Friday, 16 April 2021

एक डॉक्टर की कहानी - 02

 

अध्याय 2

दूसरी दुनिया की लड़की


1.

जापान के साथ युद्ध अभी समाप्त नहीं हुआ था. अप्रत्याशित रूप से कुछ अन्य घटनाओं ने उसे निष्प्रभ कर दिया. रूस में क्रांति की लहरें हिलोरें लेने लगीं, अधिकाधिक ऊँची होती हुईं, और अभूतपूर्व.

इसी समय यूराल से बेल्जियन-इंजिनियर की विधवा और ख़ुद पूरी तरह रूसी हो चुकी फ्रांसीसी महिला अमालिया कर्लोव्ना गिशार अपने दो बच्चों – बेटे रदिओन और बेटी लरीसा के साथ मॉस्को आई. बेटे को उसने फ़ौजी स्कूल में दाखिल करवा दिया और बेटी को लड़कियों के स्कूल में, संयोगवश उसी स्कूल और उसी कक्षा में जिसमें नाद्या कलोग्रीववा पढ़ती थी.

मैडम गिशार के पास पति की बचत शेयर्स के रूप में थी, जिनकी कीमत पहले बढ़ रही थी, मगर अब कम हो रही थी. अपने संशाधनों को ख़त्म होने से और ख़ुद हाथ पर हाथ धरे न बैठने के इरादे से गिशार ने ट्रायम्फल गेट के पास एक छोटा-सा बिज़नेस ख़रीद लिया. ये लेवित्स्काया की सिलाई कार्यशाला थी जिसे उसने ड्रेसमेकर के वारिसों ख़रीदा था, पुरानी फ़र्म को सुरक्षित रखने के अधिकार और उसके पुराने ग्राहकों, और सभी दर्जिनों और प्रशिक्षार्थियों समेत.

मैडम गिशार ने एडवोकेट कमारोव्स्की की सलाह पर ये किया था, जो उसके पति का मित्र था और उसका अपना आधार भी था, ये एक बेरहम बिज़नेसमैन था जो रूस की व्यापारी ज़िंदगी को भली-भाँति जानता था.

उसने मॉस्को आने के बारे में उसे लिखा था, वह रेल्वे स्टेशन पर उनसे मिला था, वह उन्हें पूरे मॉस्को से होते हुए अरूझियनी स्ट्रीट पर स्थित “मॉन्टेनीग्रो” होटल के सुसज्जित कमरों में लाया था, जहाँ उसने उनके लिए एक कमरा किराए पर लिया, उसीने रोद्या को फ़ौजी-स्कूल में भेजने पर ज़ोर दिया और लारा को स्कूल में भेजने पर - जिसकी सिफ़ारिश उसीने की थी, वह लड़के के साथ हल्के-फुल्के मज़ाक कर रहा था और लड़की की ओर इस तरह देख लेता था, जिससे वह शर्म से लाल हो जाती.

 

2.

सिलाई कार्यशाला में ही बने तीन कमरों वाले छोटे-से फ्लैट में जाने से पहले वे करीब एक महीना “मोन्टेनीग्रो” में रहे.

ये मॉस्को की सबसे भयानक जगहें थी, धृष्ट लोग, गुप्त अड्डे, पूरी पूरी सड़कें – व्यभिचार को समर्पित, “मृत लोगों की गन्दी बस्तियाँ.

बच्चों को कमरों की गन्दगी से, खटमलों से, घटिया फर्नीचर से ताज्जुब नहीं हुआ. पिता की मृत्यु के बाद माँ को हमेशा ग़रीबी का डर सताता था. रोद्या और लारा को ये सुनने की आदत हो गई थी कि वे विनाश की कगार पर हैं. वे समझते थे कि वे भिखमंगे नहीं हैं, मगर उनके भीतर अमीर आदमियों के सामने हीनता की भावना गहरे पैंठ गई थी, जैसे अनाथाश्रमों में रहने वाले बच्चों में होती है.

इस भय की ज़िन्दा मिसाल उनके सामने प्रस्तुत करती थी माँ. अमालिया कार्लोव्ना सुनहरे बालों वाली करीब पैंतीस साल की भरी-पूरी औरत थी, जिसके दिल के दौरे अक्सर बेवकूफ़ी के दौरों में बदल जाते थे. वह बेहद डरपोक थी और मर्दों से बेतहाशा डरती थी. इसीलिए अति डर और बदहवासी के मारे वह हमेशा एक मर्द की बाँहों से दूसरे की बाँहों में समा जाती थी.

 

“मॉन्टेनीग्रो” में उनका कमरा तेईस नंबर का था, और चौबीस नम्बर में होटल बनने के पहले ही दिन से वायलिन वादक तिश्केविच रहता था. ये भला आदमी जो पसीने से तर-बतर, गंजा, विग पहने रहता था, हमेशा प्रार्थना की मुद्रा में हाथ रखता, और अनुरोध करते समय उन्हें सीने पर रख लेता था. मेहफ़िल में बजाते हुए और कॉन्सर्ट में कार्यक्रम प्रस्तुत करते हुए वह अपना सिर पीछे को करके उत्तेजना से आँखें गोल-गोल घुमाता. वह घर पर कभी-कभार ही रहता और पूरे-पूरे दिन बल्शोय थियेटर या संगीत विद्यालय में बिताता. पड़ोसी एक दूसरे में परिचित हुए. एक दूसरे की सहायता करने के कारण वे काफ़ी नज़दीक आ गए.

चूँकि कमारोव्स्की के आने पर कभी-कभी बच्चों की उपस्थिति अमालिया कार्लोव्ना को संकोच में डालती थी, इसलिए तिश्केविच उसके स्नेही के स्वागत के लिए बाहर जाते समय अपने कमरे की चाभी उसके पास छोड़ जाता था.

जल्दी ही मैडम गिशार को उसके आत्म त्याग की इतनी आदत पड़ गई, कि कई बार आँखों में आँसू लिए वह उसका दरवाज़ा खटखटाती, और अपने संरक्षक से बचाने की विनती करती.

3

घर एकमंज़िला था, त्वेर्स्काया वाले नुक्कड़ से कुछ ही दूर.

ब्रेस्त्स्क रेल्वे लाइन की निकटता महसूस होती थी. बगल में ही उनका अधिकृत क्षेत्र आरंभ होता था, कर्मचारियों के सरकारी क्वार्टर्स, इंजिन डिपो और गोदाम.

ओल्या द्योमिना  वहाँ अपने घर जाया करती थी. वह एक होशियार लड़की थी और मॉस्को–तवार्नाया के एक कर्मचारी की भतीजी थी.

वह एक काबिल प्रशिक्षार्थी थी. पुरानी मालकिन ने उसकी योग्यता को पहचान लिया था और अब नई मालकिन भी उससे निकटता बढ़ा रही थी. ओल्या को लारा बहुत अच्छी लगती थी.

सब कुछ वैसा ही रहा जैसा लेवित्स्काया के ज़माने में था. सिलाई की मशीनें पागलों की तरह थके हुए कारीगरों के लटकते पैरों या फड़फड़ाते हाथों के नीचे लगातार घूम रही थीं. कोई-कोई मेज़ पर बैठे हुए, सुई और लम्बे धागे वाले हाथ को दूर ले जाते हुए ख़ामोशी से सी रहा था. फ़र्श पर चिंधियाँ बिखरी थीं. बातें ज़ोर से करनी पड़ रही थीं, जिससे सिलाई मशीनों की खड़खड़ाहट से और खिड़की की मेहराब के नीचे लटके पिंजरे में बैठी कैनरी चिड़िया किरील मदेस्ताविच की कर्कश कँपकँपाती किलकारियों से ज़्यादा ऊँची आवाज़ निकले, जिसके नाम के रहस्य को पुरानी मालकिन अपने साथ कब्र में ले गई थी.

स्वागत कक्ष में महिलाएँ किसी तस्वीर जैसे ग्रुप में पत्रिकाओं वाली मेज़ को घेरे हुए थीं. वे खड़ी थीं, बैठी थीं और उन मुद्राओं में आधी झुकी खड़ी थीं, जो तस्वीरों में देख रही थीं, और मॉडेल्स को ग़ौर से देखते हुए, फ़ैशन्स के बारे में सलाह-मशविरा कर रही थीं. दूसरी मेज़ के पीछे, डाइरेक्टर के स्थान पर अमालिया कार्लोव्ना की सहायिका, वरिष्ठ कटरफ़ाइना सिलान्त्येव्ना फ़ेतिसोवा बैठी थी – बेहद दुबली-पतली महिला, जिसके लटके हुए गालों की झुर्रियों में मस्से थे.

वह सिगरेट रखे बोन-पाइप का सिरा पीले पड़ चुके होठों में दबाए, फूल पड़ी पीली आँख को सिकोड़ कर मुँह से और नाक से धुँए की पीली लकीर छोड़ते हुए, नोटबुक में वहाँ उपस्थित ग्राहकों की नाप, रसीद नंबर्स, पते और फ़रमाइशें दर्ज कर रही थी.

अमालिया कार्लोव्ना कार्यशाला में नई और अनुभवहीन थी. वह स्वयम् को पूरी तरह से मालकिन महसूस नहीं करती थी.

मगर कर्मचारी ईमानदार थे, फ़ेतिसोवा पर भरोसा किया जा सकता था.                     

  फिर समय भी ख़तरनाक चल रहा था. अमालिया कार्लोव्ना भविष्य के बारे में सोचने से डरती थी. निराशा ने उसे घेर लिया था. उसके हाथों से हर चीज़ छूटी जा रही थी.

कमारोव्स्की अक्सर उनके यहाँ आता था. जब विक्टर इपालीतविच उनके आधे हिस्से में जाने के लिए पूरी कार्यशाला से होकर गुज़रता और कपड़े बदल रही फ़ैशनेबुल औरतों को संयोगवश डरा देता, जो उसके आते ही परदों के पीछे छुप जातीं और वहाँ से उसके बेतकल्लुफ़ मज़ाकों की नकल करतीं, फ़ैशन डिज़ाइनर्स मज़ाक से उसके पीछे फुसफुसातीं : “तशरीफ़ लाए हैं”, “उसके”, “अमालिया का आशिक”, “साण्ड”, “औरतें ख़राब करने वाला”.

उसके बुलडॉग जैक से तो सब और भी ज़्यादा नफ़रत करते थे, जिसे वह कभी-कभी पट्टे से बाँधकर लाता था और जो ऐसी भयानक छलाँगें लगाते हुए उसे अपने पीछे-पीछे खींचता था, कि कमारोव्स्की के कदम चूक जाते, वह आगे की ओर लपकता और हाथ फ़ैलाए कुत्ते के पीछे चलने लगता, जैसे कोई अँधा अपने गाइड के पीछे चलता है.

एक बार वसन्त में जैक लारा के पैर से लिपट गया और उसकी जुराब फ़ाड़ दी.

“मैं उसे मार डालूँगी, मनहूस ताकत को,” ओल्या द्योमिना  बच्चों की तरह भिनभिनाई.

“हाँ, वाकई में घिनौना कुत्ता है. मगर, बेवकूफ़, तू ये कैसे करेगी?”

“धीरे, तू ज़ोर से न चिल्ला, मैं तुझे सिखाऊँगी. देख, ईस्टर के अण्डे होते हैं – पत्थर के. तुम्हारी माँ की अलमारी के ऊपर ...”

“हूँ, हाँ, संगमरमर के, क्रिस्टल के.”

“हाँ, वो ही-वो ही. तू ज़रा झुक, मैं कान में कहूँगी. उसे लो, चरबी में डुबाओ, चरबी चिपक जाएगी, गलीज़ कुत्ता उसे निगल जाएगा, शैतान, गला बन्द, दम घुट जाएगा, और – आदाब अर्ज़ है! पंजे ऊपर! शीशा लाओ!”...

लारा मुस्कुरा रही थी और ईर्ष्या से सोच रही थी : “लड़की अभावों में जी रही है, मेहनत करती है. आम जनता में कम उम्र के बच्चों का जल्दी विकास होता है. और देखो, उसमें अभी भी कितनी पाकीज़गी है, कितना बचपना है. अण्डे, जैक – कहाँ से आता है ये सब? मेरी ही किस्मत ऐसी क्यों है,” लारा सोच रही थी, “कि मैं सब देखती हूँ, और इस तरह सबसे दुखी होती हूँ?”

 

4

आख़िर, माँ उसके लिए – वो क्या कहते हैं...आख़िर, वह – माँ का, वही...ये कमीने शब्द हैं, दुहराना नहीं चाहती. तो फ़िर ऐसी परिस्थिति में वह मुझे ऐसी आँख़ों से क्यों देखता है? आख़िर मैं माँ की बेटी हूँ”.

उसकी उम्र सोलह साल से कुछ ही ज़्यादा थी, मगर पूरी तरह विकसित लड़की थी. उसे अठारह की और कुछ ज़्यादा भी समझते थे. उसकी बुद्धि स्पष्ट थी और स्वभाव सरल था. वह बहुत सुन्दर थी.

वह और रोद्या इस बात को समझते थे कि उन्हें जीवन में हर चीज़ अपनी ही कोशिश से हासिल करनी होगी. निठल्ले और संभ्रान्त लोगों के विपरीत, उनके पास समय से पूर्व ऐसी बातों की कल्पना करना और उनमें डूब जाना संभव नहीं था, जिनका प्रत्यक्ष रूप में उनसे कोई संबंध नहीं था. अतिउनके लिए गन्दगीथी. लारा दुनिया की सबसे पवित्र इन्सान थी.

भाई और बहन को हर चीज़ की कीमत मालूम थी और वह अपनी उपलब्धियों को संभाल कर रखते थे. आगे बढ़ने के लिए ज़रूरी था कि उनके भीतर योग्यता हो. लारा अच्छी तरह पढ़ती थी, ज्ञान के प्रति किसी अमूर्त आकर्षण के कारण नहीं, बल्कि इसलिए कि फीस से बचने के लिए अच्छी विद्यार्थिनी होना ज़रूरी था, और इसलिए मेहनत से पढ़ना ज़रूरी था. जितनी अच्छी तरह वह पढ़ाई करती थी, उतनी ही आसानी से लारा बर्तन धोती, सिलाई कार्यशाला में सहायता करती और मम्मा के काम से जाती थी. वह हौले से, बिना शोर मचाए चलती, और उसकी हर चीज़ – उसकी बेमालूम फुर्ती, उसकी आवाज़, भूरी आँखें और बालों का सुनहरा रंग – सभी एक दूसरे से मेल खाते थे.

इतवार का दिन था, जुलाई आधा बीत गया था. छुट्टियों के दिन सुबह बिस्तर में आराम से लेटा रहा जा सकता था. हाथों को सिर के नीचे रखे, लारा पीठ के बल लेटी थी.

सिलाई-कार्यशाला में असाधारण ख़ामोशी थी. सड़क की ओर वाली खिड़की खुली थी. लारा सुन रही थी कि कैसे दूर कोई घोड़ागाड़ी रेल-पटरियों के बीच वाले पथरीले मार्ग से रेसिंग ट्रैक की गहरी नाली में उतरी और उसकी बेसुरी खड़खड़ाहट जैसे हौले से पहियों के मक्खन पर फिसलने की आवाज़ में बदल गई.

“और कुछ देर सोना चाहिए,” लारा ने सोचा. शहर का शोर लोरी जैसा उसे सुला रहा था.

अपनी ऊँचाई और बिस्तर में अपनी स्थिति को लारा अब दो बिन्दुओं से महसूस कर रही थी – बाएँ कंधे के उभार और दाएँ पैर के अँगूठे से. ये थे कंधा और पैर, और बाकी सब – करीब-करीब वह ख़ुद, उसकी आत्मा या अस्तित्व, सुडौल रेखांकित शरीर और ज़िम्मेदारी से भविष्य में प्रवेश करने को तत्पर.

“सोना चाहिए”, लारा ने सोचा और अपनी कल्पना में धूप से नहाई करेत्नी स्ट्रीट को देखा, गाड़ियों के विक्रेताओं के शेड्स के साफ़-सुथरे फ़र्श पर बड़ी-बड़ी खटारा गाड़ियाँ बिक्री के लिए रखी थीं, घोड़ागाड़ियों के कट ग्लास के लैम्प्स, नकली भालू, अमीरों की ज़िन्दगी. और कुछ नीचे, अपने ख़यालों में लारा ने कल्पना की – ज़्नामेन्स्की बैरेक्स के मैदान में घुड़सवार अफ़सरों की ट्रेनिंग, तड़कते, आज्ञाकारी घोड़े, एक गोल में जाते हुए, दौड़ के कारण काठी में उछलते प्रशिक्षार्थी, कदम चाल, दुलकी चाल, उछल कर घोड़े पर चढ़ जाना. और बच्चों के साथ आई हुई आयाओं और दाइयों के खुले मुँह, जो बैरेक्स की बागड़ के बाहर खड़ी थीं. और नीचे, लारा ने सोचा – पित्रोव्का, पेत्रोव्स्की लाईन्स.

“ये क्या बात हुई लारा! ऐसे ख़याल कहाँ से आए? मैं सिर्फ तुम्हें अपना क्वार्टर दिखाना चाहता हूँ. फिर वह बगल में ही तो है.”

उसके दोस्त के यहाँ करेत्नी स्ट्रीट पर छोटी सी बच्ची ओल्गा की सालगिरह थी. इस अवसर पर बड़े लोग ख़ुशियाँ मना रहे थे – डान्स, शैम्पेन. उसने मम्मा को भी बुलाया था, मगर मम्मा नहीं आ सकी, उसकी तबियत ख़राब थी. मम्मा ने कहा, “लारा को ले जाइए. आप मुझे हमेशा सावधान करते हैं: अमालिया, लारा को संभालना,’ अब आप ही उसका ख़याल रखिए”. और उसने उसका ख़याल रखा, क्या कहने! हा-हा-हा!”

कितनी बेवकूफ़ चीज़ है ये वाल्ट्ज़! गोल-गोल घूमते रहो, घूमते रहो, बगैर कुछ सोचे. जब तक संगीत चल रहा है, जैसे अनंत काल गुज़र जाता है, जैसी ज़िन्दगी होती है उपन्यासों में. मगर जैसे ही संगीत रुक जाता है, एक लफ़ड़े का एहसास घेर लेता है, जैसे तुम्हें ठण्डे पानी से सराबोर कर दिया हो या फिर नग्नावस्था में पकड़ लिया हो. इसके अलावा इन मनमानियों की इजाज़त तुम शेखी बघारने के लिए देती हो, ये दिखाने के लिए कि तुम कितनी बड़ी हो गई हो.

