डक पहुंचाती आवाज़
जगाती है उत्साह और परेशानी
मंत्रमुग्ध वन की गहराई में.
उन जगहों पर, नंगे पैर चलने वाली मुसाफ़िर की तरह
रेंगती है रात बागड़ के किनारे,
और उसके पीछे खिड़की की सिल से पहुँचता है
सुनी हुई बातचीत का निशान.
फ़ट्टों वाली बागड़ से घिरे बागों से होकर,
सुनी हुई बातचीत की गूंज में
सेब और चेरी की टहनियाँ
सजती हैं श्वेत पोषाक में.
और वृक्ष, भूतों जैसे, सफ़ेद
बिखरते हैं झुण्ड बनाकर रास्ते पर,
जैसे बिदा ले रहे हों,
श्वेत रात से, जिसने देखा है बहुत कुछ.
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*
एक
गगनचुम्बी इमारत से शहर और उसके पार ग्रामीण दृश्य को देखने का अनुभव व्यक्त करती
है.
5
बसंत की बदहाली
सूर्यास्त की रोशनी बुझ रही थी.
कीचड़ भरे रास्ते पर देवदार के घने जंगल में
युराल में दूर के फार्महाउस की ओर
घिसट रहा था घुड़सवार.
घोड़े की तिल्ली लगातार हिल रही थी,
और घिसटती हुई नालों की खड़खड़ाहट
बसंत के गड्ढों का पानी
रास्ते में दुहरा रहा था .
जब उसने लगाम छोड़ी
और चलने लगा पैदल,
बाढ़ का पानी लुढ़कने लगा
निकट ही पूरे शोर और गरज के साथ.
कोई हंस रहा था, कोई रो रहा था,
टकराने लगे पत्थर से पत्थर,
और गिरने लगे भंवर में
पेड़ों के उखड़े हुए ठूँठों के साथ.
और सूर्यास्त की लपटों में,
दूर पर अंधेरी टहनियों में,
खतरे के घंटे की तरह
कोयल तैश से गाने लगी.
जहाँ झुकाया विलो वृक्ष ने
रोते-रोते खाई में रूमाल,
प्राचीन डाकू-कोयल की तरह
लगा बजाने वह सीटी सातों चीड़ों पर.
किस दुर्भाग्य, किस प्रियतमा की ओर
इशारा था इस जोश का?
किस पर भारी-भरकम बंदूक से उसने
घने कुंज में चलाई गोली?
ऐसा लगा, कि वह आयेगा बाहर जिन की तरह
भगोड़े कैदियों के कैम्प से
घुड़सवारों या पैदल पार्टिज़ानों से मिलने
उनके स्थानीय ठिकानों की ओर.
धरती और आकाश ने, जंगल और खेत ने
पहचानी यह दुर्लभ आवाज़,
ये नपे तुले अंश
पागलपन के, दर्द के, सुख के, दुःखों के.
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*
यह कविता यूरी झिवागो के ‘फ़ॉरेस्ट- ब्रदरहुड’ वाले अनुभव की ओर इशारा करती है.
6
कैफ़ियत (व्याख्या)
ज़िंदगी लौट आई उसी तरह अकारण,
जैसे कभी अजीब तरह से रुक गई थी
मैं हूँ उसी प्राचीन सड़क पर,
जैसे तब था, उसी गर्मियों वाले दिन और उसी समय.
वे ही हैं लोग और वही परेशानियाँ.
और सूर्यास्त की आग बुझी नहीं थी,
जब उसे मानेझ की दीवार से
मौत की शाम ने जल्दबाज़ी में कील से ठोंक दिया था.
सस्ते फूहड़ कपड़ों में औरतें
उसी तरह रातों को जूते कुचलती हैं,
फिर उन्हें लोहे की छत पर
अटारियों में सूली पर चढ़ाती हैं.
थकी हुई चाल से एक औरत
धीरे-धीरे देहलीज़ पर आती है
और तहखाने से ऊपर आकर,
आँगन को तिरछा पार करती है.
मैं फिर से बहाने बनाता हूँ,
और फिर से हर चीज़ के प्रति लापरवाह हो जाता हूँ.
और पड़ोसन चक्कर लगाकर पिछवाड़े का,
हमें छोड़ देती है अकेला.
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रोओ नहीं, सूजे हुए होंठों को न सिकोड़ो,
उन्हें न भींचो.
बसंत के बुखार के छाले की
सूखी पपड़ी खुल जायेगी.
मेरे सीने से अपनी हथेली हटा लो,
हम हैं विद्युन्मय तार.
देखना, एक दूसरे से,
यूँ ही चिपक जायेंगे.
गुज़र जायेंगे साल, बंध जाओगी शादी के बंधन में,
भूल जाओगी बेतरतीबियाँ.
औरत होना – एक महान कदम है,
पागल बना देना – वीरता.
और मैं औरतों की हाथों के,
पीठों, और कंधों, और गर्दनों के चमत्कार के सम्मुख
सेवकों जैसे स्नेह भाव से
ज़िंदगी भर सजदे में रहा हूँ.
मगर कितना ही क्यों न जकड़ ले रात
पीड़ादायक बंधन से मुझे,
सबसे तीव्र है चाहत दूर छिटकने की
और ललचाती है ख़्वाहिश बंधन तोड़ने की.
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*
प्रेमिका (लारा) के बारे में, जिससे कवि संबंध तोड़ना चाहता है.
7
ग्रीष्म ऋतु शहर में
दबी आवाज़ों में
बातें
और जल्दबाज़ी में
बालों को समेट कर
ऊपर
सिर पर बनाया हुआ
जूड़ा.
भारी कंघे के नीचे
से
टोप वाली महिला
देखती है
सिर को पीछे करके
अपनी चोटियों
समेत.
बाहर गर्म रात
दे रही है बुरे
मौसम का इशारा
और घिसटते हुए जा
रहे हैं,
पैदल अपने अपने
घरों को लोग.
सुनाई देती है
अचानक बिजली की कड़क,
गूंजती हुई तेज़ी
से,
और हवा से फ़ड़फ़ड़ाता
है
खिड़की का परदा.
छा जाती है ख़ामोशी,
मगर होने लगती है
पहले-सी उमस,
और पहले जैसी
बिजलियाँ
मचाती हैं आसमान
में उथल-पुथल.
