अध्याय – 15
अंत
1
अब यूरी अन्द्रेयेविच की मृत्यु से पूर्व
के अंतिम आठ या नौ वर्षों की कहानी बताना बाकी है, जिस दौरान वह अधिकाधिक हताश होता गया और अपने कोश में समाता गया, डॉक्टरी
का ज्ञान और कुशलता खोता गया, लेखकीय प्रतिभा भी भूलता गया,
अल्प समय के लिये अवसाद और हताशा की स्थिति से बाहर आता, उत्साहित होकर अपने कार्यकलाप की ओर लौटता, और फ़िर,
थोड़ी देर के आवेग के बाद, फिर से ख़ुद के और
दुनिया की हर चीज़ के प्रति लम्बी उदासीनता में डूब जाता. इन सालों ने उसकी पुरानी
दिल की बीमारी ने काफ़ी ज़ोर पकड़ लिया, जिसका निदान उसने ख़ुद
ही काफ़ी पहले कर लिया था, मगर जिसकी गंभीरता की स्थिति के
बारे में उसे कोई अनुमान न था.
वह मॉस्को आया ‘नेप’
(न्यू एकोनॉमिक पॉलिसी) के आरंभ में, जो
सोवियत युग का सबसे अधिक संदिग्ध और भ्रामक कालखण्ड था. वह बेहद क्षीण हो गया था,
बाल भयानक रूप से बढ़ गये थे और उससे भी ज़्यादा जंगली नज़र आ रहा था,
जितना पार्टिज़ानों की कैद से युर्यातिन लौटते हुए लगता था. रास्ते
में वह अपने जिस्म से हर कीमती चीज़ हटाता जा रहा था और उसके बदले डबल रोटी और कुछ
फ़टे-पुराने कपड़े ख़रीद लेता, जिससे बिल्कुल निर्वस्त्र न रह
जाये. इस तरह से मार्ग में वह अपना दूसरा ओवर कोट और सूट खा गया और मॉस्को की
सड़कों पर भूरी टोपी और जर्जर फ़ौजी कोट में प्रकट हुआ. पैरों पर कपड़े लपेटे थे,
फ़ौजी कोट के, एक को छोड़कर, सारे बटन टूट गये थे, जिससे वह किसी कैदी के गाऊन
जैसा लग रहा था. इस वेशभूषा में वह उन रेड आर्मी के अनगिनत फ़ौजियों जैसा ही लग रहा
था जिनकी भीड़ चौराहों पर, रास्तों पर और राजधानी के रेल्वे
स्टेशनों पर उमड़ी पड़ रही थी.
मॉस्को वह अकेला
नहीं आया था. उसके पीछे-पीछे हर जगह एक ख़ूबसूरत किसान नौजवान चल रहा था, जो
उसी की तरह पूरी फ़ौजियों की वेशभूषा में था. ऐसे अवतार में वे मॉस्को के सही-सलामत
बचे ड्राईंग-रूम्स में प्रकट होते, जहाँ
यूरी अन्द्रेयेविच का बचपन बीता था, जहाँ लोग उसे याद करते
थे और उसके साथी सहित स्वागत करते, पहले ही सावधानीपूर्वक
पूछ लेते कि क्या यात्रा के पश्चात्त वे स्नानगृह गये थे, - टाइफ़स
अभी भी पूरे ज़ोर पर था, - और जहाँ यूरी अन्द्रेयेविच को
पहुँचने के आरंभिक दिनों में ही उसके घनिष्ठ व्यक्तियों के मॉस्को से विदेश
प्रस्थान की परिस्थितियों के बारे में बता दिया गया.
वे दोनों ही
लोगों से कतराते थे, मगर अत्यंत सकुचाहट के कारण किसी के घर अकेले
जाने से बचते थे, जब ख़ामोश रहना नामुमकिन हो और ख़ुद ही
संभाषण को आगे बढ़ाना ज़रूरी हो. जब परिचितों के यहाँ मेहमान इकट्ठे होते, तो वे अक्सर दो दुबली-पतली आकृतियों के रूप में प्रकट होते, कहीं किसी कोने में छुपे रहते, जिससे उन पर किसी की
नज़र न पड़े, और आम वार्तालाप में हिस्सा लिये बगैर ख़ामोशी से
शाम गुज़ारते.
अपने नौजवान
कॉम्रेड के साथ सादे कपड़ों में दुबला, लम्बा डॉक्टर आम जनता से आये किसी
सत्य-शोधक जैसा प्रतीत होता, और हमेशा साथ रहने वाला उसका
साथी किसी आज्ञाकारी, पूरी तरह से समर्पित शिष्य और अनुयायी
जैसा. ये नौजवाना साथी आख़िर कौन था?
2
यात्रा का अंतिम, मॉस्को
के निकट वाला भाग, यूरी अन्द्रेयेविच ने रेल से पूरा किया था,
और पहला वाला, काफ़ी बड़ा, उसने पैदल पार किया था.
गाँवों का नज़ारा, जिनसे होकर वह गुज़रता, उससे
बिल्कुल भी बेहतर नहीं था, जो उसने अपनी जंगल की कैद से पलायन
करते हुए साइबेरिया में और युराल में देखा था. सिर्फ उस समय वह इस प्रदेश से
सर्दियों में गुज़रा था, और अब गर्मियों के अंत में, गर्म, सूखे शिशिर में, जो काफ़ी
आसान था.
इनमें से आधे
गाँव तो ख़ाली थे,
जैसे दुश्मन के हमले के बाद होते हैं, खेत
खाली थे और फ़सल काटी नहीं गई थी, हाँ ये सचमुच ही युद्ध का
परिणाम था, गृह युद्ध का.
सितम्बर के अंत
के दो या तीन दिन उसका रास्ता नदी के खड़े, ऊँचे किनारे-किनारे होकर जा
रहा था. यूरी अन्द्रेयेविच से मिलने आ रही नदी उसके दाईं ओर से आ रही थी. बाईं ओर
विस्तार से, ठीक रास्ते से लेकर बादलों से ढँके क्षितिज तक
खेत फ़ैले थे जिनकी फ़सल नहीं कटी थी. उन्हें कभी-कभी पत्तों वाले जंगल छेद रहे थे,
जिनमें ज़्यादातर बलूत, पोप्लर और मैपल के
वृक्ष थे. जंगल घनी खाईयों से होते हुए नदी की ओर भाग रहे थे, और खड़ी चट्टनों और तेज़ ढलानों से रास्ते को काट रहे थे.
कटाई न किये गये
खेतों में रई (एक प्रकार का अनाज- अनु.) के बीज ज़्यादा पक चुकी बालियों में
मुश्किल से समा रहे थे और उनसे बहकर बिखर रहे थे. यूरी अन्द्रेयेविच मुट्ठियाँ
भर-भरके अनाज को मुँह में भर लेता, मुश्किल से उसे दाँतों से चबाता और
उन ख़ास कठिन परिस्थितियों में, जब दानों को उबालकर दलिया
बनाना संभव न होता, उन्हीं से पेट भर लेता. पेट कच्चे,
मुश्किल से चबाये गए अन्न को मुश्किल से पचा पाता.
यूरी
अन्द्रेयेविच ने ज़िंदगी में रई को इतने मनहूस भूरे, पुराने, काले पड़ गये रंग में नहीं देखा था, आम तौर से जब उसे
समय पर निकाल लिया जाता है तो उसका रंग काफ़ी हल्का होता है.
लपटों जैसे रंग
के, बिना आग के जल रहे, मदद के लिये मूक रुदन से
पुकारते इन खेतों को शांत ठण्डेपन से, विशाल, सर्दियों की ओर मुड़ गये आकाश ने किनारे से घेरा था, जिस
पर लम्बे, कई सतहों वाले, बीच में काले
और किनारों पर सफ़ेद बर्फीले बादल चेहरे पर परछाईं की तरह निरंतर तैर रहे थे.
और हर चीज़ गतिमान
थी,
धीमी, संतुलित गति से चल रही थी. नदी बह रही
थी. उससे मिलने के लिये रास्ता चल रहा था. उस पर डॉक्टर चल रहा था. उसके साथ एक ही
दिशा में बादल खिंचे आ रहे थे. बल्कि खेत भी गतिहीन अवस्था में नहीं थे. उनके ऊपर
भी कुछ चल रहा था, वे एक सूक्ष्म, बदहवास
उछलकूद की गिरफ़्त में थे, जो घृणा उत्पन्न कर रही थी.
खेतों में अब तक
अनदेखी,
ऐसी अभूतपूर्व संख्या में चूहे हो गये थे. अगर रास्ते में रात हो
जाती और उसे बागड के पास कहीं लेटना पड़ता, तो वे डॉक्टर के
चेहरे और हाथों पर भाग-दौड़ करते और उसकी पतलून और आस्तीनों से होकर भागते.
मोटे-ताज़े चूहों के अनगिनत झुण्ड दिन में रास्ते पर पैरों के नीचे कड़मड़ाते और जब
उन्हें पैरों से दबाया जाता तो वे फ़िसलनभरी, चीं-चीं करती
चिपचिपाहट में बदल जाते.
गाँवों के डरावने, झबरे,
पगला गये, दोगले कुत्ते, जो इस तरह से एक दूसरे की ओर देखते, मानो सभा में
कोई फ़ैसला कर रहे हों कि कब उन्हें डॉक्टर पर टूट पड़ना है और उसके टुकड़े-टुकड़े
करना है, डॉक्टर के पीछे-पीछे शराफ़तभरी दूरी पर झुण्ड बनाये
चल रहे थे. वे मरे हुए जानवरों पर ही गुज़ारा करते थे, मगर
चूहों से भी नफ़रत नहीं करते थे, जिनसे खेत उबल रहे थे,
और दूर से डॉक्टर की ओर देखते, पूरे समय किसी
बात की उम्मीद लगाये आत्मविश्वास से उसके पीछे-पीछे चलते. अचरज की बात यह थी कि
जंगल में नहीं घुसते और जैसे ही जंगल समीप आता, थोड़ा-थोड़ा
करके पीछे रह जाते, वापस मुड़ जाते और ग़ायब हो जाते.
उस समय जंगल और
खेत विरोधाभासी चित्र प्रस्तुत कर रहे थे. खेत इन्सान के बिना अनाथ हो रहे थे, जैसे
उसकी अनुपस्थिति में उन्हें किसी ने बद्दुआ दी हो. इन्सान से मुक्ति पाकर जंगल
आज़ाद किये गए कैदी की तरह ख़ूबसूरत हो रहे थे.
आम तौर से लोग, ख़ास
तौर से गाँव के छोकरे, अखरोटों को पकने नहीं देते और उन्हें
कच्चा ही तोड़ लेते हैं. अब जंगल में टीले और खाईयाँ अनछुई, खुरदुरी
सुनहरी पत्तियों से ढंकी हुई थीं, मानो शरद की गर्मी और धूल
खाकर खुरदुरी हो गई हों. उनसे ख़ूबसूरती से, जैसे दो और चार
के गुच्छों में जुड़े, पके हुए, अपने
छिलके से फ़ट पड़ने को तैयार, मगर अभी उसीसे हिलगे हुए अखरोट
झाँक रहे थे. यूरी अन्द्रेयेविच रास्ते में उन्हें तोड़ता और
चबाता जा रहा था. उसकी जेबें उनसे ठसाठस भरी थीं, थैला भी
उनसे भरा हुआ था. सप्ताह भर अखरोट ही उसकी प्रमुख ख़ुराक थे.
डॉक्टर को ऐसा
लगा कि वह जंगलों को गंभीर रूप से बीमार, बुखार में प्रलाप करते देख
रहा है, और जंगल – तन्दुरुस्त होते जाने की प्रक्रिया में
हैं, कि जंगल में ईश्वर का वास है, और
खेत पर शैतान की उपहासपूर्ण हँसी रेंग रही है.
3
इन दिनों, अपनी यात्रा के इस भाग में डॉक्टर पूरी तरह राख हो
चुके गाँव में पहुँचा, जिसे वहाँ रहने वाले छोड़कर भाग गये थे. उसमें
अग्निकाण्ड से पूर्व सिर्फ एक ही कतार में, नदी से होकर जाने वाले रास्ते पर घर बने थे. नदी की
तरफ़ वाला भाग अनिर्मित ही रहा.
गाँव में कुछ गिनेचुने, काले पड़ गये और बाहर से झुलसे हुए घर ही बचे थे. मगर
वे भी खाली थे, उनमें कोई नहीं था. अन्य कॉटेजेस कोयलों का ढेर बन
चुकी थीं, जिनसे भट्टियों के काले, धुँए से ढँके पाईप ऊपर की ओर झाँक रहे थे.
नदी की तरफ़ वाली चट्टानों में गड्ढे खुदे हुए थे, जिनमें से गाँव के निवासी चक्कियों के पत्थर निकालकर
ले जाते, जो पूर्व समय में उनकी जीविका का साधन थे. ऐसे तीन चक्कियों के पत्थर वाले
अधूरे गढ़े कतार की अंतिम कॉटेज के सामने थे, जो साबुत कॉटेजेस में से एक थी. अन्य कॉटेजेस की तरह
वह भी ख़ाली थी.
यूरी अन्द्रेयेविच उसके भीतर गया. शाम ख़ामोश थी, मगर जैसे ही डॉक्टर कॉटेज में घुसा, हवा कॉटेज के भीतर
घुस आई. फ़र्श पर चारों तरफ़ घास और रस्सियों के टुकड़े बिखरे थे, दीवारों पर बचे
हुए वॉल-पेपर के टुकड़े फ़ड़फ़ड़ा रहे थे. कॉटेज के भीतर हर चीज़ गतिमान हो गई, सरसराने लगी.
चीं-चीं करते हुए चूहे भागने लगे, जिनके झुण्ड के झुण्ड आसपास की हर जगह की तरह उछल कूद
मचा रहे थे.
डॉक्टर कॉटेज से बाहर निकला. पीछे, खेतों के उस पार सूरज डूब रहा था. अस्त होते सूरज की
सुनहरी किरणों ने सामने वाले किनारे को गर्माहट से सराबोर कर दिया, जिसकी अलग अलग
झाड़ियाँ और पोखर अपने धुँधली होते प्रतिबिम्बों की चमक से नदी के मध्य तक पहुँच
रहे थे. यूरी अन्द्रेयेविच ने रास्ता पार किया और घास में पड़े एक चक्की के पत्थर
पर सुस्ताने के लिये बैठ गया.
नीचे से, चट्टान के पीछे से एक हल्के भूरे बालों वाला, झबरा सिर बाहर की
ओर निकला, फिर कंधे, फिर हाथ. नदी से चढ़कर, पानी से भरी बाल्टी लिये कोई पगडंडी पर आ रहा था. उस
आदमी ने डॉक्टर को देखा और वह रुक गया, चट्टान की कगार पर वह कमर तक दिखाई दे रहा था.
“पानी पियोगे, भले आदमी? तुम मुझे नुक्सान न पहुँचाना और मैं भी तुम्हें छुऊँगा
नहीं.”
“शुक्रिया. चल, पी लूँगा. बाहर आ जा, डरने की ज़रूरत नहीं है. मैं तुझे क्यों छूने लगा?”
पानी ले जाने वाला चट्टान के पीछे से बाहर आया जो एक नौजवान छोकरा था. वह
नंगे पाँव था, फ़टेहाल, चीथड़ों में था.
मैत्रीपूर्ण शब्दों के बावजूद वह डॉक्टर को परेशान, चुभती हुई नज़र से
देख रहा था. किसी अनजान कारण से लड़का अजीब तरह से परेशान हो रहा था. उसने घबराहट
में बाल्टी ज़मीन पर रख दी, और अचानक, डॉक्टर की ओर लपक कर, आधे रास्ते में रूक गया और बड़बड़ाने लगा:
“नहीं...किसी हालत में नहीं...नहीं, ऐसा हो ही नहीं सकता, सपना आया था. माफ़ी चाहता हूँ, मगर, कॉम्रेड, मुझे पूछने की
इजाज़त दीजिये. मुझे ऐसा लगा कि आप जान-पहचान के आदमी हैं. अरे हाँ! अरे हाँ!
डॉक्टर चचा?!”
“मगर तू ख़ुद कौन है?”
“नहीं पहचाना?”
“नहीं.”
“मॉस्को से एक ही ट्रेन में आपके साथ जा रहे थे, एक ही कम्पार्टमेन्ट में. लेबर कैम्प में हाँक रहे थे.
पहरे में.”
ये था वास्या बिर्कीन. वह डॉक्टर के सामने लोट गया, उसके हाथ चूमने
लगा और रो पड़ा.
जला हुआ गाँव वास्या का अपना गाँव वेरेतेन्निकी था. उसकी माँ जीवित नहीं थी.
गाँव में हो रहे हत्याकांड और आगज़नी में, जब वास्या भूमिगत गुफ़ा में जो ज़मीन से निकाले गये
पत्थर के नीचे थी, और माँ ने समझ लिया कि वास्या को शहर ले जाया गया है, वह दुख़ से पागल
हो गई और इसी नदी, पेल्गा में डूब गई, जिसके किनारे पर अभी डॉक्टर और वास्या बातें करते हुए
बैठे थे. वास्या की बहनें अल्योन्का और अरीश्का अस्पष्ट जानकारी के अनुसार किसी
अन्य प्रदेश में चिल्ड्रेन्स-होम में थीं. डॉक्टर वास्या को अपने साथ मॉस्को ले
गया. रास्ते में वह यूरी अन्द्रेयेविच को कई भयानक बातें बताता रहा.
4
“ये पिछले साल की
फ़सल है जो खूब पक कर बिखर रही है. जैसे ही उन्हें बोया, और
बस, मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा. जब पोल्या चाची चली गई,
पोल्या चाची याद है?”
“नहीं. और मैं
उसे कभी जानता भी नहीं था. कौन है वो?”
“ऐसे कैसे नहीं
जानते?
पिलागेया निलोव्ना को! हमारे साथ ही तो जा रही थी. तिगूनवा. चौड़ा
चेहरा, पूरी सफ़ेद झक्.”
“ये, वो
वाली, जो चोटियाँ बनाती और खोलती रहती थी?”
“चोटियाँ, चोटियाँ!
हाँ, हाँ! बिल्कुल ठीक. चोटियाँ!”
“आह, याद
आया. रुक. अरे हाँ, मैं बाद में साइबेरिया में उससे मिला था,
किसी शहर में, रास्ते पर.”
“क्या बात है!
चाची पलाशा से?”
“हाँ, तुझे
क्या हो रहा है, वास्या? तू मेरे हाथ
क्यों खींच रहा है, पागल की तरह. देख उखाड़ न देना. और ऐसे
शरमा रहा है, जैसे लड़की हो.”
“वो कैसी है? जल्दी
बताइये, जल्दी.”
“हाँ, जब
मैंने उसे देखा तो अच्छी थी, ज़िंदा थी, तंदुरुस्त थी. आपके बारे में बता रही थी. जैसे वह आपके घर में रहती थी,
या कुछ समय के लिये थी, जहाँ तक मुझे याद है.
हो सकता है, भूल गया, गड़मड़ कर रहा
हूँ.”
“बिल्कुल ठीक, बिल्कुल
ठीक! हमारे यहाँ, हमारे ही यहाँ! माँ उससे अपनी बहिन की तरह
प्यार करती थी. ख़ामोश तबियत. अच्छी मेहनतकश. कढ़ाई बढ़िया करती थी. जब तक वह हमारे
यहाँ थी, घर खूब ख़ुशहाल था. विरेतेन्निकी में उसका जीना दूभर
कर दिया, गन्दे इल्ज़ामों से चैन नहीं लेने दिया.
“सड़ियल खर्लाम
नाम का एक मर्दुआ था गाँव में. पोल्या के पीछे पड़ गया. बिना नाक
का, कीचड़ उछालने वाला. मगर वो उसकी तरफ़ देखती भी नहीं थी. इस
वजह से वह मुझ पर दाँत गड़ाये बैठा था. हमारे बारे में, मेरे
और पोल्या के बारे में बुरी बातें कहता था. तो, वह चली गई.
बर्दाश्त नहीं कर पाई. तभी से सब शुरू हो गया.