वह कल्पना भी नहीं कर सकती थी कि वह इतना अच्छा डान्स करता है. कैसे मंजे हुए हाथ हैं उसके, कितने आत्मविश्वास से वह कमर पकड़ता है! मगर इस तरह से चूमने की इजाज़त अब वह किसी और को नहीं देगी. वह कभी सोच भी नहीं सकती थी कि पराए होठों में इतनी बेशर्मी होती है, जब वे इतनी देर तक तुम्हारे अपने होठों को दबाते हैं.

इन सारी बेवकूफ़ियों को छोड़ना होगा. हमेशा के लिए. सीधे-सादे होने का नाटक नहीं करना है, प्यार दिखाने की ज़रूरत नहीं है, शर्म से आँखें नहीं झुकाना हैं. किसी दिन इसका अंजाम बुरा होगा. यहीं, बिल्कुल बगल में ही ख़तरे की रेखा है.

एक कदम बढ़ाओगी, और गहरी खाई में गिरोगी. डान्सेज़ के बारे में भूलना होगा. उनमें सब बुरा होता है. इन्कार करने से शरमाना नहीं है, कि तुमने डान्स करना सीखा ही नहीं है या पैर में मोच आई है.

 

5

पतझड़ में मॉस्को रेल-जंक्शन के क्षेत्र में गड़बड़ियाँ हुईं. मॉस्को-कज़ान रेल्वे ने हड़ताल कर दी. मॉस्को-ब्रेस्त्स्क लाइन भी उसमें शामिल होने वाली थी. हड़ताल के बारे में निर्णय ले लिया गया था, मगर रेल्वे कमिटी उसकी घोषणा किस दिन की जाए इस बात पर कोई फ़ैसला नहीं ले सकी थी. रेल्वे में सबको हड़ताल के बारे में मालूम था, और सिर्फ किसी बाहरी कारण का इंतज़ार था, ताकि वह अपने आप शुरू हो जाए.

अक्टूबर के आरंभ की बादलों से ढँकी, ठण्डी सुबह थी. इस दिन रेल कर्मचारियों को तनख़्वाह दी जाने वाली थी. बड़ी देर तक अकाउन्ट्स सेक्शन से कोई ख़बर नहीं आई. फिर ऑफ़िस की ओर एक लड़का आया हाथों में रिपोर्ट कार्ड, पे-स्लिप्स और कर्मचारियों की वेतन-पुस्तिकाओं का एक गट्ठा उठाए. इसमें उन कर्मचारियों की वेतन-पुस्तिकाएँ थीं जिनसे वसूली की जानी थी. भुगतान शुरू हो गया. अंतहीन अनिर्मित मैदान में, जो रेल्वे स्टेशन को, कार्यशालाओं को, इंजिन डेपो को, गोदामों को और रेल की पटरियों को लकड़ी से निर्मित रेल्वे-बोर्ड से अलग करता था, तनख़्वाह पाने के लिए लम्बी लाइन लगी थी. लाइन में खड़े थे कण्डक्टर्स, स्विचमैन, लुहार और उनके सहयोगी, रेल्वे कार-पार्क से बोगियाँ धोने वाली औरतें.

शहर की शुरुआती शीत ऋतु की, मैपल वृक्षों के कुचले गए पत्तों की, पिघलती हुई बर्फ की, इंजिन की भाप की और गर्म राई की ब्रेड की ख़ुशबू आ रही थी, जिसे रेल्वे-उपहार गृह के तहखाने में अभी अभी भट्टी से निकाला गया था. ट्रेनें शंटिंग कर रही थीं. उनके डिब्बों को लपेटे हुए और खुले हुए झण्डे हिलाते हुए जोड़ा जा रहा था, अलग किया जा रहा था. चारों ओर से चौकीदारों के भोंपूओं की, कप्लर्स की सीटियों और इंजिनों के भोंपुओं की दबी-दबी आवाज़ें सुनाई दे रही थीं. धुँएं के स्तम्भ अंतहीन सीढ़ियों की तरह आसमान की ओर जा रहे थे.

शीत ऋतु के ठण्ड़े बादलों को वाष्प के उबलते हुए बादलों से झुलसाते हुए दहकते हुए इंजिन प्रस्थान के लिए तैयार थे.

पक्के रास्ते के किनारे पर रेंज-प्रमुख कम्युनिकेशन इंजीनियर फुफ्लीगिन और रेल्वे स्टेशन का ट्रैक्स-फोरमैन पावेल फिरापोन्तविच अन्तीपव चहल-कदमी कर रहे थे. अन्तीपव ने मरम्मत विभाग को पटरियों के नवीनीकरण के लिए उसे भेजी गई सामग्री के बारे में शिकायतों से परेशान कर दिया था. लोहा पर्याप्त श्यानता वाला नहीं था. पटरियाँ विक्षेपण और टूटन के परीक्षणों में सफ़ल नहीं हुई थीं और अन्तीपव के अनुमान के अनुसार वे बर्फ में फट सकती हैं. प्रशासन पावेल फिरापोन्तविच की शिकायतों के प्रति उदासीन था. कोई इस मामले में अपने हाथ सेंक रहा था.

फ़ूफ्लीगिन ने रेल्वे युनिफॉर्म की पाइपिंग लगा महँगा फ़र-कोट पहना था, कोट के बटन खुले थे और उसके नीचे था शिविओट का नया सिविलियन सूट. अपने जैकेट के पल्लों की सिलाई पर, पतलून की फोल्ड्स पर और अपने जूतों के बढ़िया डिज़ाइन पर ख़ुश होते हुए वह सावधानी से तटबंध पर पैर रख रहा था.

अन्तीपव के शब्द उसके एक कान में घुसकर दूसरे कान से उड़ते जा रहे थे. फुफ्लीगिन अपनी ही किसी बात के बारे में सोच रहा था, हर मिनट घड़ी निकालता, उन पर नज़र डालता, वह कहीं जाने की जल्दी में था.

“ठीक है, ठीक है, भाई,” उसने बेसब्री से अन्तीपव की बात काटी, “मगर ये सिर्फ कहीं प्रमुख मार्गों पर या काफ़ी यातायात वाले किसी जंक्शन पर ही है. मगर तुम्हारे पास क्या है? कोई इमर्जेन्सी ट्रैक्स या डेड-एन्ड्स, कोई गोखरू या कँटीले पौधे, हद से हद – खाली डिब्बों की शंटिंग करते सीटी बजाते इंजिन. मगर फ़िर भी तुम नाख़ुश हो! तुम्हारा क्या दिमाग़ चल गया है! यहाँ ऐसे ट्रैक्स की ज़रूरत नहीं है, यहाँ तो लकड़ी की पटरियाँ बिछा सकते हैं.”

फुफ्लीगिन ने घड़ी देखी, ढक्कन बन्द किया और दूर देखने लगा, जहाँ से रेल मार्ग की तरफ़ रास्ता आ रहा था. रास्ते के मोड़ पर एक घोड़ागाड़ी दिखाई दी. ये फुफ्लीगिन की अपनी गाड़ी थी. उसकी बीबी उसे लेने के लिए आई थी. कोचवान पूरे समय घोड़ों को संभालते हुए उन पर औरतों जैसी महीन आवाज़ में चिल्ला रहा था – जैसे आयाएँ शैतान बच्चों को डाँटती हैं. उसने गाड़ी पक्के रास्ते के बिल्कुल पास रोकी. गाड़ी के भीतर कोने में एक ख़ूबसूरत महिला लापरवाही से तकियों पर टिक कर बैठी हुई थी.    

“तो, भाई, किसी और समय बात करेंगे,” रेंज प्रमुख ने हाथ हिलाते हुए कहा, “अभी तुम्हारे ट्रैक्स के बारे में सोचने का वक्त नहीं है. ज़्यादा ज़रूरी काम हैं.”

दम्पत्ति चले गए.

 

6

करीब तीन या चार घण्टे बाद, शाम के समय, रास्ते के एक तरफ़ खेत में, दो आकृतियाँ मानो धरती से निकलीं, जो पहले सतह पर नहीं थीं और निरंतर इधर उधर देखते हुए जल्दी-जल्दी दूर जाने लगीं. ये थे अन्तीपव और तिवेर्ज़िन.

“जल्दी जाएँगे,” तिवेर्ज़िन ने कहा. “मैं जासूसों से नहीं डरता, कि पीछा न करने लगें, और अभी, जैसे ही ये बैगपाइप ख़त्म होगा, सब के सब अपने अपने छेदों से बाहर निकलेंगे और खदेड़ेंगे. मैं उन्हें देख नहीं सकता. जब सब कुछ इतना घिसट रहा है, तो बाग को बागड़ लगाने की ज़रूरत ही नहीं है. तब किसी कमिटी की, और आग से खेलने की, और ज़मीन के भीतर छुपने की कोई ज़रूरत ही नहीं है. और तू भी बड़ा सयाना है, इस निकोलायेव वाली गड़बड़ का साथ दे रहा है.”

“मेरी दार्या को टाइफ़ाइड हो गया है. मुझे उसे अस्पताल ले जाना है. जब तक ले नहीं जाऊँगा, दिमाग़ में कुछ नहीं घुसेगा.”

“कहते हैं कि आज तनख़्वाह दे रहे हैं. ऑफ़िस की तरफ़ जाता हूँ. अगर तनख़्वाह का दिन न होता, तो ख़ुदा की कसम, तुम्हारे मुँह पर थूक देता और, फ़ौरन, एक भी मिनट की देरी किए बिना, अपने तरीके से इस अनुशासनहीनता को ख़त्म कर देता.”

“ये, क्या मैं पूछ सकता हूँ, कि कैसे?”

“काम आसान है. बॉयलर रूम में जाता, सीटी बजा देता और डान्स ख़तम!”

एक दूसरे से बिदा लेकर वे अलग-अलग दिशाओं में चले गए.

तिवेर्ज़िन पटरियों के किनारे-किनारे शहर की ओर जा रहा था. रास्ते में उसे ऑफ़िस से तनख़्वाह लेकर लौटते हुए लोग मिले. उनकी तादाद काफ़ी थी. तिवेर्ज़िन ने देखकर अंदाज़ लगाया कि स्टेशन के क्षेत्र में लगभग सभी को तनख़्वाह दी गई है.

अँधेरा होने लगा था. ऑफ़िस के पास खुले मैदान में, ऑफिस की बत्तियों की रोशनी में ख़ाली मज़दूर भीड़ लगाए खड़े थे.

मैदान के प्रवेश पर फुफ्लीगिन की गाड़ी खड़ी थी. फ़ुफ्लीगिना पहले जैसी ही बैठी थी, जैसे वह सुबह से गाड़ी से निकली ही नहीं हो. वह अपने पति का इंतज़ार कर रही थी जो ऑफिस में तनख़्वाह ले रहा था.    

अचानक बारिश के साथ गीली बर्फ गिरने लगी. कोचवान पेटी से नीचे उतरा और चमड़े का टप ऊपर उठाने लगा. जब तक वह पैर पीछे टिकाकर कसी हुई टेक खींच रहा था, फ़ुफ्लीगिना चाँदी जैसी बूँदों से लबालब पॉरिज जैसी बारिश का लुत्फ़ उठाती रही, जो ऑफ़िस के लैम्प्स की रोशनी में चमक रही थी. वह एकटक सोच में डूबी अपनी नज़र मज़दूरों की भीड़ के ऊपर टिकाए थी, जैसे ज़रूरत पड़ने पर यह नज़र बिना किसी रुकावट के उनके आरपार भी जा सकती है, जैसे कोहरे या रिमझिम बारिश के पार जाती है.

तिवेर्ज़िन ने इत्तेफ़ाक से इस नज़र को पकड़ लिया. वह कसमसाया.

वह फ़ुफ्लीगिना का अभिवादन किए बिना गुज़र गया और उसने फ़ैसला किया कि तनख़्वाह के लिए बाद में आएगा, जिससे ऑफ़िस में उसके पति से न टकरा जाए. वह कार्यशाला के कम रोशनी वाले हिस्से की तरफ़ गया, जहाँ इंजिन डिपो में जाने वाले विभिन्न ट्रैक्स वाला चक्र काला हो रहा था.

“तिवेर्ज़िन! कुप्रीक!” अंधेरे से कई आवाज़ों ने उसे बुलाया. कार्यशाला के सामने लोगों का जमघट था. भीतर कोई चीख़ रहा था और बच्चे के रोने की आवाज़ सुनाई दे रही थी – किप्रियान सवेल्येविच, बच्चे को बचाइए,” कोई औरत भीड़ से बोली.

बूढ़ा फोरमैन प्योत्र खुदालेयेव फिर से अपनी आदत के मुताबिक अपने शिकार, कम उम्र के प्रशिक्षार्थी यूसुप्का को मार रहा था.

ऐसी बात नहीं थी कि खुदालेयेव हमेशा से प्रशिक्षार्थियों पर अत्याचार करने वाला, शराबी और ज़बर्दस्त मुक्केबाज़ था. एक समय था जब इस बहादुर फोरमैन की तरफ़ व्यापारियों की लड़कियाँ और मॉस्को के आसपास के औद्योगिक परिसर के प्रीस्ट्स की बेटियाँ हसरत से देखा करती थीं. मगर तिवेर्ज़िन की माँ ने, जो उस समय कॉन्वेन्ट की पढ़ाई पूरी करके निकली थी, और जिससे वह शादी करना चाहता था, उसे इनकार कर दिया और उसके साथी - लोकोमोटिव इंजिनीयर सवेलिच निकीतिच तिवेर्ज़िन से ब्याह कर लिया.  

सवेलिच निकीतोच की भयानक मृत्यु के पाँच साल बाद (वह सन् 1888 में ट्रेनों के टकरा जाने से हुई सनसनीखेज़ दुर्घटना में जल गया था), प्योत्र पित्रोविच ने अपना प्रस्ताव भेजा, और मार्फा गव्रीलव्ना ने फिर से उसे इनकार कर दिया. तब से खुदालेयेव पीने लगा और दंगा-फ़साद करने लगा, पूरी दुनिया से हिसाब चुकता करने लगा, जो उसकी राय में यकीनन उसकी वर्तमान परेशानियों का कारण है.

यूसुप्का तिवेर्ज़िन के कम्पाऊण्ड के चौकीदार गिमाज़ीद्दिन का बेटा था. तिवेर्ज़िन कार्यशालाओं में बच्चे की हिफ़ाज़त करता था. इस वजह से खुदालेयेव के मन में उसके प्रति नफ़रत पैदा हो गई थी.

ये तू रेती को कैसे पकड़ रहा है, एशियन,” खुदालेयेव यूसुप्का को बालों से पकड़ कर मारते हुए गरज रहा था. “क्या कास्टिंग को ऐसे घिसते हैं? मैं तुझ से पूछता हूँ, तू मेरे काम को बर्बाद करेगा क्या, कासिम की जोरू, अल्ला मुल्ला टेढी आँख वाला?”

“ओय, नहीं करूँगा, चचा, आय नहीं करूँगा, नहीं करूँगा, आय दर्द होता है!”                             

“हज़ार बार उससे कहा है कि स्पिंडल को आगे ला और फिर स्क्रू कस, मगर अपनी ही किए जाता है, अपनी ही किए जाता है. मेरा स्पिंडल बस तोड़ ही दिया था, सुअर की औलाद.”

“मैंने स्पिंडल को हाथ भी नहीं लगाया, चचा, ओय ख़ुदा, नहीं लगाया.”

“तू बच्चे पे ज़ुल्म क्यों ढा रहा है?” भीड़ में से निकलकर तिवेर्ज़िन ने पूछा.

“अपने कुत्ते काटते हैं, ग़ैरों के बीच में न आए,” खुदालेयेव ने उसकी बात काटी.

“मैं तुझसे पूछ रहा हूँ, बच्चे पर किसलिए ज़ुल्म कर रहा है?” 

और मैं तुझसे कह रहा हूँ, अपने रास्ते निकल जा, सोशल-कमांडर. इस हरामी को तो मार डालना भी कम है, मेरी स्पिंडल करीब-करीब तोड़ ही दी थी. उसे तो मेरे हाथ चूमना चाहिए, कि ज़िंदा बच गया, भेंगा शैतान – मैंने सिर्फ उसके कान ही खींचे थे और बाल ज़रा से खींचे थे.”

“और, तेरे ख़याल में इसके लिए उसका सिर काट देना चाहिए, खुदालेयेव चाचा? शर्म कर. बूढ़ा कारीगर , बाल सफ़ेद हो गए, मगर अकल नहीं आई.”

“जा, जा, कह रहा हूँ, जब तक सलामत है, निकल ले. मुझे सिखाने चला है, तेरी रूह निकाल दूँगा, कुत्ते की...! तुझे तो पटरियों पर बनाया गया था, जेलीफ़िश, तेरे बाप की नाक के नीचे. तेरी माँ को भी जानता हूँ... इधर-उधर मुँह मारती फ़िरती है!”

आगे जो हुआ, मिनट भर के भीतर हो गया, दोनों ने मशीनों के स्टैण्ड से, जिस पर भारी भारी औज़ार और लोहे के टुकड़े पड़े थे, जो हाथ लगा वो उठा लिया, और वे एक दूसरे को मार ही डालते अगर भीड़ ने फ़ौरन लपककर उन्हें एक दूसरे से दूर न हटाया होता. खुदालेयेव और तिवेर्ज़िन सिर झुकाए खड़े थे, उनका माथा एक दूसरे को छू रहा था, चेहरे का रंग उड़ा हुआ था, आख़ों से जैसे खून टपक रहा था. उत्तेजना के कारण उनके मुँह से एक भी शब्द नहीं निकल रहा था. उन्हें पीछे से हाथ पकड़ कर थामा गया. बीच-बीच में वे ताकत बटोर कर छिटक जाने की कोशिश करते, जिस्म को कसमसाते हुए और अपने ऊपर लटकते हुए कॉम्रेड्स को खींचते. उनके कपड़ों के हुक्स और बटन टूट गए, जैकेट्स और कमीज़ें कंधों से फिसल गए. उनके चारों ओर का बेतरतीब शोर कम नहीं हो रहा था.

“छेनी! उसके हाथ से छेनी निकाल – सिर फोड़ देगा. – धीरे, धीरे चचा प्योत्र, हाथ बाहर निकालेंगे – क्या उनके साथ डान्स ही करते रहेंगे? खींच कर अलग करो दोनों को, तालों में बन्द कर दो – और किस्सा ख़तम करो.”