और जब चमकती सुबह
फिर से उमस भरी
सुखाती है रास्ते
के डबरे
रात की बारिश के
बाद.
देखते हैं
चिड़चिड़ेपन से
नींद पूरी न होने
के कारण
सदियों पुराने, ख़ुशबूदार,
सदाबहार लिंडन
वृक्ष.
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*मेल्युज़ेयेवो में लारा के साथ गुज़ारे हुए समय की ओर
इशारा करती है
8
हवा
मैं ख़त्म हो गया, मगर तुम
ज़िंदा हो.
और हवा, शिकायत
करते और रोते हुए,
हिलाती है जंगल और
कॉटेज को.
देवदार के हर
वृक्ष को नहीं,
बल्कि सभी पेड़ों
को
समूची असीमितता के
विस्तार से,
जैसे पालों वाले
जहाज़ों के पेंदे
जहाज़ों की खाड़ी की
सतह पर.
और यह दुःसाहस से
नहीं
न ही बेकार के तैश
से,
बल्कि शब्द ढूँढने
की पीड़ा से
तुम्हारे लोरी-गीत
के लिये.
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*
कुछ खो देने के दर्द को तेज़ हवा की पीड़ा से व्यक्त किया गया है.
9
(हॉप शूट्स) नशीले
फूल
आइवी लता से लिपटे
विलो वृक्ष के नीचे,
बारिश से ढूंढ रहे
हम आश्रय.
हमारे कंधे ढंके
हैं रेनकोट से.
बांहें लिपटी हैं
तुम्हारे बदन से.
मैं गलत था. इन
कुंजों की घनी झाड़ियाँ
लिपटी नहीं हैं
आइवी से, बल्कि नशीली बेल से
तो चलो, बेहतर है
यह रेनकोट
चौड़ाई में अपने
नीचे बिछा लें.
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* एक
दुर्भाग्यपूर्ण घटना को अलग तरह से देखने का प्रयास है.
10
इंडियन समर
रसभरी का पत्ता है खुरदुरा कैनवास जैसा.
घर में हैं ठहाके और झनझना रहे हैं शीशे,
उसमें हो रही है कटाई, बन रहा है अचार, और पड़ रहे हैं मसाले,
लौंग डाली जा रही है मसाले में.
जंगल फेंक रहा है, किसी मसखरे जैसा,
यह शोर तेज़ ढलान पर,
जहाँ सूरज में जला हुआ अखरोट का पेड़
जैसे अलाव की आग में झुलसा हो.
यहाँ रास्ता उतरता है एक खड्ड में,
यहाँ पुरानी सूखी टहनियाँ भी,
और पतझड़ के दयनीय जंगली फूल भी,
सब बहा ले जाता है इस खाई में.
और यह, कि सृष्टि उससे भी ज़्यादा सरल है,
जितना कोई विद्वान समझता है,
कि पानी में गिरे हुए कुंज के समान,
हर चीज़ का अंत होता है.
कि व्यर्थ है आँखें झपकाना,
जब सब कुछ तुम्हारे सामने जल गया है,
और पतझड़ का सफ़ेद धुँआ
बुनता है मकड जाले खिड़की में.
बागड़ में बाग से निकलने का रास्ता टूट गया है
और खो रहा है वह बर्च वृक्षों के कुंज में,
घर में है हँसी और मेज़बान की भाग दौड़,
वही भागदौड़ और हँसी है दूर भी.
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* पहली गर्मियों का वर्णन है जो झिवागो परिवार ने
वरीकिना में बिताई थीं.
11
शादी
आँगन की सीमा को लांघकर,
दावत के लिये आए मेहमान
दुल्हन के घर में भोर से पहले
आये नन्हे हार्मोनियम के साथ.
मेज़बान के
नमदा जड़े दुहरे दरवाज़ों के पीछे
एक से सात बजे तक
थम गई थी गपशप.
और भोर होते ही, गहरी नींद में,
जब सिर्फ नींद के नशे में थे,
फिर से गा उठा एकोर्डियन.
शादी से वापस जाते हुए.
अकॉर्डियन वादक ने बिखेरी
फिर से अपने बाजे पर
तालियों की गड़गड़ाहट, मोतियों की चमक,
हल्ला-गुल्ला दावत का.
और बार-बार, बार-बार
गीतों के मुखड़े
दावत से पहुँचे सीधे
सोने वालों के पलंग पर.
और एक, बर्फ जैसी, सफ़ेद,
शोर, सीटियों
के हंगामे में
लगी तैरने जैसे मोरनी,
फिर से झुलाते नितम्बों को.
सिर को झुलाते
अपना दायां हाथ हिलाते,
पहुँची वह फुटपाथ पर,
मोरनी, मोरनी, मोरनी की तरह.
जोश खेल का और अचानक शोर,
नृत्य की थपथपाहट का,
समा गया पाताल में,
गिर गया जैसे पानी में.
जाग रहा था सोया आँगन.
व्यस्तता की गूंज
समा रही थी बातों में,
हंसी के फ़व्वारों में.
आकाश के असीम विस्तार में, ऊपर
बवंडर जैसे भूरे धब्बों के
कबूतरों के उठे झुण्ड,
छूटे अपने दड़बों से.
जैसे किसी को शादी के बाद
आधी नींद में आई याद,
लम्बी उम्र की दुआएँ देकर
छोड़ा उन्हें उड़ने के लिये.
ज़िंदगी भी आख़िर एक पल ही तो है,
सिर्फ घुलना
हमारा बाकी सब के साथ
जैसे दे रहे हों उन्हें उपहार.
सिर्फ शादी, खिड़कियों की गहराई में
गरज रही है नीचे से,
सिर्फ गीत, सिर्फ सपना,
सिर्फ कबूतर भूरा-सा.
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*
शादी के समारोह का वर्णन और धरती पर जीवन के बारे में
12
पतझड़
घर वालों को मैंने जाने दिया,
सभी घनिष्ठ लोग कब के बिखर गये हैं,
और हमेशा के अकेलेपन में
सब कुछ परिपूर्ण है हृदय और प्रकृति में.
और मैं हूँ यहाँ तुम्हारे साथ कैबिन में,
जंगल है निर्जन और वीरान.