“यहाँ से थोड़ी ही
दूर एक खून हो गया. भयानक हादसा. बुयस्कोये के पास जंगल में अपने खेत पर झोंपड़ी
में अकेली बेवा को मार डाला. अकेली जंगल के पास रहती थी. मर्दों के जूते पहनती, पट्टी
वाले, इलास्टिक के स्ट्रैप वाले. एक खूँखार कुत्ता, ज़ंजीर से बंधा हुआ, झोंपड़ी के चारों ओर घूमता रहता.
उसका नाम था गर्लान. ख़ुद ही घर का पूरा काम, ज़मीन का काम कर
लेती थी, बिना किसी की मदद के. तो, हुआ
ये, कि अचानक सर्दियाँ आ टपकीं, जब
किसी को उम्मीद नहीं थी. बर्फ जल्दी पड़ने लगी. बेवा आलुओं को खोद नहीं पाई थी. वह विरेतेन्निकी
में आई – बोली, मदद करो, आलुओं का कुछ
हिस्सा दूँगी, या पैसे दूँगी.
“मैं उसके आलू
खोदने को तैयार हो गया. उसके खेत में आया, मगर उसके पास पहले ही
खर्लाम मौजूद था. उसने मुझसे पहले ही बात कर ली थी. उसने मुझे बताया नहीं. मगर,
ख़ैर, इस बात से कोई मार- पीट थोड़े ही करता है.
मिलकर काम करने लगे. बेहद बुरे मौसम में आलू खोदकर निकालते रहे. बारिश और बर्फबारी,
कीचड़, गंदगी. खोदते रहे, खोदते रहे, आलुओं की जड़ों को जलाते रहे, गर्म धुँए से आलू सुखाते रहे. तो. पूरे आलू खोद लिये, उसने ईमानदारी से हमारा हिसाब कर दिया. खर्लाम को जाने दिया और मुझसे
इशारे से कहा, कि अभी तुझसे और काम है, बाद में आ जा, या रुक जा.
“दुबारा उसके पास
आया. बोली,
ज़्यादा वाला आलू सरकार को नहीं देना चाहती. तू, बोली, अच्छा लड़का है, मुझे पता
है, चुगली नहीं करेगा. देख, तुझसे नहीं
छुपाऊँगी. मैं ख़ुद ही गड्ढा खोद लेती, हिफ़ाज़त से रख देती,
मगर देख तो रहा है, कि बाहर क्या हो रहा है.
मैंने देर ही कर दी, - सर्दियाँ. अकेली नहीं कर पाऊँगी. मेरे
लिये गड्ढा खोद दे, अच्छा ख़ासा इनाम दूँगी. सुखायेंगे,
भर देंगे.
“मैंने उसे गड्ढा
खोदकर दिया,
जैसे ज़मीन के भीतर तहख़ाना होता है, नीचे की
तरफ़ चौड़ा, सुराही की तरह, ऊपर का गला
तंग. गड्ढे को भी धुँए से सुखाया, अच्छी तरह गर्म किया. ठीक
भयानक बर्फीले तूफ़ान में. आलुओं को ईमानदारी से छुपाया, ऊपर
से मिट्टी डाल दी. बढ़िया हो गया काम. मैं, ज़ाहिर है, गड्ढे के बारे में ख़ामोश रहा. किसी भी ज़िंदा रूह को नहीं बताया, माँ को भी नहीं, और बहनों को भी नहीं. ख़ुदा बचाए!
“ख़ैर. सिर्फ एक
ही महीना बीता,
- उसकी झोंपड़ी में डाका पड़ा. जो बुयस्कोए के पास से गुज़र रहे थे,
उन्होंने बताया, घर पूरा खुला हुआ था, पूरी तरह साफ़ था, बेवा का नामोनिशान नहीं था,
कुत्ते गर्लान ने ज़ंजीर तोड़ दी, भाग गया.
“कुछ समय और
बीता. सर्दियों की पहली पिघलन में, नये साल के करीब, संत वसिल्येव त्यौहार के मौके पर बारिश होने लगी, टीलों
से बर्फ बहाकर ले गई, ज़मीन तक बर्फ पिघल गई. गर्लान भागता
हुआ आया और अपने पंजों से उस जगह ज़मीन खोदने लगा जहाँ गड्ढे में आलू था. खोदता रहा,
मिट्टी ऊपर को उछालता रहा, और गड्ढे से मालकिन
के जूते पहने पैर, फ़ीतों समेत. देख रहे हो, कैसी ख़ौफ़नाक बातें!
“विरेतेन्निकी
में सब बेवा के बारे में अफ़सोस करते, उसके लिये प्रार्थना करते. किसी को
भी खर्लाम पर शक नहीं हुआ. करते भी कैसे? क्या यह सोचा-समझा
काम था? अगर ये वह होता, तो उसकी
विरेतेन्निकी में रुकने की, गाँव में शान से घूमने हिम्मत
कैसे होती? उसे तो हमसे दूर भाग जाना चाहिये था, जितना दूर हो सके.
“उसकी झोंपड़ी में
हुए इस ख़ौफ़नाक काम से गाँव के कुलाक-लीडर बेहद ख़ुश हुए. चलो, गाँव
में गड़बड़ी फ़ैलाते हैं. देखो, बोले, क्या
करते हैं शहर वाले. ये तुम्हारे लिये सबक है, चेतावनी है. अनाज
को छुपा कर मत रखो, आलू मत छुपाओ. और ये, बेवकूफ़, अपनी ही हाँके जा रहे हैं, - जंगली डाकू, उन्हें खेत में डाकू दिखाई दिये. कितने
भोले हैं लोग! आप उन्हींकी, शहर वालों की ही ज़्यादा-ज़्यादा
सुनो. वो तुम्हें ऐसा दिखायेंगे, भूख से मार डालेंगे. अगर
चाहते हो, गाँव वालों, अपनी भलाई, तो हमारे पीछे आओ. हम तुम्हें अच्छा-बुरा सिखायेंगे. तुम्हारी खून-पसीने
की मेहनत, बाद में जमा की हुई फ़सल को लेने आते हैं, और आप, कहाँ, ज़्यादा का अनाज
कहाँ है, अपनी ही रई का दाना तक नहीं बचा. और अगर कोई गड़बड़
हो तो, अपने काँटेदार पंजे इस्तेमाल करो. और जो लोगों के
ख़िलाफ़ है, देखना, संभल जाना. बूड्ढे
भुनभुनाने लगे, शेख़ियाँ बघारने लगे, मीटिंगे
करने लगे. और उस ख़तरनाक खर्लाम को बस यही चाहिये था. उसने अपनी हैट खींची और फ़टाक्
से शहर पहुँचा. और वहाँ शू-शू-शू. गाँव में ऐसा-ऐसा हो रहा है, और आप लोग क्या बैठे-बैठे देख रहे हैं? वहाँ गरीबों
की कमिटी बनाना चाहिये. हुक्म करो, मैं देखते-देखते भाई को भाई
से भिड़ा दूँ. और फिर वह हमारे यहाँ से रफ़ू-चक्कर हो गया और फ़िर कभी दिखाई नहीं
दिया.
“और फिर आगे जो
हुआ,
वो अपने आप ही हो गया. किसी ने कोशिश नहीं की, किसी का भी कुसूर नहीं है. शहर से रेड आर्मी के फ़ौजियों को भेजा गया. और
बस्ती की अदालत बैठी. और अचानक मुझ पर लपक पड़े. खर्लाम ने शिकायत की थी. भागने के
लिये, श्रम-सेवा से बचने के लिये, और
ये मैं गाँव को विद्रोह के लिये भड़का रहा था, और मैंने ही
बेवा को मार डाला. और मुझे ताले में बंद कर दिया. ख़ुशकिस्मती से मैंने फ़र्श का
बोर्ड हटाया, भाग निकला. ज़मीन के नीचे गुफ़ा में छुप गया.
मेरे सिर के ऊपर गाँव जल रहा था, - देखा नहीं, मेरे ऊपर मेरी माँ बर्फ के गढे में कूदकर मर गई – मुझे पता नहीं चला. सब
कुछ ख़ुद-ब-ख़ुद हो गया. रेड आर्मी वालों को एक अलग झोंपड़ी दी गई, उन्हें शराब पिलाई गई, धुत् होने तक पीते रहे. रात
में आग की तरफ़ बेध्यानी से घर जलने लगा, उससे – अड़ोस-पड़ोस
के. अपने लोग, जहाँ रास्ता मिले, वहीं
कूद गये, और बाहर से आये हुए, किसी ने
उन्हें नहीं जलाया, वे, ज़ाहिर है,
सब के सब ज़िंदा जल गये. हमारे जले हुए लोगों को किसी ने भी राख हो
चुके घरों से नहीं भगाया. ख़ुद ही डर के मारे भाग गये, कि फ़िर
से कुछ और न हो जाये. फ़िर से कुलाकों ने अफ़वाह फ़ैलाई, - हर
दसवें आदमी को गोली से उड़ा देंगे. मैंने किसी को नहीं पाया, सब
दुनिया भर में भाग गये, कहीं भटक रहे होंगे”.
5.
वास्या और डॉक्टर
सन् बाईस के बसंत में, ‘नेप’ (न्यू एकोनॉमिक
पॉलिसी) के आरंभ में आये. दिन गर्म और साफ़ थे. ‘चर्च ऑफ़ द
सेवायर’ के सुनहरे गुम्बदों से परावर्तित सूरज की रोशनी के
धब्बे पक्के, पत्थर जड़े चौक पर पड़ रहे थे, जिनकी दरारों के बीच घास उग रही थी.
प्राइवेट
व्यापारिक उपक्रमों से प्रतिबंध हटा लिये गये थे, कड़ी सीमाओं के भीतर मुक्त
व्यापार को इजाज़त दी गई थी. कबाड़ी-मार्केट में किसी सीमा के भीतर कबाड़ियों द्वारा
लेन-देन किया जाने लगा. जिस बौने स्तर पर ये हो रहा था, उससे
अटकलबाज़ी को प्रोत्साहन मिला और उसका दुरुपयोग होने लगा. कारोबारियों की थोड़ी सी
उठापटक से कोई नई चीज़ नहीं प्राप्त हुई, शहर के उजड़ेपन में
कोई ठोस सामग्री नहीं आई. दस बार बिक चुकी चीज़ों के लक्ष्यहीन पुनर्विक्रय पर
किस्मत बनाई जा रही थी.
कुछ छोटे-मोटे
घरेलू वाचनालयों के मालिक अपनी अलमारियों से किताबें निकाल कर खींचते हुए किसी एक स्थान
पर ले गये. उन्होंने सिटी-कौन्सिल में सहकारी पुस्तक व्यापार शुरू करने के बारे
में अर्ज़ी दी. इसके लिये जगह देने की प्रार्थना की. उन्हें क्रांति के आरंभ से ही
खाली पड़े जूतों के गोदाम या लगभग उसी समय बंद हुए फूलों की कृषि वाले ग्रीनहाऊस दे
दिये जाते और उनकी विशाल मेहराबों के नीचे वे अपने छोटे-छोटे और बेतरतीब
पुस्तक-संग्रह बेचते.
महिलाएँ, प्रोफेसरों
की पत्नियाँ, जो पहले भी कठिन समय में, प्रतिबंध के बावजूद चुपचाप सफ़ेद पाव- रोटी बनाकर बेचती थीं, अब किसी साइकल-कारखाने के नाम से प्रसिद्ध जगह से खुल्लमखुल्ला उनका
व्यापार करतीं. उन्होंने अपनी भाषा बदल दी, क्रांति को
स्वीकार कर लिया और “हाँ”, या “अच्छा” के स्थान पर “ये बात
है” कहने लगीं.
मॉस्को में यूरी
अन्द्रेयेविच ने कहा:
“वास्या, कुछ
करना पड़ेगा.”
“मेरा ख़याल है, कि
मैं पढूँगा.”
“ज़ाहिर है.”
“और एक ख़्वाब है.
अपनी याददाश्त से माँ की तस्वीर बनाना चाहता हूँ”.
“बहुत अच्छा ख़याल
है. मगर इसके लिये ड्राईंग आनी चाहिये. क्या तुमने पहले कभी कोशिश की थी?”
“अप्राक्सिन में, जब
चचा का ध्यान नहीं होता था, तो कोयले से लकीरें खींचा
करता.”
“तो फ़िर क्या बात
है. कामयाबी मिलेगी. कोशिश करेंगे.”
ड्राईंग के प्रति
बड़ी संभावनाएँ तो वास्या में नज़र नहीं आईं, मगर औसत दर्जे की काफ़ी थीं,
जिनसे उसे व्यावसायिक कला सीखने के लिये भेजा जा सकता था. अपनी
पहचान से यूरी अन्द्रेयेविच ने उसे भूतपूर्व स्त्रोगानव्स्की स्कूल के सामान्य
शिक्षा विभाग में प्रवेश दिलवा दिया, जहाँ से उसे पॉलिग्राफ़ी
संकाय में भेजा गया. यहाँ उसने लिथोग्राफी की तकनीक सीखी, प्रिंटिंग
और बुक-बाइंडिंग भी सीखी, और ग्राफ़िक आर्ट से भी अवगत हो
गया.
डॉक्टर और वास्या
मिलकर अपने प्रयत्नों को मूर्त रूप देने लगे. डॉक्टर विभिन्न समस्याओं पर
छोटी-छोटी पुस्तिकाएँ लिखता, और वास्या उन्हें अपने स्कूल में
परीक्षा सामग्री के रूप में छापता. ये पुस्तिकाएँ, जिनकी कुछ
ही प्रतियाँ छपतीं, उनके आम परिचितों द्वारा नई खोली गईं
सेकन्ड-हैण्ड किताबों की दुकानों में वितरित की जातीं.
इन पुस्तिकाओं
में यूरी अन्द्रेयेविच का तत्वज्ञान होता, चिकित्सा शास्त्र पर उसके
विचारों के बारे में निबंध होते, स्वास्थ्य और बीमारी के
बारे में उसकी परिभाषाएँ, परिवर्तनवाद और विकास के बारे में
विचार, शारीरिक संरचना के जैविक आधार के रूप में व्यक्तित्व
के बारे में, इतिहास और धर्म के बारे में यूरी अन्द्रेयेविच
के विचार, जो उसके मामा और सीमुश्का के विचारों के निकट थे,
पुगाचोव के उन स्थानों के बारे में लेख जहाँ डॉक्टर गया था, यूरी अन्द्रेयेविच की कविताएँ और कहानियाँ.
रचनाएँ सबको
आसानी से उपलब्ध थीं, आसान भाषा में थीं, हाँलाकि
अपने उद्देश्य से काफ़ी दूर थीं, जो लोकप्रिय साहित्यकार अपने
सामने रखते हैं, क्योंकि उनमें विवादास्पद, मनमाने, अपर्याप्त रूप से सत्यापित विचार थे,
मगर बेहद रोचक और मौलिक थे, किताबें हाथोंहाथ
बिक गईं. प्रशंसक उनकी सराहना करते थे.
उस समय जब सब कुछ
विशेषज्ञता बन गया था, काव्य रचना, साहित्यिक
अनुवाद की कला, जब हर चीज़ के बारे में सैद्धांतिक शोधकार्य
लिखे जा रहे थे, हर चीज़ के लिये संस्थाओं का निर्माण हो रहा
था. हर तरह के ‘वैचारिक-महल’ प्रकट हो
रहे थे, कलात्मक विचारों की अकादमियाँ फल-फूल रही थीं. इनमें
से आधी से ज़्यादा ‘जाली’ संस्थानों में
यूरी अन्द्रेयेविच स्टाफ़ डॉक्टर था.
डॉक्टर और वास्या
के बीच लम्बे समय तक दोस्ती रही और वे एक साथ रहते थे. इस दौरान उन्होंने एक के
बाद एक कई कमरे और आधे-टूटे फूटे ठिकाने बदले, जो रहने के लायक नहीं थे और
असुविधाजनक थे.
मॉस्को पहुँचते
ही यूरी अन्द्रेयेविच सीव्त्सेव के अपने पुराने घर गया, जहाँ,
जैसा कि उसे पता चला, उसके निकटम लोग मॉस्को
से होकर जाते हुए नहीं गये थे. उनके निर्वासन ने सब कुछ बदल दिया. डॉक्टर और उसके
घर के लोगों के लिये सुनिश्चित कमरों में लोग रहने लगे थे, उसके
अपने और परिवार के सामान में से कुछ भी नहीं बचा था. यूरी अन्द्रेयेविच को देखते
ही लोग एक किनारे हो जाते थे, जैसे किसी ख़तरनाक परिचित से बच
रहे हों.
मार्केल तो जैसे
आकाश पर चढ़ गया था और वह कभी भी सीव्त्सेव में वक्त नहीं गुज़ारता था. उसे मुच्नोय
शहर में कमांडेंट बनाकर भेजा गया था, जहाँ सेवा-शर्तों के अनुसार उसे
मैनेजर का फ्लैट दिया गया था. मगर उसने मिट्टी के फ़र्श वाले चौकीदार के पुराने
कमरे में रहना पसंद किया, जहाँ पानी आता था और पूरे कमरे को
घेरती हुई बड़ी भारी रूसी भट्टी थी. सर्दियों में शहर की सभी बिल्डिंग्स में नलों
के और घरों को गर्म करने वाले पाईप टूट जाते, और सिर्फ
चौकीदार के कमरे में गर्माहट होती, और पानी भी नहीं जमता
था.
इन दिनों डॉक्टर
और वास्या के संबंधों में कुछ खटास आ गई. वास्या ने असाधारण रूप से तरक्की कर ली.
वह अब उस तरह से नहीं सोचता और बोलता था, जैसा विरेतीन्निकी में
पेल्गा नदी के किनारे वाला नंग़े पैर और झबरे बालों वाला लड़का बोलता और सोचता था. क्रांति
द्वारा घोषित सत्य की स्पष्टता, स्वतःप्रमाण उसे अधिकाधिक
आकर्षित कर रहे थे. पूरी तरह समझ में न आने वाली, अलंकारिक,
भाषा उसे असत्य की आवाज़, निंदनीय, अपनी कमज़ोरी को मान्य करती हुई और इसलिये कपटपूर्ण प्रतीत होती.
डॉक्टर कई तरह के
कामों में व्यस्त था. वह दो उद्देश्यों के लिये प्रयास कर रहा था. अपने परिवार के
राजनीतिक पुनर्वसन तथा उनके स्वदेश-आगमन को कानूनी वैधता प्रदान करने, और
अपने लिये विदेशी पासपोर्ट और पत्नी तथा बच्चों को लाने के लिये पैरिस जाने की
अनुमति प्राप्त करने के लिये.
वास्या को इस बात
पर अचरज होता,
कि ये प्रयास कितने निरुत्साही और सुस्त हैं. यूरी अन्द्रेयेविच
काफ़ी जल्दबाज़ी से और बहुत जल्दी अपनी कोशिशों से हार मान लेता था, काफ़ी विश्वास से और लगभग संतोष से आगामी कोशिशों की व्यर्थता की घोषणा कर
देता.
वास्या अक्सर
डॉक्टर की निंदा करता, वह उसकी वाजिब टिप्पणियों का बुरा न मानता. मगर
वास्या के साथ उसके संबंध बिगड़ने लगे. आख़िर में उनकी दोस्ती ख़त्म हो गई और वे अलग
हो गये. डॉक्टर ने वास्या के लिये वह कमरा छोड़ दिया जिसमें वह उसके साथ रहता था और
ख़ुद मुच्नोय इलाके में रहने चला गया जहाँ अत्यंत शक्तिशाली मार्केल ने उसे
स्विन्तीत्स्की के भूतपूर्व घर का आख़िरी हिस्सा दिलवा दिया. इस घर के आख़िरी हिस्से
में था : स्विन्तीत्स्की का बाथरूम जिसका इस्तेमाल नहीं होता था, उसकी बगल में एक खिड़की वाला कमरा और ख़स्ताहाल किचन जिसमें टूटा-फूटा,
धंसा हुआ पिछला दरवाज़ा खुलता था. यूरी अन्द्रेयेविच यहाँ आ गया और
यहाँ आने के बाद उसने डाक्टरी छोड़ दी, मैला कुचैला रहने लगा,
उसने परिचितों से मिलना-जुलना छोड़ दिया और गरीब होने लगा.