अचानक एक अमानवीय शक्ति से तिवेर्ज़िन ने अपने ऊपर लदे हुए जिस्मों को झटक दिया और उनसे छूट कर भागते हुए दरवाज़े के पास पहुँचा. उसे पकड़ने के लिए वे लपकने ही वाले थे, मगर ये देखकर उसके दिमाग़ में कुछ और ही है, उन्होंने उसे अकेला छोड़ दिया. शिशिर की नमी, रात, अँधेरे ने उसे घेर लिया था.   

“आप उनका भला करने की कोशिश करते हो, और वो हैं कि सीधे पसलियों में चाकू उतार देते हैं...” वह बड़बड़ाया, उसे होश ही नहीं था कि वह कहाँ और किसलिए जा रहा है.

ओछेपन और बेईमानी की ये दुनिया, जहाँ एक झल्लाई हुई औरत इस तरह से बेवकूफ़-मज़दूरों की ओर देखने की हिम्मत करती है, और नशे में धुत इन आदेशों के शिकार को अपने जैसे लोगों का मज़ाक उड़ाने से ख़ुशी हासिल होती है, इस दुनिया से अब उसे इतनी नफ़रत हो रही थी जितनी पहले कभी नहीं हुई थी. वह जल्दी-जल्दी चल रहा था, जैसे कि उसकी चाल की रफ़्तार उस समय को नज़दीक ला सकती थी, जब धरती पर सब कुछ तर्कपूर्ण और व्यवस्थित होगा, जैसा अभी उसके सुलगते हुए दिमाग़ में है. वह जानता था कि पिछले कुछ दिनों की उनकी आकांक्षाएँ, रेल्वे लाइनों पर अव्यवस्था, सभाओं में भाषण और हड़ताल पर जाने का उनका निर्णय, जिस पर अभी तक अमल नहीं हुआ था, मगर जिसे बदला भी नहीं गया था – ये सब इस लम्बे रास्ते के अलग अलग हिस्से हैं जो अभी सामने है.

मगर इस समय उसकी उत्तेजना इस हद तक पहुँच चुकी थी, कि वह इस समूची दूरी को एक साँस में पार कर लेने को बेताब हो रहा था. उसे मालूम नहीं था, कि वह कहाँ जा रहा है, मगर पैर अच्छी तरह जानते थे कि वे उसे कहाँ लिए जा रहे हैं.

तिवेर्ज़िन को काफ़ी समय तक शक नहीं हुआ, कि उसके और अन्तीपव के तहखाने से निकलने के बाद मीटिंग में उसी शाम को हड़ताल पर जाने का निर्णय लिया गया था. कमिटी के सदस्यों ने आपस में फ़ैसला कर लिया कि किसे कहाँ जाना है और किसे कहाँ से निकालना है.

जब इंजिन रिपेयर कार्यशाला से एक भर्राई हुई संकेतात्मक आवाज़ निकली, जो मानो तिवेर्ज़िन की आत्मा की गहराई से निकल रही हो, और जो धीरे-धीरे स्पष्ट होते हुए एकसुर हो गई तो डिपो से निकलकर लोगों का एक झुण्ड प्रवेश सिग्नल से शहर की ओर चल पड़ा और माल-स्टेशन से, नये झुण्ड  के साथ मिल गया, जो बॉयलर रूम से तिवेर्ज़िन की सीटी सुनकर काम छोड़ कर बाहर आया था.

तिवेर्ज़िन कई सालों तक यही सोचता रहा कि सिर्फ उसने अकेले ने उस रात काम और रेलों के आवागमन को रोक दिया था. सिर्फ बाद में की गई कार्रवाइयों में, जब उस पर सामूहिक रूप से मुकदमा चलाया गया, और उसे हड़ताल के प्रति लोगों को उकसाने का दोषी नहीं पाया गया, तभी वह इस ग़लतफ़हमी से निकल पाया.              

लोग बाहर भाग रहे थे, पूछ रहे थे:

“ये कहाँ सीटियाँ बजा रहे हैं?” – अँधेरे से जवाब आता:

“शायद, तू ख़ुद भी बहरा नहीं है. सुन रहा है – ख़तरे का सिग्नल. आग बुझानी है. – मगर आग कहाँ लगी है? – अगर सीटी बज रहे हैं तो, शायद लगी ही होगी!”

दरवाज़े भड़भड़ा रहे थे, नए लोग बाहर निकल रहे थे. दूसरी आवाज़ें आ रही थीं.

“ज़रा सुनो – आग! गाँव! बेवकूफ़ की बात मत सुनो. इसे कहते हैं – हड़ताल, समझ गए? ये रहा चिमटा, ये रही कमान, मैं अब नहीं तेरा गुलाम. अपने अपने घर जाओ, साथियों.

भीड़ बढ़ती जा रही थी. रेल्वे ने हड़ताल कर दी थी.

 

7

तिवेर्ज़िन तीसरे दिन घर लौटा, ठण्ड से थरथर काँपता, उनींदा, हजामत न किया हुआ. पिछली रात पाला गिरा था, जो इन दिनों के लिए अभूतपूर्व था, और तिवेर्ज़िन शिशिर के मौसम के कपड़े पहने था. गेट के पास उसे चौकीदार गिमाज़िद्दीन मिल गया.

“शुक्रिया, तिवेर्ज़िन साहब,” उसने कहा. “यूसुप की हिफ़ाज़त की. हम आपके लिए ख़ुदा से प्रार्थना करते रहे.”

“क्या तू पगला गया है, गिमाज़िद्दीन, मैं कहाँ से तेरा साहब हो गया? मेहेरबानी करके, तू ये सब छोड़. जल्दी से बोल, देख रहा है, कैसा पाला मार रहा है.”

“पाला किसलिए, तेरे घर में तो गर्मी है, सवेलिच. कल हम तेरी अम्मीजान मार्फा गव्रीलव्ना के साथ मॉस्को-माल स्टेशन से पूरा शेड भर के जलाऊ लकड़ी लाए, सिर्फ बर्च की लकड़ियाँ, बढ़िया लकड़ियाँ, सूखी लकड़ियाँ.”

“शुक्रिया, गिमाज़िद्दीन. तू कुछ और भी कहना चाहता है, जल्दी बोल, मेहेरबानी करके, मैं ठिठुर गया हूँ, समझ रहा है.”

“ये कहना चाहता था कि रात को घर में न सोना, सवेलिच, अपनी हिफ़ाज़त करनी चाहिए.

ड्यूटी-पुलिस वाला पूछ रहा था, एरिया कमांडर पूछ रहा था, कि कौन-कौन आता है. मैंने कहा कि कोई भी नहीं आता है. असिस्टेंट, मैंने कहा, आता है, इंजिन-ब्रिगेड आती है, रेल्वे-मज़दूर आते हैं. मगर कोई अनजान...नहीं-नहीं!”

वह घर, जिसमें कुँआरा तिवेर्ज़िन अपनी माँ और छोटे शादीशुदा भाई के साथ रहता था, बगल वाले होली ट्रिनिटी चर्च का था. इस घर में कुछ पादरी रहते थे, फल-उत्पादकों और कसाइयों के दो समूह रहते थे, जो ठेलों पर अपना माल बेचते थे, और ज़्यादातर मॉस्को-ब्रेस्त्स्क रेल्वे के छोटे-मोटे कर्मचारी रहते थे.  

घर पत्थर का था. एक गन्दे, कच्चे आँगन को चारों ओर से घेरते हुए लकड़ी के बरामदे. बरामदों से ऊपर को गन्दी, फ़िसलन भरी सीढ़ियाँ जाती थीं. उन पर बिल्लियों और खट्टी गोभी की बू आती. प्लेटफ़ॉर्म्स पर थे शौचालय और ताले लगे स्टोर-रूम्स.

तिवेर्ज़िन का भाई फ़ौज में सिपाही था और वफ़ांगो के निकट घायल हो गया था. उसका क्रास्नायार्स्क के अस्पताल में इलाज चल रहा था, जहाँ उससे मिलने और उसे घर लाने के लिए उसकी बीबी अपनी दोनों बेटियों के साथ गई थी. पुश्तैनी रेल कर्मचारी होने की वजह से तिवेर्ज़िन परिवार आसानी से पूरे रूस में फ्री रेल्वे पास से सफ़र करता था. फ़िलहाल क्वार्टर ख़ाली और ख़ामोश था. उसमें सिर्फ माँ और बेटा ही रह रहे थे.

क्वार्टर दूसरी मंज़िल पर था. प्रवेश द्वार के सामने बरामदे में एक ड्रम रखा था, जिसे पानी लाने वाला भर दिया करता. जब किप्रियान सवेलिच अपनी मंज़िल पर आया, तो उसने देखा कि ड्रम का ढक्कन एक ओर से हटाया गया है और पानी की सतह पर जमी हुई बर्फ से लोहे का मग चिपका हुआ है जिस पर बर्फ की तह जम गई थी.

“ये प्रोव के सिवा कोई और नहीं है,” तिवेर्ज़िन ने हँसते हुए सोचा. “पीता है, प्यास नहीं बुझती, अंधा कुआँ, पेट में जैसे आग लगी हो.”

प्रोव अफ़ानासेविच सकलोव, प्रार्थना गायक, मशहूर और अधेड़ उम्र का आदमी, मार्फा गव्रीलव्ना का दूर का रिश्तेदार था.

किप्रियान सवेलिच ने मग को बर्फ की सतह से खींचकर हटाया, ड्रम पर ढक्कन सरकाया और दरवाज़े की घण्टी का हैण्डल खींचा.

उसका स्वागत किया घरेलू ख़ुशबू और लजीज़ भाप ने.

“खूब गरम किया है, मम्मा. गरमाहट है हमारे यहाँ, अच्छा है.”

माँ उसकी गर्दन से लिपट गई, उसे अपनी बाँहों में लिया और रोने लगी. उसने माँ के सिर को सहलाया, कुछ इंतज़ार किया और हौले से उसे दूर हटाया.

हिम्मतवाले की हमेशा जीत होती है, मम्मा,” उसने हौले से कहा, “मेरा रास्ता मॉस्को से वारसा तक है.”

“जानती हूँ. इसीलिए रो रही हूँ. तुझे ख़तरा है. तुझे कहीं निकल जाना चाहिए, कुप्रीन्का, कहीं दूर.”

“आपके प्यारे दोस्त ने तो मेरा बस सिर ही नहीं फ़ोड़ दिया था, आपके प्यारे चरवाहे, प्योत्र पित्रोव ने.”

वह उसे हँसाना चाहता था. वह मज़ाक समझ नहीं पाई और गंभीरता से बोली:

“उस पर हँसना गुनाह है, कुप्रीन्का. तुझे उस पर तरस खाना चाहिए था.

हमेशा से अभागा रहा है, भटकती आत्मा.”

“अन्तीपव पाश्का को गिरफ़्तार कर लिया है. पावेल फ़िरापोन्तविच को. रात में आये, तलाशी ली, सब कुछ उलट-पुलट कर दिया. सुबह ले गए. ऊपर से उसकी दार्या टाइफ़ाइड से, अस्पताल में पड़ी है. छोटा पाव्लूश्का – स्कूल में पढ़ता है – बहरी मौसी के साथ घर में अकेला है. ऊपर से उन्हें क्वार्टर से निकाल रहे हैं. मेरा ख़याल है कि बच्चे को हमारे पास रखना चाहिए. प्रोव क्यों आया था?”

“तुझे कैसे मालूम?”

“ड्रम, देखा, कि ढँका हुआ नहीं है और मग रखा है. सोचा, ये ज़रूर बेपेन्दे वाला प्रोव आया होगा पानी पीने.”   

“कितना होशियार है तू, कुप्रीन्का. तू सही कह रहा है. प्रोव, प्रोव, प्रोव अफ़ानासेविच. लकड़ियाँ उधार माँगने आया था – मैंने दे दीं. अरे, मैं भी कैसी बेवकूफ़ हूँ – लकड़ियाँ! वह क्या ख़बर लाया था, वो दिमाग़ से पूरी तरह उतर गई. सम्राट ने, समझ रहे हो, घोषणापत्र पर दस्तख़त किए हैं, कि सब कुछ नए सिरे से शुरू करना है, किसी का अपमान नहीं करना है, किसानों को ज़मीन और सब को कुलीनों का दर्जा. ऑर्डर पर दस्तख़त हो गए हैं, तू क्या सोच रहा है, सिर्फ उसे छपवाना है. पादरियों की सभा ने कोई सुझाव भेजा है, जिसे चर्च-सर्विस में शामिल करना है, या फिर कोई प्रेयर सेहत के लिए, झूठ बोलना नहीं चाहती. प्रोवूश्का बता रहा था, मगर मैं भूल गई.”

 

8

पतुल्या अन्तीपव, गिरफ़्तार किए गए पावेल फिरापोन्तविच और अस्पताल में पड़ी हुई दार्या फ़िलिमोनव्ना का बेटा, तिवेर्ज़िन के यहाँ रहने लगा. यह एक साफ़-सुथरा, अच्छे नाक-नक्श और भूरे बालों वाला लड़का था, जिनकी वह बीच में से माँग निकालता था. वह हर मिनट उन पर ब्रश फेरता और हर पल अपना जैकेट और स्कूल युनिफॉर्म वाले बकल को ठीक करता. पतुल्या इतना मज़ाकिया था कि आँखों में आँसू आ जाते और उसकी निरीक्षण शक्ति बेहद तेज़ थी. वह बड़े मज़ाकिया ढंग से हर उस चीज़ की सही-सही नकल उतारता, जिसे वह देखता और सुनता था.

सत्रह अक्टूबर वाले घोषणापत्र के बाद त्वेर्स्काया गेट से कलूझ्स्काया गेट तक एक बड़ा जुलूस निकालने की योजना बनाई गई. ये शुरुआत थी “अंधा बच्चा – सात दाइयाँ!” वाली कहावत की तर्ज़ पर.

कुछ क्रांतिकारी संस्थाएँ जो इस योजना से जुड़ी थीं, आपस में लड़ पड़ीं और एक के बाद एक उससे अलग हो गईं, मगर जब पता चला कि नियत दिन की सुबह लोग सड़क पर निकल ही आए हैं, तो उन्होंने फ़ौरन प्रदर्शनकारियों के पास अपने प्रतिनिधि भेज दिए.                             

किप्रियान सवेल्येविच के हतोत्साहित करने और विरोध करने के बावजूद मार्फा गव्रीलव्ना हँसमुख और मिलनसार पतुल्या के साथ जुलूस में गई.

नवम्बर के आरंभ का सूखा बर्फीला दिन था, आसमान भूरा-सलेटी था और बिरले, लगभग गिने चुने हिम कण, धरती पर गिर कर भूरी, फूली-फूली धूल बनकर रास्ते के गड्ढों में खो जाने से पहले देर तक, टालमटोल करते हुए गोल-गोल घूम रहे थे.

नीचे सड़क पर लोग गिरे जा रहे थे, भगदड़ मची थी, चेहरे, चेहरे और चेहरे, रूई के अस्तर वाले ओवर कोट और भेड़ की खाल की टोपियाँ, बूढ़े, स्कूली लड़कियाँ और बच्चे, युनिफॉर्म पहने रेल्वे कर्मचारी, ट्राम-पार्क और टेलोफ़ोन स्टेशन के मज़दूर घुटनों तक आते हुए जूते और चमड़े के जैकेट पहने, स्कूलों के विद्यार्थी और स्टूडेन्ट्स.

कुछ देर तक वे “वारसा”, “हुए तुम शिकार” और “मार्सेलेज़” गाते रहे, मगर अचानक उस आदमी ने जो पीछे-पीछे चलते हुए, जुलूस के सामने हाथ में पकड़े हुए कप से गायन का संचालन कर रहा था, टोपी पहन ली, गाना बन्द कर दिया और, जुलूस की ओर पीठ करके, आगे की ओर चलने लगा और कान देकर सुनने लगा, कि उसकी बगल में चल रहे बाकी के संचालक क्या कह रहे हैं. गायन बिखर गया और टूट गया. बर्फ जमे रास्ते पर अनगिनत पैरों की करकराती आहट सुनाई देने लगी.

शुभचिंतक जुलूस के आयोजकों को सूचित कर रहे थे, कि कज़ाक प्रदर्शनकारियों के लिए घात लगाए बैठे हैं. संभावित आक्रमण की सूचना निकट की ही फ़ार्मेसी को टेलिफ़ोन पर दी गई.

“तो क्या,” आयोजकों ने कहा, “तब ख़ास बात – दिमाग़ ठण्डा रखना और अपना आपा न खोना. जल्दी से रास्ते की जो भी पहली सार्वजनिक बिल्डिंग दिखाई दे, उसमें घुस जाना, लोगों को आने वाले ख़तरे के बारे में सूचित करना और एक-एक करके निकल जाना.”

इस बारे में बहस करने लगे कि सबसे अच्छी कौनसी बिल्डिंग रहेगी. कुछ लोगों ने व्यापारियों के कर्मचारियों की बिल्डिंग का सुझाव दिया, कुछ ने हायर टेक्निकल स्कूल का, और कुछ ने विदेशी पत्रकारों की बिल्डिंग का सुझाव दिया.

इस बहस के दौरान सामने ही एक सरकारी बिल्डिंग का कोना दिखाई दिया. उसमें भी एक शैक्षणिक संस्था थी, जो शरणस्थल के रूप में उन बिल्डिंगों से बुरी नहीं थी जिनके नाम गिनाए गए थे.

जब चलने वाले उसके पास पहुँचे तो लीडर्स अर्धगोलाकार चौक में चढ़ गये और इशारों से जुलूस के सिरे को रोक दिया.             

प्रवेश के कई सारे दरवाज़े खुल गए और पूरा का पूरा जुलूस, ओवर कोट के पीछे ओवर कोट, और टोपी के पीछे टोपी स्कूल के लाउन्ज में समाने लगा और उसकी दर्शनीय सीढ़ियों पर चढ़ने लगा.

“असेम्बली हॉल में, असेम्बली हॉल में!” – इक्का-दुक्का आवाज़ें पीछे से चिल्ला रही थीं, मगर भीड़ आगे-आगे चलती रही, भीतर जाकर अलग-अलग कॉरीडोर्स में बिखरती रही और क्लास रूम्स में घुसती गई.

जब किसी तरह लोगों को वापस लाना संभव हुआ, और सब कुर्सियों पर बैठ गए, तो नेताओं ने कई बार मीटिंग को संबोधित करते हुए आगामी संभावित मुठभेड़ के बारे में बताने की कोशिश की, मगर उन्हें कोई सुन ही नहीं रहा था.  