जैसे कि गीत में, अधढंके
पगडंडियाँ और पथ.
अब हमें दुख से देख रही हैं
सिर्फ लट्ठों की दीवारें.
अवरोधों को स्वीकारने का वादा नहीं किया था हमने,
मर जायेंगे हम खुल्लम खुल्ला.
हम बैठेंगे एक बजे और उठेंगे तीन बजे,
मैं किताब लिये, तुम अपनी सिलाई के साथ,
और भोर में पता ही नहीं चलेगा,
कैसे रोकेंगे चुम्बन लेना.
और शान से और लापरवाही से
शोर मचाओ, गिरते जाओ, पत्तों,
और कल के कड़वाहट के प्याले को
लबालब भर दो आज की पीडा से.
अपनापन, आकर्षण, मोहकता!
बिखेर दें सितम्बर के शोर में!
डूब जा पूरी तरह पतझड़ की सरसराहट में!
स्तब्ध हो जा या हो जा विक्षिप्त!
तुम भी उसी तरह फेंकती हो पोषाक,
मैपल का कुंज जैसे फेंकता है पत्तियाँ,
समाती हो जब तुम आलिंगन में
रेशमी फुंदों वाले ड्रेसिंग गाऊन में.
तुम – हो आशीर्वाद विनाशकारी स्थिति में ,
जब ज़िंदगी बीमारी से भी ज़्यादा
बीमार,
और सौंदर्य का मूल है – हिम्मत,
यही आकर्षित करता है हमें एक दूसरे की ओर.
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*
यह कविता लारा के प्रति प्यार को प्रदर्शित करती है.
13
परीकथा
बहुत पुरानी बात
है,
परियों के देस में
भाग रहा था
घुड़सवार
स्तेपी की कंटीली
राह पे.
जल्दी थी युद्ध
में जाने की,
मगर स्तेपी की धूल
में
अंधेरा जंगल दूर
से
मिलने आया राह
में.
दिल में उठा एक
दर्द,
सीने में चुभन:
बचना होगा पानी से,
कस कर बैठो ज़ीन
से.
नहीं सुना घुड़सवार
ने
भागा पूरी रफ़्तार
से
उड़ चला एक ही पल
में
जंगल की पहाड़ी पे
मुड़ गया पहाड़ी से,
घुसा सूखी घाटी
में,
पार किया मैदान को,
किया पहाड़ भी पार.
और पहुँचा खाई में
जंगल की पगडंडी से
देखते हुए जानवरों
के निशान
आया और जलकुण्ड
पे.
और चेतावनी को अनसुना करते हुए,
पूर्वाभास पर
ध्यान न देते हुए,
घोड़े को लाया
चट्टान से
पानी पिलाने झरने
पे.
झरने के पास है
गुफ़ा,
गुफ़ा से पहले –
उथला पथ.
जैसे गंधक की
ज्वाला
कर रही रोशन
प्रवेश द्वार को.
और लाल धुँए में,
धुंधली करता नज़र
को,
दूर से आवाज़ देकर
बुला रहा था चीड़
का वन.
और तब खाई से होकर,
काँप कर, सीधे
घुड़सवार चला
कदम-कदम
पुकारती चीख की
ओर.
और देखा घुड़सवार
ने,
और चिपक गया भाले
से,
विशाल सर्प का सिर,
शल्कों वाली पूँछ.
मुख से निकलती
ज्वाला से
फेंक रहा था वह
प्रकाश,
तीन कुंडलियों में
लपेटे
था कन्या की पीठ
को.
सर्प का शरीर,
चाबुक के सिरे
जैसा
डोल रहा था गर्दन
से
उसके कंधे के
पास.
उस देश का रिवाज
बन्दी-सुंदरी को
देता था उपहार में
जंगल के राक्षस
को.
वहाँ की आबादी
चुकाती थी कर
अपनी झोंपड़ियों का
इस तरह उस सर्प
को.
सर्प लिपटा था
उसके हाथ से
गर्दन से कस कर
लिपटा,
पाकर इस उपहार को,
सताने के लिये तैयार.
याचना भरी नज़र से
देखा
घुड़सवार ने ऊँचे आसमान को
और हाथ में लेकर
भाला
फ़ौरन युद्ध को
तैयार.
कस कर मुंदी पलकें
ऊँचाईयाँ. बादल,
पानी. उथली
पगडंडी. नदियाँ.
साल और सदियाँ.
टूटे शिरस्त्राण
में घुड़सवार,
पड़ा था घायल युद्ध
में
वफ़ादार घोड़ा, खुरों से
कुचल रहा था सर्प
को.
घोड़ा और मुर्दा
सर्प
पड़े बगल में रेत
पर.
घुड़सवार मूर्च्छित,
कन्या पड़ी थी
स्तब्ध.
चमक रहा दोपहर का
ख़ज़ाना,
नर्म नीलाभा,
कौन है वह? राजकुमारी?
धरती की बेटी? रानी?
कभी ख़ुशी से
अतुलनीय
बहाती आँसुओं की
धारा
कभी आत्मा बस में
होती नींद के,
छाता बेहोशी का
ख़ुमार.
कभी लौटता
स्वास्थ्य,
कभी छा जाती
बेहोशी
बह जाने से खून के
नष्ट होती शक्ति.
मगर दिल उनके धड़क
रहे हैं.
कभी लड़की, कभी वह
कोशिश करते जागने
की
और डूब जाते नींद
में.
कस कर मुंदी पलकें
ऊँचाईयाँ. बादल,
पानी. उथली
पगडंडी. नदियाँ.
साल और सदियाँ.
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* एक घुड़सवार के बारे में परीकथा है जो विशालकाय सर्प के चंगुल से राजकुमारी
को छुड़ाने की कोशिश करता है.
14
अगस्त
. जैसा वादा किया था, बिना
धोखा दिये,
सूरज सुबह जल्दी झाँकने लगा
तिरछी केसरी पट्टी बनाते हुए
परदे से दीवान तक.
गर्म गेरु से
ढाँक दिया उसने
पड़ोस के जंगल
को,
बस्ती के घरों को,
मेरे बिस्तर को, गीले तकिये को
और किताबों की रैक के पीछे दीवार के किनारे को.