6
सर्दियों का धुँधला इतवार था. भट्टियों का धुआँ छतों के ऊपर बादलों की तरह
नहीं उठ रहा था, बल्कि खिड़कियों के वातायनों से काली लकीरें बनाते हुए
निकल रहा था, जहाँ से, प्रतिबंध के बावजूद, अस्थाई घरों के लोहे के पाईप निकल रहे थे. शहर की
ज़िंदगी अभी पटरी पर नहीं आ रही थी. मुच्नोय इलाके के निवासी बिना नहाये, गंदे घूमा करते, फ़ोड़े-फ़ुन्सियों
से परेशान रहते, ठिठुरते रहते, सर्दी-ज़ुकाम से बेज़ार हो जाते.
इतवार होने के कारण मार्केल शापव का पूरा परिवार एकत्रित हुआ था.
शापव परिवार उसी मेज़ पर बैठकर खाना खा रहा था, जिस पर कभी, कार्ड पर ब्रेड का वितरण करते हुए, सुबह दिन निकलते
ही, पूरी बिल्डिंग के रहने वालों के ब्रेड के कूपन्स को कैंचियों से काट-काट कर
उन्हें छाँटते, गिनते, कागज़ों या थैलियों में श्रेणियों के अनुसार रखते और
बेकरी में ले जाते, और बाद में वापस लौट कर उसमें से हिस्से काट-काट कर और
तौलकर इलाके के निवासियों को देते. अब ये सब विगत की बात हो गई है. सामान की
राशनिंग के अन्य तरीके अपनाए गये हैं. लम्बी मेज़ पर मज़े लेते हुए खा रहे थे, जिससे कानों के
पीछे कटकटाहट होती, चबाते और सुड़कते.
चौकीदार के कमरे
का आधा हिस्सा बीच में खड़ी भट्टी ने घेर रखा था, जिसके ऊपर लगे बिस्तर से
रज़ाई का कोना लटक रहा था.
प्रवेश द्वार के
पास सामने वाली दीवार पर वाश बेसिन के ऊपर नल का सिरा झाँक रहा था. कमरे में दोनों
तरफ़ बेंचें रखी थीं, जिनके नीचे सामान से भरी हुई बोरियाँ और
संदूकें ठूँसी हुई थीं. बाईं तरफ़ रसोई की मेज़ थी. मेज़ के ऊपर दीवार में बर्तनों की
शेल्फ टंगी हुई थी.
भट्टी गरम हो रही
थी. कमरे में गर्मी थी. भट्टी के सामने, आस्तीनों को कुहनियों तक
ऊपर किये, मार्केल की बीबी अगाफ़्या तीखनव्ना काफ़ी भीतर तक
घुसते हुए चिमटे से भट्टी के भीतर रखे बर्तनों को ज़रूरत के मुताबिक पास-पास या दूर
सरकाते हुए खड़ी थी. उसका पसीने से लथपथ चेहरा कभी साँस छोड़ती
भट्टी के प्रकाश से तमतमा रहा था और कभी उसमें तैयार हो रहे खाने की भाप से धुँधला
रहा था. बर्तनों को एक ओर सरकाने के बाद उसने गहराई से लोहे की चादर पर रखी पाई
(भरवां कचौड़ी जैसा पदार्थ – अनु.) केक बाहर निकाली, एक झटके
से उसका ऊपर वाला हिस्सा नीचे पलट दिया और उसे लाल होने के लिये एक मिनट के लिये
भीतर धकेल दिया. हाथों में दो बाल्टियाँ लेकर यूरी अन्द्रेयेविच कमरे में आया.
“ प्रेम से
खाईये.”
“आइये, आइये.
मेहेरबानी से हमारे साथ बैठिये. मेहमाननवाज़ी कुबूल करें.”
“शुक्रिया, - मैं खा चुका हूँ.”
“पता है हमें
तुम्हारा खाना. बैठ जाते, गरम-गरम खा लेते. नख़रे क्यों दिखा
रहे हो. आलू है मिट्टी के बर्तन में पका हुआ. पाई है, पॉरिज
के साथ. लजीज़ है.”
“नहीं, सही
में, शुक्रिया. माफ़ करना, मार्केल,
कि मैं अक्सर आ जाता हूँ, तुम्हारे घर में
ठण्ड ले आता हूँ. एक ही बार में काफ़ी पानी
भर लेना चाहता हूँ. मैंने स्विन्तित्स्की का बाथटब चकाचक साफ़ कर दिया है, उसे पूरा भर दूँगा, और बड़े बर्तन भी भर लूँगा. और पाँच
बार, या हो सकता है, दस भी बार अभी
आऊँगा, और फिर काफ़ी समय तक परेशान नहीं करूँगा. माफ़ करना,
मेहेरबानी से, कि बार बार आ जाता हूँ.
तुम्हारे अलावा कोई और है ही नहीं.”
“भर ले अपनी
मर्ज़ी से,
जितना चाहिये, कोई परेशानी नहीं है. ये कोई
चाशनी थोड़े ही है, पानी है, जितना चाहे
ले ले. मुफ़्त में ले ले. हम बेचते नहीं हैं.”
मेज़ पर ठहाका
लगा.
जब यूरी
अन्द्रेयेविच तीसरी बार आया पाँचवीं और छठी बाल्टियों के लिये, तो
लहज़ा कुछ बदल गया था और बातचीत दूसरी तरफ़ मुड़ गई:
“दामाद पूछ रहे
हैं कि यह कौन है. मैंने बताया – भरोसा नहीं कर रहे हैं. अरे, तुम
पानी भर लो, हिचकिचाओ नहीं. सिर्फ फ़र्श पर मत गिरा, बेवकूफ़. देख, देहलीज़ पर छलका दिया. बर्फ बन जायेगा,
तू थोड़े ही सब्बल लेकर तोड़ने आयेगा. हाँ, दरवाज़ा
कस के बंद करना, मिट्टी के माधो, - आँगन
से हवा आती है. हाँ, कह रहा था दामादों से, कि तू कौन है, यकीन नहीं करते. तेरे ऊपर कितना पैसा
खर्च किया! पढ़ता रहा, पढ़ता रहा, मगर
फ़ायदा क्या हुआ?”
जब यूरी
अन्द्रेयेविच पाँचवी या छठी बार आया, तो मार्केल ने मुँह बना लिया.
“चल, एक
बार और ले ले, और उसके बाद बस. अपनी इज़्ज़त संभालनी चाहिये,
भाई. यहाँ मरीना तेरी वकालत कर रही है, हमारी
छोटी वाली, वर्ना तो मैं आँख उठाकर भी नहीं देखता कि तू कहाँ
का फ्रीमैसन है, और दरवाज़ा बंद कर दे. मरीना की याद है?
ये रही, मेज़ के आख़िर में, काले बाल. ऐह, लाल हो गई. उसकी बेइज़्ज़ती मत करो,
पापा, कहती है. अरे,
तुझे छू कौन रहा है. बड़े टेलिग्राफ़ –ऑफिस में टेलिग्राफ़िस्ट है मरीना, विदेश की ज़ुबान भी समझती है. वह, कहती है, अभागा है. तेरे लिये आग में भी कूदने को तैयार है, कितना
अफ़सोस होता है उसे तेरे लिये. अब इसमें मेरा तो कोई कुसूर नहीं है कि तुम कुछ कर
नहीं पाये. साइबेरिया में लड़ाई पर जाना ही नहीं चाहिये था, ख़तरनाक
समय में घर छोड़ देना. आपका ही कुसूर है. अब हमने भी तो इस पूरे भूखे समय को,
श्वेत वालों के इस ब्लॉकेड के समय को यहीं पर गुज़ार दिया, लड़खड़ाये नहीं, और देखो सही-सलामत रहे. ख़ुद ही अपने
आप को लानत भेजो. तोन्या की हिफ़ाज़त नहीं की, विदेश में कहीं
भटक रही है. मेरा क्या. तुम्हारा मामला है. सिर्फ बुरा न मान, मैं पूछता हूँ, तुझे इतना पानी डालना कहाँ है?
तुझे कम्पाऊण्ड में किराये पर नहीं रख लिया है, उसमें स्केटिंग रिंक बनाने के लिये, जहाँ तेरा डाला
हुआ पानी जम कर बर्फ़ बन जाये? ऐह, तू
भी, तुझ पर गुस्सा भी कैसे करूँ, मुर्गी
के पिल्ले”.
मेज़ पर फिर से
ठहाका लगा. मरीना ने अपने लोगों पर अप्रसन्न नज़र दौड़ाई, लाल
हो गई, उन्हें डाँटने लगी. यूरी अन्द्रेयेविच ने उसकी आवाज़
सुनी, उससे चौंक गया, मगर अभी तक उसका राज़
नहीं समझ पाया.
“घर में काफ़ी
धोने का काम है,
मार्केल. सफ़ाई करनी है. फ़र्श. कुछ कपड़े धोने हैं.”
मेज़ पर बैठे लोग
अचरज करने लगे,
“तुम्हें ऐसी
बातें कहते हुए शरम नहीं आती, करना तो दूर की बात है, क्या तू चीनी धोबन है या क्या है!”
“यूरी
अन्द्रेयेविच,
आप इजाज़त दीजिये, मैं बेटी को आपके पास भेज
दूंगी. वह आपके पास आयेगी, फ़र्श धो देगी, कपडे धोयेगी. अगर ज़रूरत पड़ी, तो थोड़ी बहुत मरम्मत भी
कर देगी. तू उनसे मत डरना, बिटिया. देख रही है ना, औरों जैसे नहीं हैं, कैसे शरीफ़ हैं, एक मक्खी की भी बेइज़्ज़ती नहीं करेंगे.”
“नहीं, ये
आप क्या कह रही हैं, अगाफ़्या तीखनव्ना, ज़रूरत नहीं है. मैं इस बात के लिये कभी भी राज़ी नहीं होऊँगा, कि मरीना मेरी ख़ातिर तकलीफ़ उठाये, अपने आप को गन्दा
करे. वह मेरी नौकर कहाँ से हो गई? मैं ख़ुद ही सब कर लूँगा.”
“आप तकलीफ़ उठा
सकते हैं,
तो मैं क्यों नहीं? आप कितने ज़िद्दी हैं,
यूरी अन्द्रेयेविच. हाथ क्यों झटक रहे हैं? और
अगर मैं आपके घर आपसे मिलने आना चाहूँ, तो क्या भगा देंगे?”
मरीना एक अच्छी
गायिका बन सकती थी. उसकी आवाज़ स्पष्ट, सुरीली, दमदार
थी, काफ़ी ऊँचे सुर वाली. मरीना ऊँची आवाज़ में नहीं बोलती थी,
मगर उसकी आवाज़ आम बातचीत के लिये आवश्यक आवाज़ से ऊँची होती और मरीना
से मेल नहीं खाती थी, बल्कि ऐसा लगता जैसे अलग से आ रही हो.
ऐसा प्रतीत होता कि, वह दूसरे कमरे से आकर उसकी पीठ के पीछे
स्थिर हो गई है. यह आवाज़ उसकी संरक्षक थी, उसकी सुरक्षा करने
वाला फ़रिश्ता. ऐसी आवाज़ वाली औरत को अपमानित करने या उसे दुख देने की इच्छा नहीं
होती.
इस इतवार के पानी
ढोने से डॉक्टर की मरीना के साथ दोस्ती आरम्भ हो गई. वह अक्सर घर के कामों में मदद
करने के लिये उसके यहाँ चली जाती. एक बार वह उसके यहाँ रुक गई और फ़िर कभी चौकीदार
के कमरे में लौट कर नहीं आई. इस तरह वह यूरी अन्द्रेयेविच की, जिसका
अपनी पहली पत्नी से तलाक नहीं हुआ था, तीसरी बीबी बन गई,
मैरिज ब्यूरो में रजिस्ट्रेशन के बगैर. उनके बच्चे भी हुए. शापव दम्पत्ति
गर्व से बेटी को डाक्टरनी कहने लगे. मार्केल भुनभुनाता, कि
यूरी अन्द्रेयेविच की मरीना से शादी नहीं हुई है और वे रजिस्ट्रेशन नहीं करवा रहे
हैं. – “तू क्या, पागल हो गया है?” पत्नी
प्रतिवाद करती. ”क्या पहली वाली, अंतनीना, के ज़िन्दा होते हुए ये मुमकिन है? दो शादियाँ?”
– “तू ख़ुद ही बेवकूफ़ है.” मार्केल जवाब देता. “तोन्का का क्या है.
तोन्का का होना ना होना बराबर है. कोई भी कानून उसकी मदद नहीं करेगा”.
यूरी
अन्द्रेयेविच कभी कभी मज़ाक में कहता कि उनका बीस बाल्टियों वाला प्यार है, जैसे
उपन्यास होते हैं बीस अध्यायों में या बीस ख़तों में.
मरीना डॉक्टर को
उसकी अजीब,
सनकी आदतों के लिये माफ़ कर देती, जो एक पतित
होते हुए और इन्सान के रूप में इस पतन को महसूस करते हुए आदमी में पैदा हो गई थीं,
उस गंदगी और अस्तव्यस्तता को अनदेखा करती जो वह अपने चारों ओर
फ़ैलाता था. वह उसकी भुनभुनाहट, कठोरता, चिड़चिड़ाहट को बर्दाश्त करती.
उसका आत्मत्याग
इससे भी कहीं आगे निकल गया. जब उसकी गलती के कारण वे स्वैच्छिक, स्वयम्
उनके द्वारा निर्मित निर्धनता में डूब जाते, तो उसे इस दौर
में अकेला न छोड़ना पड़े इसलिये अपनी नौकरी भी छोड़ देती, जहाँ
उसकी बेहद कदर की जाती थी, और जहाँ इन ज़बर्दस्ती के
व्यवधानों के बाद उसे ख़ुशी-ख़ुशी वापस ले लेते. यूरी अन्द्रेयेविच की विलक्षण
कल्पना की ख़ातिर वह उसके साथ घर-घर काम माँगने जाती. दोनों अलग-अलग मंज़िलों पर
रहने वाले लोगों के लिये दिल लगा कर लकड़ियाँ काटते. कुछ लोग,
ख़ासकर ‘नेप’ के आरम्भ में अमीर हो गये
सट्टेबाज़ और शासन के करीबी विज्ञान और कला के क्षेत्र के व्यक्ति अपने फ्लैट्स में
काफ़ी सुधार करवा रहे थे. एक बार मरीना और यूरी अन्द्रेयेविच नमदे के जूते पहने,
सावधानीपूर्वक कालीनों पर चलते हुए, ताकि बाहर
का भूसा भीतर न लाएँ, लकड़ियों का ढेर फ्लैट के मालिक के
अध्ययन कक्ष में ला रहे थे, जो अशिष्टता से कुछ पढ़ने में
व्यस्त था और उसने लकड़ी छीलने वाले तथा लकड़ी छीलने वाली की ओर आँख उठाकर भी नहीं
देखा. मालकिन ने ही उनसे बात की, निर्देश
दिये और उन्हें पैसे दिये.
“ये सुअर किस चीज़ से इतना चिपका
हुआ है?” डॉक्टर को उत्सुकता हुई. “वह इतने तैश में आकर
पेन्सिल से कहाँ निशान बना रहा है?” लकड़ियों के साथ लिखने की
मेज़ का चक्कर लगाते हुए उसने पढ़ने वाले के कंधे के पीछे से झाँककर देखा. मेज़ पर
यूरी अन्द्रेयेविच की पुस्तिकाएँ पड़ी थीं, जो वास्या के
आरंभिक आर्ट स्कूल में छपी आवृत्तियाँ थीं.
7
मरीना डॉक्टर के साथ
स्पिरिदोनव्का स्ट्रीट पर रहती थी, गोर्दन ने बगल में ही, मालाया ब्रोन्नाया पर कमरा लिया था. डॉक्टर और मरीना
की दो लड़्कियाँ थीं, काप्का और क्लाश्का. कपितलीना, कापेल्का को सातवाँ
साल चल रहा था, हाल ही में पैदा हुई क्लाव्दिया छ महीने की थी.
सन् उन्नीस सौ उनतीस की गर्मियों की शुरुआत काफ़ी गरम थी. परिचित लोग टोपियाँ
और कोट पहने बिना भागकर दो-तीन रास्ते पार करके मिलने के लिये एक दूसरे के यहाँ
जाते.
गोर्दन का कमरा अजीब तरह का था. उसकी जगह पर कभी फ़ैशनेबुल टेलर का वर्कशॉप
था, दो विभागों वाला, ऊपरी और निचला. दोनों हिस्सों को रास्ते की ओर से एक
ही काँच की शो-केस ने पकड़ रखा था. शो-केस के काँच पर बड़े-बड़े सुनहरे अक्षरों में
टेलर का नाम और उसकी विशेषताओं का ज़िक्र किया गया था. शो-केस के पीछे भीतर, निचली मंज़िल से
ऊपर की ओर जाने वाली घुमावदार सीढ़ी थी.
अब इस जगह को तीन हिस्सों में बांटा गया था.
एक अतिरिक्त फर्श की सहायता से वर्कशॉप में बिचला तल्ला भी बनाया गया था, जिसमें रिहायशी
कमरे के लिये एक अजीब-सी खिड़की थी. वह एक मीटर ऊँची थी और कमरे के फ़र्श के स्तर तक
पहुँचती थी. खिड़की बचे-खुचे सुनहरे अक्षरों से ढँकी थी. अक्षरों के बीच की जगह से
कमरे में बैठे हुए लोगों के घुटनों तक पैर दिखाई देते. इस कमरे में गोर्दन रहता
था. उसके यहाँ झिवागो, दूदरव और बच्चों के साथ मरीना बैठे थे. बड़े लोगों के
विपरीत, बच्चे अपनी पूरी ऊँचाई से खिड़की की चौखट में समा रहे थे. जल्दी ही मरीना
बच्चों के साथ चली गई. कमरे में तीनों मर्द रह गये.
उनके बीच बातचीत हो रही थी, गर्मियों की सुस्त, आराम से चल रही बातचीत, जैसी स्कूली दोस्तों के बीच होती है, जिनकी दोस्ती की
उम्र का हिसाब खो गया है. कैसे चलती है ये बातचीत?
किसी के पास शब्दों का पर्याप्त भण्डार होता है, जो उसे संतुष्ट करता है. ऐसा व्यक्ति सहजता और सुसंगत
रूप से बोल और सोच सकता है. इस अवस्था में सिर्फ यूरी अन्द्रेयेविच था.
उसके दोस्तों के पास आवश्यक अभिव्यक्तियों की कमी थी. भाषा पर उनका प्रभुत्व
नहीं था. शब्दसंचय की कमी को पूरा करने के लिये वे, बातें करते हुए कमरे में घूमते, सिगरेट के लम्बे
कश खींचते, हाथों को हिलाते, कई बार एक ही चीज़ को दुहराते (“ये, भाई, बेईमानी है; सही में बेईमानी
है; हाँ, हाँ, बेईमानी”).
वे इस बात से अनभिज्ञ थे कि उनके बोलने की यह अति-नाटकीयता ज़रा भी गर्मजोशी
और चरित्र की उदारता को रेखांकित नहीं करती, बल्कि, इसके विपरीत, अपूर्णता, खोखलापन प्रकट करती है.
गोर्दन और दूदरव अच्छे, प्रोफेसर के समुदाय से थे. उन्होंने अच्छी किताबों, अच्छे विचारकों, अच्छे संगीतज्ञों, अच्छे, हमेशा, कल और आज भी अच्छे, और सिर्फ अच्छे
संगीत के बीच जीवन गुज़ारा था, और उन्हें पता नहीं था की औसत दर्जे की पसन्द का
अभिशाप, फ़ीकेपन के अभिशाप से बुरा होता है.
गोर्दन और दूदरव नहीं जानते थे कि जिन तानों की बौछार वे झिवागो पर कर रहे
थे, वे दोस्त के प्रति वफ़ादारी की भावना से और उसे प्रभावित करने की इच्छा से
प्रेरित नहीं थे, बल्कि स्वतंत्रतापूर्वक विचार करने और अपनी इच्छा से
बातचीत को नियंत्रित करने की अयोग्यता ही इसका कारण थी. बातचीत की भाग रही गाड़ी उन्हें वहाँ ले जा रही
थी जहाँ वे बिल्कुल जाना नहीं चाहते थे. वे उसे मोड़ नहीं पाये और आख़िरकार उन्हें
किसी चीज़ से टकराना ही था और चोट खानी ही थी. और वे पूरे वेग से शिक्षाओं और
निर्देशों के साथ यूरी अन्द्रेयेविच से टकरा गये.