उन्हें रोक कर इस बन्द जगह पर ले जाने को एक आपात-मीटिंग का निमंत्रण समझा गया, जो फ़ौरन शुरू भी हो गई.    

गाते हुए लम्बी दूरी चलने के बाद लोगों का कुछ देर ख़ामोश बैठने का मन हो रहा था, और ये भी कि अब कोई और उनके बदले चिल्लाए और अपना गला फ़ाड़े. आराम करने की ख़ास ख़ुशी के मुकाबले वक्ताओं के छोटे-मोटे विरोधाभास कोई माने नहीं रखते थे, जो वैसे हर बात में एक दूसरे के साथ एकजुट थे.

इसलिए सबसे ज़्यादा सफ़लता बेहद बुरे वक्ता को मिली, जो श्रोताओं को उसके पीछे आने की ज़रूरत पर ज़ोर दे रहा था.         

उसके हर शब्द को गरजता हुआ सहानुभूतिपूर्ण प्रतिसाद मिलता. किसी को भी अफ़सोस नहीं हो रहा था कि उसका भाषण तारीफ़ों के शोर में दब रहा है. बेचैनी के कारण उसके साथ फ़ौरन सहमत होने की होड़ लगी थी, “शेम-शेम” चिल्ला रहे थे, विरोध प्रकट करते हुए एक टेलिग्राम तैयार किया गया और अचानक, उसकी आवाज़ की एकसारता से बोरहोकर, सब एक साथ खड़े हो गए और वक्ता के बारे में पूरी तरह भूल कर टोपी के पीछे टोपी और कतार के पीछे कतार सीढ़ियाँ उतरकर सड़क पर बिखर गए. जुलूस चलता रहा.

जब मीटिंग चल रही थी तो रास्ते पर बर्फ गिरने लगी. फुटपाथ सफ़ेद हो गए.

बर्फ घनी होती जा रही थी.

जब घुड़सवार आए, तो पहले तो पिछली कतारों में किसी को शक भी नहीं हुआ. अचानक सामने से लहर की तरह शोर उठा, जैसे जब भीड़ “हुर्रे” चिल्लाती है. “सन्तरी”, “मार डाला” और अन्य अनेक तरह की चीखें मिलकर समझ में न आने वाली किसी चीज़ में बदल गईं. लगभग उसी समय इन आवाज़ों की लहरों पर,  घबराई हुई भीड़ के बीच बन गए संकरे रास्ते को तीर की तरह, बेआवाज़ चीरते हुए घोड़ों के सिर और अयाल, और तलवारें घुमाते हुए घुड़सवार घुसे.

आधी टुकड़ी सरपट भागी, पीछे मुड़ी, अपने आप को पुन: व्यवस्थित किया और पीछे से जुलूस के अंतिम भाग में घुसी. मारकाट शुरू हो गई.

कुछ मिनट बाद सड़क लगभग सुनसान हो गई. लोग भाग कर गलियों में घुस गए. बर्फ अब कम हो गई थी. शाम सूखी थी, कोयले से बनाए गए स्केच की तरह. अचानक कहीं घरों के पीछे अस्त होता हुआ सूरज कोने के पीछे से निकला, जैसे ऊँगली से सड़क की हर लाल चीज़ की तरफ़ इशारा कर रहा हो : घुड़सवारों की लाल टप वाली टोपियों की तरफ़, गिरे हुए लाल झण्डे की तरफ़, खून के निशानों की तरफ़, जो बर्फ पर लाल लकीरों और बिन्दुओं के रूप में खिंचे चले जा रहे थे.

फुटपाथ के किनारे पर एक कराहता हुआ आदमी, जिसकी खोपड़ी फट गई थी हाथों के सहारे घिसट रहा था. नीचे कुछ घुड़सवार एक कतार में जा रहे थे. वे सड़क के अंत से वापस लौट रहे थे, जहाँ वे पीछा करते हुए गए थे. मार्फा गव्रीलव्ना करीब-करीब उनके पैरों के नीचे ही भाग रही थी, उसके सिर का स्कार्फ खुल चुका था और वह पूरी सड़क पर जैसे किसी और की आवाज़ में चिल्ला रही थी : “पाशा! पतुल्या!”

वह पूरे समय उसीके साथ चल रहा था और बड़ी कुशलता से अंतिम वक्ता की नकल करते हुए उसका मनोरंजन कर रहा था, और जब घुड़सवारों ने हमला कर दिया तो अचानक भगदड़ में ग़ायब हो गया.

हालाँकि वहाँ हो रही तकरार में मार्फा गव्रीलव्ना की पीठ पर कोड़ा पड़ा, मगर रूई की मोटी लाइनिंग वाले जैकेट के कारण उसे मार का एहसास नहीं हुआ, वह गालियाँ देने लगी और दूर जाती हुई घुड़सवार टुकड़ी की ओर मुक्का तानकर गुस्से से बोली कि वे उन्होंने उस पर, एक बुढ़िया पर ईमानदार लोगों के सामने चाबुक मारने की हिम्मत कैसे की.

मार्फा गव्रीलव्ना रास्ते के दोनों ओर के फुटपाथों पर परेशान नज़रें दौड़ा रही थी. अचानक ख़ुशकिस्मती से उसने लड़के को दूसरी तरफ़ के फुटपाथ पर देख लिया. वहाँ किराने की दुकान और पत्थर की हवेली के पोर्च के बीच की जगह पर कुछ मनचले लोगों का झुण्ड खड़ा था.

एक घुड़सवार सैनिक ने, जो फुटपाथ पर चढ़ गया था, अपने घोड़े के पृष्ठ भाग और पुट्ठों से उन्हें वहाँ धकेल दिया था. उसे उनका डर देखकर मज़ा आ रहा था और उनका बाहर जाने का रास्ता रोककर वह उनके सामने पैंतरेबाज़ी और करतब दिखाने लगा, घोड़े को  सर्कस की तरह पिछले पैरों पर खड़ा कर दिया. अचानक उसने सामने से अपने साथियों को धीरे धीरे वापस आते देखा, उसने घोड़े को ऐड लगाई और दो-तीन बार उछल कर उनके बीच अपनी जगह पर चला गया.

तंग जगह पर दबे हुए लोग बिखर गए. पाशा, जो पहले आवाज़ देने से डर रहा था, दादी के पास लपका.

वे घर की ओर चले. मार्फा गव्रीलव्ना पूरे समय बड़बड़ाती रही:

नासपीटे हत्यारे, पापी हत्यारे! लोगों को ख़ुशी हो रही है, त्सार ने आज़ादी दी है, और इन से बर्दाश्त नहीं होता. इन्हें सब बर्बाद करना है, हर लब्ज़ तोड़-मरोड़ कर रख दिया है.”

वह घुड़सवारों पर, चारों ओर की दुनिया पर बिफ़री हुई थी, और इस समय तो उसे अपने बेटे पर भी क्रोध आ रहा था. मन की उद्विग्न अवस्था में उसे ऐसा लग रहा था कि जो कुछ अभी हो रहा है, ये सब कुप्रिन्का के गड़बड़ करने वाले साथियों का किया धरा है, जिन्हें वह फूहड़ और अनाड़ी कहती थी.

“ख़तरनाक सँपोले! क्या चाहिए, इन नौसिखियों को? कुछ समझ में नहीं आ रहा है!

सिर्फ भौंकना और नोचना-खसोटना. और ये, बकवास करने वाला, तूने कैसे किया था, पाशेन्का? दिखाओ, प्यारे, दिखाओ ना. ओय, मर जाऊँगी! बिल्कुल वैसे ही लग रहे थे. त्रू-रू-रू-रू-रू. ओय तू खटमल, घोड़े की कतार!”

घर आकर वह बेटे को ताने देने लगी, आख़िर उसकी उम्र इतनी तो नहीं है, ना कि झाईयों वाला बदमाश घोड़े पर बैठकर पीठ पर चाबुक से सिखाए.”

“ओय गॉड, क्या कह रही हो, मम्मा! जैसे कि मैं ही कज़ाक टुकड़ी का सिपाही हूँ या पुलिस वालो का चीफ़ हूँ.”

 

9

जब भागते हुए लोग दिखाई दिए, तब निकलाय निकलायेविच खिड़की के पास खड़ा था.

वह समझ गया कि ये जुलूस से भागकर आये हैं, वह कुछ देर तक दूर देखता रहा, कहीं बिखरती हुई भीड़ में यूरा या कोई और तो नहीं दिखाई दे रहा है. मगर कोई परिचित नहीं दिखाई दिया, सिर्फ एक बार उसे ऐसा लगा कि वो (निकलाय निकलायेविच उसका नाम भूल गया) जल्दी से गुज़र गया, दुदोरव का बेटा, बदहवास-सा, जिसके दाएँ कँधे से हाल ही में गोली निकाली गई थी और जो फ़िर से वहीं घुसता था, जहाँ नहीं जाना चाहिए.

निकलाय निकलायेविच पीटर्सबुर्ग से यहाँ पतझड़ में आये थे. मॉस्को में उनका अपना ठिकाना नहीं था, और होटल वे जाना नहीं चाहते थे. वह अपने दूर के एक रिश्तेदार स्विन्तित्स्की के यहाँ रुके थे. उन्होंने ऊपर परछत्ती में कोनेवाला अध्ययनकक्ष उन्हें दे दिया था.

ये दो मंज़िला हिस्सा, जो संतानहीन स्विन्तित्स्की दम्पत्ति के लिए अपेक्षाकृत काफ़ी बड़ा था, स्वर्गीय वृद्ध स्विन्तित्स्की परिवार ने न जाने कब से राजकुमार दोल्गारूकी से किराए पर लिया था. दोल्गारूकी की ये जायदाद  - तीन आँगन, बाग और विभिन्न शैलियों में बनी हुई अनेक बिखरी हुई इमारतों वाली – तीन गलियों में खुलती थी और पुराने ही नाम – बेकरी टाऊन से जानी जाती थी.

चार खिड़कियाँ होते हुए भी अध्ययन कक्ष अँधेरा-सा ही था. उसमें किताबों, कागज़ातों, कालीनों और नक्काशियों के ढेर लगे हुए थे. बाहर की ओर कमरे से एक बाल्कनी सटी हुई थी, जो अर्धगोल बनाते हुए इमारत के इस हिस्से को घेरती थी. बाल्कनी में खुलने वाला काँच का दुहरा दरवाज़ा सर्दियों के लिए सील कर दिया गया था.

कमरे की दो खिड़कियों और बाल्कनी के दरवाज़े से गली अपनी पूरी लम्बाई में दिखाई देती थी  - दूर जाता हुआ स्लेज का रास्ता, छोटे-छोटे तिरछे घर, उनकी टेढ़ी बागड़.

बाग से कमरे में बैंगनी परछाइयाँ खिंची आ रही थीं. पेड़ इस अंदाज़ में कमरे में झाँक रहे थे, मानो   जम चुके मोम की बैंगनी लकीरों जैसी बोझिल बर्फ से ढँकी अपनी टहनियों को फ़र्श पर लिटाना चाहते हों.

निकलाय निकलायेविच गली में देख रहा था और पिछले साल की पीटर्सबुर्ग की सर्दियों को याद कर रहा था -  गपोन, गोर्की, विट्टे से मुलाकात, फैशनेबल आधुनिक लेखक. इस सारे हंगामे से भागकर वह यहाँ आया था, प्राचीन राजधानी की शांति और सहजता में, अपनी सोची हुई किताब लिखने के लिए. मगर कहाँ! वह तो कड़ाही से निकलकर भट्टी में जा गिरा. हर रोज़ लेक्चर्स और रिपोर्ट्स चैन ही नहीं लेने देते. कभी महिला उच्च संस्थान में, तो कभी धार्मिक-दर्शन संस्था में, कभी रेड क्रॉस में, तो कभी स्ट्राइक-कमिटी फंड में. काश, स्विट्ज़र्लैण्ड चला जाता, किसी घने वन-प्रदेश में. झील के ऊपर छाई शांति और स्पष्टता, आसमान और पहाड़, और खनकती, हर आवाज़ को प्रतिध्वनित करती, सतर्क हवा.

निकलाय निकलायेविच खिड़की से दूर हटा. उसका दिल किसी के पास जाने को या सिर्फ बेमतलब सड़क पर घूमने को करने लगा. मगर तभी उसे याद आया कि उसके पास टॉल्स्टॉयवादी वीवलच्नोव किसी काम से आने वाला है और उसे कहीं नहीं जाना चाहिए. वह कमरे में ही चहलकदमी करने लगा. उसके ख़याल भाँजे पर केंद्रित हो गए.

जब वोल्गा तट के सुदूर प्रांत से निकलाय निकलायेविच पीटर्सबुर्ग आया तो वे यूरा को मॉस्को ले आया. विदिन्यापिन, अस्त्रामिस्लेन्स्की, सिल्याविन, मिखाएलिस, स्विन्तिस्की और ग्रमीका के परिवारों में ले गए. शुरू में यूरा को लापरवाह बूढ़े और खाली दिमाग़ अस्त्रामिस्लेन्स्की के यहाँ रखा गया, जिसे रिश्तेदार फेद्का कहते थे. फेद्का गुप्त रूप से अपनी विद्यार्थिनी मोत्या के साथ रहता था और इसलिए अपने आप को मूल सिद्धांतों को झकझोरने वाला और प्रगतिशील सिद्धांत का चैम्पियन मानता था. वह अपने ऊपर दिखाए गए विश्वास पर खरा नहीं उतरा और हेराफेरी भी करता था, यूरा का पालन-पोषण करने के लिए जो धनराशि उसे दी गई थी, उसका उपयोग स्वयम् के लिए करता था. यूरा को प्रोफेसर ग्रमीका के घर ले जाया गया, जहाँ वह आज तक रहता है.

ग्रमीका के यहाँ यूरा एक बहुत अच्छे, स्पृहणीय वातावरण में रह रहा था.

“उनकी ऐसी बढ़िया तिकड़ी है,” निकलाय निकलायेविच सोच रहा था.

यूरा, उसका साथी और स्कूल का सहपाठी गर्दोन और मालिकों की बेटी तोन्या ग्रमीका. इस तिकड़ी ने “प्यार का अर्थ” और “क्रैज़र्स सॉनेट” चाट डाली थी और उन पर पवित्रता का उपदेश देने का जुनून सवार था.

किशोरावस्था को पवित्रता के सभी उन्मादों से गुज़रना चाहिए. मगर वे कुछ ज़्यादा ही कर रहे हैं, वे पागलपन की हद को छू रहे हैं.

वे बेहद सनकी हैं और बचकाने हैं. इन्द्रियों से संबंधित भावनाओं को, जो उन्हें इतना परेशान करती हैं, वे न जाने क्यों “अश्लील” कहते हैं और इस शब्द का सही, गलत, हर तरह से प्रयोग कर लेते हैं. बहुत गलत चयन है इस शब्द का! “अश्लीलता” – ये उनके लिये है सहज प्रवृत्ति, पोर्नोग्राफिक साहित्य, महिलाओं का शोषण, लगभग समूची शारीरिक सृष्टि है. जब वे इस शब्द का उच्चारण करते हैं तो शर्म से लाल हो जाते हैं और फीके पड़ जाते हैं!

अगर मैं मॉस्को में होता,’ निकलाय निकलायेविच ने सोचा, ‘तो मैं बात को इस हद तक बढ़ने नहीं देता. शर्म ज़रूरी है, मगर किसी सीमा तक.       

“आह, नील फिआक्तीस्तविच! मेहेरबानी करके अन्दर आइए,” वह चहका और मेहमान के स्वागत के लिए आगे बढ़ा.

 

10

कमरे में भूरी कमीज़ पहने, चौड़ा बेल्ट लगाए एक मोटा घुसा. वह फेल्ट के जूतों में था, घुटनों पर पतलून फूल रही थी. वह एक भला आदमी लग रहा था, जो मानो बादलों में विचरण कर रहा हो. चौड़ी काली रिबन वाला छोटा सा नाकपकड़ चश्मा उसकी नाक पर दुष्टता से उछल रहा था.

प्रवेश कक्ष में गरम कपड़े उतारते हुए, उसने काम पूरा नहीं किया. उसने अपना स्कार्फ नहीं उतारा, जिसका सिरा फर्श पर घिसट रहा था, और हाथों में उसकी गोल फेल्ट हैट अभी तक थी. ये चीज़ें उसकी गतिविधियों में रुकावट डाल रही थीं - न सिर्फ वीवलच्नोव के निकलाय निकलायेविच से हाथ मिलाने में, बल्कि अभिवादन करने में भी बाधा डाल रही थीं.     

“अम्...” कोनों को देखते वह परेशानी से मिमियाया.

“जहाँ जी चाहे रख दीजिए,” निकलाय निकलायेविच ने वीवलच्नोव को उसकी वाचा और आत्म नियंत्रण लौटाते हुए कहा.

यह ल्येव निकलायेविच टॉल्स्टॉय के ऐसे अनुयायियों में से एक था, जिनके दिमागों में कभी भी चैन का नाम न जानने वाली उस महान प्रतिभा के विचार लम्बे और निरंकुश चैन का स्वाद लेने के लिए पसर गए थे और पूरी तरह धूमिल हो चुके थे.

वीवलच्नोव निकलाय निकलायेविच से राजनीतिक निर्वासितों की सहायता के लिए किसी स्कूल में भाषण देने की विनती करने आया था.

“मैं वहाँ पहले भी एक बार भाषण दे चुका हूँ.”

“राजनीतिक निर्वासितों की सहायता के लिए?”

“हाँ.”

“एक बार और बोलना होगा.”

निकलाय निकलायेविच कुछ ना-नुकर करने के बाद तैयार हो गया. उसके आने का मकसद पूरा हो चुका था. निकलाय निकलायेविच ने नील फिआक्तीस्तविच को रोकने की कोशिश नहीं की. वह उठकर जा सकता था. मगर वीवलच्नोव को इतनी जल्दी जाना ठीक नहीं लगा. जाते जाते कुछ सहज-सा, ज़िन्दादिली से भरा कहना ज़रूरी था. बातचीत चल पड़ी – लम्बी और अप्रिय.

“क्या आप पतनशील(रहस्यवादी) साहित्य का समर्थन करते हैं? रहस्यवादियों के साथ हैं?

“मतलब, ऐसा क्यों कह रहे हैं?”

“आदमी का पतन हो गया है. ज़ेम्स्त्वाकी याद है?”

“क्यों नहीं? चुनावों में मिलकर ही तो काम किया था.”