मुझे याद आया, किस कारण से
तकिया हल्का नम हो गया था.
मुझे सपना आया, कि मुझे अलबिदा कहने
एक दूसरे के पीछे आप जंगल से आ रहे थे.
आप एक झुण्ड में आ रहे थे, अलग-अलग और जोडियों में,
अचानक किसी को याद आया, कि आज
छह अगस्त को
प्रभु का रूपांतरण दिन है.
अक्सर बिना ज्योत का प्रकाश
इस दिन निकलता है माऊंट तेबोर से,
और शरद ऋतु, ध्वज की तरह स्पष्ट,
अपनी ओर नज़रें आकृष्ट करती है.
और तुम विरल, बदहाल,
पर्णहीन, थरथराते भोज वृक्षों के कुंज से होकर
कब्रिस्तान के लाल चटख वन में पहुँचे,
जो दमक रहा था एक मुद्रित जिंजरब्रेड की भांति.
उसके ख़ामोश शिखरों का
साथी था आसमान गर्वीला,
और मुर्गों की आवाज़ों से
चहक रही थीं दूरियाँ.
जंगल में सरकारी सर्वे अफ़सर की
भांति
खड़ी थी मौत कब्रों के बीच में,
मेरे मृत चेहरे को देखते हुए,
कि नाप के मुताबिक मेरे लिये कब्र खोदे.
सबको महसूस हो रही थी
बगल में किसी की शांत आवाज़,
वह थी मेरी पहले वाली आवाज़ स्वप्नद्रष्टा की
गूंज रही थी विनाश से अनछुई:
“अलबिदा, रूपांतरण की नीलाभा
और दूसरे संरक्षक का सुनहरापन,
औरत के अंतिम दुलार से कोमल बना दे
प्राणनाशक घडी की पीड़ा को.
अलबिदा, कालहीनता के वर्षों,
अलबिदा कहें, अपमानों के नरक कुंड को
चुनौती देने वाली महिला!
मैं हूँ – तेरा युद्ध क्षेत्र.
अलबिदा, फैले हुए पंखों का विस्तार,
आज़ाद उड़ान की ज़िद.
और शब्दों में व्यक्त दुनिया की छबि,
और रचनात्मकता और चमत्कारों की रचना”.
********
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·
यह
कविता ईसा मसीह के रूपांतरण के बारे में है, जब वे शिष्यों को अपने भीतर के ईश्वर के दर्शन कराते हैं और येशू की मृत्यु
और उनके पुनरुत्थान के बारे में बताते हैं. साथ ही नायक के पुनरुत्थान की ओर भी
इशारा किया गया है.
15
शीत ऋतु की एक शाम
श्वेत रंग है वसुंधरा पर
श्वेत ही हैं सारी सीमाएँ,
जले शमा एक मेज़ पर
शमा जले
जैसे पतंगे ग्रीष्म ऋतु में
मंडराते हैं लौ के पास,
हिमकण उड़कर टकराते हैं
खिड़की के शीशे के पास
अथक प्रहार करें शीशे पर
झंझावाती तीर-कमान,
जले शमा एक मेज़ पर,
शमा जले
उजली छत पर हैं
पड़ती छायाएँ,
हाथों-पैरों के सलीब हैं
और सलीब नसीबों के
गिरे मोम के दो जूते
खट्-खट् करते फ़र्श पर,
और मोम के अश्रु बहे
वस्त्रों को भिगोते टप् टप् टप्
खो गया झंझावात में
सब कुछ बूढ़े और सफ़ेद,
जले शमा एक मेज़ पर
शमा जले
सहलाया हवा ने शमा को ऐसे
लपट उठी स्वर्णिम, लुभावनी,
फ़रिश्ते दो परों वाले जैसी,
सलीब की तरह
चाँद फ़रवरी का सफ़ेद है,
मगर न जाने फिर भी क्यों,
जले शमा एक मेज़ पर
शमा जले
*****
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·
दो प्रेमियों की मुलाकात के बारे में है. कविता खिड़की से दिखाई दे रही उस
मोमबती पर आधारित है जो पाशा के कमरे में क्रिसमस पार्टी वाली रात को जल रही
थी.
16
जुदाई
देहलीज़ से देखता है
इन्सान
नहीं पहचानता अपने घर
को.
उसका प्रस्थान था जैसे
पलायन,
चारों ओर हैं निशान
सर्वनाश के.
कमरों में है चारों ओर
बदहाली.
विनाश की सीमा को
नहीं देख पाया आँसुओं के
और
माइग्रेन के दौरे के कारण.
कानों में है सुबह से
कोई सनसनाहट.
क्या वह होश में है या
देख रहा है सपना?
और क्यों रेंग जाता है
दिमाग़ में
सदा समुन्दर का ख़याल?
जब खिड़की पर पड़े पाले से
नज़र नहीं आती ईश्वर की
दुनिया,
आशाहीनता पीड़ा की लगती
है दुगुनी
समुन्दर के रेगिस्तान से
.
इतनी प्यारी लगती थी वह
उसे हर लिहाज़ से,
जैसे सागर के करीब तट
उफ़नती लहरों की रेखा पर.
जैसे डुबोती सरकंडों को
तूफ़ान बाद की व्याकुलता,
समा गये आत्मा के तल में
उसके गुण, उसकी छबियाँ.
कठिन परीक्षा के वर्षों
में, उस दौरान
जब अकल्पनीय था जीवन
भाग्य के थपेड़े से
निकलकर तल से
उससे आकर लिपटी थी वह.
अनगिनत कठिनाइयों के बीच,
बचते हुए ख़तरों से,
लहर उठा लाई उसको, उठा लाई
और बिल्कुल सटा दिया
मुझसे.
और अब, उसका प्रयाण,
हो सकता है, बलपूर्वक.
जुदाई खा जायेगी उन
दोनों को,
पीड़ा चबा जायेगी
हड्डियों के साथ.
और इन्सान देखता है
चारों ओर:
जाते हुए सब कुछ
उलट-पुलट कर गई थी वह
अलमारी की दराज़ों से.
वह घूमता है, और अंधेरा होने तक
दराज़ में रखता है
बिखरी हुई चिंधियाँ
और कढ़ाई के नमूने.