उनकी करुणा के स्त्रोत से, उनकी ढुलमुल संवेदना से, उनके तर्क की प्रणाली से वह भली भाँति परिचित था. मगर
वह उनसे नहीं कह सकता था : “ प्रिय मित्रों, कितने आशाहीन औसत दर्जे के हो तुम और वह समुदाय जिसका
तुम प्रतिनिधित्व करते हो, और आपके प्रिय नामों और विशेषज्ञों की प्रतिभा और कला.
आपमें एक ही सक्रिय और स्पष्ट चीज़ है, और वह ये कि कभी आप मेरे साथ रहते थे हैं और मुझे
जानते थे.” मगर क्या होता, अगर दोस्तों के सामने ऐसी टिप्पणियाँ करता! और उन्हें
चोट न पहुँचाने के इरादे से यूरी अन्द्रेयेविच नम्रता से उनकी बातें सुनता रहा.
दूदरव ने हाल ही में अपने पहले निर्वासन की सज़ा पूरी कर ली थी और वहाँ से वापस
लौटा था. उसके अधिकार उसे लौटा दिये गये थे, जिन्हें अस्थाई रूप से उससे छीन लिया गया था. उसे
विश्वविद्यालय में अपने भाषणों और अन्य कामों को फिर से शुरू करने की अनुमति मिल
गई थी.
अभी वह दोस्तों को निर्वासन के अपने अनुभव और मनःस्थिति के बारे में बता रहा
था. वह उनसे ईमानदारी से और बिना किसी बनावट के बात कर रहा था. उसकी टिप्पणियाँ
भीरुता या अवांछित कल्पनाओं पर आधारित नहीं थीं.
उसने कहा कि अभियोगों पर प्रस्तुत तर्कों ने, कारावास में और वहाँ से बाहर आने के बाद उसके साथ किये
गये बर्ताव ने, और ख़ासकर आँख से आँख मिलाकर जाँचकर्ता से हुई बातचीत
ने उसके दिमाग़ में उथल-पुथल मचा दी, और राजनीतिक दृष्टि से उसे पुनर्शिक्षित कर दिया है, कि कई चीज़ों के
बारे में उसकी आँखें खुल गई हैं, एक इन्सान के रूप में उसमें प्रगति हुई है.
दूदरव के तर्क ख़ासकर अपने घिसेपिटेपन के कारण गोर्दन के दिल के करीब थे. वह
संवेदना से इन्नोकेन्ती की ओर देखते हुए सिर हिला रहा था और उससे सहमत हो रहा था.
जो कुछ भी दूदरव कह रहा था और महसूस कर रहा था उसका घिसापिटापन ख़ासतौर से गोर्दन
के दिल को छू रहा था. सामान्य भावनाओं की नकल को वह उनकी सार्वभौमिक मानवता के रूप
में देख रहा था.
इन्नोकेन्ती के पवित्र विचार समय की भावना के अनुकूल ही थे. मगर इसी
नियमितता ने, उनके पाखण्ड की पारदर्शिता ने यूरी अन्द्रेयेविच को
आपे से बाहर कर दिया. एक कैदी व्यक्ति हमेशा अपनी कैद को आदर्श रूप में प्रस्तुत करता
है. ऐसा शताब्दी के मध्य में होता था, इसी का राग जेसुइट्स अलापते थे. यूरी अन्द्रेयेविच
सोवियत बुद्धिजीवियों के राजनीतिक रहस्यवाद को बर्दाश्त नहीं कर पाता था, जो उनकी सबसे बड़ी
उपलब्धि थी या, जैसा उस समय कहते थे – उस युग की सर्वोच्च
आध्यात्मिकता थी. यूरी अन्द्रेयेविच दोस्तों से इस भावना को भी छुपा रहा था, ताकि झगड़ा न हो
जाये.
मगर उसकी दिलचस्पी किसी और ही बात में थी, दूदरव द्वारा सुनाई गई तीखनव के अनुयायी प्रीस्ट
वनिफाती अर्लेत्सोव की कहानी में, जो इन्नोकेन्ती का कॉम्रेड था और उसके साथ जेल की एक
ही कोठरी में था. इस कैदी की छह साल की बेटी थी, जिसका नाम क्रिस्तीना था. प्यारे पिता की कैद और उसका
आगामी भविष्य बच्ची के लिये बड़ा आघात था.
“सम्प्रदाय का
सेवक”, “वंचित” और इस तरह के शब्द उसे बेईमानी के दाग जैसे प्रतीत होते. पिता के भले
नाम पर लगे इस दाग़ को, शायद, कभी धोने की उस जोशीले शिशु-हृदय ने कसम खाई थी. उसके
दिल में हमेशा ज्वाला की तरह धधकते, इतना पहले के और इतनी दूर के उद्देश्य ने उसे अभी से
बच्चों की तरह हर उस चीज़ का अनुयायी बना दिया, जो उसे कम्युनिज़्म में सबसे ज़्यादा अविवादास्पद लगता था.
“मैं जाऊँगा,” यूरी अन्द्रेयेविच ने कहा. “मुझ पर नाराज़ न हो, मीशा. कमरे में
उमस है, बाहर गर्मी है. मेरा दम घुट रहा है.”
“तू देख रहा है, फर्श पर वेन्टिलेटर खुला है. माफ़ करना, हम खूब सिगरेट
पीते रहे. हम हमेशा भूल जाते हैं कि तेरी मौजूदगी में सिगरेट नहीं पीना चाहिये. अब, इसमें मेरा क्या
कुसूर है कि यह कमरा इतनी बेहूदगी से बना है. मेरे लिये दूसरा कमरा ढूँढ दे.”
“मैं ही जा रहा हूँ, गोर्दोशा. हमने काफ़ी बातें कर लीं. मेरे बारे में
फ़िक्र करने के लिये धन्यवाद, प्यारे दोस्तों. ये मेरी सनक नहीं है. ये बीमारी है, हृदय की धमनियों
की स्क्लेरोसिस. हृदय की माँसपेशियों की दीवारें घिस जाती हैं, पतली हो जाती हैं
और एक ख़ूबसूरत दिन टूट सकती हैं, फट सकती हैं. और मैं तो अभी चालीस का भी नहीं हुआ हूँ.
मैं न तो पियक्कड़ हूँ, न ही ऐयाश.”
“बड़ी जल्दी अपने लिये मर्सिया गा रहे हो. बेवकूफ़ी है. अभी बहुत जिओगे.”
“हमारे ज़माने में दिल की धमनियों के सूक्ष्म रक्तस्त्राव के प्रकार बहुत बढ़
गये हैं. वे सभी घातक नहीं होते. किन्हीं मामलों में लोग बच जाते हैं. यह
अत्याधुनिक समय की बीमारी है. मेरा ख़याल है कि उनके पीछे नैतिक कारण हैं. हममें से
बहुतांश लोगों से निरंतर, व्यवस्था में निहित छल-कपट और बनावटीपन की मांग की
जाती है. स्वास्थ्य पर बिना विपरीत
प्रभाव के लगातार, दिन-प्रतिदिन अपनी
भावनाओं के विपरीत आचरण करना, जिसे प्यार नहीं करते उसके सामने गिड़गिड़ाना, दुर्भाग्य लाने
वाली घटना पर ख़ुश होना संभव नहीं है. हमारी तंत्रिका प्रणाली कोई खाली आवाज़ नहीं
है, कपोल-कल्पना नहीं है. वह – तंतुओं से बना भौतिक शरीर है. हमारी आत्मा अंतराल
में एक जगह घेरती है और वह हमारे भीतर ऐसे स्थित होती है, जैसे मुँह में
दांत. बिना सज़ा पाये उस पर निरंतर अत्याचार नहीं किया जा सकता. निर्वासन के बारे में
तुम्हारी कहानी सुनते हुए मुझे दुख हो रहा था, इन्नोकेन्ती, उस बारे में सुनते हुए कि कैसे वहाँ तुम्हारी प्रगति
हुई और कैसे उसने तुम्हें पुनर्शिक्षित किया. ये तो ऐसा है जैसे घोड़ा बता रहा हो, कि कैसे उसने
घुड़सवारी के मैदान में ख़ुद को शिक्षित किया था.
“मैं दूदरव का पक्ष लूँगा. तुम सिर्फ मानवीय शब्द भूल गये हो. वे अब तुम तक
पहुँचते नहीं हैं.”
“ये संभव है, मीशा. फ़िर भी, मुझे माफ़ कीजिये, मुझे जाने दीजिये. मुझे साँस लेने में तकलीफ़ हो रही
है. ऐ ख़ुदा, मैं बढ़ाचढ़ाकर नहीं कह रहा हूँ.”
“ठहरो. ये सिर्फ बहाने हैं. हम तुम्हें नहीं छोडेंगे, जब तक तुम हमें
सीधा, ईमानदार जवाब नहीं देते. क्या तुम इस बात से सहमत हो, कि तुम्हें अपने
आप को बदलना होगा, सुधरना होगा? तुम इस बारे में क्या करने जा रहे हो? तुम्हें तोन्या
से और मरीना से अपने संबंधों को स्पष्ट करना होगा. ये जीते-जागते इन्सान हैं, औरतें हैं, जो पीड़ा झेल सकती
हैं और महसूस कर सकती हैं, न कि बिना आकार के विचार जो तुम्हारे दिमाग़ में मनमाने
संयोजनों में मंडराते रहते हैं. इसके अलावा, शर्म की बात है कि तुम्हारे जैसा कोई आदमी बिना बात धीरे-धीरे
नष्ट होता जाये. तुम्हें अपनी नींद और आलस्य से जागना होगा, ऊपर उठना होगा, बिना अनुचित
अहंकार के, हाँ, हाँ, बिना इस अस्वीकार्य धृष्ठता के अपने चारों ओर के वातावरण को समझना होगा, नौकरी पर जाना
होगा, प्रैक्टिस करनी होगी.”
“ठीक है, मैं आपको जवाब दूँगा. पिछले कुछ समय से मैं ख़ुद भी अक्सर
इस बारे में सोचता रहता हूँ, और इसलिये लेशमात्र भी शर्म के बिना आपसे किसी बात का
वादा कर सकता हूँ. मुझे लगता है, कि सब कुछ ठीक हो जायेगा. और काफ़ी जल्दी. आप देखेंगे.
नहीं, ऐ ख़ुदा. सब कुछ बेहतरी की तरफ़ जा रहा है. मुझे अविश्वसनीय रूप से, शिद्दत से जीने की
ख़ूब इच्छा है, और जीने का मतलब है हमेशा आगे बढ़ते रहना, ऊँचाई की ओर, परिपूर्णता की ओर
और उसे प्राप्त करना.
“मुझे ख़ुशी है, गोर्दन, कि तुम मरीना की रक्षा कर रहे हो, जैसे पहले हमेशा
तोन्या के रक्षक हुआ करते थे. मगर मेरा उनसे कोई झगड़ा ही नहीं है, मैं न उनसे और न
ही किसी और से युद्ध कर रहा हूँ. तुम शुरू में मुझे डाँटते थे कि वह मेरे “तुम” के
जवाब में “आप” कहती है, और नाम और पिता के नाम से मुझे बड़ा बनाती है, जैसे कि मुझे भी
इस बात से चोट नहीं पहुँचती थी. मगर इस अनैसर्गिकता के मूल में जो गहरी असंगति थी
वह कब की दूर हो चुकी है, सब कुछ ठीक हो गया है, समानता स्थापित हो गई है.
“आपको एक और अच्छी ख़बर सुना सकता हूँ. मुझे फ़िर से पैरिस से ख़त लिखने लगे
हैं. बच्चे बड़े हो गये हैं, फ्रान्सीसी हमउम्र के बच्चों के साथ काफ़ी बेतकल्लुफ़
हैं. शूरा वहाँ का प्राइमरी स्कूल ख़त्म करने वाला है, मान्या उसमें दाख़िला लेने वाली है. मैं अपनी बेटी को
ज़रा भी नहीं जानता. मुझे न जाने क्यों विश्वास है कि फ्रांसीसी नागरिकता लेने के
बाद भी, वे जल्दी ही वापस आ जायेंगे, और किसी अप्रत्यक्ष तरीके से सब कुछ ठीक हो जायेगा.
“कई लक्षणों से ऐसा लगता है कि ससुर और तोन्या मरीना और बच्चियों के बारे
में जानते हैं. मैंने ख़ुद तो उन्हें इस बारे में नहीं लिखा था. ये बातें शायद, किसी और तरफ़ से
पहुँची है. अलेक्सान्द्र अलेक्सान्दविच, ज़ाहिर है, अपमानित हुए हैं और पिता होने के नाते उन्हें तोन्या
के बारे में दुख होता है. यही कारण था हमारे बीच लगभग पाँच साल तक कोई पत्रव्यवहार
नहीं हुआ. मॉस्को वापस लौटने के बाद कुछ दिनों तक मैं उनसे पत्रव्यवहार तो करता
रहा. और अचानक उन्होंने मुझे जवाब देना बंद कर दिया. सब कुछ रुक गया.
“अब, कुछ समय से, मुझे दुबारा वहाँ से ख़त आने लगे हैं. सबके, बच्चों के भी.
प्यार और गर्मजोशी से भरे हुए. कुछ नरमी आई है. हो सकता है, तोन्या के साथ
कुछ परिवर्तन हुए हों, कोई नया दोस्त मिल गया हो, ख़ुदा करे. मालूम नहीं. मैं भी कभी-कभी उन्हें लिखता
हूँ.
“मगर, सही में, मैं और नहीं रुक सकता. मैं जा रहा हूँ, वर्ना मेरा दम
घुटने लगेगा.फ़िर मिलेंगे.”
दूसरे दिन सुबह गोर्दन के पास अधमरी-सी मरीना भागती हुई आई. बच्चियों को घर
में किसी के पास छोड़ना संभव नहीं था, और कम्बल में कस कर लिपटी हुई छोटी, क्लाशा को, वह एक हाथ में
सीने से चिपटाये थी, और दूसरे हाथ से पीछे छूट रही, प्रतिकार करती
हुई कापा को खींच रही थी.
“क्या यूरा आपके यहाँ है, मीशा?” उसने जैसे किसी और की आवाज़ में पूछा.
“क्या वह रात को घर में नहीं था?”
“नहीं.”
“तो फ़िर वह इन्नोकेन्ती के पास होगा.”
“मैं वहाँ गई थी. इन्नोकेन्ती युनिवर्सिटी में पढ़ाने गया है. मगर पड़ोसी यूरा
को जानते हैं. वह वहाँ दिखाई ही नहीं दिया.”
“तब फ़िर वह कहाँ है?”
मरीना ने लिपटी हुई क्लाशा को दीवान पर रखा. उसे हिस्टीरिया का दौरा पड़ गया
था.
8
दो दिनों तक गोर्दन और दूदरव मरीना के पास से नहीं हटे. वे बारी-बारी से
उसकी देखभाल करते, उसे अकेला छोड़ने में डर रहे थे. बीच के समय में वे
डॉक्टर को ढूँढ़ने जाते. वे सारी जगहों पर हो आये, जहाँ उसके जाने की संभावना थी, मुच्नोय सिटी में
सीव्त्सेव्स्की के घर भी गये, सभी “पैलेसेस ऑफ थाँट” और “हाउसेस ऑफ आयडियाज़” में देख
आये, जहाँ वह कभी काम कर चुका था, उसके सभी पुराने परिचितों से मिले, जिनके बारे में
उन्हें थोड़ी भी जानकारी थी और जिनके पते ढूँढ़ना संभव था. इन खोजों का कोई परिणाम
नहीं निकला.
पुलिस में सूचित नहीं किया, ताकि अधिकारियों को उस इन्सान की याद न दिलायें, जो हाँलाकि
पंजीकृत था और जिस पर कोई मुकदमा भी नहीं चल रहा था, मगर जिसे आधुनिक मान्यताओं के अनुसार कहीं से भी आदर्श
व्यक्ति नहीं कहा जा सकता था. पुलिस को सिर्फ चरम परिस्थिति में ही उसकी खोज में
शामिल करने का फ़ैसला किया गया.
तीसरे दिन मरीना, गोर्दन और दूदरव को अलग-अलग समय पर यूरी अन्द्रेयेविच
का एक-एक ख़त मिला. ख़तों में उन्हें दी गई परेशानी और भय के बारे अफ़सोस ज़ाहिर किया
गया था. उसने प्रार्थना की थी वे उसे माफ़ कर दें और शांत हो जाएँ, और हर उस चीज़ का, जो पवित्र है, वास्ता देकर वह
मिन्नत कर रहा था कि उसे खोजना बंद करें, क्योंकि इन खोजों का वैसे भी कोई परिणाम होने वाला
नहीं है.
उसने उन्हें सूचित किया था कि अपने भाग्य को अतिशीघ्र और पूरी तरह फिर से
बनाने के उद्देश्य से वह एकांत में कुछ समय गुज़ारना चाहता है, ताकि अपने काम पर
एकाग्रता से ध्यान दे सके, जब नये प्रयास में कुछ स्थिर हो जायेगा और यह यकीन कर
लेगा कि घटित हो चुके परिवर्तन के बाद पुरानी व्यवस्था पर वापसी नहीं होगी, तब वह अपने गुप्त
ठिकाने से बाहर निकल कर मरीना और बच्चों के पास वापस लौट आयेगा.
गोर्दन को लिखे ख़त में उसने सूचित किया था कि उसके नाम से मरीना के लिये कुछ
पैसे भेज रहा है. उसने प्रार्थना की थी कि बच्चों के लिये एक आया रख दे, ताकि मरीना कुछ
खाली हो सके और उसे अपनी नौकरी पर लौटना संभव हो सके. उसने स्पष्ट किया कि सीधे
उसके पते पर पैसे भेजने से बचना चाहता है, इस डर से कि भेजी गई रकम का आँकड़ा उसे लूटपाट के ख़तरे
में न डाल दे.
जल्दी ही पैसे आ गये, जो डॉक्टरों के स्तर से अधिक और उसके मित्रों की
हैसियत से बहुत ज़्यादा थे. बच्चों के लिये एक आया रख दी गई. मरीना को वापस
टेलिग्राफ़-ऑफ़िस की नौकरी पर ले लिया गया. वह काफ़ी दिनों तक शांत न हो सकी, मगर यूरी
अन्द्रेयेविच की पुरानी विचित्रताओं की आदी होने के कारण उसने आख़िरकार इस स्थिति
से भी समझौता कर लिया. यूरी अन्द्रेयेविच की विनती और चेतावनी के बावजूद, उसके दोस्त और
उसकी निकटतम महिला, उसकी भविष्यवाणी की सत्यता पर यकीन करते हुए उसे
ढूँढ़ते रहे. वे उसे ढूँढ़ नहीं पाये.
9
और इस दौरान वह
उनसे कुछ ही कदमों की दूरी पर रह रहा था, बिल्कुल उनकी नाक के नीचे
और पूरी तरह प्रत्यक्ष रूप में, उनकी खोजों के अत्यंत
संकीर्ण दायरे में.
जब अपने ग़ायब
होने वाले दिन वह काफ़ी सुबह, धुँधलके से भी पहले, गोर्दन के घर से ब्रोन्नाया स्ट्रीट पर आकर स्पिरिदोनव्का पर अपने घर की
ओर जा रहा था, तो वहीं रास्ते पर, सौ
कदम भी पार करने से पहले विरुद्ध दिशा में चलते हुए अपने सौतेले भाई एव्ग्राफ़
झिवागो से टकरा गया. यूरी अन्द्रेयेविच ने उसे तीन साल से ज़्यादा समय से नहीं देखा
था और उसके बारे में उसे कोई जानकारी नहीं थी. पता चला कि एव्ग्राफ़ संयोगवश मॉस्को
में है, जहाँ कुछ ही समय पहले आया है. हमेशा की तरह जैसे वह
आसमान से टपका था, और सवालों के जवाब नहीं दे रहा था,
जिन्हें वह ख़ामोशी से और मज़ाक में उड़ा रहा था. मगर उसने फ़ौरन यूरी
अन्द्रेयेविच से दो-तीन मामूली सवाल पूछकर उसके सारे दुःखों और मुसीबतों का जायज़ा
ले लिया और वहीं, उस टेढ़ी-मेढ़ी गली के संकरे मोड़ों पर,
उन्हें पीछे छोड़ते हुए और सामने से आने वाले लोगों की धक्कामुक्की
में उसने भाई की सहायता करने और उसे बचाने की एक व्यावहारिक योजना बना ली. यूरी
अन्द्रेयेविच का ग़ायब होना और गुप्त रूप से रहना एव्ग्राफ़ की योजना का भाग था,
उसके दिमाग़ की उपज थी.