“ग्रामीण स्कूलों की वकालत करते रहे और शिक्षकों के सेमिनार्स की भी. याद है?”

“क्यों नहीं. गरमागरम बहसें होती थीं. आप बाद में, शायद, जन-स्वास्थ्य आंदोलन और पब्लिक चैरिटी से जुड़ गए. सही है न?”

“कुछ समय के लिए.”

“हाँ. मगर अब ये सयाने, जोकर्स, वाटर लिली (जो सिर्फ एक रात के मेहमान हैं), नागरिक और “होंगे सूरज की तरह” वाले. चाहे आप मुझे मार भी डालें, तो भी मैं यकीन नहीं करूँगा कि कोई व्यक्ति जिसमें हास्य-व्यंग्य का माद्दा हो, और जनता की इतनी जानकारी हो...कृपया, छोड़िये ...या, हो सकता है, मैं यूँ ही दखल दे रहा हूँ...कोई रहस्य?”

यूँ ही बिना सोचे लब्ज़ों को बेकार में क्यों उछालना? हम किस बारे में बहस कर रहे हैं? आप मेरे विचार जानते नहीं हैं.”

“रूस को स्कूलों की और अस्पतालों की ज़रूरत है, न कि इन जोकरों और वाटर-लिलीज़ की.

“इस बारे में कोई बहस ही नहीं है.”

“किसान नंगा है और भूख से सूज रहा है...”

इस तरह हिचकोले खाते-खाते बातचीत आगे बढ़ रही थी. इन कोशिशों की निरर्थकता को पहले से ही भाँप कर निकलाय निकलायेविच समझाने लगा कि वह क्यों कुछ प्रतीकवादियों के निकट है, और फिर वह टॉल्स्टॉय की ओर मुड़ गया.  

“किसी हद तक मैं आपके साथ हूँ. मगर ल्येव निकलायेविच कहते हैं कि इन्सान जितना ज़्यादा सुन्दरता को समर्पित होता है, उतना ही वह अच्छाई से दूर होता जाता है.”

“और आप क्या ऐसा सोचते हैं कि इसके विपरीत होता है? क्या दुनिया को सुंदरता, रहस्य और इस तरह की चीज़ें बचाती है, रज़ानव और दस्तयेव्स्की?”

“रुकिए, मैं ख़ुद ही बताऊँगा कि मैं क्या सोचता हूँ. मैं सोचता हूँ, कि अगर इन्सान के भीतर ऊँघते हुए जानवर को धमकी से रोकना संभव होता, फिर चाहे जैसी धमकी हो, चाहे मृत्योपरांत प्रतिफल की, तो मानवता का सबसे बड़ा प्रतीक होता सर्कस का हंटर वाला रिंग मास्टर, न कि स्वयम् का बलिदान करने वाला कोई पादरी. मगर यही तो बात है कि सदियों से इन्सान को जानवरों से ऊपर जिस चीज़ ने उठाया वो छड़ी नहीं, बल्कि संगीत है : निहत्थे सत्य की प्रबल शक्ति, उसके उदाहरण का आकर्षण. अब तक ये समझते थे, कि सुसमाचारोंमें सबसे महत्वपूर्ण हैं नैतिक कथन और नियम, जो आज्ञाओं में निहित हैं, मगर मेरे लिए सबसे प्रमुख ये बात है कि क्राइस्ट रोज़मर्रा की ज़िंदगी की नीतिकथाओं के माध्यम से अपनी बात कहते हैं, सत्य को दैनंदिन जीवन के रंगों से समझाते हैं. इसके मूल में यह ख़याल है कि नश्वर लोगों के बीच संवाद अमर होता है और जीवन प्रतीकात्मक है, क्योंकि वह अर्थपूर्ण है.”

“मैं कुछ भी नहीं समझ पाया. आपको इस बारे में किताब लिखनी चाहिए.”

जब वीवलच्नोव चला गया तो निकलाय निकलायेविच को भयानक चिड़चिड़ाहट ने घेर लिया. उसे अपने आप पर ही गुस्सा आया कि क्यों उस ठसदिमाग़ वीवलच्नोव के सामने अपने मूल्यवान विचार उगल दिए, जिनका उस पर ज़रा भी असर नहीं हुआ. जैसा कि कभी-कभी होता है, निकलाय निकलायेविच के क्रोध ने अपनी दिशा बदल दी. वह वीवलच्नोव के बारे में बिल्कुल भूल गया, जैसे कि वह कभी था ही नहीं.

उसे एक अन्य घटना की याद आई. वह डायरी नहीं लिखता था, मगर साल में एक या दो बार एक मोटी कॉपी में उसे बेहद चौंकाने वाली घटनाएँ लिख देता था. उसने कॉपी निकाली और मोटे-मोटे साफ़ अक्षरों में लिखने लगा. उसने यह लिखा.

“पूरा दिन इस बेवकूफ़ श्लेज़िंगर की वजह से अपने आपे में नहीं था. सुबह आता है, दोपहर के खाने तक बैठता है और दो घण्टों से भी ज़्यादा ये बकवास पढ़कर बेज़ार कर देता है. प्रतीकवादी(सिंबलिस्ट) A की काव्यात्मक रचना जो उसने संयोजक B की विश्वोत्पत्तिक (कॉस्मोजेनिक) सिम्फनी के लिए लिखी थी, ग्रहों की आत्माओं के साथ, चार प्राकृतिक तत्वों की आवाज़ों में वगैरह वगैरह. मैं बर्दाश्त करता रहा, करता रहा और फिर मेरे सब्र का बाँध टूट गया, मैंने कहा, कि अब और ज़्यादा बर्दाश्त न कर पाऊँगा, आप दफ़ा हो जाइये.

मुझे फ़ौरन सब समझ में आ गया. मैं समझ गया कि फ़ाउस्ट में भी क्यों सब कुछ हमेशा ख़तरनाक हद तक झूठ और बर्दाश्त से बाहर होता है. ये बनावटी, झूठी दिलचस्पी है. आधुनिक इन्सान को इसकी आवश्यकता नहीं है.

जब ब्रह्माण्ड की पहेलियाँ उसका रास्ता रोक देती हैं तो वह भौतिक शास्त्र में डूब जाता है, न कि हेसिओद के हेक्सामीटर्स (छंद) में.

मगर बात न सिर्फ उनके कालबाह्य हो जाने की, काल निर्धारण में दोष की है. बात ये भी नहीं है, कि अग्नि और जल की ये आत्माएँ फिर से अस्पष्ट रूप से वह सब उलझा देती हैं, जिसे विज्ञान ने स्पष्टतः सुलझा लिया था. बात ये है कि ये विधा आधुनिक कला की समूची आत्मा, उसके सार, उसके प्रेरक उद्देश्यों के विपरीत है.

ये विश्वोत्पत्ति विषयक (कॉस्मोजेनिक) रचनाएँ प्राचीन पृथ्वी के लिए सही थीं, जिसमें इन्सान इतने कम थे कि उन्होंने अभी तक प्रकृति को धुंधला नहीं किया था. उस पर अभी तक विशालकाय प्राणी घूमते थे और डाइनोज़ॉर्स और ड्रैगन्स की यादें अभी तक ताज़ा थीं. प्रकृति मनुष्य को इतनी स्पष्टता से दिखाई देती थी और इतने हिंस्त्र और कामुक भाव से – उसकी गर्दन से लिपट जाती थी, कि, हो सकता है, वास्तव में सब कुछ अभी भी देवी-देवताओं से भरा था. ये ही थे आरंभिक पृष्ठ मानवता के इतिहास के, वे उस समय बस शुरू ही हुए थे.        

ये प्राचीन दुनिया रोम में अत्यधिक आबादी के कारण समाप्त हो गई.

रोम उधार के देवताओं और जीते गए लोगों का एक मेला था, एक भगदड़ थी दो तल्लों वाली, धरती पर और आकाश पर, जिसने बेईमानी से अपने चारों ओर आँत के मोड़ की तरह एक तिहरी गांठ लपेट रखी थी.

डासियन्स, हेरुलियन्स, स्कीथियन्स, सर्माटियन्स, हाइपरबोरियन्स, बिना तीलियों वाले भारी-भारी पहिये, चरबी से फूली हुई आँख़ें, वहशीपन, दुहरी ठोढ़ियाँ, पढ़-लिखे गुलामों का माँस मछलियों को खिलाना, अनपढ़ सम्राट. दुनिया में लोग इतने ज़्यादा थे, जितने बाद में भी कभी नहीं हुए, और उन्हें स्टेडियम्स के गलियारों में ठूँसा जाता और वे सताये जाते.

और फिर संगमरमर और सोने के इस फूहड़ खण्डहर में आया वो फुर्तीला और दमकता, ख़ास तौर से  मानवीय, जानबूझकर प्रान्तीय, गेलिलिओ वाला, और उसी पल से जातियों और देवी-देवताओं का अंत हो गया और आरंभ हुआ इन्सान का, इन्सान-बढ़ई, इन्सान-किसान, भेड़ों के झुण्ड में इन्सान-चरवाहा सूर्यास्त की बेला में, इन्सान, ज़रा सा भी गर्वीलानहीं था, इन्सान, जो कृतज्ञतापूर्वक माताओं की लोरियों में और दुनिया की सभी आर्ट-गैलरीज़ में स्थापित हो गया था.”

11

मॉस्को की पित्रोव्स्की लाईन्स पीटर्सबुर्ग के किसी कॉर्नर का आभास देती थीं. रास्ते के दोनों ओर बिल्डिंग्स की सुसंगतता, अच्छी पसंद के नक्काशी किए हुए दर्शनीय दरवाज़े, किताबों की दुकान, लाइब्रेरी, नक्शानवीस की संस्था, बेहद बढ़िया तम्बाकू की दुकान, बेहद ख़ूबसूरत रेस्टॉरेन्ट, रेस्टॉरेन्ट के सामने – गैस बत्तियाँ गोल मटमैली टोपियाँ पहने भारी-भारी ब्रैकेट्स में.

सर्दियों में इस जगह पर पहुँचना आसान नहीं था. यहाँ संजीदा किस्म के, ख़ुद की इज़्ज़त करने वाले और बढ़िया कमाई करने वाले स्वतन्त्र व्यवसाय करने वाले लोग रहते थे.

यहाँ दूसरी मंज़िल पर विक्टर इपालीतविच कमारोव्स्की ने एक शानदार स्टूडियो अपार्टमेंट किराए पर लिया था, जहाँ शाह बलूत की चौड़ी रेलिंग वाली, चौड़ी सीढ़ियाँ जाती थीं. उसकी हाउसकीपर थी एम्मा एर्निस्तोव्ना, जो बड़े ध्यान से हर चीज़ का ध्यान रखती थी और साथ ही किसी बात में दखल नहीं देती थी. वह उसके ख़ामोश बसेरे की जैसे मेट्रन थी, चुपचाप, बिना नज़र आए, वह उसकी गृहस्थी चलाती थी, और वह शाही ढंग से उसकी सेवाओं का पुरस्कार देता, जो उस जैसे सज्जन व्यक्ति के लिए स्वाभाविक होता है, और घर में ऐसे आगंतुकों और मेहमानों की उपस्थिति बर्दाश्त न करता जो उसकी ख़ामोश, प्राचीन कुँआरी दुनिया के अनुरूप न हों. उनके यहाँ मॉनेस्ट्री जैसी शांति थी – परदे गिरे हुए, धूल का एक कण भी नहीं, कोई धब्बा नहीं, जैसे ऑपरेशन थियेटर में होता है.   

इतवार को दोपहर के भोजन से पहले विक्टर इपालीतविच को अपने बुलडॉग के साथ पित्रोव्का और कुज़्नेत्स्की ब्रिज पर टहलने की आदत थी, और किसी एक नुक्कड़ पर एक्टर और जुआखोर कन्स्तान्तीन इलारिओनविच सतानीदी उनके साथ हो लेता था.

वे घिसटते हुए फुटपाथ पर चलते, छोटे-छोटे चुटकुले सुनाते हुए और टिप्पणियाँ करते हुए, जो इतनी आकस्मिक, बेमतलब की और दुनिया की हर चीज़ के प्रति इतनी नफ़रत से भरी होती थीं, कि इन शब्दों को आराम से गुर्राहट में बदला जा सकता था, जो कुज़्नेत्स्की ब्रिज के दोनों ओर के फुटपाथों को गूंजती हुई, घुटी-घुटी बेशर्म आहों से भर देती, और मानो अपने ही कंपनों को गहरा कर देती.

 

12

मौसम का मिजाज़ बदल रहा था. “टप्-टप्-टप्” पानी के पाइपों और कार्निसों पर बूँदे शोर मचा रही थीं. छतें एक दूसरे को खटखटा रही थीं, जैसे बसन्त में होता है. पिघलन शुरू हो गई थी.

पूरे रास्ते वह पागल की तरह चलती रही और सिर्फ घर आने पर ही समझ पाई कि क्या हो गया था.

घर में सब सो रहे थे. वह फिर से बदहवासी के आलम में खो गई और कुछ भी न समझ पाते हुए मम्मा की ड्रेसिंग टेबल के सामने बैठ गई, हल्की-बैंगनी, लगभग सफ़ेद पोषाक में, जैसी फ़ैशन शो में पहनते हैं, उस पर लेस की लाइनिंग थी और लम्बा नकाब था, जिसे उसने एक शाम के लिए स्टूडियो-वर्कशॉप से लिया था. वह आईने में अपने प्रतिबिम्ब के सामने बैठी थी और कुछ भी नहीं देख रही थी. फिर बाहों एक दूसरे के ऊपर मेज़ पर रख दिया और सिर के बल उन पर गिर पड़ी.

अगर मम्मा को पता चल गया तो वह उसे मार डालेगी और ख़ुद को भी ख़त्म कर लेगी.

ये कैसे हो गया? ये हो कैसे सकता था? अब देर हो चुकी है.

पहले ही सोचना चाहिए था.

अब वह – क्या कहते हैं – अब वह – पतिता है.

वह – फ्रांसीसी उपन्यास की औरत है और कल स्कूल जाएगी एक ही डेस्क के पीछे बैठने के लिए इन बच्चियों के साथ, जो उसकी तुलना में अभी भी दूध पीती बच्चियाँ हैं. ख़ुदा, ये हो कैसे सकता था!        

किसी दिन, बहुत-बहुत सालों बाद, जब संभव होगा, लारा इसके बारे में ओल्या द्योमिना को बतायेगी. वह उसके सिर को सीने से लगाकर बिसूरने लगेगी. 

खिड़की के बाहर बूँदें गिर रही थीं, पिघलन की आहट आने लगी थी. सड़क से कोई पड़ोसियों का दरवाज़ा भड़भड़ा रहा था. लारा ने सिर नहीं उठाया, उसके कंधे थरथरा रहे थे. वह रो रही थी.

 

13

आह, एम्मा एर्निस्तोव्ना, प्यारी, कोई बात नहीं. उकता गया हूँ.”

वह दिवान और कालीन पर कुछ चीज़ें फेंक रहा था, कमीज़ों के कफ़्स, कॉलर्स और अलमारी की दराज़ें बाहर खींच रहा था और भीतर धकेल रहा था, यह न समझ पाते हुए कि उसे क्या चाहिए.

उसे उसकी बेहद ज़रूरत थी, मगर इस इतवार को उससे मिलना संभव नहीं था. कुछ न सूझने के कारण वह पिंजरे में बंद जानवर की तरह बेचैनी से कमरे में घूम रहा था.

उसमें आध्यात्मिकता का बेमिसाल आकर्षण था. उसके हाथ इस तरह चौंकाते, जैसे कोई उदात्त विचार चौंकाता है. कमरे की दीवारों पर उसकी परछाईं पाकीज़गी की छाया लगती थी. कमीज़ सादगी से उसके वक्षस्थल को कसती, मानो एम्ब्रोयडरी की फ्रेम में तना हुआ कैनवास हो.

कमारोव्स्की उँगलियों से खिड़की के शीशे बजा रहा था, नीचे रास्ते पर धीरे-धीरे जाते हुए घोड़ों की खड़खड़ाहट की ताल पर.

“लारा” – वह फुसफुसाया और उसने आँखें बन्द कर लीं, और ख़यालों में उसके सिर को अपने हाथों में देखा, नींद में झुकी हुई पलकों वाला सिर, जो ये न देख रहा हो, कि उसकी ओर बिना पलकें झपकाए लगातार घंटों से देखा जा रहा है. उसके बालों का टोप, जो बेतरतीबी से तकिये पर बिखरे थे अपनी ख़ूबसूरती से धुँए की तरह कमारोव्स्की की आँख़ों में चुभते हुए उसकी आत्मा तक पहुँच गया था.             

उसकी इतवार की सैर न हो सकी. जैक के साथ फुटपाथ पर कुछ कदम चलकर कमारोव्स्की रुक गया. उसने कल्पना की कुज़्नेत्स्की पुल की, सतानीदी के मज़ाकों की, सामने से आते हुए परिचितों के रेले की. नहीं, ये उसकी बर्दाश्त से बाहर है! कितना घिनौना है ये सब!

कमारोव्स्की पीछे मुड़ा, कुत्ता चौंक गया, उसने ज़मीन से उस पर नाराज़गी भरी नज़र डाली और बेदिली से पीछे पीछे घिसटने लगा.

ये कैसा जुनून है!” वह सोच रहा था. “इस सब का क्या मतलब है?”

ये क्या था? – जाग चुकी अंतरात्मा, दया की भावना या पश्चात्ताप? या फिर ये – चिंता है? नहीं, वह जानता है कि वो अपने घर में है और सुरक्षित है. तो फिर वह उसके दिमाग़ से क्यों नहीं जा रही है!

कमारोव्स्की प्रवेश द्वार में घुसा, सीढ़ियों से अगले मोड़ तक गया और उसे पार कर लिया. उसमें काँच के कोनों पर डिज़ाइनों वाली वेनेशियन खिड़की थी. उसमें से प्रकाश के रंगीन धब्बे फर्श पर और खिड़की की सिल पर पड़ रहे थे. दूसरी मंज़िल की आधी सीढ़ियाँ चढ़कर कमारोव्स्की रुक गया.

इस दिलकश, शोषण करने वाली पीड़ा के आगे नहीं झुकना है! वह कोई छोकरा नहीं है, उसे समझना चाहिए, कि अगर दिलबहलाव के साधन से यह लड़की, उसके स्वर्गवासी मित्र की बेटी, ये बच्ची उसके पागलपन की वजह बन जाए तो इसका नतीजा क्या होगा. होश में आना चाहिए! अपने आप के प्रति वफ़ादार रहना होगा, अपनी आदतों को नहीं बदलना है. वर्ना सब कुछ धूल में मिल जाएगा.