और चुभ जाती है सिलाई से
न निकाली गई सुई,
अचानक उसे समूचा देखता
है
और रोता है ख़ामोशी से.
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* यह कविता यूरी की भावनाओं को व्यक्त करती है जब लारा कमारोव्स्की के साथ चली जाती है.
17
मुलाकात
ढाँक लेगी बर्फ रास्तों को,
गिरेगी ढलवां छतों पर.
मैं निकलूँगा टहलने:
दरवाज़े के पीछे खड़ी हो तुम.
अकेली पतझड़ के ओवरकोट में,
बगैर हैट के, बगैर गर्म जूतों के,
संघर्ष करती परेशानी से
चबा रही हो गीली बर्फ.
पेड़ और बागडें
चली गई हैं दूर, धुंध में.
अकेली गिरती बर्फ में
खड़ी हो तुम कोने में.
बहता पानी है रूमाल से
आस्तीनों से कलाईयों पर,
और ओस जैसी बूंदें
चमकती हैं बालों पर.
उजली लट से
आलोकित है: चेहरा,
रूमाल और आकृति
और यह छोटा कोट.
पलकों पर है नम बर्फ,
तेरी आँखों में पीड़ा,
और तेरी पूरी आकृति बनी है
जैसे
एक ही टुकड़े से.
मानो सुरमे में
भिगोये लोहे से,
तराशा गया हो तुम्हें
मेरे दिल के भीतर.
बैठी मन में है सदा के
लिये
इस मुखाकृति की विनम्रता,
इसीलिए कोई बात नहीं
गर निष्ठुर मन की है
दुनिया.
इसीलिये दुहराती है
यह रात समूची बर्फ में,
और हमारे बीच सीमा
रेखाएँ
कभी मैं खींच न पाऊँगा.
मगर कौन हैं हम और कहाँ
से आए हैं,
जब उन सारे वर्षों से
बच रहती हैं अफ़वाहें
जबकि हम ही नहीं हैं
दुनिया में?
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* मुलाकात – प्यार भरी मुलाकात के औचित्य पर सवाल पूछती
है.
18
क्रिसमस स्टार
सर्दियों के दिन थे.
बह रही थी हवा स्तेपी से.
ठण्ड लग रही थी बच्चे को गुफ़ा में
पहाड़ी की ढलान पर.
उसे गर्माहट दे रही थी साण्ड की सांस.
घरेलू जानवर
खड़े थे गुफ़ा में,
तैर रही थी गर्म धुंध नांद पर.
ओवरकोट से झटककर बिस्तर की धूल
और बाजरे के दाने,
चट्टान से देखा
उनींदे चरवाहों ने मध्यरात्रि के अवकाश को.
दूरी पर था बर्फ से ढंका मैदान और चर्च का कब्रिस्तान,
बागडें, कब्रों पर लगे पत्थर,
बर्फ के ढेर में गड़ा एक डंडा,
और कब्रिस्तान के ऊपर आसमान, सितारों से भरा.
और निकट ही था, अभी तक न देखा गया,
चौकीदार की खिड़की में रखे
मिट्टी के दिये से भी ज़्यादा शर्मीला
टिमटिमा रहा था सितारा बेथ्लिहेम के रास्ते पर.
वह जल रहा था, भूसे के ढेर की तरह, एक किनारे
आसमान से और ख़ुदा से,
जैसे आगज़नी की चिनगारी,
जैसे आग लगी हो खेत में और जलता हो खलिहान.
ऊपर उठ रहा था वह जलते हुए
घास और भूसे के ढेर की तरह
समूचे ब्रह्माण्ड के बीच,
आशंकित था जो इस नये सितारे से.
दमक रही थी पल पल बढ़ती आभा उसके ऊपर
और इसका मतलब था कुछ-तो,
और तीन ज्योतिषी
लपके शीघ्रता से अभूतपूर्व ज्वालाओं की पुकार पर.
उनके पीछे पीछे थे ऊँटों पर उपहार.
जोते हुए गधे, एक छोटा
दूसरे से, छोटे छोटे कदमों से उतर रहे थे पहाड़.
दूरी पर थे प्रकट हो रहे अचरज भरे नज़ारे भविष्य के
उस भविष्य के जो था आने वाला था बाद में.
सारे विचार सदियों के, सारे सपने, सारे जग,
सभी भविष्य की गैलरियाँ और म्यूज़ियम,
परियों की सारी शरारतें, जादूगरों की तरकीबें,
धरती के सारे क्रिसमस ट्रीज़, बच्चों के सारे सपने.
जलती हुई मोमबत्तियों की सारी फ़ड़फ़ड़ाहट, सारी मालाएँ,
चमकीले रंगों की सारी शान...
...अधिकाधिक तैश से चल रही थी हवा स्तेपी से...
...सारे सेब, सभी सुनहरे गोले.
तालाब का एक हिस्सा ढंका था एल्डर
वृक्षों के शिखरों से,
मगर कुछ हिस्सा यहाँ से भी साफ़ दिखाई दे रहा था
कौओं के घोंसलों और पेड़ों के शिखरों से होकर.
कैसे जा रहे थे तालाब के किनारे-किनारे गधे और ऊँट,
भली-भांति देख सकते थे चरवाहे.
“चलो चलें सब उनके साथ, चमत्कार को शीश नवाएँ”,
बोले अपने कोट लपेटकर.
बर्फ में घिसटने से होने लगी गर्माहट.
चमकीले मैदान में अभ्रक की पट्टियों जैसे
नंगे पैरों के निशान जा रहे थे झोंपड़ी के पीछे.
मोमबत्ती के ठूँठ जैसे इन पैरों को देखकर
गुर्रा रहे थे कुत्ते सितारे के प्रकाश में.
बर्फीली रात थी परीकथा जैसी,
और बर्फ़ के सफ़ेद ढेर के पीछे से
कोई तो चल रहा था उनके साथ अदृश्य रूप में.
कुत्ते भटक रहे थे, भय से इधर उधर देखते हुए,
और आपदा की आशंका से लिपट जाते चरवाहे से.
उसी रास्ते पर, होकर इसी जगह से
जा रहे थे कुछ फ़रिश्ते भीड़ के बीच में.