उसने यूरी
अन्द्रेयेविच के लिये आर्ट थियेटर की बगल वाली गली में,
जिसका नाम अब भी कामेर्गेर्स्की गली था, एक कमरा किराये पर
लिया. उसने उसे पैसे दिये, कोशिश करने
कगा कि डॉक्टर को किसी हॉस्पिटल में अच्छी नौकरी मिल जाये, जो
उसके लिये वैज्ञानिक गतिविधियों का क्षेत्र खोल दे, ज़िंदगी
के सभी क्षेत्रों में वह हर तरह से भाई को संरक्षण देता रहा. आख़िर में उसने भाई को
वचन दिया कि पैरिस में उसके परिवार की अस्थिरता किसी न किसी तरह से समाप्त हो
जायेगी. या तो यूरी अन्द्रेयेविच उनके पास जायेगा, या वे ख़ुद
ही उसके पास आ जायेंगे. एव्ग्राफ़ ने वादा किया कि वह ख़ुद इन सभी कामों की
ज़िम्मेदारी उठायेगा और सब ठीक-ठाक करेगा. भाई के समर्थन ने मानो यूरी अन्द्रेयेविच
को पंख दे दिये. हमेशा की तरह, जैसा पहले भी होता था,
उसकी सामर्थ्य की पहेली अनबूझी ही रही. यूरी अन्द्रेयेविच ने इस
रहस्य में झाँकने की कोशिश भी नहीं की.
10
कमरा दक्षिण की
तरफ़ खुलता था. उसकी दो खिड़कियाँ थियेटर के सामने वाली छत पर खुलती थीं, जिनके
पीछे, अखोत्नी स्ट्रीट के ऊपर गली के फ़ुटपाथ को छाया में
धकेलते हुए खूब ऊँचाई पर गर्मियों का सूरज चमक रहा था.
कमरा यूरी
अन्द्रेयेविच के लिये दफ़्तर से भी ज़्यादा, अध्ययन कक्ष से भी ज़्यादा
था. लालसायुक्त गतिविधियों के इस काल में, जब उसकी योजनाएँ
और विचार नोट्स में नहीं समाते थे, जो मेज़ पर बिखरे पड़े थे,
और विचारों तथा कल्पनाओं के चित्र कोनों में हवा में ही लटके थे,
जैसे किसी कलाकार के स्टूडियो कई सारी शुरू की गई, और दीवार की ओर मुँह किये खड़ी कलाकृतियों की भीड़ हो जाती है, उसी तरह डॉक्टर का कमरा भी आत्मा के उत्सव का विशाल कक्ष था, पागलपन की कोठरी, आविष्कारों का भंडारघर था.
इत्तेफ़ाक से
अस्पताल के अधिकारियों के साथ बातचीत लम्बी खिंच रही थी, नौकरी
में पदभार संभालने का समय अनिश्चित काल तक टलता रहा. इस विलम्ब का लाभ उठाते हुए
लिखना संभव हो रहा था.
यूरी अन्द्रेयेविच
अपनी रचनाओं में से उन रचनाओं को एक क्रम देने का प्रयत्न कर रहा था, जिसके
अंश उसे याद थे और जिन्हें एव्ग्राफ़ कहीं से उठाकर लाया था, जिनमें
कुछ तो यूरी की हस्तलिखित प्रतियाँ थीं और कुछ अनजान लोगों द्वारा टाईप की हुई
थीं. सामग्री की अस्तव्यस्तता ने यूरी अन्द्रेयेविच को अपने स्वभाव से भी कहीं
ज़्यादा बिखरने पर मजबूर कर दिया. उसने जल्दी ही यह काम छोड़ दिया और अपूर्ण रचनाओं
को पुनर्जीवित करने के स्थान ताज़ा रूपरेखाओं से आकर्षित होकर नई रचनाओं की ओर
मुड़ा.
उसने कुछ लेखों
के कच्चे ड्राफ़्ट बनाये, जैसे वरिकीना में पहले वास्तव्य के काल की
संक्षिप्त टिप्पणियाँ, और कुछ कविताओं के अलग-अलग टुकड़े लिखे
जो उसकी कलम से निकलने को मचल रही थीं, आरंभ, अंत और मध्य, बिना उन्हें छांटे. कभी-कभी वह भाग कर
आते हुए विचारों के साथ मुश्किल से न्याय कर पाता, शब्दों के
आरंभिक अक्षर और उसकी घसीटी लिखाई में लिखे गये संक्षिप्त रूप उन विचारों का साथ
नहीं दे पाते.
वह शीघ्रता कर
रहा था. जब कल्पना थक जाती और काम ठहर जाता, तो वह हाशिये में चित्र
बनाकर उन्हें भगाता और चाबुक से खदेड़ता. इनमें जंगल के खुले स्थान और शहर के
चौराहे होते थे जिनके बीचोंबीच “मोरो और वेत्चिंकिन. सीडर्स एंड थ्रैशर्स” के
इश्तेहारों वाले स्तम्भ हुआ करते.
लेख और कविताएँ
एक ही विषय पर थे. उनका विषय था – शहर.
11
बाद
में उसके काग़ज़ात में यह टिप्पणी मिली:
“सन् उन्नीस सौ
बाईस में,
जब मैं मॉस्को आया था, मैंने उसे सुनसान,
जीर्ण-शीर्ण अवस्था में पाया. क्रांति के
आरंभिक वर्षों की कठिन परीक्षाओं से वह ऐसी अवस्था में था, वैसी
ही हालत में आज तक है. उसकी आबादी कम हो गई, नये घरों का
निर्माण नहीं किया जा रहा है, पुरानों की मरम्मत नहीं हो रही
है.
मगर इस अवस्था
में भी एक बड़ा आधुनिक शहर है, आधुनिक, वास्तविक
नई कला का इकलौता प्रेरक है.
ऐसी वस्तुओं और
अवधारणाओं की अव्यवस्थित क्रमिकता, जो प्रत्यक्ष में एक दूसरे के
अनुरूप नहीं है और जिन्हें जैसे जानबूझ कर मनमाने ढंग से एक दूसरे की बगल में रखा गया
है, जैसे प्रतीकवादियों, ब्लॉक,
वेरहार्न, वाइटमैन में देखा जाता है, ये ज़रा भी शैलीगत सनक नहीं है. ये प्रभावों की नई संरचना है, जो ज़िंदगी में देखी गई है और जिसका प्रकृति से अनुकरण किया गया है.
वैसे ही जैसे वे
अपनी पंक्तियों में छबियों की श्रूंखलाओं को आगे सरकाते हैं, उसी
तरह उन्नीसवीं शताब्दी के अंत की शहर की व्यस्त सड़क ख़ुद ही हमारे सामने से तैरते
हुए आगे बढ़ती है और अपनी भीड़ को, गाड़ियों को और ट्रेनों को धकेलती है, और फ़िर,
अगली शताब्दी के आरंभ में, अपनी इलेक्ट्रिक और
भूमिगत ट्रेनों के डिब्बों को आगे सरकाती है.
इन परिस्थितियों में
देहाती चरवाहे की सादगी कहीं नहीं मिलेगी. उसकी मिथ्या कलाविहीनता – साहित्यिक
जालसाज़ी,
कृत्रिम ढंग, किताबी घटना है, जिसे गाँव से नहीं, बल्कि अकादमी के वाचनालयों की
शेल्फों से उठाया जाता है. सजीव, सुस्पष्टता से बनी हुई और
नैसर्गिक रूप से वर्तमान की भावना से संवाद कर सकती है – वह नागरी भाषा है.
मैं शहर के
भीड़-भाड़ वाले चौराहे पर रहता हूँ. गर्मियों का, धूप से चकाचौंध मॉस्को,
कम्पाउण्ड्स की सिमेंट से तपता हुआ, ऊपर वाले
घरों की खिड़कियों से धूप के धब्बे फेंकता हुआ और बादलों तथा मुख्यमार्गों से साँस
लेता हुआ मेरे इर्दगिर्द घूमता है और मेरे सिर को चकराने पर मजबूर करता है,
जिससे कि मैं उसकी शान में औरों के सिरों को चकराने पर मजबूर करूँ.
इसी उद्देश्य से उसने मेरा पालन-पोषण किया है और मुझे कला के हाथों में सौंप दिया
है.
निरंतर, दिन-रात
दीवार के पीछे शोर मचाता रास्ता उसी तरह घनिष्ठता से आधुनिक आत्मा से जुड़ा है,
जैसे थियेटर में शुरू हो चुका पूर्वसंगीत पूरी तरह अंधेरे और रहस्य
में छुपे हुए, अभी भी बंद मगर रंगमंच की रोशनी से लाल हो रहे
परदे से जुड़ा होता है. बिना रुके और बिना चुप हुए, सदैव उत्तेजित
और दरवाज़ों और खिड़कियों के पीछे गड़गड़ाता हुआ शहर हममें से हरेक की ज़िंदगी का असीमित
विशाल परिचय है. इसी तर्ज़ पर मैं शहर के बारे में लिखना चाहूँगा.”
झिवागो की
सुरक्षित रखी कविताओं की पुस्तिका में इस तरह की कविताएँ नहीं मिलीं. हो सकता है
कि “हैम्लेट” इस प्रकार की कविताओं में से हो?
12
अगस्त के अंत में एक सुबह गज़ेत्नी नुक्कड़ के स्टॉप पर यूरी अन्द्रेयेविच
ट्राम के डिब्बे में चढ़ा, जो निकीत्स्काया से होते हुए युनिवर्सिटी से
कुद्रिन्स्काया स्ट्रीट की ओर जा रही थी. वह
पहली बार बत्कीन्स्काया हॉस्पिटल में, जिसे उस समय सल्दातेन्कव्स्काया कहते थे, नौकरी पर जा रहा
था. यह उसकी पहली सरकारी भेंट थी.
यूरी अन्द्रेयेविच का दिन ही ख़राब था. वह बिगड़े हुए डिब्बे में चढ़ गया, जिस पर हर घड़ी
मुसीबतें टूट रही थीं. कभी किसी गाड़ी के पहिये रेल की पटरियों के बीच की जगह में
अटक जाते और उसका रास्ता रोक देते. कभी डिब्बे के फ़र्श के नीचे या उसकी छत पर
इन्सुलेशन ख़राब हो जाता, शॉर्ट-सर्किट बन जाती और कोई चीज़ चटचटाते हुए जलने
लगती.
ट्राम का ड्राईवर अक्सर हाथ में पाना लेकर रुके हुए डिब्बे के सामने वाले
प्लेटफॉर्म पर जाता और उसका चक्कर लगाकर, उकडूँ बैठकर झुक जाता और पहियों के बीच वाले और पिछले प्लेटफॉर्म
के बीच वाले पुर्जों को दुरुस्त करने लगता.
मुसीबत की मारी ट्राम-कार ने पूरी लाईन के आवागमन को रोक दिया था. उसके
द्वारा रोक दी गई ट्राम गाड़ियों, और धीरे-धीरे आती हुई नई ट्राम-गाड़ियाँ की भीड़ जमा हो
गई थी. उनका अंतिम सिरा मानेझ तक पहुँच गया था और आगे भी फ़ैल रहा था. पिछले
डिब्बों के यात्री सामने वाले डिब्बे में जा रहे थे, जिसके बिगड़ने की वजह से यह सब हुआ था, यह सोचकर कि इससे
कुछ अच्छा नतीजा निकलेगा. इस गर्म सुबह, खचाखच भरे डिब्बे में दम घुट रहा था. निकीत्स्की गेट से फुटपाथ पर भाग रहे
मुसाफ़िरों की भीड़ के ऊपर आसमान में अधिकाधिक ऊपर उठता हुआ काला-बैंगनी बादल रेंग
रहा था. आँधी-तूफ़ान आ रहा था.
यूरी अन्द्रेयेविच बाईं ओर वाली एकल सीट पर, पूरी तरह खिड़की से चिपका हुआ बैठा था. निकीत्स्की का
बायां फ़ुटपाथ, जिस पर संगीत-अकादमी है, उसे पूरे समय नज़र आ रही थी. चाहे-अनचाहे, किसी और चीज़ के
बारे में सोच रहे व्यक्ति के शिथिल ध्यान की तरह वह इस तरफ़ से गुज़रते हुए पैदल और
वाहनों में जा रहे व्यक्तियों पर नज़र डाल रहा था और किसी को भी नहीं छोड़ रहा था.
एक बूढ़ी, सफ़ेद बालों वाली महिला हल्के रंग की फूस की हैट पहने
जिस पर कपडे के लिली और नीलकूपी के फूल टंके थे, हल्के बैंगनी रंग की, कसी हुई पुराने फ़ैशन की पोषाक पहने, अपने हाथ के एक चपटे
पैकेट पर फूँक मारती और उसे हिलाती हुई इस तरफ़ चली जा रही थी. उसके अंतर्वस्त्र
तंग थे, गर्मी से बेहाल हो रही थी और, पसीने से नहाई हुई, अपने गीले होठों और भँवों को लेस वाले रूमाल से पोंछ
रही थी.
उसका रास्ता ट्राम के समान्तर था. वह कई बार यूरी अन्द्रेयेविच की नज़रों से
ओझल हो गई थी, जब दुरुस्त की गई ट्राम अपनी जगह से चलकर उसे पीछे छोड़
देती. और वह कई बार उसकी नज़रों के घेरे में आ जाती जब नया बिगाड़ ट्राम को रोक देता
और महिला उसके बराबर आ जाती.
यूरी अन्द्रेयेविच को अपने स्कूल के ज़माने के सवाल याद आये जब अलग-अलग समय
पर छूटी हुई और अलग-अलग वेग से चल रही ट्रेनों के पंहुचने के क्रम और समय की गणना
करनी होती थी, और वह उन्हें हल करने की सामान्य विधि को याद करना
चाहता था, मगर कुछ भी याद नहीं आया, और उन्हें पूरा किये बिना वह इन यादों से दूसरे ज़्यादा
क्लिष्ट विचारों पर कूद गया.
उसने कई बगल में ही विकसित हो रहे अस्तित्वों के बारे में सोचा जो एक दूसरे
की बगल में विभिन्न वेगों से गतिमान थे, और उस बारे में कि कब किसी का भाग्य ज़िंदगी में किसी
और के भाग्य को पीछे छोड देता है, और कौन किससे अधिक ज़िंदा रहता है. दुनिया के स्टेडियम
पर यह सब उसे कुछ-कुछ सापेक्षता के सिद्धांत जैसा महसूस हुआ, मगर अंत में उलझ
कर उसने इन सादृश्यताओं को भी छोड़ दिया.
बादल गरजे, कड़कड़ाहट से बिजली चमकी. अभागी ट्रामगाड़ी फिर एक बार कुद्रिन्स्काया से
ज़ूलॉजिकल गार्डन के उतार पर अटक गई. हल्की बैंगनी पोषाक वाली महिला कुछ देर बाद
फिर खिड़की की फ्रेम में प्रकट हुई, ट्राम की बगल से गुज़री और क्रमशः दूर जाने लगी. बारिश
की पहली मोटी बूँदें फ़ुटपाथ पर और रास्ते पर, और महिला पर पड़ी. धूल भरी हवा का तेज़ झोंका पेड़ों पर
लपका, पत्तों को दबोचते हुए, महिला की हैट उड़ाने लगा और उसका स्कर्ट घुमाने लगा, और अचानक शांत हो
गया.
डॉक्टर को अचानक दुर्बलता का दौरा पड़ा. अपनी कमज़ोरी पर काबू पाते हुए वह सीट
से उठा और खिड़की की फ्रेम को ऊपर नीचे झटके देते हुए उसे खोलने की कोशिश करने लगा.
उसकी कोशिशों का कोई असर नहीं हुआ.
लोग चिल्लाकर डॉक्टर से कहने लगे कि फ्रेम चौखट में स्क्रू द्वारा कस कर
बिठाई गई है, मगर अपने दौरे से लड़ते हुए और किसी उत्तेजना की चपेट
में आये हुए उसने ध्यान ही नहीं दिया कि ये चीखें उसके लिये हैं और उन पर कोई
ध्यान नहीं दिया. उसने कोशिश जारी रखी और फिर से तीन बार ऊपर, नीचे और अपनी
तरफ़ घुमाते हुए चौखट को उखाड़ लिया और उसे अचानक अपने भीतर एक अभूतपूर्व, ठीक न होने वाला
दर्द महसूस हुआ, और वह समझ गया कि उसने अपने भीतर की कोई चीज़ उखाड़ दी
है, कि उसने कोई दुर्भाग्यशाली हरकत कर दी है और सब ख़त्म हो गया है. इस समय
ट्रामगाड़ी चलने लगी थी, मगर प्रेस्न्या पर कुछ ही दूर जाकर रुक गई.
इच्छाशक्ति के अमानवीय प्रयत्न से, लड़खड़ाते हुए और मुश्किल से बेंचों के बीच की जगह में
खड़ी भीड़ से गुज़रते हुए, यूरी अन्द्रेयेविच पिछले प्लेटफॉर्म तक पहुँचा. लोग
उसे रास्ता नहीं दे रहे थे, उस पर टूटे पड़ रहे थे. उसे लगा कि हवा के झोंके ने
उसमें जान डाल दी है, कि हो सकता है, अभी भी सब कुछ ख़त्म नहीं हुआ है, कि उसकी तबियत
संभल रही है.
उसने पिछले प्लेटफॉर्म पर खड़ी भीड़ के बीच से घिसटने की कोशिश की, जिससे उसे और
ज़्यादा गालियों, घूँसों और गुस्से का सामना करना पड़ा. चीख़ों की ओर
ध्यान न देते हुए वह भीड़ के बीच से किसी तरह निकला, खड़ी हुई ट्राम की सीढ़ी से सड़क पर उतरा, एक कदम आगे बढ़ाया, दूसरा, तीसरा, पत्थरों पर ढेर
हो गया और फ़िर नहीं उठा.
एक ही शोर उठा, बातें, बहसें होने लगीं. कुछ लोग प्लेटफॉर्म से नीचे उतरे और
गिरे हुए आदमी के पास पहुँचे. उन्होंने फ़ौरन साबित कर दिया कि वह साँस नहीं ले रहा
है और उसका दिल काम नहीं कर रहा है. शरीर के चारों ओर जमा हुए लोगों के पास
फ़ुटपाथों से लोग आने लगे, कुछ सांत्वना देते हुए, कुछ और इस बात से निराश कि यह कुचला नहीं गया है और
उसकी मौत का ट्राम गाड़ी से कोई लेना-देना नहीं है. भीड़ बढ़ती गई. इस झुण्ड के पास
हल्के बैंगनी ड्रेस वाली महिला भी आई, कुछ देर खड़ी रही, मृत व्यक्ति की ओर देखा, बातचीत सुनी और आगे बढ़ गई, वह विदेशी महिला थी, मगर समझ गई कि कुछ लोग मृत शरीर को अस्पताल ले जाने की
सलाह दे रहे हैं, और कुछ कह रहे हैं कि पुलिस को बुलाना चाहिये. वह इस
बात का इंतज़ार किये बिना आगे बढ़ गई कि वे किस निर्णय पर पहुँचते हैं.
हल्के बैंगनी पोषाक वाली महिला स्विट्ज़र्लैण्ड की नागरिक मेल्युज़ेएवा की बूढी-जक्खड़ मैडम फ़्लेरी थी. वह पिछले बारह सालों से अपने देश वापस लौटने
के अधिकार के बारे में लिखापढ़ी कर रही थी. हाल ही में उसके प्रयत्नों को सफ़लता
मिली थी. वह एक्ज़िट-वीज़ा लेने के लिये मॉस्को आई थी. उस दिन वह पैकेट में रखे, फ़ीते से बंधे हुए
कागज़ात को हिलाती हुई अपने दूतावास में उसे लेने जा रही थी. और वह दसवीं बार ट्राम
को पीछे छोड़कर आगे निकल गई और, इस बात पर ध्यान ही नहीं दिया कि उसने झिवागो को पीछे
छोड़ दिया है और जीवित बच गई है.