कमारोव्स्की ने सीढ़ी की चौड़ी रेलिंग को इतना कस कर पकड़ा कि हाथ में दर्द होने लगा, उसने एक मिनट आँखें बन्द कर लीं और निश्चयपूर्वक पीछे मुड़ा, नीचे उतरने लगा. प्रकाश के रंगीन धब्बों वाले मोड़ पर उसने बुलडॉग की स्नेहपूर्ण नज़र को पकड़ लिया.

जैक सिर उठाकर, लटकते गालों वाले, लार गिराते किसी बौने की तरह नीचे से उसकी ओर देख रहा था.

कुत्ते को लड़की अच्छी नहीं लगती थी, वह उसके मोज़े फ़ाड़ देता, उस पर भौंकता और दाँत निकालता. वह लारा के प्रति अपने मालिक की दिलचस्पी से ईर्ष्या करता, जैसे डर रहा हो, कि कहीं वह उससे संक्रमित न हो जाए.           

“आह, तो ये बात है! तूने फ़ैसला कर लिया, कि सब कुछ पहले जैसा हो जाएगा – सतानीदी, कमीनापन, मज़ाक? तो इसके लिए तुझे – ये ले, ये ले, ये ले!”

वह छड़ी से और पैरों से बुलडॉग को मारने लगा. जैक छिटक गया, उसका पिछला हिस्सा थरथरा रहा था, वह विलाप करते हुए और तेज़ आवाज़ में भौंकते हुए सीढ़ियों से ऊपर भागा, और एम्मा एर्निस्तोव्ना से शिकायत करने के लिए दरवाज़े खुरचने लगा.  

दिन और हफ़्ते बीतते गए.

14

ओह, ये कैसा तिलिस्मी घेरा था! अगर कमारोव्स्की का लारा के जीवन में बलात् प्रवेश सिर्फ उसकी घृणा को ही पैदा करता, तो लारा विद्रोह कर बैठती और उसके चंगुल से निकल भागती. मगर मामला इतना सीधा नहीं था.

लड़की को अच्छा लगता था कि उसके बाप की उम्र का ख़ूबसूरत, सफ़ेद हो चले बालों वाला आदमी, जिसके लिए सम्मेलनों में तालियाँ बजती हैं और जिसके बारे में अख़बारों में लिखते हैं, उस पर पैसा और समय खर्च कर रहा है, उसे ख़ुदाकहता है, थियेटर्स और कॉन्सर्ट्स में ले जाता है और, जैसा कि कहते हैं उसका “बौद्धिक विकास कर रहा है.”    

मगर वह तो अभी भूरे युनिफॉर्म वाली कम उम्र की स्कूली छात्रा थी, स्कूल के मासूम षड़यन्त्रों और शरारतों में गुप्त रूप से भाग लेने वाली. कभी गाड़ी में कोचवान की ठीक नाक के नीचे या पूरे थियेटर की आँखों के सामने किसी एकान्त कोने में कमारोव्स्की की स्त्री लोलुपता लारा को खुल्लमखुल्ला धृष्ठता से अपनी गिरफ़्त में ले लेती और उसके भीतर जागते हुए छोटे-से भूत को अनुकरण करने के लिए प्रेरित करती.

मगर ये शरारती स्कूली जोश जल्दी ही ख़त्म हो गया. चुभती हुई पीड़ा और अपने आप से ही भय की भावना हमेशा के लिए उसमें घर कर गई. हर समय सोने को दिल चाहता. रातों को नींद पूरी न होने से, आँसुओं और हमेशा रहने वाले सिर दर्द से,  होमवर्क करने से और शारीरिक थकावट से.

 

15

वह उसका श्राप था, लारा उससे नफ़रत करती थी. हर दिन नये सिरे से वह इसीके बारे में सोचती रहती. 

अब वह जीवन भर के लिए उसकी गुलाम है, उसने कैसे लारा को गुलाम बना लिया? कैसे वह बलपूर्वक उसे झुकाता है, और वह समर्पण करती है, उसकी इच्छाएँ पूरी करती है, अपनी अनावृत बेशर्म थरथराहट से उसे ख़ुश करती है?

अपनी आयु के कारण, मम्मा की उस पर आर्थिक निर्भरता के कारण, चतुराई से उसे, लारा को, डराने के कारण? नहीं, नहीं और नहीं. ये सब बकवास है.

लारा उसके अधीन नहीं, बल्कि वह उसके आधीन है. क्या वह नहीं देखती कि वह उसके पीछे कितना तड़पता है? उसे किसी बात से डरने की ज़रूरत नहीं है, उसका ज़मीर साफ़ है.

शर्म और डर उसे होना चाहिए, कि कहीं वह उसका भेद न खोल दे. असल बात तो यही है, कि वह ऐसा कभी नहीं करेगी. इतनी नीचता उसमें नहीं है, जो कमारोव्स्की की मुख्य ताकत है और जिसका इस्तेमाल वह अपने अधीनस्थ और कमज़ोर लोगों से निपटने के लिए करता है.

ये है उनके बीच का फ़र्क. इसी वजह से चारों ओर की ज़िंदगी भयानक हो गई है. कैसे वह सुन्न कर देती है, तूफ़ान और बिजली की कड़कड़ाहट से? नहीं, तिरछी नज़रों से और फुसफुसाहट भरी बदनामी से. उसमें चालाकी है और संदिग्धता है. एक धागा, मकड़जाल जैसा, खींचो – और वह नहीं है, और जाल से निकलने की कोशिश तो करो – सिर्फ और ज़्यादा उलझ जाओगे.          

और शक्तिशाली के ऊपर नीच और कमज़ोर शासन करता है.

 

16

उसने अपने आप से कहा :

“और, अगर वह शादी-शुदा होती? उससे क्या फ़र्क पड़ जाता? वह कुतर्क करने लगी. मगर कभी कभी एक अंतहीन टीस उसे घेर लेती.

उसे शर्म क्यों नहीं आती लारा के पैरों पर गिरते हुए और विनती करते हुए : “इस तरह नहीं चल सकता. सोचो, कि मैंने तुम्हारे साथ क्या किया है. तुम एक ढलान वाली राह पर लुढ़क रही हो. चलो, मम्मा को सब कुछ बता दें. मैं तुमसे शादी करूँगा.”

वह रो रहा था और इस तरह यूँ ज़ोर दे रहा था, मानो लारा बहस कर रही हो और राज़ी न हो रही हो. मगर ये सब सिर्फ जुमले थे, और लारा इन दर्दभरे खोखले शब्दों को सुन भी नहीं रही थी.

और वह लारा को लम्बे नकाब में इस ख़तरनाक रेस्टॉरेन्ट के अलग-अलग कमरों में ले जाता रहा, जहाँ बेयरे और खा-पी रहे लोग उसे ऐसी नज़रों से देखते जैसे निर्वस्त्र कर रहे हों. वह अपने आप से सिर्फ इतना पूछती कि क्या जब प्यार करते हैं, तो क्या नीचा दिखाते हैं?

एक बार उसे सपना आया. वह ज़मीन के नीचे है, उसका सिर्फ बायाँ हिस्सा, कंधे समेत और दाईं एडी ही बचे थे. बायें स्तनाग्र से एक घास का गुच्छा निकल रहा है, और धरती पर लोग गा रहे हैं “काली आँखें और श्वेत वक्ष” और “नहीं जाने देते माशा को नदिया के पार.”

 

17

लारा धार्मिक नहीं थी. उसे धार्मिक अनुष्ठानों में विश्वास नहीं था. मगर कभी-कभी ज़िंदगी को ढोने के लिए, ये ज़रूरी हो जाता कि वह किसी आंतरिक संगीत के साथ चले. वह स्वयम् हर बार ऐसे संगीत की रचना नहीं कर सकती थी. ये संगीत था ख़ुदा का शब्द ज़िंदगी के बारे में, और उसके ऊपर रोने के लिए लारा चर्च जाती थी.

एक बार दिसम्बर के आरंभ में, जब लारा के दिल की हालत “तूफ़ान” की नायिका कतेरीना जैसी हो रही थी, तो वह ऐसी मनःस्थिति में प्रार्थना करने के लिए गई, कि जैसे अभी उसके पैरों के नीचे धरती फट जाएगी और चर्च की मेहराबें गिर जाएँगी. अच्छा ही होगा. और हर चीज़ ख़त्म हो जाएगी. अफ़सोस सिर्फ इस बात का है, कि वह अपने साथ बातूनी ओल्या द्योमिना को ले गई थी.

“प्रोव अफ़ानासेविच,”  ओल्या उसके कान में फ़ुसफ़ुसाई.      

“श् श्. ठहर जा, प्लीज़. कौन प्रोव अफ़ानासेविच?”

“प्रोव अफ़ानासेविच सकालोव. मम्मी का चचेरा भाई है. जो पढ़ रहा है.”

आह, ये प्रार्थना-गायक के बारे में कह रही है. तिवेर्ज़िन का रिश्तेदार. श् श्. चुप. मुझे परेशान न कर, प्लीज़.”

वे प्रार्थना के आरंभ में आई थीं. प्रार्थना थी: “ हे मेरी आत्मा तू यहोवा के गुण गा; और जो कुछ मुझ में है, वह उसके पवित्र नाम को धन्य कहे!”

चर्च खाली-खाली था और उसमें आवाज़ें गूँज रही थीं. प्रार्थना करने वाले सिर्फ सामने की ओर झुंड बनाए खड़े थे. चर्च नया था. खिड़की का बेरंग काँच भूरी, बर्फ से ढँकी गली और पैदल तथा गाड़ियों में आने-जाने वालों को कोई रंग नहीं दे रहा था. इस खिड़की के पास चर्च का वार्डन खड़ा था और भीतर हो रही प्रार्थना की ओर कोई ध्यान न देते हुए चीथड़े पहनी एक बहरी, पगली औरत को डाँट रहा था, और उसकी आवाज़ उसी तरह रोज़मर्रा की सरकारी आवाज़ जैसी थी, जैसी कि खिड़की और गली थी.

जब तक लारा धीरे-धीरे, प्रार्थना करने वालों का चक्कर लगाकर, हाथ में तांबे के सिक्के लिए अपने और ओल्या के लिए मोमबत्तियाँ लाने दरवाज़े की ओर गई और उतनी ही सावधानी से, जिससे किसी को धक्का न लगे, वापस आई, प्रोव अफ़ानास्येविच दनादन ईसा मसीह के नौ आशीर्वचन पढ़ चुका था, ऐसी चीज़ की तरह जो उसके बगैर भी सब अच्छी तरह जानते थे.

धन्य हैं वे जिनकी अंतरात्मा गरीब है...धन्य हैं वे जो रो रहे हैं...धन्य हैं वे जो सत्य के लिए भूखे-प्यासे हैं...

लारा चल रही थीं, वह थरथराई और रुक गई. ये उसीके बारे में था. वह कह रहा है : कुचले गये लोगों का भाग्य स्पृहणीय होता है. वे अपने बारे में कुछ कहना चाहते हैं. उनके सामने पूरा जीवन है. ऐसा उसका मानना था. ये ईसा मसीह की राय है.

 

18

प्रेस्न्या के क्षेत्र में आन्दोलन हो रहे थे. उनके घर विद्रोह के घेरे में थे. उनसे कुछ कदम की दूरी पर त्वेर्स्काया मार्ग पर बैरिकेड बना रहे थे. वह ड्राइंग रूम की खिड़की से दिखाई देता था. उनके आँगन से बाल्टियाँ भर-भर के पानी ले जाकर बैरिकेड पर डाल रहे थे, जिससे पत्थरों और रद्दी माल को बर्फ के कवच से जोड़ सकें, जिनसे वह बना था.

पड़ोस के आँगन में सतर्कता समितियों का सभा-स्थल था, किसी मेडिकल सेन्टर या न्यूट्रिशन सेन्टर जैसा.

वहाँ से दो लड़के जा रहे थे. लारा दोनों को जानती थी. उनमें से एक था नीका दुदोरव, नाद्या का दोस्त, जिसके यहाँ लारा की उससे मुलाकात हुई थी. वह लारा की ही उम्र का था – सरल, गर्वीला और मितभाषी. वह लारा जैसा ही था और लारा को उसमें दिलचस्पी नहीं थी.

दूसरा था वास्तववादी अंतीपव, जो बुढ़िया तिवेर्ज़िना के यहाँ रहता था, जो ओल्या द्योमिना की नानी थी. जब मार्फा गव्रीलव्ना के यहाँ होती, तो लारा इस बात पर ध्यान देने लगी कि वह लड़के पर कैसा प्रभाव डाल रही है. पाशा अंतीपव अभी तक किसी बच्चे जैसा, इतना सरल था, कि वह लारा के आने से हो रही अपनी ख़ुशी को छुपाता नहीं था, जैसे लारा छुट्टी के दिनों वाली कोई बर्च की बगिया हो, साफ़ घास और बादलों वाली, और उसके सामने बेधड़क अपनी बछड़े जैसी ख़ुशी को प्रदर्शित किया जा सकता था, इस बात से बिना डरे कि उस पर लोग हँसेंगे.            

जैसे ही लारा ने देखा कि वह उस पर कैसा प्रभाव डाल रही है, लारा ने अनजाने ही इसका फ़ायदा उठाना शुरू कर दिया. वैसे, इस नरम और दब्बू चरित्र को अपने वश में करने का गंभीर प्रयत्न लारा ने कई सालों बाद किया, उससे दोस्ती करने के काफ़ी बाद के काल में, जब पतुल्या समझ चुका था कि वह उसे पागलपन की हद तक प्यार करता है और ज़िंदगी में अब पीछे लौटने का सवाल ही नहीं है.

लड़के सबसे ख़तरनाक और वयस्क खेल  - युद्ध - खेल रहे थे, ऊपर से ऐसा, कि जिसमें भाग लेने पर सूली पर लटका दिया जाता था या निर्वासित कर दिया जाता था.

मगर उनके कनटोपों के सिरे पीछे की ओर ऐसी गाँठों से बंधे हुए थे, जो उनके भीतर के बच्चों को साफ़ दिखा रहे थे, और ये भी ज़ाहिर हो रहा था कि उनके माँ-बाप अभी तक हैं. लारा उनकी ओर ऐसे देख रही थी, जैसे कोई बड़ी लड़की छोटों की ओर देखती है.

उनके ख़तरनाक मनोरंजनों से मासूमियत झलक रही थी. वही प्रभाव उनसे बाकी की हर चीज़ तक जा रहा था. बर्फीली शाम को, जो रोएँदार हिमकणों से इतनी भर गई थी, कि बाद में घनेपन के कारण वह सफ़ेद नहीं, बल्कि काली प्रतीत हो रही थी. नीलाभ कम्पाऊण्ड को. सामने वाली बिल्डिंग को, जहाँ बच्चे छुप रहे थे. और सबसे महत्वपूर्ण, महत्वपूर्ण – रिवॉल्वर की गोलियों की आवाज़ को, जो निरंतर वहाँ से चल रही थीं. “लड़के गोलियाँ चला रहे हैं”, लारा सोच रही थी.

ऐसा वह नीका और पतुल्या के बारे में नहीं, बल्कि समूचे गोलियाँ चलाते शहर के बारे में सोच रही थी.

“अच्छे, ईमानदार लड़के,” वह सोच रही थी. “अच्छे हैं, इसीलिए गोलियाँ चला रहे हैं.”

 

19

पता चला कि बैरिकेड पर तोप से गोले बरसाए जाएँगे और ये भी कि उनका घर ख़तरे में है. मॉस्को के किसी अन्य भाग में अपने परिचितों के घर जाने के बारे में सोचना भी नामुमकिन था. देर हो चुकी थी, उनके क्षेत्र की घेराबन्दी कर दी गई थी. कहीं पास ही में कोई ओना-कोना ढूँढ़ना होगा. “मॉन्टेनीग्रो” की याद आई.

पता चला कि वे पहले नहीं हैं. हॉटेल में सब कमरे भरे हुए थे.

उन जैसी परिस्थिति में कई लोग थे. पुरानी पहचान की ख़ातिर उन्हें लॉन्ड्री-रूम में रखने का वादा किया गया.

सूटकेसों से लोगों का ध्यान आकर्षित न हो, इसलिए तीन थैलियों में अत्यावश्यक वस्तुओं को इकट्ठा किया गया, और हर रोज़ हॉटेल जाने के कार्यक्रम को स्थगित करते रहे.

कार्यशाला में विद्यमान पुराने नियमों के अनुसार हड़ताल के बावजूद उसमें अंतिम क्षण तक काम होता रहा. मगर एक शाम, ठण्डे उकताऊ धुँधलके में दरवाज़े की घण्टी बजी. शिकायतें और उलाहनों के साथ एक आदमी भीतर आया. मालकिन को पोर्च में बुलाया गया. डर कम करने के लिए फ़ाइना सिलान्त्येव्ना प्रवेश कक्ष में निकली.

“यहाँ आओ लड़कियों!” जल्दी ही उसने कारीगरों को बुलाया और बारी-बारी से सबका परिचय आगंतुक से करवाने लगी.

उसने हरेक से जोश और हिचकिचाहट से हाथ मिलाया और फेतिसोवा से किसी बारे में बात करके चला गया.     

हॉल में लौटकर सारी कारीगर लड़कियाँ अपनी-अपनी शॉल बाँधने लगीं और तंग फ़र-कोट की बाँहों में घुसाने के लिए हाथ सिर के ऊपर उठाने लगीं.

“क्या हुआ” आती हुई अमालिया कार्लव्ना ने पूछा.
“हमें हटा रहे हैं
, मैडम. हमने हड़ताल कर दी है.”

“क्या मैं...मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है?” मैडम गिशार रो पड़ी.

“आप परेशान न हों, अमालिया कार्लव्ना. हमें आपसे कोई शिकायत नहीं है. हम आपके बेहद शुक्रगुज़ार हैं. मगर बात आपके बारे में नहीं, बल्कि हमारे बारे में है. ऐसा सभी के साथ है, पूरी दुनिया में है. क्या इसके ख़िलाफ़ कुछ लिया जा सकता है?”

एक-एक करके सब चली गईं, ओल्या द्योमिना और फ़ान्ना सिलान्तेव्ना भी, जो जाते-जाते मालकिन से फुसफुसाते हुए ये कहकर गई, कि ये हड़ताल मालकिन के और वर्कशॉप के फ़ायदे के लिए ही कर रही है. मगर वह शांत नहीं हुई.