अदृश्य बने देहहीनता के कारण,
मगर कदम छोड़ रहे थे पैरों के निशान.
पत्थर के निकट जमा थी लोगों की भीड़.
हो रही थी भोर. देवदारों की आकृतियाँ हो चली थीं स्पष्ट.
“कौन हो तुम लोग?” पूछा मरिया ने.
“हम हैं चरवाहे और हैं आसमान के दूत,
करने आये हैं आप दोनों का अभिवादन”.
“सब एक साथ नहीं आ सकते. दरवाज़े पर इंतज़ार करो”.
राख जैसे धूसर, प्रातःपूर्व के धुँधलके में
रौंद रहे थे चालक और चरवाहे,
पैदल यात्री गालियाँ दे रहे थे सवारों को,
पानी की नांद के पास
गरज रहे थे ऊँट, झाड़ रहे दुलत्तियाँ गधे.
भोर हो गई. राख के कणों जैसे सुबह ने,
अंतिम तारों को आसमान से दिया झाड.
और इस अनियंत्रित भीड़ से सिर्फ विद्वानों को ही
मरिया ने चट्टान के छेद से भीतर दिया प्रवेश.
वह सो रहा था, बलूत के झूले में दमकता हुआ,
जैसे चांद की किरण हो कोटर की गहराई में.
भेड़ की खाल के कोट के बदले
गर्मा रहे थे सांड के नथुने और गधे के होंठ.
खड़े थे छाया में, जैसे धुंधलके में खलिहान के,
फुसफुसा रहे थे, मुश्किल से शब्दों को चुनते.
अचानक किसी ने अंधेरे में, झूले से कुछ बायें
हाथ से हटाया विद्वान को,
और उसने चारों ओर देखा: देहलीज़ से कन्या को
मेहमान की तरह, देख रहा था सितारा क्रिसमस का.
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·
क्रिसमस
स्टार – तीन विद्वानों के येशू के जन्म स्थल को भेंट देने का सुंदर विवरण प्रस्तुत
करती है.
19
भोर
मेरे भाग्य में
तुम सब कुछ थे.
फिर आया युद्ध, विनाश,
और खूब लम्बे समय
तक तुम्हारे बारे में
न कोई ख़बर थी, न कोई
नामोनिशान.
और कई सारे सालों
बाद
तुम्हारी आवाज़ ने
मुझे फ़िर उत्तेजित कर दिया.
पूरी रात पढ़ता रहा
तुम्हारा निर्देश
और जैसे जी उठा
मूर्च्छा से.
जी चाहता है लोगों
के पास, भीड़ में जाने को,
उनकी सुबह की गहमा
गहमी में.
मैं सब कुछ
चूर-चूर कर देना चाहता हूँ
सबको घुटनों पर
खड़ा करना चाहता हूँ.
और मैं भागता हूँ
सीढ़ियों पर,
जैसे निकला हूँ
पहली बार
बर्फ से ढंकी इन
सड़कों पर
और अस्तित्वहीन
फुटपाथों पर.
चारों ओर जाग गये
हैं, रोशनी, गर्माहट,
पी रहे हैं चाय, भाग रहे
हैं ट्रामों की ओर.
कुछ ही पलों में
बदल गया है शहर का
रूप.
फ़ाटक में बर्फीला
तूफ़ान बुनता है जाल
गिरते हुए घने
फ़ाहों से,
और समय पर पहुँचने
के लिये
सब लपकते हैं बिना
पूरा खाये-पिये.
मुझे सबके साथ
सहानुभूति है,
जैसे मैं उनकी जगह
पर रह चुका हूँ,
मैं ख़ुद पिघलता हू, जैसे
पिघलती है बर्फ,
मैं ख़ुद, सुबह की
तरह, त्योरी चढ़ाता हूँ.
मेरे साथ हैं
बेनाम लोग,
पेड़, बच्चे,
घरघुसे लोग,
मुझे उन सबने जीत
लिया है,
और सिर्फ इसी में
है मेरी विजय.
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* यह कवि के ईसाई धर्म के प्रति पुनः जागरण को
प्रस्तुत करती है.
20
चमत्कार
जा रहा था वह बेथनी से येरूशलम,
पहले ही पूर्वाभासों के शोक से परेशान.
चढ़ाई पर झुलस गई थी कँटीली झाड़ी,
निकट वाली झोंपड़ी पर स्तब्ध था धुआं,
हवा थी गर्म और सरकंडे निश्चल,
और मृत-सागर की ख़ामोशी अचल.
सागर की कड़वाहट से होड़ लेती कड़वाहट से,
जा रहा था वह बादलों के छोटे-से झुण्ड के साथ
धूल भरे रास्ते पर किसी के घर,
जा रहा था शहर शिष्यों की सभा में.
इतना खोया था वह ख़यालों में अपने,
कि उनींदेपन से खेत नागदौन की खुशबू से महकने लगा,
सब ख़ामोश हो गया. सिर्फ वह खड़ा था बीचोंबीच,
और परिदृश्य पड़ा था विस्मृति की चादर ओढ़े.
सब कुछ गड्ड-मड्ड़ हो गया: गर्मी और रेगिस्तान,
और छिपकलियाँ, और झरने, और सोते.
पास ही था अंजीर का
पेड़,
जिस पर थीं सिर्फ
टहनियाँ और पत्तियाँ, कोई फल नहीं.
उसने कहा उससे: “किस
काम का है तू?
तेरी जड़ता से है मुझे
क्या लाभ?
मैं हूँ भूखा और
प्यासा, और तू – सिर्फ फूल,
तुझसे मुलाकात तो
चट्टान से भी भयानक है.
ओह, कैसा अपमान करने वाला
और गंवार है तू!
हमेशा ऐसा ही रह”.
भर्त्सना की
कंपकंपाहट पेड़ से गुज़री,
जैसे तड़ित चालक से बिजली
की चिंगारी.
जिसने अंजीर के पेड़
को राख कर दिया.
अगर मिलता इस वक्त
फ़ुर्सत का एक पल
पत्तियों को, डालियों को, और जड़ों को और तने
को.
अगर दखल दे पाते
प्रकृति के नियम.
मगर चमत्कार तो
चमत्कार है, और चमत्कार है ख़ुदा.