13
कॉरीडोर से
दरवाज़े के भीतर कमरे का कोना दिखाई दे रहा था जिसमें एक तिरछी रखी हुई मेज़ थी. मेज़
से दरवाज़े की ओर देख रहा था फूहड़पन से बनाई गई खोखली नाव जैसे ताबूत का निचला पतला
सिरा,
जिसमें मृतक के पैर टिके हुए थे. यह वही मेज़ थी, जिस पर पहले यूरी अन्द्रेयेविच लिखा करता था. कोई और मेज़ कमरे में थी ही
नहीं.
पाण्डुलिपियों को
दराज़ में रख दिया गया था, और मेज़ को ताबूत के नीचे रख दिया
गया था. सिर के नीचे रखे हुए तकिये काफ़ी ऊँचे थे, ताबूत में
शरीर ऐसे लेटा था जैसे पहाड़ की ऊपर जाती हुई चढ़ाई पर पड़ा हो.
उसे काफ़ी मात्रा
में फूलों ने घेरा था, उस समय दुर्लभता से मिलने वाली सफ़ेद लिली की
पूरी-पूरी झाड़ियाँ, गमलों और टोकरियों में सिक्लेमेन और
सेनेरेरिया के फूल थे. फूल खिड़कियों से आने वाले प्रकाश का रास्ता रोक रहे थे.
रोशनी कृपणता से फूलों से होकर मृतक के विवर्ण चेहरे और हाथों पर, ताबूत की लकड़ी और भीतरी लाइनिंग पर पड़ रही थी. मेज़ पर परछाईयों का ख़ूबसूरत
डिज़ाइन बना था, जैसे उन्होंने अभी-अभी हिलना बंद किया हो.
मृतकों का श्मशान
में दहन करने की प्रथा तब तक काफ़ी प्रचलित हो चुकी थी. बच्चों के लिये पेन्शन पाने
की उम्मीद,
उनकी स्कूली पढ़ाई की फ़िक्र और नौकरी में मरीना की स्थिति को ख़तरे
में न डालने की इच्छा से चर्च में अंतिम-संस्कार सेवा से इन्कार कर दिया गया और
इसे शासकीय दहन तक ही सीमित रखने का फ़ैसला किया गया. संबंधित संस्था में सूचना दी
गई. अब प्रतिनिधियों का इंतज़ार हो रहा था.
उनके आने तक कमरा
ख़ाली था,
जैसे पुराने किरायेदार के प्रस्थान और नये किरायेदार के आगमन के बीच
किसी घर में होता है. इस ख़ामोशी को सिर्फ पंजों के बल चलते, नपे-तुले
कदमों की आहट और बिदा लेने वालों की असावधान सरसराहट ही भंग कर रही थी. बिदा लेने
वाले कम ही थे, मगर फ़िर भी उम्मीद से ज़्यादा ही थे.
करीब-करीब बेनाम आदमी की मौत की ख़बर आश्चर्यजनक गति से उनके पूरे मोहल्ले में फ़ैल
गई. काफ़ी संख्या में लोग आये, जो मृतक को उसकी ज़िंदगी के
विभिन्न कालखण्डों में जानते थे और जिन्हें अलग-अलग समय पर उसने खो दिया था और भूल
गया था. उसके वैज्ञानिक विचारों और काव्यात्मक प्रतिभा के कई अनजान प्रशंसक आ गये
थे, जिन्होंने उस आदमी को कभी नहीं देखा था, जिसके प्रति वे आकर्षित थे, और जो पहली बार उसे
देखने के लिये और उसे बिदा करने के लिये आये थे.
इन घड़ियों में, जब
कोई भी संस्कार नहीं किया जा रहा था, और निपट ख़ामोशी प्रकट
रूप से अनुभव हो रही इस कमी के कारण सबके मन पर दबाव डाल रही थी, सिर्फ फूल ही गायन और संस्कार की कमी को पूरा कर रहे थे.
वे न केवल फूल
रहे थे और ख़ुशबू बिखेर रहे थे, मगर इससे, जैसे
कोरस में, हो सकता है, विनाश की गति को
तेज़ कर रहे थे, अपनी ख़ुशबू फेंक रहे थे, और, अपनी सुगंधित शक्ति से, जैसे
कोई रस्म पूरी कर रहे थे.
वनस्पतियों के
साम्राज्य की मृत्य के साम्राज्य के निकट पडोसी के रूप में कल्पना करना इतना आसान
है. यहाँ,
धरती की हरियाली में, कब्रिस्तान के पेड़ों के
बीच, फूलों की क्यारियों से निकलती हुई कोंपलों में, हो सकता है, जीवन में परिवर्तनों के रहस्य और जीवन
की पहेलियाँ केन्द्रित हैं, जिन पर हम सिर खपा रहे हैं. कब्र
से बाहर आये जीज़स को मैरी पहले तो पहचान ही नहीं पाई और उसने उसे चर्च के
कम्पाऊण्ड में घूमता हुआ माली ही समझ लिया था.
14
जब मृतक को कामेर्गेर्स्की स्ट्रीट पर उसके अंतिम आवास पर लाया गया, और उसकी मृत्यु
की ख़बर सुनकर भौंचक्के रह गए दोस्त इस भयानक ख़बर से आधी पगला गई मरीना को साथ लेकर
मुख्य द्वार से पूरे खुले हुए फ्लैट में पहुँचे, तो वह काफ़ी समय तक अपने आप में नहीं थी, फर्श पर गिर गई
और प्रवेश कक्ष में रखे, कुर्सी जैसी सीट जड़े एक लम्बे संदूक के किनारे से उसका
सिर टकरा गया, जिस पर ताबूत के पहुँचने तक, और भीतर के कमरे
को व्यवस्थित किये जाने तक मृतक को रखा गया था. वह आँसुओं से नहा गई थी, कुछ फुसफुसा रही
थी और चीख़ रही थी, शब्द उसके मुँह में ही घुट रहे थे, जिनका आधा भाग
उसकी इच्छा के विपरीत उसके मुख से रुदन के साथ फूट रहा था. वह बड़बड़ाये जा रही थी, जैसे सीधे-सादे लोग विलाप करते हैं, बिना किसी से
सकुचाये, बिना किसी को देखे. मरीना मृत शरीर से लिपट गई और उसे उससे अलग करना
नामुमकिन हो गया, ताकि मृतक को कमरे में ले जाया जा सके जिसे अब साफ़ कर
दिया गया था और जहाँ से अतिरिक्त फ़र्नीचर निकाल दिया गया था, और उसे नहलाकर
पहुँचाये गये ताबूत में लिटाया जा सके. यह सब कल हुआ था. आज उसकी पीड़ा की तीव्रता
कुछ कम हो गई थी, और उसकी जगह मूक जड़ता ने ले ली थी, मगर वह अभी भी
पहले ही की तरह अपने होशो-हवास में नहीं थी, कुछ भी नहीं कह रही थी और शायद उसे अपनी ही याद नहीं
थी.
यहाँ वह कल के बचे हुए दिन से बैठी थी, रातभर वहीं बैठी रही, ज़रा भी हटी नहीं. यहीं क्लावा को उसके पास दूध पिलाने
के लिये लाया गया और कापा को अपनी छोटी-सी आया के साथ लाया गया, और उन्हें वापस
ले गये.
अपने लोग उसे घेरे हुए थे, उसीके समान शोकमग्न दूदरव और गोर्दन. इसी बेंच पर उसके
पास बैठा था, ख़ामोशी से रोता हुआ और ज़ोर से नाक छिनकता हुआ उसका बाप
मार्केल. यहाँ उसके पास रोती हुई माँ और बहनें आईं.
और लोगों के इस प्रवाह में दो व्यक्ति थे, एक महिला और एक पुरुष, जो सबसे अलग-थलग प्रतीत हो रहे थे. उन्होंने मृतक से
उपरोक्त लोगों की अपेक्षा अधिक निकटता का दावा नहीं किया. वे मरीना, उसकी बेटियों और
मृतक के मित्रों के दुख से स्पर्धा नहीं कर रहे थे और उन्हें प्राथमिकता दे रहे
थे. ये दोनों मृतक के प्रति कोई दावा नहीं कर रहे थे, मगर मृतक पर उनके कुछ अपने, एकदम ख़ास अधिकार थे. इन अगम्य और ख़ामोश अधिकारों से, जो उन्हें किसी
कारण से प्राप्त थे, किसी को कोई मतलब नहीं था, कोई इस बारे में बहस नहीं कर रहा था.
इन्हीं लोगों ने प्रत्यक्ष रूप से दफ़न विधि की और उसका इंतज़ाम करने की
ज़िम्मेदारी शुरू से ही अपने ऊपर ले ली थी, और वे उसे इतनी शांति से निभा रहे थे, जैसे उन्हें इससे
कोई संतोष प्राप्त हो रहा हो. उनकी आत्मा का यह बड़प्पन सबकी नज़रों में समा रहा था
और एक विचित्र प्रभाव उत्पन्न कर रहा था. ऐसा लग रहा था, कि इन लोगों का
सिर्फ दफ़न विधि से ही संबंध नहीं था बल्कि इस मृत्यु से भी था, गुनहगारों या
अप्रत्यक्ष कारणों के रूप में नहीं, बल्कि ऐसे लोगों के रूप में, जिन्होंने इस
घटना के घटित होने के बाद उसे स्वीकार कर लिया था, उससे समझौता कर लिया था, और उन्हें कोई महत्वपूर्ण बात इसमें नज़र नहीं आ रही
थी. कुछ लोग इन व्यक्तियों को जानते थे, कुछ लोग अनुमान लगा रहे थे कि वे कौन हैं, और कुछ अन्य
लोगों को, जो बहुतायत से थे, उनके बारे में कोई कल्पना नहीं थी.
मगर जब जिज्ञासु और उत्सुकता जगाती संकीर्ण किर्गिज़ी आँखों वाले इस आदमी, और स्वाभाविक रूप
से ख़ूबसूरत लग रही महिला ने कमरे में प्रवेश किया जहाँ ताबूत रखा था तो मरीना सहित
वे सब लोग जो बैठे थे, बिना किसी ऐतराज़ के, जैसे किसी समझौते के अनुसार, या तो खड़े हो गये
या उसकी ओर बढ़े, उस जगह को ख़ाली कर दिया, एक ओर हट गये, दीवारों से लगाकर रखी हुई कुर्सियों और स्टूलों से उठे
और बचते हुए कॉरीडोर और प्रवेश कक्ष में निकल गये, और बंद दरवाज़ों के पीछे वह पुरुष तथा महिला अकेले रह
गये, जैसे दो जानकार लोग हों, जिन्हें बिना किसी बाधा और परेशानी के दफ़न विधि से
सीधे संबंधित और अत्यंत महत्वपूर्ण काम करने के लिये चुपचाप बुलाया गया हो. ऐसा ही
अब भी हुआ. दोनों एकान्त में रह गये, दीवार के पास रखे दो स्टूलों पर बैठ गये और काम के
बारे में बातें करने लगे:
“आपको क्या पता चला, एव्ग्राफ़ अन्द्रेयेविच?”
“अंतिम संस्कार आज शाम को है. आधे घण्टे बाद ट्रेड यूनियन से मेडिकल
कर्मचारी आयेंगे और मृत शरीर को ट्रेड यूनियन के क्लब में ले जायेंगे. चार बजे
शासकीय शोक सभा है. एक भी दस्तावेज़ सही नहीं था. वर्क-बुक की अवधि समाप्त हो गई थी, पुराना ट्रेड
यूनियन कार्ड बदला नहीं गया था, कई सालों से टैक्स नहीं चुकाया गया है. यह सब ठीक करना
पड़ा.
“इसीलिये लाल-फ़ीताशाही और देरी हो गई. घर से जनाज़ा ले जाने से पहले – वैसे
वह घड़ी निकट ही है, अपने आप को तैयार करना होगा, - मैं आपको यहाँ
अकेला छोड़ दूँगा, जैसा आपने कहा था. माफ़ कीजिये. सुन रही हैं? फ़ोन. एक मिनट”.
एव्ग्राफ़ झिवागो डॉक्टर के अनजान सहकर्मियों, उसके स्कूल के कॉम्रेड्स, अस्पताल के निचले तबके के कर्मचारियों और पुस्तकों की
छपाई का काम करने वालों से खचाखच भरे कॉरीडोर में गया, जहाँ मरीना बच्चों को हाथों से पकड़े और उन्हें अपने
कोट के निचले घेर से ढाँके (दिन ठण्डा था और सामने वाले दरवाज़े से हवा बह रही थी) बेंच
के किनारे पर बैठी थी इस उम्मीद में कि कब दरवाज़ा खोलेंगे, जैसे किसी कैदी
से मिलने आई महिला इंतज़ार करती है कि कब चौकीदार उसे जेल के स्वागत-कक्ष में छोड़ता
है. कॉरीडोर में बहुत भीड़ थी. एकत्रित लोगों का कुछ भाग उसमें समा नहीं पा रहा था.
सीढ़ियों वाला रास्ता खुला था. कई लोग प्रवेश कक्ष में और सीढ़ियों की चौकी पर खड़े थे, चहल-कदमी कर रहे
थे और सिगरेट पी रहे थे. जैसे जैसे सड़क नज़दीक होती जा रही थी, नीचे जाती हुई
सीढ़ियों पर लोग अधिकाधिक ज़ोर से बातें कर रहे थे. संयमित भुनभुनाहट के कारण अपने
कानों पर ज़ोर देते हुए एव्ग्राफ़, शराफ़त के तकाज़े से, दबी हुई आवाज़ में
टेलिफोन के चोगे को हथेली से थोड़ा सा ढांककर, शायद दफ़नविधि के बारे में और डॉक्टर की मृत्यु की
परिस्थितियों के बारे में जवाब दे रहा था. वह कमरे में वापस आया. बातचीत आगे बढ़ी.
“दफ़नविधि के बाद, कृपया, गायब न हो जाईये, लरीसा फ़्योदरव्ना. ये मेरी आपसे बहुत बड़ी विनती है.
मुझे मालूम नहीं है कि आप कहाँ रुकी हैं. मुझे इस परेशानी में न छोड़िये कि आपको
कहाँ ढूँढा जाये. मैं जितनी जल्दी हो सके, कल या परसों, भाई के काग़ज़ात को छाँटना चाहता हूँ. मुझे आपकी मदद की
ज़रूरत पड़ेगी. आप इतना कुछ जानती हैं, शायद सबसे ज़्यादा. आपने संयोगवश बता दिया कि आपको
इर्कूत्स्क से आये दूसरा ही दिन है, आप कुछ ही दिनों के लिये मॉस्को आई हैं, और इस फ्लैट में
किसी और से कारण से आई थीं, संयोगवश, इस बात से अनजान कि पिछले कुछ महीनों से भाई यहाँ रहता
था, आपको यह भी पता नहीं था कि यहाँ क्या हुआ है. आपके कुछ शब्दों को मैं समझ
नहीं पाया, और उन्हें समझाने के लिये भी नहीं कह रहा हूँ, मगर गुम न हो जायें, मुझे आपका पता मालूम नहीं है. सबसे अच्छा ये होता कि
ये कुछ दिन, पाण्डुलिपियों के अध्ययन के लिये समर्पित, एक ही छत के नीचे रहें या एक दूसरे से ज़्यादा दूर न
गुज़ारें, हो सकता है इस बिल्डिंग के अन्य दो कमरों में. इसका इंतज़ाम किया जा सकता है.
मैं बिल्डिंग के मैनेजर को जानता हूँ”.
“आप कह रहे हैं कि मेरी बातें समझ नहीं पाये. इसमें समझ में न आने जैसा क्या
है? मैं मॉस्को आई, सामान क्लोक रूम में दिया, पुराने मॉस्को का चक्कर लगाने लगी, आधे से ज़्यादा
पहचान नहीं पाई, - भूल गई थी. चलती रही, चलती रही, कुज़्नेत्स्की पुल पर उतरी और कुज़्नेत्स्की गली में आई
और अचानक कोई ख़तरनाक रूप से अच्छी तरह जानी-पहचानी जगह – कामेर्गेर्स्की स्ट्रीट.
यहाँ गोली से उड़ा दिया गया अंतीपव रहता था, मेरा स्वर्गीय पति, जब स्टूडेन्ट था तो एक कमरा किराये पर लिया था, बिल्कुल यही कमरा, जहाँ मैं और आप
इस समय बैठे हैं. चलो, मैंने सोचा, देख लेती हूँ, शायद मेरी ख़ुशकिस्मती से पुराने मालिक ज़िंदा हों. उनका कोई अता-पता ही नहीं और यहाँ सब
कुछ अलग ही था, ये तो मुझे, ख़ैर, बाद में मालूम हुआ, दूसरे दिन और आज, धीरे-धीरे पूछने पर, मगर आप तो उस समय यहाँ थे ही, मैं किसलिये बता
रही हूँ? मुझ पर जैसे बिजली गिर गई, सड़का की तरफ़ का दरवाज़ा पूरा खुला हुआ, कमरे में लोग, ताबूत, ताबूत में मृतक.
कौन है यह मृतक? भीतर आती हूँ, नज़दीक जाती हूँ, मैंने सोचा – पागल हो गई हूँ, सपना देख रही हूँ, आप तो हर बात के
गवाह थे, ठीक है ना, मैं आपको यह सब क्यों सुना रही हूँ?”
“रुकिये, लरीसा फ़्योदरव्ना, मैं आपको बीच ही में टोक रहा हूँ. मैं आपसे कह चुका
हूँ कि मुझे और भाई को इस बात पर ज़रा भी संदेह नहीं हुआ कि इस कमरे से कैसी
आश्चर्यजनक यादें जुड़ी हैं. मिसाल के तौर पर यह, कि कभी इसमें अंतीपव रहता था. मगर एक और आश्चर्यजनक
बात जो आपके मुँह से निकली. मैं अभी बताऊँगा कि कौन सी – माफ़ कीजिये. अंतीपव के
बारे में, जो सशस्त्र-क्रांति की गतिविधियों में स्त्रेल्निकव के नाम से जाना जाता था, मैं एक ज़माने में, गृह युद्ध के
आरंभ में अक्सर और काफ़ी कुछ सुनता था, करीब-करीब हर रोज़, और दो-एक बार उससे मिला भी था, बिना इस बात का
पूर्वानुमान लगाये कि कभी पारिवारिक कारणों से वह मेरे इतना निकट आ जायेगा. मगर, माफ़ कीजिये, हो सकता है, मैंने ग़लत सुना, मुझे ऐसा लगा कि
आपने कहा था, - “अंतीपव, जिसे गोली मार दी गई थी”. क्या आपको मालूम नहीं है कि
उसने ख़ुद को गोली मार ली थी?”
“ऐसी बात कहते हैं, मगर मुझे उस पर यकीन नहीं है. पावेल पाव्लविच कभी भी
आत्महत्या नहीं कर सकता था.”
“मगर ये पूरी तरह सच है. अंतीपव ने उस घर में ख़ुद को गोली मार ली, जहाँ से, भाई की कहानियों
के अनुसार, आप युर्यातिन के लिये निकली थीं बाद में व्लादिवस्तोक जाने के लिये. यह आपके
अपनी बेटी के साथ जाने के कुछ ही समय बाद हुआ था. भाई ने ख़ुद को गोली मारकर
आत्महत्या करने वाले को उठाया, उसे दफ़नाया. क्या आप तक ये बातें नहीं पहुँचीं?”
“नहीं. मेरे पास दूसरी ख़बरें थीं. तो, मतलब, यह सच है कि उसने ख़ुद को गोली मार ली? ऐसा काफ़ी लोग
कहते थे, मगर मैं यकीन नहीं करती थी. उसी घर में? असंभव! कैसी महत्वपूर्ण जानकारी आपने मुझे दी है! माफ़
कीजिये, क्या आपको मालूम है कि वह और झिवागो मिले थे या नहीं? उन्होंने बातें
की थीं?”
“स्वर्गीय यूरा के अनुसार उनके बीच लम्बी बातचीत हुई थी.”