“कितनी कड़वी एहसानफ़रामोशी है! ज़रा सोच, कितना ग़लत समझ बैठते हैं हम लोगों को! ये बच्ची, जिस पर मैंने इतना प्यार निछावर किया! चलो, ख़ैर, वो बच्ची है. मगर ये बूढ़ी चुडैल!”

“आप समझने की कोशिश कीजिए, मम्मा, हमारी ख़ातिर वे अपवाद नहीं कर सकते,” लारा उसे समझा रही थी. “किसी के भी दिल में आपके प्रति कटुता नहीं है. बल्कि, इसका उल्टा ही है. जो कुछ भी इस समय चारों ओर हो रहा है, इन्सान के लिए किया जा रहा है, कमज़ोरों की रक्षा के लिए, औरतों और बच्चों की भलाई के लिए. हाँ, हाँ, आप इतने अविश्वास से सिर न हिलाइए. इससे आगे चलकर, कभी, मेरे और आपके लिए बेहतर ही होगा.”    

मगर माँ कुछ भी नहीं समझी.

“हमेशा ऐसा ही होता है,” वह सिसकियाँ लेते हुए बोली. “जब ख़याल वैसे भी उलझते जाते है, तू कुछ ऐसी बात कह देती है, कि बस आँखें बाहर निकलने को हो जाती हैं. मेरे सिर पर गन्दगी थोंप रहे हैं, और पता चलता है, कि ये मेरी ही भलाई के लिए है. नहीं, सही है, मेरा तो दिमाग़ ही चल गया है.”

रोद्या मिलिट्री स्कूल में था. लारा माँ के साथ अकेली ही घर में थी. अंधेरी सड़क ख़ाली आँखों से कमरों में झाँक रही थी. कमरे वैसी ही नज़र से प्रतिसाद दे रहे थे.

“अँधेरा होने से पहले, हॉटल चले जाएँ, मम्मा. सुन रही हो, मम्मा? बिना देर किए, फ़ौरन.”

“फ़िलात, फ़िलात!” उन्होंने चौकीदार को बुलाया. “फ़िलात, हमें “मॉन्टेनेग्रो” तक पहुँचा दो, प्यारे.”

“जी, मैडम.”

“ये थैलियाँ पकड़ लो, और सुनो, फ़िलात, जब तक ये चल रहा है, यहाँ का ख़याल रखना,प्लीज़. और किरील मदेस्तोविच को दाना-पानी देना न भूलना. और हर चीज़ ताले में. हाँ, और, हमसे मिलने आ जाया करो.”

“जी, मैडम.”

“थैन्क्यू, फिलात. क्राइस्ट तेरी हिफ़ाज़त करें. चलो, जाने से पहले कुछ देर बैठें, और ख़ुदा का नाम लेकर निकल पड़ें.”  

वे बाहर निकले और हवा को ही नहीं पहचान पाए, मानो लम्बी बीमारी के बाद निकले हों. बर्फ के गोल-गोल ढेले, जिन्हें मानो लेथ मशीन से अख़रोट की शकल में काटा गया हो, हल्की आवाज़ करते हुए आसानी से सभी दिशाओं में लुढ़क रहे थे. गोलियाँ चलने की आवाज़ें आ रही थीं, कारतूस गिर रहे थे और दूर की सतह को पैनकेक जैसा समतल बना रहे थे.

फिलात ने उन्हें न जाने के लिए बहुत मनाया, मगर लारा और अमालिया कार्लव्ना इन्हें खाली कारतूसों की बौछार समझ रही थीं.   

“तू बेवकूफ़ है, फ़िलात. तू ख़ुद ही देख, वे खाली कैसे नहीं होंगे, जब दिखाई ही नहीं दे रहा है, कि गोलियाँ कौन चला रहा है. तेरे हिसाब से, ये क्या कोई पवित्र आत्मा गोलियाँ चला रही है? ज़ाहिर है, ख़ाली कारतूस हैं.”

एक चौराहे पर उन्हें गश्ती दल ने रोका.

खिलखिलाते कज़ाकों ने बेशर्मी से पैरों से सिर तक हाथ फ़ेरते हुए उनकी तलाशी ली. पट्टों वाली बिना फुँदे की टोपियाँ उनके कानों पर खिंची हुई थीं. वे सब के सब एक आँख वाले नज़र आ रहे थे.

“कितनी ख़ुशी की बात है!” लारा सोच रही थी. जब तक वे बाकी शहर से कटे हुए रहेंगे, वह कमारोव्स्की को देखने से बच जाएगी. माँ की वजह से वह उससे संबंध नहीं तोड़ सकती. वह नहीं कह सकती : “मम्मा, उसे मत आने दो. वर्ना पूरा राज़ खुल जाएगा. तो फ़िर क्या? मगर इससे डरना क्यों? आह. ख़ुदा, काश, भाड़ में जाए सब कुछ, सिर्फ ये किस्सा ख़त्म हो जाए. ख़ुदा, ख़ुदा, ख़ुदा! घृणा के कारण अभी वह सड़क पर ही बेहोश होकर गिर जाएगी. अभी उसे याद क्या आया?! क्या शीर्षक था उस पहले प्राइवेट कमरे में लगी भयानक तस्वीर का जिसमें एक मोटा रोमन दिखाया गया था और जहाँ से सब शुरू हुआ था? “औरत या फूलदान”. तो क्या. बेशक. प्रसिद्ध तस्वीर है “औरत या फ़ूलदान”. और तब तक वह औरत नहीं थी, जिसकी तुलना इस बेशकीमती चीज़ से की जाती. ये बाद में हुआ. मेज़ बड़े शानदार ढंग से सजी थी.

“ये तू पागल की तरह कहाँ भागी जा रही है? मैं तुझे पकड़ नहीं पाऊँगी, पीछे से अमालिया कार्लव्ना ने रोते हुए कहा.              

लारा तेज़-तेज़ जा रही थी. जैसे कोई ताकत उसे खींच कर ले जा रही थी, जैसे वह हवा में चल रही हो, गर्वीली, प्रेरणात्मक ताकत से खिंची हुई.

ओह, कितनी शान से गोलियाँ चल रही हैं,” वह सोच रही थी. “धन्य हैं वे जिन पर अत्याचार हुआ है, धन्य हैं वे जिन्हें धोखा दिया गया है. गोलियों, ख़ुदा आपको सेहत दे! गोलियाँ, गोलियाँ, तुम भी वैसा ही सोचती हो!”

 

20

ग्रमेका भाइयों का घर सीव्त्सेव व्रझेक और एक अन्य गली के नुक्कड़ पर था.

 अलेक्सान्द्र और निकलाय अलेक्सान्द्रविच ग्रमेका रसायन शास्त्र के प्रोफेसर थे, पहला – पेत्रोव्स्काया अकादमी में, और दूसरा विश्वविद्यालय में. निकलाय अलेक्सान्द्रविच कुँआरे थे. और अलेक्सान्द्र अलेक्सान्द्रविच की शादी आन्ना इवानव्ना से हुई थी, जो क्र्यूगेर परिवार से थी, उसके पिता एक बड़ी लोहे की फैक्ट्री के मालिक थे, जिनकी यूराल प्रांत में युर्यातिन  के निकट एक बहुत बड़ी जायदाद थी, वहाँ कुछ खदानें थीं जिनसे कोई लाभ नहीं होता था और एक बड़ी समर-कॉटेज थी.

घर दुमंज़िला था. ऊपर की मंज़िल पर शयन-कक्ष, क्लास रूम, अलेक्सान्द्र अलेक्सान्द्रविच का अध्ययन कक्ष और लाइब्रेरी, आना इवानव्ना का कमरा और तोन्या और यूरा के कमरे थे. ये आवासीय खण्ड था, और निचली मंज़िल अतिथियों के स्वागत सत्कार के लिए थी. यहाँ पिस्ते के रंग के परदे, आईनों से पियानो के ढक्कन पर परावर्तित होता प्रकाश, एक्वेरियम, ज़ैतून का फर्नीचर और कमरे में रखे शैवाल जैसे पौधे – ये सब मिलकर हरे, उनींदेपन से हिलोरें लेते सागर-तल का आभास दे रहे थे.       

ग्रमेका सुशिक्षित, सत्कारशील और संगीत के बड़े मर्मज्ञ और शौकीन थे. वे अपने घर में संगीत प्रेमियों को बुलाते और छोटी-सी मेहफ़िल का आयोजन करते, जिसमें पियानो, वॉयलिन और तंतु वाद्यों पर रचनाएँ प्रस्तुत की जातीं.

सन् 1906 की जनवरी में, निकलाय निकलायेविच के विदेश जाने के फ़ौरन बाद, सीव्त्सेव में ऐसी ही संगीत सभा होनी थी. तानेयेव-स्कूल के एक नये प्रशिक्षार्थी का वॉयलिन वादन और चायकोव्स्की के ट्रीओ” का प्रस्ताव रखा गया.

तैयारियाँ पूर्व संध्या से ही शुरू हो गईं. फर्नीचर इधर-से उधर हटाया गया, जिससे हॉल खाली हो सके. कोने में संयोजक एक ही धुन सैकड़ों बार बजा रहा था और मनकों से झंकार कर रहा था. किचन में पंछी साफ़ किये जा रहे थे, हरी सब्ज़ियाँ साफ़ हो रही थीं और सॉस तथा सलाद के लिए सरसों को ज़ैतून के तेल में मिलाया जा रहा था.

सुबह से ही आन्ना इवानव्ना की घनिष्ठ और अंतरंग मित्र शूरा श्लेज़िंगर उसे बेज़ार करने के लिए आ धमकी थी.

शूरा श्लेज़िंगर एक ऊँची, दुबली-पतली औरत थे, कुछ-कुछ मर्दाना चेहरे पर सही नाक-नक्श, जिससे वह कुछ-कुछ सम्राट की याद दिलाती थी, ख़ासकर अपनी तिरछी भूरी अस्त्राखान टोपी में, जिसे वह पार्टियों में पहनती थी, सिर्फ उस पर टँके हुए नकाब को हौले से उठा देती.

दुःखों और परेशानियों के दौर में सहेलियों की बातचीत उन्हें काफी राहत पहुँचाती थी. राहत ऐसे मिलती, कि शूरा श्लेज़िंगर और आना इवानव्ना एक दूसरे को अधिकाधिक ज़हरीले ताने देतीं. तूफ़ान आ जाता, जो जल्दी ही आँसुओं और समझौते से समाप्त हो जाता. ये नियमित रूप से होने वाली कहा-सुनी दोनों को सुकून पहुँचाती, जैसे खून को शुद्ध करने के लिए जोंकों का इस्तेमाल होता है.

 शूरा श्लेज़िंगर कई बार शादियाँ कर चुकी थी, मगर तलाक के बाद पतियों को फ़ौरन भूल जाती थी और उन्हें इतना कम महत्व देती थी कि अपने बर्ताव में किसी अविवाहित महिला का ठण्डापन बरकरार रखती थी.

शूरा श्लेज़िंगर थिओसॉफिस्ट थी, मगर साथ ही ऑर्थोडोक्स-सर्विस के विधानों से इतनी अच्छी तरह जानती थी कि परमानन्द के क्षणों में भी पादरी को यह बताने से नहीं चूकती थे कि उसे कब क्या कहना है या गाना है. “सुनो, ख़ुदा”, “चिरंतन समय के लिए”, “सबसे ईमानदार देवदूत” – पूरे समय उसकी भर्राई, मोटी आवाज़ की पुटपुटाहट सुनाई देती.

शूरा श्लेज़िंगर मैथेमेटिक्स, भारतीय गूढ़ विज्ञान से अवगत थी. उसे मॉस्को कॉन्सर्वेटरी के बड़े-बड़े प्रोफेसरों के पते, कौन किसके साथ रहता है ये मालूम था. और, हे ख़ुदा, वह क्या-क्या नहीं जानती थी. इसलिए ज़िन्दगी की गंभीर परिस्थितियों में उसे निर्णय और मध्यस्थता करने के लिए बुलाया जाता था.

नियत समय पर मेहमान आने शुरू हो गए.  अदेलाइदा फिलीपव्ना, गिन्त्स, फुफ्कोव दम्पत्ति, बसुरमान दम्पत्ति, वेर्झीत्स्की दम्पत्ति, कमांडर कव्काज़्त्सेव आए. बर्फबारी हो रही थी, और जब मुख्य द्वार खुलता तो चमकते हुए छोटे-बड़े बर्फ के कणों के बंडल जैसी हवा बदहवासी से बगल से गुज़र जाती. मर्द पैरों में झूलते हुए गहरे जूते पहने भीतर आए और उनमें से हरेक बेडौल, भुलक्कड़ आलसी लग रहा था, मगर इसके विपरीत, उनकी पत्नियाँ बर्फ से ताज़ी-तवानी, अपने फर-कोट के ऊपर के दो बटन बन्द किए, बर्फ के कणों से ढँके बालों से फूले फूले रुमाल पीछे को सरकाए, मंजे हुए खिलाड़ियों जैसी, चंचल नज़र आ रही थीं. “क्युइ का भतीजा”- फुसफुसाहट फैल गई, जब एक नए, इस घर में पहली बार निमंत्रित किए गए पियानोवादक ने प्रवेश किया.

हॉल के अंत में दोनों किनारों पर खुले हुए दरवाज़ों से डाइनिंग हॉल में सजी हुई लम्बी, सर्दियों की सड़क जैसी मेज़ दिखाई दे रही थी.

दानेदार सतह वाली रोवन बेरी की शराब की बोतलें ध्यान आकर्षित कर रही थीं. चाँदी की ट्रे में रखी छोटी-छोटी कुप्पियों में तेल और सिरके के मिश्रण से नज़र नहीं हट रही थी, और पंछियों तथा टिट-बिट्स की सजावट मनमोहक थी, पिरामिडों की तरह हर प्लेट पर रखे नैपकिन्स, टोकरियों में रखे नीले-बैंगनी महकते फूल भूख जगा रहे थे. सर्दियों के स्पेशल खाने को चखने की घड़ी को स्थगित न करने के इरादे से जितनी जल्दी हो सके, आत्मीय भूख को शांत करने के लिए चल पड़े. हॉल में पंक्तियों में बैठ गए.  

क्युइ का भतीजा”, फिर से फुसफुसाहट होने लगी, जब पियानो वादक वाद्य के पीछे अपनी जगह पर बैठा. कॉन्सर्ट शुरू हो गई.

सोनाटा के बारे में मालूम था कि वह उबाऊ और तकलीफ़देह है, सिरदर्द पैदा करने वाला है.

वह आशंकाओं पर खरा उतरा, ऊपर से उसे ख़तरनाक रूप से लम्बा खींचा गया था.

इस बारे में अंतराल के दौरान आलोचक करीमबेकव अलेक्सान्द्र अलेक्सान्द्रविच से बहस कर रहा था. आलोचक सोनाटा को गालियाँ दे रहा था, मगर अलेक्सान्द्र अलेक्सान्द्रविच तरफ़दारी कर रहा था. आस पास लोग सिगरेट पी रहे थे और एक जगह से दूसरी जगह पर कुर्सियाँ खिसकाते हुए शोर मचा रहे थे.

मगर निगाहें फिर से बगल वाले कमरे के चमकते हुए मेज़पोश पर पड़ी. सबने सुझाव दिया कि कॉन्सर्ट को फ़ौरन जारी रखा जाए.

पियानो वादक ने लोगों पर नज़र डाली और अपने साथियों को इशारा किया, कि शुरू करें. वायलिन वादक और तीश्केविच ने अपने बोउठाए. “ट्रिओ” हिचकियाँ लेने लगा.

यूरा, तोन्या और मीशा गर्दोन जो अब अपनी आधी ज़िंदगी ग्रमेका के यहाँ गुज़ार चुका था, तीसरी पंक्ति में बैठे थे.

“ईगरव्ना आपको इशारे कर रही है,” यूरा ने अलेक्सान्द्रविच से फुसफुसाकर कहा, जो ठीक उसकी कुर्सी के सामने बैठा था.

हॉल की देहलीज़ पर अग्राफ्येव्ना ईगरव्ना, ग्रमेका परिवार की बूढ़ी, सफ़ेद बालों वाली नौकरानी खड़ी थी, और बदहवास नज़रों से यूरा की दिशा में देख रही थी और उतने ही निर्णायक ढंग से अलेक्सान्द्र अलेक्सान्द्रविच की दिशा में सिर हिलाते हुए यूरा को यह समझा रही थी, कि उसे फ़ौरन मेज़बान से बात करना है.

अलेक्सान्द्र अलेक्सान्द्रविच ने सिर घुमाया, उलाहने की नज़र से ईगरव्ना की ओर देखा और कधे उचका दिए. मगर ईगरव्ना ने हार नहीं मानी. जल्दी ही उनके बीच हॉल के एक छोर से दूसरे छोर तक कैफ़ियत शुरू हो गई, जैसी गूँगे-बहरों के बीच होती है. लोग उनकी ओर देखने लगे. आन्ना इवानव्ना पति पर ख़तरनाक नज़रें डाल रही थी.

अलेक्सान्द्र अलेक्सान्द्रविच उठ गया. कुछ तो करना चाहिए था. वह लाल हो रहा था, ख़ामोशी से कोने से हॉल का चक्कर लगाया और ईगरव्ना के पास गया.

“आपको शर्म नहीं आती, ईगरव्ना! आपको, वाकई में, ऐसी क्या ज़रूरत आन पड़ी? ओह, जल्दी, हुआ क्या है?”

ईगरव्ना ने फुसफुसाकर उससे कुछ कहा.

“कौन से “मॉन्टेनेग्रो” से?

“हॉटेल से.”

“तो, फिर क्या?”

“आपको फ़ौरन बुला रहे हैं, उनका कोई मर रहा है.”

“मरते रहते हैं. सोच सकता हूँ. संभव नहीं है, ईगरव्ना. ये हिस्सा पूरा बजाएँगे, और फिर बताऊँगा. उससे पहले नहीं.”

“हॉटेल का नौकर इंतज़ार कर रहा है. और गाड़ीवान भी. मैं आपसे कह रही हूँ, इन्सान मर रहा है, आप समझ रहे हैं? कुलीन घराने की महिला है.”

“नहीं, मतलब, नहीं. महान चीज़ पेश कर रहे हैं – बस पाँच मिनट बचे हैं, समझ रही हो.”