जब हम होते हैं बेचैन, तब परेशानी के एक पल
में
वह हो जाता है पल भर
में, अचानक.
*****
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*
यह कविता येशू के जल्दबाज़ी में अंजीर के वृक्ष को दिये
गये शाप के बारे में है.
21
धरती
मॉस्को की
हवेलियों में
बसन्त ऋतु तैश
से घुस आती है.
अलमारियों के पीछे पतंगे फ़ड़फ़ड़ाते हैं
रेंगते हैं गर्मियों वाली टोपियों पर,
छुप
जाते हैं फ़रकोट सन्दूकों में.
लकड़ी की परछत्तियों में
रखे हैं फूलों के गमले
भित्तिपुष्पों और पीले-बैंगनी फूलों वाले,
साँस ले रहे हैं कमरे आज़ादी से,
और अटारियों से आती धूल की गंध.
रास्ता बेतकल्लुफ़ी बढ़ाता
धुँधली खिड़की के साथ,
श्वेत-रात और सूर्यास्त
नदी किनारे मिलने को बेताब.
सुन सकते हो गलियारे में,
बाहर क्या होती हैं बातें,
क्या कहता बातों-बातों में
बूंद-बूंद से अप्रैल.
जानता है हज़ारों किस्से
इन्सान के दुःखों के बारे में,
ठण्डी हो चली बागड़ों पर शामें,
खींचती रहती निरर्थक बकवास.
वही मेल है आग और ख़ौफ़ का
बाहर भी, घर के आराम में भी,
चारों ओर हवा भी नहीं अपने आप में,
झाँकती विलो-वृक्षों की वही टहनियाँ,
वे ही सफ़ेद फूली कलियाँ
खिड़की पर और चौराहे पर,
रास्ते पर और कारखाने में भी.
क्यों रोती है कोहरे में दूरी,
खाद की गंध क्यों तीखी है?
यही तो है मेरा काम,
कि दूरियाँ उकता न जायें,
कि शहर की सीमा से परे
धरती अकेली कुढ़ती न रहे.
इसलिये बसन्त के आते ही
मेरे पास आते हैं दोस्त,
और हमारी शामें – बिदाईयाँ,
हमारी दावतें – ख़्वाहिशें,
ताकि पीड़ा की सुप्त
धारा
अस्तित्व की ठण्डक को
गर्माये.
*******
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* यह कविता शहर और गाँवों के बीच विषमता को दर्शाती है.
22
परेशानी भरे दिन
जब पिछले हफ़्ते
उसने येरूशलेम में
प्रवेश किया,
स्वागत हुआ गरजते
हर्षोल्लास से,
उसके पीछे भागे लोग
डालियाँ लिये.
दिन होते गये
अधिकाधिक भयानक और गंभीर,
दिलों को नहीं
छूती मोहब्बत,
संदेह से तनी हैं
भँवें,
और आ पहुँचा
उपसंहार, अंत.
मटमैले भारीपन से
अपने
पड़ा है आसमान
आँगनों में
पाखंडी फ़रीसी
ढूँढ़ते सुबूत,
उनके सामने है
यूलिया, लोमड़ी जैसा.
दुष्ट शक्तियों
द्वारा मन्दिर की
सौंपा गया
निकृष्टों को न्याय के लिये,
और जिस जोश से
गुणगान किया था,
गालियाँ देते हैं
उतने ही तैश से.
पड़ोस के मैदान में
भीड़
दरवाज़े से झाँक
रही थी,
फ़ैसले के इंतज़ार
में अनुमान लगाती
धकियाती आगे पीछे.
पड़ोसियों में
रेंगी फुसफुसाहट,
और अफ़वाहें चारों
ओर से.
ईजिप्ट को पलायन
और बचपन
याद किया जैसे
सपने में.
याद आया महान
पर्वत
रेगिस्तान में, और वह
चढ़ाई,
जहाँ से दुनिया के
साम्राज्य का
लालच दिया था उसे
शैतान ने.
और शादी की
ख़ुशियाँ केना में
चकित करने वाली
मेज़,
और समुद्र, कोहरे में
जिस पर चलकर
गया नाव की ओर, जैसे जा
रहा हो धरती पर.
और गरीबों का समूह
झोंपडी में
और मोमबत्ती लेकर
तहख़ाने में उतरना,
जहाँ वह बुझ गई
घबराहट से,
जब पुनर्जीवित उठ
रहा था...
*****
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*
ईसा मसीह की मृत्य से पूर्व कुछ समय का वर्णन है.
23
मग्दालीना -1
जैसे ही होती है रात, आ जाता है नर पिशाच,
यह कीमत है मेरे विगत की.
आएँगी और दिल चूसेंगी
यादें मेरी बदचलनी की,
जब,
मर्दों की हवस की गुलाम,
थी मैं भरमाई पगली
और मेरा आश्रय था एक राह.
बचे हैं बस कुछ ही पल,
और छा जायेगा कब्र सा सन्नाटा.
मगर इससे पहले कि वे गुज़रें,
लबालब भरा ज़िंदगी का प्याला,
चीनी मिट्टी के बर्तन की तरह,
तुम्हारे सामने तोड़ देती हूँ.
ओह, अब
मैं कहाँ जाऊँ,
मेरे शिक्षक और मेरे रक्षक,
जहाँ रातों को मेज़ के पास
अमरत्व न करे मेरा इंतज़ार,
जैसे नया, पेशे के जाल में
मेरे द्वारा फाँसा हुआ मेहमान.
मगर यह तो समझाओ, क्या है पाप
और मृत्यु और नर्क, और गंधक की ज्वाला,
जब मैं सबकी आँखों के सामने
अपने असीमित दुख़ से तुझमें समाई हूँ
जैसे, पेड़
से लिपटी लता.
जब तुम्हारे तलवे, येशू,
अपने घुटनों पर टिकाकर,
मैं, शायद, आलिंगन में लेना सीखूँ
सलीब की चतुष्फ़लकीय शहतीर
होश खोते हुए, लपकूँगी बदन की ओर,
दफ़नाने के लिये करते हुए तुम्हें तैयार.
*****
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*
उन भावनाओं का वर्णन है, जब मैरी मग्दालीना येशू के शरीर को दफ़न के लिये तैयार कर रही है.