“क्या यह सच है? तेरा शुक्रिया, ऐ ख़ुदा! यह अच्छा ही हुआ (अंतीपवा ने हौले से सलीब का
निशान बनाया). – कितना चौंकाने वाला, मानो, स्वर्ग से भेजा गया संयोग! क्या आप मुझे फिर एक बार इस
बात पर लौटने की और आपसे सभी तफ़सीलों के बारे में पूछने की अनुमति देंगे? हर छोटी से छोटी
बात मेरे लिये बहुत कीमती है. मगर फ़िलहाल मैं अपने आप में नहीं हूँ. ठीक है ना? मैं काफ़ी परेशान
हूँ. मैं कुछ देर ख़ामोश रहूँगी, कुछ सांस लूँगी, अपने ख़यालों को इकट्ठा करूँगी. ठीक है ना?”
“ओह, बेशक, बेशक, प्लीज़.”
“ठीक है ना?”
“ज़ाहिर है.”
“आह, मैं तो करीब-करीब भूल ही गई थी. आपने कहा है कि मैं दफ़न-विधि के बाद चली न
जाऊँ. ठीक है. वादा करती हूँ. मैं ग़ायब नहीं होऊँगी. मैं आपके साथ इसी क्वार्टर
में लौटूँगी और जहाँ आप कहेंगे और जितने दिन ज़रूरत होगी, रह जाऊँगी.
यूरच्का की पाण्डुलिपियों को देखेंगे. मैं आपकी मदद करूँगी. मैं सच में, आपकी सहायक
रहूँगी. यह मेरे लिये इतने सुकून की बात होगी! मैं अपने दिल के खून से, नस-नस से उसकी
लिखाई के सभी मोड़ों को महसूस करती हूँ. ऊपर से मेरा आपसे एक काम भी है, मुझे आपकी ज़रूरत
पड़ेगी, ठीक है ना? आप, शायद, वकील हैं, या कम से कम आजकल के सभी नियमों के अच्छे जानकार हैं, पुराने और नये.
इसके अलावा, कितना महत्वपूर्ण है यह जानना कि किस जानकारी के लिये किस संस्था में जाना
चाहिये. सभी को इसकी जानकारी नहीं होती, ठीक है ना. मुझे एक भयानक, पीड़ादायक मामले में आपकी सलाह की ज़रूरत पड़ेगी. बात एक
बच्चे के बारे में है. मगर, यह बाद में, दफ़न-विधि से लौटने के बाद. पूरी ज़िंदगी मुझे किसी न
किसी को ढूँढते ही रहना पड़ता है, ठीक है ना. बताईये, यदि किसी काल्पनिक परिस्थिति में यदि किसी बच्चे का
अता-पता ढूँढ़ना हो, पालन-पोषण के लिये पराये हाथों में सौंपे गये बच्चे का
अता-पता, क्या कोई ऐसी सामान्य, पूरी यूनियन का अभिलेखागार है जहाँ सभी मौजूद शिशु
गृहों की जानकारी हो और क्या शासकीय तौर पर बेघर बच्चों का कोई पंजीकरण या उनकी
गणना का काम किया गया है? मगर मुझे अभी जवाब न दीजिये, विनती करती हूँ.
बाद में, बाद में. ओह, कितना भयानक है, भयानक! ज़िंदगी नाम की चीज़ कितनी भयानक है, ठीक है ना. मैं
नहीं जानती कि आगे क्या होगा, जब मेरी बेटी आयेगी, मगर फ़िलहाल मैं इस फ्लैट में रह सकती हूँ. कात्यूशा
में कई सारी लाजवाब संभावनाएँ हैं, कुछ नाटकों से संबंधित, और दूसरी तरफ़ संगीत के क्षेत्र में भी, वह सबकी बहुत बढ़िया नकल उतारती है और अपनी
ही रचनाओं को नाट्य रूप में प्रस्तुत करती है, और इसके अलावा सिर्फ सुनकर ही ऑपेरा के पूरे पूरे
संवाद गाती है, ग़ज़ब की बच्ची है, ठीक है ना. मैं उसे थियेटर-स्कूल की आरंभिक कक्षाओं
में या कॉन्सर्वेटरी में भेजना चाहती हूँ, जहाँ भी उसे दाख़िला मिल जाये, और उसे बोर्डिंग
हाउस में रख दूँगी, मैं इसीलिये आई हूँ, फ़िलहाल उसके बगैर, जिससे सब कुछ व्यवस्थित कर सकूँ, और उसके बाद चली
जाऊँगी. क्या सब कुछ कह सकते हो, ठीक है ना? मगर इस बारे में बाद में. और अब मैं इंतज़ार करूँगी, जब तक परेशानी
कुछ कम हो जाये, ख़ामोश रहूँगी, विचारों को व्यवस्थित करूँगी, डर को दूर भगाने
की कोशिश करूँगी. इसके अलावा, हमने बड़ी ख़ूबी से यूरा के निकटतम लोगों को कॉरीडोर में
रोक कर रखा है. मुझे दो बार ऐसा लगा कि दरवाज़ा खटखटाया गया है. और वहाँ कोई हलचल
हो रही है, शोर सुनाई दे रहा है. शायद, दफ़न-संस्था से लोग आ गये हैं. जब तक मैं कुछ देर बैठती
हूँ और सोचती हूँ, दरवाज़े खोल दीजिये और लोगों को भीतर आने दीजिये. समय
हो गया है, ठीक है ना. रुकिये, रुकिये. ताबूत के नीचे एक चौकी रखनी होगी, वर्ना यूरच्का तक
हाथ नहीं पहुँचेंगे. मैंने पंजों के बल कोशिश की थी, बहुत मुश्किल था. और मरीना मार्केलव्ना को और बच्चों
को इसकी ज़रूरत पड़ेगी. और इसके अलावा रस्म के मुताबिक भी. “ मेरा आख़िरी चुम्बन लो”.
नहीं बर्दाश्त कर सकती, नहीं कर सकती. कितना दर्द होता है. ठीक है ना”.
“मैं अभी सबको भीतर छोड़ता हूँ. मगर उससे पहले एक बात. आपने इतनी पहेलियों
जैसी बातें कही हैं और इतने सारे सवाल उठाये हैं, ज़ाहिर है, जो आपको परेशान कर रहे हैं, कि मुझे उनके जवाब देने में मुश्किल हो रही है. सिर्फ
इतना चाहता हूँ, कि आपको मालूम हो. मैं ख़ुशी-ख़ुशी, पूरे दिल से हर
उस बात में, जो आपको परेशान कर रही है, आपकी मदद करूँगा. और याद रखिये. कभी भी और किन्हीं भी
हालात में निराश नहीं होना है. दुर्भाग्य के दिनों में - आशा करना और काम करना –
यही हमारी ज़िम्मेदारी है. निष्क्रिय निराशा – गुमनामी और कर्तव्य का उल्लंघन है.
अब मैं बिदा लेने वालों को अंदर छोड़ता हूँ. चौकी के बारे में आप सही हैं. मैं उसे
मंगवाता हूँ और रख दूँगा.
मगर अंतीपवा उसकी बात सुन ही नहीं रही थी. वह सुन ही नहीं रही थी, कि एव्ग्राफ़ ने
कैसे कमरे का दरवाज़ा खोला और उसमें कॉरीडोर से भीड़ घुस आई, दफ़न विधि का
इंतज़ाम करने वालों और प्रमुख बिदा लेने वालों से उसकी बातचीत नहीं सुनी, आगे बढ़ रहे लोगों
की सरसराहट नहीं सुनी, मरीना की सिसकियाँ नहीं सुनीं, मर्दों की खाँसी
नहीं सुनी, औरतों के आँसू और उनकी चीखें नहीं सुनीं.
एक सुर में आ रही आवाज़ों का शोर उसे हिचकोले दे रहा था, उसे बीमार बना
रहा था. उसने पूरी ताकत से कोशिश की कि मूर्च्छित न हो जाये. उसका दिल फ़टा जा रहा
था, सिर में जैसे हथौड़े पड़ रहे थे. सिर लटकाये वह पहेलियों में, कल्पनाओं में, यादों में डूब
गई. वह उनमें खो गई, डूब गई, जैसे कुछ समय के लिये, कुछ घण्टों के लिये, किसी भावी उम्र तक पहुँच गई, जब तक पता नहीं, वह ज़िंदा रहेगी
भी या नहीं, जिसने उसे दसियों साल बड़ा कर दिया और बूढ़ा बना दिया. वह ख़यालों में खो गई, जैसे ठीक गहराई
में गिर गई हो, अपने दुर्भाग्य के ठीक तल पर. वह सोच रही थी:
“कोई नहीं बचा. एक
मर गया. दूसरे ने ख़ुद अपने आप को मार डाला. और ज़िंदा बचा है सिर्फ वह, जिसे मार डालना
चाहिये था, जिस पर उसने हमला किया था, मगर निशाना चूक गया, ये पराया, अनावश्यक नीच, जिसने उसके जीवन को ऐसे अपराधों की जंज़ीर बना दिया
जिनसे वह अनजान थी.
और यह औसत गुणों वाला राक्षस डोलता और घूमता रहता है एशिया के पौराणिक
गली-कूचों में जिनके बारे में सिर्फ डाक टिकटों का संग्रह करने वाले ही जानते हैं, और घनिष्ठ और
मेरे लिये ज़रूरी लोगों में से कोई भी नहीं बचा.
आह, ये क्रिसमस पर हुआ था, उस भयानक कमीनेपन के राक्षस पर सोच-समझकर गोली चलाने
से पहले इसी कमरे में पाशा से, जो तब लड़का ही था, अँधेरे में बात हो रही थी, और यूरा का, जिससे अभी सब बिदा ले रहे हैं, तब उसकी ज़िंदगी
में नामो-निशान तक नहीं था”.
और वह अपनी याददाश्त पर ज़ोर देने लगी, ताकि पाशेन्का के साथ वाली क्रिसमस की शाम वाली उस
बातचीत को पुनर्जीवित कर सके, मगर कुछ भी याद नहीं आया, सिवाय मोमबत्ती के जो खिड़की की चौखट पर जल रही थी, और उसकी बगल में
खिड़की के काँच की बर्फीली पपड़ी में पिघलता हुआ एक वृत्त.
क्या वह सोच सकती थी कि यहाँ मेज़ पर पड़े हुए मृतक ने रास्ते से गुज़रते हुए
इस नन्ही सी आँख को देखा था, और मोमबत्ती की ओर ध्यान दिया था? कि बाहर से देखी
हुई लौ से “जले शमा एक मेज़ पर, शमा जले” - उसकी ज़िंदगी में पूर्वनियोजित उद्देश्य
आरंभ हो गया था?
उसके विचार भटक रहे थे. उसने सोचा : फ़िर भी कितने दुख की बात है कि चर्च की
भाँति उसकी दफ़न विधि नहीं होगी! दफ़न-विधि की प्रार्थना कितनी शानदार और गंभीर होती
है! अधिकांश मृतक उसके योग्य नहीं होते. मगर यूरच्का का कारण इतना भला था! वह इस
सबके इतना लायक था, “कब्र पर हो रहे रुदन से रचे गीत अल्लीलुइया” को सत्य
साबित करता था और उसने इसकी कीमत चुकाई थी!”
और उसने अपने भीतर गर्व और राहत की लहर को महसूस किया, जैसा हमेशा यूरा
के ख़याल से और उसके निकट बिताये ज़िंदगी के चंद लमहों में उसके साथ होता था. आज़ादी
और बेफ़िक्री की लहर जो उससे हमेशा निकलती थी, उसने इस समय भी उसे अपने आग़ोश में ले लिया. वह आराम से
स्टूल से उठी, जिस पर बैठी थी. उसके साथ कोई अजीब सी बात हो रही थी. इस लहर की सहायता
से वह थोड़ी ही देर के लिये सही, आज़ाद होना चाहती थी, उन पीड़ाओं की गहराई से, जिन्होंने उसे जकड़ रखा था, खुली हवा में जाना चाहती थी, और जैसा पहले
होता था, आज़ादी के सुख को महसूस करना चाहती थी. ऐसे सुख का वह सपना देख रही थी, कल्पना कर रही थी
ऐसे सुख की जब उससे अकेले में बिना किसी बाधा के बिदा ले सके, उसके ऊपर
फ़ूट-फ़ूटकर रो सके. और उसने तीव्र इच्छा से उसने भीड़ पर नज़र दौड़ाई, दर्द से घायल नज़र, आँसुओं से लबालब, कुछ भी देखने में
असमर्थ, जैसे नेत्र-चिकित्सक ने आँखों में जलाती हुई दवा की बूंदें डाल दी हों, और सब आगे बढ़ने
लगे, नाक सुड़सुड़ाने लगे, एक तरफ़ को हटने लगे और कमरे से बाहर निकलने लगे, आख़िरकार, बंद दरवाज़ों के
पीछे उसे अकेला छोड़कर, और वह, फ़ौरन चलते हुए सलीब का निशान बनाती, मेज़ के पास और
ताबूत के पास आई, एव्ग्राफ़ द्वारा रखी गई चौकी पर चढ़ी, हौले से जिस्म पर
तीन बार सलीब के चौड़े निशान बनाये और ठण्डे माथे और हाथों से लिपट गई. वह इस एहसास
से गुज़र रही थी कि ठण्डा हो चुका माथा जैसे सिकुड़ रहा है, जैसे मुट्ठी बंधा
हाथ होता है. उसने कोशिश की कि यह न देखे. वह जम गई, और कुछ पलों तक न तो कुछ बोली, न कुछ सोचा और न
ही रोई, ताबूत के बीच वाले हिस्से को, फूलों को और जिस्म को अपने शरीर से, अपने सिर से, सीने से, आत्मा से और, आत्मा की तरह
बड़े-बड़े अपने हाथों से ढाँकती हुई.
15
रोकी हुई
हिचकियों से उसका पूरा बदन थरथरा रहा था. जब तक संभव था, वह उनका विरोध
करती रही, मगर अचानक यह उसकी बर्दाश्त से बाहर हो गया, उसके आँसू फूट पड़े और वह उनसे अपने गालों को, पोषाक को, हाथों को और
ताबूत को भिगोती रही, जिससे वह चिपकी हुई थी.
वह न तो कुछ बोल रही थी, न सोच रही थी. आम विचारो की, तथ्यों की, विश्वसनीयता की
कतारें आज़ादी से तैरती जा रही थीं, उसके भीतर इस तरह भाग रही थीं जैसे आसमान में बादल भाग
रहे हों और जैसा उनकी पुरानी, रातों की बातचीत के दौरान होता था. यही तो था जो लाता था सुख और आज़ादी. बिना दिमाग़
से सोचे, उत्कट, एक-दूसरे को प्रेरित करने वाला ज्ञान. सहज, सीधे.
ऐसे ही ज्ञान से वह अभी भी परिपूर्ण थी, मृत्यु के बारे में अंधेरे, अस्पष्ट ज्ञान से, उसके लिये तैयार रहने, उसके सामने परेशान न होने की भावना से. जैसे वह दुनिया
में बीसियों बार जी चुकी हो, अनगिनत बार यूरी झिवागो को खो चुकी हो और उसके दिल में
इस बारे में अनुभवों का ख़ज़ाना है, कि वह सब जो वह इस ताबूत के पास महसूस कर रही थी और कर
रही थी, बिल्कुल सही और प्रसंगोचित था.
ओह, कैसा था यह प्यार, आज़ाद, अभूतपूर्व, अनुपम! वे उस तरह सोचते, जैसे अन्य लोग गाते हैं.
वे एक दूसरे को प्यार करते थे मजबूरी में नहीं, “वासना से अभिभूत” होकर नहीं, जैसा कि उसका
झूठा चित्रण करते हैं. वे एक दूसरे से इसलिये प्यार करते थे क्योंकि ऐसा उनके
चारों ओर की हर चीज़ यही चाहती थी : उनके नीचे की धरती, उनके सिरों के ऊपर का आसमान, बादल और पेड़.
उनका प्यार चारों ओर की सृष्टि को अच्छा लगता था, हो सकता है, उससे भी ज़्यादा जितना ख़ुद उन्हें लगता था. रास्ते के
अनजान लोगों को, उन दूरियों को जहाँ वे सैर करने के लिये जाते थे, कमरों को, जिनमें वे बस गये
थे और मिलते थे.
आह, यही तो, यही तो थी, प्रमुख चीज़, जिसने उन्हें जोड़ दिया था और एक कर दिया था! कभी भी, कभी भी, ईश्वर प्रदत्त, विस्मरणीय सुख के
क्षणों में भी उस अत्यंत उच्च और उत्तेजित करने वाली चीज़ : दुनिया के सामान्य
शिल्प से आनंदित होना, उनके स्वयम् के इस पूरे चित्र से संबंधित होने की भावना
ने, सम्पूर्ण दृश्य की सुंदरता का अंश होने के एहसास ने, समूची सृष्टि से
संबद्ध होने के एहसास ने उनका साथ कभी नहीं छोड़ा था.
वे सिर्फ इस घनिष्ठता से ही साँस लेते थे. और इसलिये मनुष्य का शेष प्रकृति
से श्रेष्ठ होना, फ़ैशनेबल तरीके से उसकी देखभाल करना और इन्सान के सामने
झुकना उन्हें कभी नहीं भाया, झूठी सामाजिकता का आरंभ, जो राजनीति में परिवर्तित हो गई है उन्हें दयनीय रूप
से घर में बनाई हुई प्रतीत होती और समझ में नहीं आती.
16
और वह उससे बिदा
लेने लगी,
सीधे-सादे, दैनंदिन इस्तेमाल के शब्दों में, जो ऐसी शीघ्र, अनौपचारिक बातचीत का हिस्सा होते हैं,
जो वास्तविकता की सीमा तोड़ती है और जिसमें कोई अर्थ नहीं होता,
जैसे किसी शोकांतिका के समूह गीतों और एकालापों में, काव्यात्मक भाषा में, और संगीत और अन्य परंपराओं में,
जिनका समर्थन सिर्फ भावनात्मक परंपरा ही करती है, कोई अर्थ नहीं होता. वर्तमान स्थिति की परंपरा थी उसके आँसू, जिनमें उसके रोज़मर्रा के साधारण शब्द डूब रहे थे, नहा
रहे थे, तैर रहे थे, जो उसकी
हल्की-फुल्की, बगैर सोची समझी बातचीत के तनाव का समर्थन कर
रहे थे.
ऐसा लग रहा था कि
आँसुओं से भीगे ये शब्द ख़ुद-ब-ख़ुद उसकी स्नेहपूर्ण और शीघ्र बुदबुदाहट में समा रहे
थे,
जैसे हवा गर्म बारिश से उलझे हुए रेशम जैसे नरम और नम पत्तों को
सहलाती है.
“हम फ़िर एक साथ
हैं,
यूरच्का. जैसा ख़ुदा ने ही हमें मिलने के लिये बुलाया था. कितना भयानक,
ज़रा सोचो! ओह, मैं नहीं कर सकती! ओह, ख़ुदा! रोती जा रही हूँ, रोती जा रही हूँ! सोचो! फिर
से कोई हमारी चीज़, हमारे शस्त्रागार से. तुम्हारा जाना,
मेरा अंत. फिर से कोई बड़ी घटना, जिसे बदला
नहीं जा सकता. जीवन की पहेली, मृत्यु की पहेली, प्रतिभा का आकर्षण, नग्नता का आकर्षण, ये प्लीज़, ये हम समझते थे. मगर दुनिया के छोटे-छोटे
झगड़े, जैसे पृथ्वी पर फ़िर से नक्शे बनाना, ये, माफ़ कीजिये, ये सब हमारे
लिये नहीं है.
अलबिदा, महान
और मेरे अपने, अलबिदा मेरे गौरव, अलबिदा
मेरी गहरी, तीव्र नदिया, कितना अच्छा
लगता था दिन भर तुम्हारी छपछपाहट सुनना, कितना अच्छा लगता था
तुम्हारी ठण्डी लहरों में ख़ुद को झोंक देना.
याद है, तब,
वहाँ, बर्फ में मैंने तुमसे बिदा ली थी?
तुमने कैसे मुझे धोखा दिया था! क्या मैं तुम्हारे बिना जा सकती थी?