अलेक्सान्द्र अलेक्सान्द्रविच वैसे ही हौले-हौले दीवार से लगे-लगे कदम बढ़ाते हुए अपनी जगह पर पहुँचा और मुँह बनाते हुए और नाक की हड्डी पोंछते हुए बैठ गया.

पहला भाग समाप्त होने पर वह कलाकारों के पास गया और, जब तक तालियों का शोर गूँज रहा था, फ़ादेइ कज़िमीरविच से कहा, कि उसे लेने आए हैं और संगीत को रोकना पड़ेगा.

फिर हॉल की तरफ़ हथेलियाँ घुमाते हुए अलेक्सान्द्र अलेक्सान्द्रविच ने तालियाँ रोकने को कहा और ऊँची आवाज़ में कहा:

“महाशय, “ट्रिओ” को रोकना पड़ेगा. फ़ादेइ कज़िमीरविच के प्रति संवेदना प्रकट करते हैं. उनके यहाँ अफ़सोसनाक हादसा हुआ है. उन्हें हमारे यहाँ से जाना होगा. ऐसी घड़ी में मैं उन्हें अकेला नहीं छोड़ना चाहता था. शायद मेरी उपस्थिति उनके लिए ज़रूरी होगी. मैं उनके साथ जाऊँगा. यूरच्का, प्यारे, बाहर जाकर सिम्योन से दरवाज़े पर गाड़ी लगाने के लिए कहो, उसे पहले ही कह दिया गया था. महाशय, मैं आपसे बिदा नहीं ले रहा हूँ. सबसे विनती करता हूँ, कि रुके रहें. मेरी अनुपस्थिति थोड़ी ही देर के लिए होगी.

बच्चों ने अलेक्सान्द्र अलेक्सान्द्रविच के साथ रात को, बर्फ पर गाड़ी में सैर करने की इजाज़त माँग ली.

 

21

जीवन के सामान्य ढर्रे पर लौटने के बावजूद, दिसम्बर के बाद अभी भी कहीं-कहीं गोली बारी हो रही थी, और नए अलाव जो हमेशा ही जलते रहते हैं, पुराने अग्निकाण्डों के अवशेष प्रतीत हो रहे थे.

इससे पहले वे कभी भी इतनी दूर और इतनी देर तक नहीं गए थे, जितना कि उस रात को. वो पास ही में तो था – स्मलेन्स्की, नवीन्स्की और सादवाया का आधा हिस्सा. मगर कोहरे और निरंतर गिरती हुई खूँखार बर्फ ने उस क्षेत्र को अलग-अलग टुकड़ों में विभाजित कर दिया था, मानो वह दुनिया में हर जगह एक-सा नहीं था. अलावों का झबरा, छितरा-छितरा धुँआ, कदमों की चरमराहट, और गुज़रती हुई स्लेज गाड़ियों की खनखनाहट मिलकर ऐसा आभास दे रहे थे, जैसे वे ख़ुदा जाने कब से जा रहे थे और किसी ख़ौफ़नाक दूरी पर आ पहुँचे हैं.

हॉटेल के सामने तंग, ख़ूबसूरत स्लेज से जुता घोड़ा खड़ा था, जिसके बदन को कम्बल से ढाँका गया था, और खुरों पर पट्टियाँ बंधी थीं. मुसाफ़िरों की जगह पर दस्तानों वाले हाथों से अपना ढँका हुआ सिर पकड़े लापरवाह गाड़ीवान बैठा था, ताकि कुछ गर्माहट मिले.  

लॉबी में गर्माहट थी, और प्रवेश द्वार को हैंगर-रूम से अलग करने वाली रेलिंग के पीछे, पंखे की आवाज़, गरमाती भट्टी की सनसनाहट और उबलते समोवार की सीटी के सम्मिलित शोर में दरबान ऊँघ रहा था, ज़ोर-ज़ोर से खर्राटे ले रहा था, और इन खर्राटों से ख़ुद ही को जगा रहा था.

लॉबी में बाईं ओर आईने के सामने एक सजी-धजी, पावडर के कारण फूले-फूले, आटे जैसे चेहरे वाली महिला खड़ी थी. उसने फ़र का जैकेट पहना था, जो इस मौसम के लिए काफ़ी हवादार था. महिला ऊपर से किसी के आने का इंतज़ार कर रही थी और, आईने के सामने पीठ की तरफ़ से खड़ी होकर कभी दाएँ तो कभी बाएँ कंधे के ऊपर से देख लिती थी, कि वह पीछे से अच्छी तो लग रही है.

ठण्ड से ठिठुर गए गाड़ीवान ने सड़क की ओर वाले दरवाज़े से झाँक कर देखा. अपनी कफ़्तान से वह इश्तेहार के किसी क्रेण्डेल (8 के आकार की डबल रोटी – अनु.) की याद दिला रहा था, और उससे निकलती हुई भाप के छल्ले इस साम्य को और ज़्यादा पुख़्ता बना रहे थे.

“क्या वे जल्दी आयेंगे, मैडम?” उसने आईने के पास खड़ी महिला से पूछा.

“आप लोगों के लफ़ड़े में पड़ने का मतलब है, घोड़े को सर्दी होने देना.”

चौबीस नम्बर के कमरे की घटना नौकरों की रोज़मर्रा की मामूली किटकिट जैसी थी. हर पल घण्टियाँ भिनभिनातीं और दीवार पर लगे लम्बे काँच के बक्से में नम्बर दिखाई देते, ये दिखाते हुए कि किस नम्बर में लोग पागल हुए जा रहे हैं और, ख़ुद ही न जानते हुए कि वे क्या चाहते हैं, बेकार ही नौकरों को परेशान किए जा रहे थे.

अब इस चौबीस नम्बर वाली बेवकूफ़ बुढ़िया गीशर को खूब पिलाया गया, उसे वमन की दवा दी गई और उसके पेट और आँतों को धोया गया.

नौकरानी ग्लाशा कमरे का फ़र्श साफ़ करते-करते और गंदी बाल्टियाँ बाहर और साफ़ बाल्टियाँ भीतर लाते-लाते थक गई. मगर सर्विस-रूम में आज का तूफ़ान इस गड़बड़ से काफ़ी पहले शुरू हो गया था, जब किसी भी बात का कोई अंदेशा नहीं था और तिरेश्का को गाड़ी में डॉक्टर और इस वायलिन वाले को लाने के लिए नहीं भेजा गया था, जब कमारव्स्की तक नहीं पहुँचा था और कॉरीडोर में दरवाज़े के सामने, आने-जाने में रुकावट डालती इतनी बेकार की भीड़ इकट्ठी नहीं हो गई थी.

आज का हंगामा सर्विस-रूम में इसलिए हुआ था, कि दोपहर में पैन्ट्री से जाने वाले तंग गलियारे में कोई असावधानी से मुड़ा और उसने अनजाने में बेयरे सिसोय को ठीक उसी पल धक्का दे दिया, जब वह ऊपर उठे दाएँ हाथ में भरी हुई ट्रे लिए झुक कर दरवाज़े से बाहर आकर कॉरीडोर में भागा. सिसोय ने ट्रे गिरा दी, सूप गिरा दिया और बर्तन तोड़ दिए, तीन गहरी प्लेटें और एक उथली प्लेट.

सिसोय दावा कर रहा था कि यह बर्तन धोने वाली थी, उसीसे पूछताछ की जाए, उसीसे पैसे वसूले जाएँ. अब रात हो गई थी, दस बज चुके थे, आधे लोग काम से घर जाने वाले थे, मगर उनके बीच अभी तक इस बात को लेकर बहस चल रही थी.

“हाथ-पाँव थरथराते हैं, बस इतना ही काम है, कि दिन रात बोतल को बीबी की तरह बाहों में लिए फिरते रहो, नाक डूबी रहती है बोतल में बत्तख की तरह, और फिर - उसे धक्का क्यों मारा, बर्तन तोड़ दिए, सूप गिरा दिया! अरे, किसने मारा तुझे धक्का, काणे शैतान, भूत कहीं के? किसने मारा तुझे धक्का. अस्त्राखान के फ़ोड़े, बेशर्म आँखें?”

“मैं आपसे कह रहा हूँ, मात्र्योना स्तिपानव्ना – अपनी ज़ुबान को लगाम दीजिए.”

“कोई अच्छी सी वजह ही मिल जाती, जिसके लिए हंगामा और बर्तन तोड़ते, वर्ना तो ये क्या बात हुई, मैड़म बाज़ारू, रास्ते की छुई-मुई, अच्छी बातें करके आर्सेनिक लपक लिया, अब बिल्ली हज को चली. मॉन्टेनेग्रो के कमरों में रह चुके हैं, ऐसे दुमकटे और कुत्ते नहीं देखे.”

मीशा और यूरा कमरे के सामने वाले कॉरीडोर में टहल रहे थे. सब कुछ वैसा नहीं था, जैसी अलेक्सान्द्र अलेक्सान्द्रविच ने कल्पना की थी. उसकी कल्पना थी – वायलिन वादक, दुःखद घटना, कोई साफ़-सुथरी, गंभीर घटना होगी. मगर ये तो शैतान जाने क्या है. गंदगी, कोई लफ़ड़ेवाली चीज़ और ज़रा भी बच्चों के देखने लायक नहीं है.            

लड़के कॉरीडोर में पैर बजाते हुए घूम रहे थे.

“”नौजवानों, आप आंटी के पास जाइए,” बच्चों के पास आकर दूसरी बार सब्र से, शांत आवाज़ में नौकर ने कहा, “ आप अंदर जाइए, घबराइए नहीं. वे ठीक हैं, इत्मीनान रखिए. अब वे पूरे होश में हैं. और, यहाँ खड़े नहीं हो सकते.

आज यहाँ एक हादसा हो गया, महँगी क्रॉकरी फोड डाली. देख रहे हैं. हम काम कर रहे हैं, भाग-दौड़ कर रहे हैं, जगह बहुत तंग है. आप भीतर जाइए.”

लड़कों ने बात मान ली.

कमरे में डाइनिंग टेबल के ऊपर लटकते हुए केरोसिन लैम्प को टंकी से निकालकर, खटमलों से गंधाते लकड़ी के पार्टीशन के पीछे, कमरे के दूसरे हिस्से में ले जाया गया.

ये हिस्सा सोने के लिए था, जिसे एक धूल भरे परदे से प्रवेश कक्ष से और बाहर वालों की नज़रों से अलग किया गया था. अब इस गड़बड़ में उसे नीचे करना भूल गए थे. उसका कोना पार्टीशन की ऊपरी किनार पर डला हुआ था. लैम्प बेंच पर एक आले में खड़ा था.

ये कोना नीचे से खूब प्रकाशित हो रहा था, जैसे थियेटर के फूट-लाइट्स से आलोकित हो रहा हो.

आयोडीन का ज़हर लिया था, न कि आर्सेनिक का, जैसा कि बर्तन धोने वाली ने गलती से फ़ैलाया था.

कमरे में कड़वी, कसैली बू थी, जैसे हाथ से छूने पर काले हो गए कच्चे, हरे अखरोट की होती है.

पार्टीशन के पीछे एक लड़की फर्श पोंछ रही थी, और ज़ोर से रोते हुए, चिपकी हुई लटों वाला सिर बेसिन के ऊपर लटकाए, पानी से, आँसुओं से और पसीने से गीली हो गई अधनंगी औरत पलंग पर लेटी थी.

लड़कों ने फ़ौरन नज़रें एक ओर को घुमा लीं, उस तरफ़ देखना बेहद शर्मनाक और अटपटा लग रहा था. मगर यूरा को एक बात ने चौंका दिया, कि कैसे किन्हीं असहज, अनियंत्रित मुद्राओं में, तनाव और कोशिशों के प्रभाव में, औरत वोहोना बंद कर देती है, जैसा मूर्तिकला उसे प्रदर्शित करती है और गोलाकार माँसपेशियों वाले किसी नग्न पहलवान जैसी लगने लगती है, जो छोटा-सा कच्छा पहनकर प्रतियोगिता के लिए आया हो.        

आख़िरकार पार्टीशन के पीछे किसी ने परदा गिराने के बारे में सोचा.

“फ़देय कज़िमीरविच, प्यारे, आपका हाथ कहाँ है? मुझे अपना हाथ दीजिए,” आँसुओं और उबकाई के कारण घुटी हुई आवाज़ में महिला ने कहा. “ आह, कैसा डरावना एहसास था! मुझे ऐसा शक था! फ़देय कज़िमीरविच...मुझे ऐसा लगता था.... मगर ख़ुशनसीबी से साफ़ हुआ कि ये सब वेवकूफ़ियाँ थीं, मेरी उलझी हुई कल्पना. फ़देय कज़िमीरविच, सोचिए, कितना सुकून मिल रहा है! और परिणामस्वरूप...और ये...और ये, मैं ज़िंदा हूँ.”

“शांत हो जाइए, अमालिया कार्लव्ना, आपसे विनती करता हूँ, शांत हो जाइए.”

“ये सब कितना तकलीफ़देह रहा, ईमानदारी से, तकलीफ़देह.”

“अभी घर जायेंगे,” बच्चों की ओर देखकर अलेक्सान्द्र अलेक्सान्द्रविच बुदबुदाया.

अटपटापन महसूस करते हुए, वे अँधेरे प्रवेश कक्ष में खड़े थे, कमरे के उस हिस्से में, जो परदे से ढँका नहीं था और चूँकि आँखें फ़ेरने के लिए कोई जगह नहीं थी, वे उसकी गहराई में देख रहे थे, जहाँ से लैम्प उठाकर ले जाया गया था. वहाँ दीवारों पर तस्वीरें लटकी थीं, बुक शेल्फ पर संग़ीत के नोट्स रखे थे, मेज़ कागज़ों और एल्बम्स से अटी पड़ी थी, और बुने हुए मेज़पोश से ढँकी डाइनिंग टेबल के उस ओर, आराम कुर्सी में बैठी एक लड़की सो रही थी, हाथों से कुर्सी की पीठ पकड़े और उस पर अपना गाल चिपकाए. अगर चारों ओर का शोर और हलचल उसकी नींद में बाधा नहीं डाल रहे थे, तो शायद, वह बेहद थकी हुई थी.

उनका यहाँ आना बेमतलब था, उनकी यहाँ और ज़्यादा उपस्थिति अशोभनीय थी.

“अभी जाएँगे,” अलेक्सान्द्र अलेक्सान्द्रविच ने फिर से कहा. “बस, फदेय कज़िमीरविच आ जाए. मैं उससे बिदा ले लूँगा.”

मगर फ़देय कज़िमीरविच के बदले पार्टीशन के पीछे से कोई और ही निकला. ये हट्टा-कट्टा, सफ़ाचट दाढ़ी वाला, शानदार और दृढ़ आत्मविश्वास वाला व्यक्ति था. उसने सिर के ऊपर टंकी से निकाले गए लैम्प को पकड़ा था. वह मेज़ के पास गया, जिसके पीछे लड़की सोई थी, और लैम्प को वापस टंकी में रख दिया. रोशनी से लड़की जाग गई. वह आने वाले को देखकर मुस्कुराई, फिर उसने आँख़ें सिकोड़ी और हाथ पैर सीधे कर लिए.

अपरिचित को देखते ही मीशा बुरी तरह चौंक गया और वैसे ही उस पर आँखें गड़ाए रहा. वह यूरा की आस्तीन खींच रहा था, उससे कुछ कहने की कोशिश कर रहा था.

“गैरों के सामने फुसफुसाते हुए तुझे शर्म नहीं आती? तेरे बारे में वे क्या सोचेंगे?” यूरा ने उसे रोक दिया और उसकी ओर ध्यान नहीं दिया.

इस बीच लड़की और उस आदमी के बीच एक मूक नाट्य चल रहा था. उन्होंने एक दूसरे से एक भी शब्द नहीं कहा और सिर्फ आँखों से इशारे करते रहे. मगर उनकी आपसी समझ डरावने रूप से जादुई थी, मानो वह कठपुतली वाला था, और वह उसकी आज्ञाओं का पालन करने वाली कठपुतली थी.

थकी-थकी मुस्कान के कारण, जो उसके चेहरे पर आ गई थी, लड़की की आँखें अधमुँदी हो गई, और उसके होंठ आधे विलग हो गए.

मगर मर्द की मज़ाकिया नज़रों का जवाब वह किसी राज़दार की तरह चालाकी से आँख मारते हुए दे रही थी. दोनों ख़ुश थे, कि सब कुछ सही-सलामत हो गया, उनका भेद नहीं खुला और ज़हर खाने वाली ज़िंदा बच गई थी.

यूरा दोनों को आँखों से पिये जा रहा था. उस आधे अँधेरे से, जिसमें उसे कोई नहीं देख सकता था, वह निरंतर लैम्प से आलोकित घेरे को देखे जा रहा था. लड़की की गुलामी का दृश्य गूढ़ रहस्य जैसा था, जो खुल्लमखुल्ला बेशर्मी से हो रहा था. उसके दिल में परस्पर विरोधी भाव जमा हो गए थे. उनकी अबूझ ताकत से यूरा का दिल डूब रहा था.

ये वही था, जिसके बारे में वह मीशा और तोन्या के साथ साल भर से “अश्लीलता” के बेमतलब नाम से गर्मजोशी से बहस करता रहा था, वो डराने वाला और आकर्षित करने वाला शब्द जिसका लब्ज़ों के सुरक्षित अंतर से उन्होंने आसानी से फ़ैसला कर लिया था, और अब यही शक्ति यूरा की आँख़ों के सामने थी, मूर्त रूप में और धुँधली और सपने जैसी, बेरहमी से विनाशकारी और शिकायत करने वाली और मदद की गुहार लगाने वाली, और उनकी बचपन की दार्शनिकता कहाँ खो गई थी और अब यूरा को क्या करना चाहिए?                         

जब वे बाहर आए तो मीशा ने पूछा, “पता है, यह आदमी कौन है?”

यूरा अपने ही ख़यालों में खोया हुआ था और उसने जवाब नहीं दिया.

“ये वही है, जिसने तुम्हारे पिता को शराब पिला-पिलाकर मार डाला. याद है, कम्पार्टमेन्ट में. – मैंने तुम्हें बताया था.”

यूरा लड़की के बारे में और भविष्य के बारे में सोच रहा था, न कि पिता के और भूतकाल के बारे में. पहले तो वह समझ ही नहीं पाया, कि मीशा उससे क्या कह रहा है. बर्फबारी में बात करना मुश्किल था.

“क्या जम गए, सिम्योन?” अलेक्सान्द्र अलेक्सान्द्रविच ने पूछा. वे चल पडे.

 

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