24
मग्दालीना - 2
घर घर में हो रही है त्यौहार से पूर्व सफ़ाई.
इस भीड़-भाड़ से दूर एक ओर
नन्ही बालटी से पवित्र तेल लेकर
धोती हूँ तुम्हारे पवित्र चरण.
टटोलती हूँ और नहीं पाती तुम्हारे पादत्राण.
कुछ नहीं देखती आँसुओं के कारण.
मेरी आँखों पर गिरी हैं चादर की तरह
खुले हुए बालों की लटें.
तुम्हारे पैरों को गोद में समेट लिया,
येशू, आँसुओं
से उनका अभिषेक किया,
गले की मोतियों की माला में उन्हें लपेटा,
चोगे के समान, बालों में छुपा लिया.
देखती हूँ भविष्य को इतना स्पष्ट,
जैसे तुमने उसे रोक दिया है.
अब मैं भविष्यवाणी कर सकती हूँ
भविष्यवादिनी की सूक्ष्मदृष्टि से देखते हुए.
कल गिर जायेगा मंदिर का परदा,
हम एक तरफ़ कोने में सिमट जायेंगे,
और हिलने लगेगी धरती पैरों के नीचे,
शायद मुझ पर तरस खाते हुए.
काफ़िले की पंक्तियाँ होंगी पुनर्गठित,
शुरू हो जायेगा घुड़सवारों का प्रयाण.
जैसे तूफ़ानी बवण्डर में, सिर के ऊपर
आसमान की ओर लपकेगा यह सलीब.
सलीब के पैरों पर झोंक दूँगी ख़ुद को,
स्तब्ध होकर काट लूँगी होंठ.
अनगिनत लोगों को आलिंगन में लेने के लिये
तुमने फैलाये हैं सलीब पर हाथ.
किसके लिये दुनिया में इतना विस्तार,
इतनी पीड़ा और इतनी ताकत?
क्या दुनिया में हैं इतनी आत्माएँ और
ज़िंदगियाँ?
इतनी बस्तियाँ, नदियाँ और झुरमुट?
मगर गुज़र जायेंगे ऐसे तीन दिन
और ऐसे खालीपन में धकेलेंगे,
कि इस भयानक अंतराल में
मैं पुनर्जन्म तक बढ़ जाऊँगी.
*****
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·
ईसा
मसीह की मृत्यु और पुनरुत्थान के बीच के समय में भावनाओं का वर्णन
25
गेफ़्सिमान उद्यान
दूरस्थ सितारों
की उदासीन टिमटिमाहट से
प्रकाशित था
रास्ते का मोड़.
रास्ता जा रहा
था घेरते हुए ज़ैतून के पर्वत को,
उसके नीचे बहती
थी केद्रोन.
आधे में ही टूट
गई थी चरागाह.
उसके पीछे शुरू
हो रही थी आकाश गंगा.
धूसर चाँदी
जैसे ज़ैतून के पेड़
करते प्रयास
दूर हवा में टहलने का.
अंत में था
किसी का बाग,
शिष्यों को
छोड़कर दीवार के उस पार,
उसने कहा उनसे:
“आत्मा बहुत व्याकुल है,
यहाँ रहो और
जागते रहो मेरे साथ”.
बिना प्रतिकार
के मुँह मोड़ लिया उसने,
जैसे किराये की
चीज़ों से,
सर्वशक्तिमानता
से और चमत्कार से,
और था अब नश्वर, जैसे हम हैं.
रात का छोर अब प्रतीत हो रहा था,
विनाश और
अस्तित्वहीनता की सीमा जैसा.
ब्रह्माण्ड का
विस्तार था निर्जन,
सिर्फ बाग था
एकमात्र आवास जैसा.
और, इन वीरान, अंधेरी खाईयों में देखते हुए,
न था जिनका कोई आरंभ न अंत,
ताकि मृत्य का यह प्याला गुज़र जाये,
खूनी पसीने से लथपथ की पिता से प्रार्थना.
मृत्यु के अवसाद को प्रार्थना से
शांत करके,
बाहर आया दीवार के पीछे से. धरती पर
पड़े थे शिष्य रास्ते के किनारे घास में
होकर नींद से बेहाल.
उठाया उसने उन्हें: “ख़ुदा ने दिया था तुम्हें
मेरे युग में जीने का वरदान, तुम तो पड़े हो मगर सीधे-सपाट.
मानव के पुत्र का अंतिम क्षण आ चुका है.
सौंपेगा वह ख़ुद को पापियों के हाथ”.
जैसे ही कहा उसने, न जाने कहाँ से
घुसा गुलामों और घुमक्कडों का झुण्ड,
मशालें, तलवारें लिये – जूडा था आगे-आगे
होठों पर विश्वासघाती चुम्बन के साथ.
लपका पीटर तलवार लिये हत्यारों के पास
और काटा उनमें से एक का कान.
मगर सुना उसने : “विवाद हथियार से नहीं सुलझाना है,
रख वापस इन्सान म्यान में अपनी तू तलवार.
काले पंखों वाली सैन्य टुकड़ियाँ
क्या नहीं भेजते पिता मेरे?
मेरा बाल भी छुए बिना,
भाग जाते दुश्मन सदा के लिये.
मगर जीवन की किताब पहुँच गई है उस पृष्ठ पर,
सारी पाकीज़गी से है जो अनमोल.
जो लिखा गया है, वह अब सच होगा,
ऐसा ही होने दो, आमीन.
देख रहे हो, युगों का पथ है नीतिकथाओं जैसा
जो शायद जल जाये ख़ुद ही चलते-चलते.
उसकी महानता की भयानकता के नाम
स्वेच्छा से पीड़ा सहते जाऊँगा मैं कब्र में.
कब्र में जाऊँगा, और तीसरे दिन फ़िर उठूँगा,
और जैसे तैरते हैं नदी में बजरे,
इन्साफ़ के लिये मेरे पास, बेडों के काफ़िलों जैसी,
तैरती आयेंगी सदियाँ अंधकार से”.
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*गेफ़्सिमान उद्यान में जूडा द्वारा किया गया
विश्वासघात, येशू
का स्वयम् को होनी के आगे समर्पित करना और पुनरुत्थान के बारे में सुंदर वर्णन है.