ओह, मैं जानती हूँ, मैं
जानती हूँ, तुमने बड़ी मुश्किल से यह किया था, मेरी काल्पनिक भलाई के लिये. और तब सब कुछ धूल में मिल गया. ख़ुदा, मैंने कैसा ज़हर पिया वहाँ पर, क्या-क्या बर्दाश्त
किया! मगर तुम्हें तो कुछ भी मालूम नहीं है. ओह, मैं क्या कर
बैठी थी! मैं इतनी अपराधी हूँ, कि तुम अंदाज़ भी नहीं लगा
सकते! मगर मेरा दोष नहीं है. मैं उस समय तीन महीने अस्पताल में पड़ी रही, जिनमें एक पूरा बेहोशी में. तब से मेरी कोई ज़िंदगी ही नहीं है, यूरा. दया और पीड़ा से मेरी रूह को चैन नहीं है. मगर मैं बता ही नहीं रही
हूँ, ख़ास राज़ खोल ही नहीं रही हूँ. मैं उसका नाम नहीं ले
सकती, मुझमें इतनी हिम्मत ही नहीं है. जब मैं अपनी ज़िंदगी के
इस मोड़ तक पहुँचती हूँ, तो भय से मेरे सिर के बाल खड़े हो
जाते हैं. और, पता है, मैं इस बात का
दावा भी नहीं कर सकती कि मैं पूरी तरह सामान्य हूँ. मगर देखो, मैं पीती नहीं हूँ, जैसा बहुत सारे लोग करते हैं,
इस रास्ते पर कदम भी नहीं रखती हूँ, क्योंकि
शराबी औरत मतलब अंत है, यह कोई अकल्पनीय-सी बात है, ठीक है ना.
और वह कुछ और भी
कहती रही,
सिसकियाँ लेती रही, तड़पती रही. अचानक उसने
अचरज से सिर उठाया और चारों तरफ़ देखा. कमरे में कबसे लोग आ चुके थे, गहमागहमी, हलचल हो रही थी. वह चौकी से नीचे उतरी और,
लड़खड़ाते हुए ताबूत से दूर हटी, आँखों पर हथेली
फेरते हुए और जैसे बचे हुए आँसू निचोड़ ले, जिससे उन्हें हाथ
से फ़र्श पर झटक सके.
मर्द ताबूत की ओर
आये और उसे तीन चादरों में उठाया. जनाज़ा शुरू हो गया.
17
लरीसा फ़्योदरव्ना ने कामेर्गेर्स्की में कुछ दिन बिताये. कागज़ात को छाँटने
का काम जिसके बारे में एव्ग्राफ़ अन्द्रेयेविच से बात हुई थी, उसके सहयोग से
शुरू तो हुआ, मगर पूरा न हो सका. एव्ग्राफ़ अन्द्रेयेविच के साथ उसकी
उस विषय पर बातचीत भी हुई जिसके बारे में उसने अनुरोध किया था. उसे लारा से कोई
बेहद महत्वपूर्ण बात पता चली.
एक बार लरीसा फ़्योदरव्ना घर से निकली और फिर कभी वापस नहीं आई. ज़ाहिर है, उसे उन दिनों
रास्ते पर गिरफ़्तार कर लिया गया और या तो वह मर गई या कहीं खो गई, बाद में उत्तर के
अनगिनत सामान्य या महिला कन्सन्ट्रेशन कैम्पों की गुम हो गई सूचियों में किसी
बेनाम क्रमांक से भुला दी गई.
अध्याय – 16
उपसंहार
1
सन् उन्नीस सौ तैंतालीस की गर्मियों में, कुर्स्की
कमान पर मिली सफ़लता और अर्योल की आज़ादी के बाद गोर्दन, जिसकी
हाल ही में जुनियर लेफ़्टिनेन्ट के रूप में पदोन्नति हुई थी, और
मेजर दूदरव अपनी अपनी सामान्य सैन्य यूनिट में अलग-अलग वापस लौटे. पहला मॉस्को के
शासकीय दौरे से लौट रहा था और दूसरा भी वहीं से तीन दिन की छुट्टी से लौटा
था.
वापस लौटते हुए
वे मिले और उन्होंने छोटे से शहर चेर्न में रात बिताई, जो
हाँलाकि तबाह तो हो गया था, मगर इस ”रेगिस्तानी प्रदेश” के
अधिकांश रिहाइशी स्थानों की तरह पूरी तरह नष्ट नहीं हुआ था, जिनका
पीछे हटते हुए दुश्मन ने धरती से पूरी तरह नामोनिशान मिटा दिया था.
शहर के
भग्नावशेषों में,
टूटी हुई ईंटों के ढेरों और कुचले हुए मलबे की बारीक धूल के बीच
उन्हें एक साबुत चारागाह दिखाई दी, जिस पर दोनों चढ़ गये और
शाम से ही लेट गये.
उन्हें नींद नहीं
आ रही थी. पूरी रात वे बातें करते रहे. सुबह-सुबह ऊँघते हुए दूदरव को गोर्दन की
खुड़खुड़ ने जगा दिया. अजीब-सी हरकतों से, जैसे पानी में, डूबते और नर्म घास में कुछ फेंकते हुए वह थैली में पहनने की कुछ चीज़ें
इकट्ठा कर रहा था, और फिर वैसे ही फ़ूहड़पन से घास के पहाड़ की
चोटी से चारागाह से बाहर जाने वाली चौखट की ओर फ़िसलने लगा.
“ये तुम कहाँ चले? अभी
बहुत जल्दी है.”
“नदी पर जा रहा
हूँ. अपने कुछ कपड़े धोना चाहता हूँ.”
“है ना पागल. शाम
को अपनी यूनिट में पहुँच जायेंगे, धोबन तान्या आयेगी और चादरें वगैरह
बदल देगी. इतनी जल्दबाज़ी क्यों मचा रहे हो.”
“टालना नहीं
चाहता,
खूब पसीना आया था, बहुत दिनों से बदले नहीं
हैं. सुबह गर्म है. जल्दी से धो लूँगा, अच्छी तरह निचोड़
लूँगा, धूप में फ़ौरन सूख जायेंगे. नहा लूँगा, कपड़े बदल लूँगा.”
“फ़िर भी, जानते
हो, यह सही नहीं है. मान लो, आख़िर तुम
ऑफ़िसर हो.”
“अभी जल्दी है, आस-पास
सब सो रहे हैं. मैं कहीं किसी झाडी के पीछे. किसी को भी नहीं दिखाई देगा. और तू सो
जा, बात मत कर. नींद उड़ जायेगी.”
“मैं वैसे भी और
नहीं सो पाऊँगा. मैं भी तेरे साथ चलूँगा”.
और वे नदी की ओर
चल पड़े सफ़ेद पत्थरों के भग्नावशेषों के पास से जाने लगे जो अभी-अभी निकले सूरज की
गर्मी से तप गये थे. भूतपूर्व रास्तों के बीचोंबीच, धरती पर सूरज की भट्टी के ठीक
नीचे पसीने से लथपथ, खर्राटे भरते हुए, लाल पड़ रहे लोग सो रहे थे. इनमें ज़्यादातर स्थानीय लोग थे, जो बिना छत के रह गये थे, बूढ़े लोग, औरतें और बच्चे, बहुत कम – इक्के-दुक्के रेड आर्मी
के सैनिक भी थे जो अपनी यूनिट्स से पिछड़ गये थे और उनसे मिलने के लिये जा रहे थे.
गोर्दन और दूदरव सावधानी से. पूरे समय अपने पैरों के नीचे देखते हुए सोये हुए
लोगों के बीच से जा रहे थे, ताकि किसी पर उनका पैर न पड़
जाये.
“धीरे बोल, नहीं
तो सारे शहर को उठा देंगे और तब मेरी धुलाई को अलबिदा कहना होगा.”
और उन्होंने दबी
ज़ुबान में अपनी रात की बातचीत जारी रखी.
2
“यह कौनसी नदी है?”
“मालूम नहीं. पूछा नहीं. शायद ज़ूशा हो.”
“नहीं, ज़ूशा नहीं है. कोई अन्य नदी है.”
“तो फ़िर, नहीं मालूम.”
“ज़ूशा पर ही तो
ये सब हुआ था. क्रिस्तीना के साथ.”
“हाँ, मगर
बहाव के किसी अन्य स्थान पर. कहीं नीचे की ओर. कहते हैं कि चर्च ने उसे “संत” की
उपाधि से सम्मानित किया था.
“वहाँ एक पत्थरों
की इमारत थी जिसे “अस्तबल” कहते थे. वाकई में, सोवियत फ़ार्म की घुड़साल का
अस्तबल, जातिवाचक संज्ञा, जो ऐतिहासिक
बन गया. प्राचीन, मोटी दीवारों वाला. जर्मनों ने उसे सुदृढ़ बनाया और एक अभेद्य किले
के रूप में परिवर्तित कर दिया. वहाँ से पूरे इलाके पर ख़तरनाक गोली-बारी की जाती थी, जिससे हमारा आगे बढ़ना रुक गया था. अस्तबल को लेना ज़रूरी था. क्रिस्तीना
आश्चर्यजनक बहादुरी और चतुराई दिखाते हुए जर्मनों के कैम्प में घुस गई, अस्तबल को विस्फ़ोट से उड़ा दिया,
उसे ज़िंदा पकड़ लिया गया और
सूली पर लटका दिया गया”.
“क्रिस्तीना अर्लित्सोवा क्यों है, दूदरवा क्यों नहीं?”
“हमारी तब तक शादी नहीं हुई थी. सन् इकतालीस की गर्मियों में हमने एक-दूसरे
को वचन दिया था कि युद्ध समाप्त होने के बाद शादी कर लेंगे. इसके बाद मैं बाकी की
फ़ौज के साथ घूमता रहा. मेरी यूनिट को लगातार एक जगह से दूसरी जगह भेजा जाता था.
इन्हीं स्थानांतरणों के कारण मैंने उसे खो दिया. बाद में फ़िर कभी नहीं देखा. उसके
साहसी कारनामे और वीरतापूर्ण मृत्यु के बारे में मैंने भी औरों की ही भांति सुना.
अख़बारों से और रेजिमेन्ट के निर्देशों से. यहीं कहीं, कहते हैं, कि उसका स्मारक बनाने के बारे में सोच रहे हैं.
स्वर्गीय झिवागो का भाई, जनरल झिवागो, मैंने सुना है, कि इस जगहों पर जा रहा है और उसके बारे में जानकारी
एकत्रित कर रहा है”.
“माफ़ करना, कि मैंने उसके बारे में बातचीत में तुम्हें घसीट लिया.
तुम्हारे लिये यह बहुत मुश्किल रहा होगा”.
“बात ये नहीं है. मगर हम तो बातों में बहक गये. मैं तुम्हें परेशान करना
नहीं चाहता. कपड़े उतार दे, पानी में घुस जा और अपना काम कर ले. और मैं किनारे पर
पसर जाता हूँ, दाँतों में घास का डंठल दबाकर चबाऊँगा – सोचूँगा, हो सकता है, एक झपकी ले लूँ.”
कुछ देर बाद बातचीत फिर से शुरू हो गई.
“तूने ये इस तरह से धोना कहाँ सीखा?”
“ज़रूरत सिखा देती है. हमारी
किस्मत बुरी थी. यातना शिविरों से हम सबसे भयानक शिविर में पहुँचे. बिरले ही लोग
बच पाये. पहुँचते ही. हमारे झुण्ड को डिब्बे से बाहर उतार दिया गया. बर्फीला
रेगिस्तान. सुरक्षा-गार्डस, बंदूकों की नलियाँ नीचे, जर्मन शेफ़र्ड्स. लगभग उसी वक्त, अलग-अलग समय पर
दूसरे नये झुण्डों को भी हांककर लाया गया. पूरे मैदान में कई कोणों वाली विस्तीर्ण
आकृति बनाई गई, पीठ भीतर की ओर, ताकि एक दूसरे को न देखें. घुटनों के बल खड़े रहने का
और बंदूक का डर दिखाकर इधर-उधर न देखने का
हुक्म दिया गया, और शुरू हो गया एक अंतहीन, कई घंटों तक खिंचता हुआ अपमानास्पद रोल-कॉल. और सब
घुटनों के बल. फिर खड़े हुए, दूसरे झुण्डों को अलग-अलग पॉइंट्स पर भेज दिया गया और
हमारे वाले को हुक्म दिया गया : “ ये है तुम्हारा कैम्प. जैसा आता है, वैसे रह जाओ.”
बर्फीला मैदान खुले आसमान के नीचे, बीचोंबीच एक खम्भा, खम्भे के ऊपर लिखा था “गुलाग 92 क्र. 90” और इसके
अलावा कुछ नहीं”.
“नहीं, हमारे यहाँ कुछ आसान था. हम ख़ुशनसीब रहे. वैसे मैं
दूसरा निर्वासन काट रहा था, जो पहले वाले निर्वासन के बाद आता ही है. इसके अलावा, धारा दूसरी थी, और परिस्थितियाँ
भी दूसरी थीं. आज़ाद होने के बाद मुझे फ़िर से पुनर्स्थापित किया गया, जैसा पहली बार
किया था, और फिर से युनिवर्सिटी में ‘लेक्चर्स’ देने की अनुमति दी गई. और युद्ध पर भी मेजर के सभी
अधिकारो सहित, न कि सज़ा याफ़्ता यूनिट के साथ, जैसा तेरे साथ
हुआ.”
“हाँ. खम्भे पर था क्रमांक “गुलाग 92 क्र. 90” और इसके अलावा कुछ नहीं. पहले
बर्फ में नंगे हाथों से पेड़ों के लट्ठे तोड़े झोंपड़ियों के लिये. और क्या, यकीन नहीं करोगे
कि धीरे-धीरे ख़ुद ही सब कुछ बना लिया. अपने लिये ख़ुद ही कोठरियाँ बनाईं, पहरे की बागड़
बनाई, दण्ड देने के कमरे बनाये, संतरियों के टॉवर्स बनाये – सब कुछ ख़ुद ही किया. और
शुरू हुई जंगल की कटाई. जंगल गिराना. जंगल की कटाई की. आठ-आठ लोग स्लेज में जोते
जाते, लट्ठे ढोकर लाते, सीने तक बर्फ में धंस जाते. लम्बे समय तक पता ही नहीं
चला कि युद्ध शुरू हो गया है. छुपा रहे थे. और अचानक – एक प्रस्ताव. सज़ायाफ़्ता
बटालियन में स्वेच्छा से मोर्चे पर जाने वालों के लिये, और अगर अनगिनत लड़ाइयों से सही-सलामत बच गये, तो – आज़ादी. और
उसके बाद हमले और हमले, कई-कई मील कंटीले तारों का घेरा जिनमें बिजली का करंट
बहता था, सुरंगें, तोपखाने, महीनों पर महीने तूफ़ानी गोलाबारी के. हमें यूँ ही इन कम्पनियों
में आत्मघाती नहीं कहते थे. सबके सब भून दिये गये. मैं कैसे ज़िंदा बच गया? मैं कैसे ज़िंदा
बच गया? फ़िर भी, कल्पना कर, ये समूचा लहू का नरक यंत्रणा शिविर के मुकाबले में
जैसे ख़ुशनसीबी था, और सिर्फ अत्यंत कठिन परिस्थितियों की वजह से नहीं, बल्कि किसी और ही
कारण से.”
“हाँ, भाई, तूने बहुत दुख झेला है.”
“यहाँ सिर्फ कपड़े
धोना ही नहीं, बल्कि जो चाहो सीख सकते हो”.
“अचरज की बात है. न सिर्फ तुम्हारे कठोर यातना-शिविर की बाबत, मगर उससे पूर्व के
तीसरे दशक के लिहाज़ से, आज़ादी में भी, युनिवर्सिटी की ख़ुशनुमा गतिविधियों में, किताबों, पैसों, ऐशो-आराम की ज़िंदगी के लिये भी युद्ध एक तूफ़ान की
तरह था, जिसने सब कुछ साफ़ कर दिया, ताज़ी हवा का झोंका था, मुक्ति की सांस था.
“मैं सोचता हूँ कि ‘सामूहिकीकरण’ एक झूठा, असफ़ल उपाय था, और ग़लती को मान लेना असंभव था. असफ़लता को छुपाने के
लिये, यह ज़रूरी था कि डराने-धमकाने के सभी साधनों का प्रयोग करके लोगों को फ़ैसला
करने और सोचने से परावृत्त किया जाये और उन्हें इस बात पर मजबूर किया जाये कि अस्तित्वहीन
चीज़ों को देखें और वह सत्यापित करें जो प्रमाणों के विपरीत है. यहाँ से शुरू होती
है अभूतपूर्व ‘यिझोवियन’ क्रूरता और दमन, ऐसे संविधान का प्रचार जिसे लागू नहीं करना था, चुनावों की
प्रस्तावना, जो चुनावों के सिद्धांत पर आधारित नहीं थे.
“और जब युद्ध आरंभ हो गया, उसकी वास्तविक भयावहता, वास्तविक ख़तरा और वास्तविक मौत की आशंका अमानवीय काल्पनिक
सत्ता के मुकाबले वरदान प्रतीत हुए और अपने साथ कुछ राहत लाये, क्योंकि उन्होंने
मृत अक्षरों की ऐन्द्रजालिक शक्ति को सीमित कर दिया था.
“न सिर्फ उन लोगों ने जो तुम्हारी जैसी स्थिति में, लेबर कैम्प्स में
थे, बल्कि सभी ने, जो फ्रन्ट पर थे और पार्श्व भाग में थे, राहत की सांस ली, ज़्यादा आज़ादी से, पूरी ताकत से, और उत्साह से, सच्चे सुख की
भावना से भयानक संघर्ष में कूद पड़े जो घातक और हितकारी था.
“युद्ध –
क्रांतिकारी दशकों की जंज़ीर में एक ख़ास कड़ी है. क्रांतिकारी परिवर्तन की प्रकृति
में सीधे निहित कारणों का कार्य समाप्त हो गया था. अप्रत्यक्ष नतीजे, फलों के फल, परिणामों के
परिणाम नज़र आने लगे. विपदाओं से व्युत्पन्न चारित्रिक कठोरता, सख़्ती, किसी महान, अतिसाहसी, अभूतपूर्व कार्य
को करने की तत्परता. ये गुण परीकथाओं जैसे हैं, चौंकाने वाले हैं, और वे इस पीढ़ी की नैतिकता का रंग हैं.
“ये निरीक्षण मुझे ख़ुशी से भर देते हैं, क्रिस्तीना की दर्दनाक मौत के बावजूद, मेरे ज़ख़्मों के
बावजूद, हमारे नुक्सान के बावजूद, युद्ध की इस भारी, रक्तरंजित कीमत के बावजूद. आत्म-बलिदान का प्रकाश अर्लित्सोवा
की मौत के दर्द को बर्दाश्त करने में मेरी मदद करता है, जिससे उसका अंत और हममें से हरेक का जीवन भी प्रकाशित
हो गया है.
“ठीक उसी समय, जब तुम, बेचारे, अपनी अनगिनत यातनाएँ झेल रहे थे, मुझे आज़ाद किया
गया था. इस समय अर्लित्सोवा ने इतिहास संकाय में प्रवेश लिया था. उसकी वैज्ञानिक
रुचि के क्षेत्र को देखते हुए उसे मेरे मार्गदर्शन में रखा गया. मैं काफ़ी पहले ही, मेरे पहले
यातना-कैम्प के बाद, जब वह बच्ची ही थी, इस ग़ज़ब की लड़की को देख चुका था. यूरी के जीवन काल में
ही, याद है, मैंने बताया था. तो, अब, मतलब, वह मेरे विद्यार्थियों की सूची में आ गई थी.
“उस समय विद्यार्थियों द्वारा शिक्षकों की खुले आम आलोचना करने का चलन फ़ैशन
बन गया था. अर्लित्सोवा पूरे तैश से उसमें हिस्सा लेती थी. सिर्फ ख़ुदा ही जानता है
कि वह क्यों इतने जोश से हाथ-धोकर मेरे पीछे पड़ी थी. उसके हमले इतने धृष्ठ, आक्रामक और
अन्यायपूर्ण होते थे कि विभाग के बाकी विद्यार्थी कभी कभी विरोध करते और मेरा बचाव
करते.
“अर्लित्सोवा बेहद मज़ाकिया थी. वह एक काल्पनिक उपनाम से, जिसमें सब मुझे
पहचान जाते, दीवारी-अख़बार में मुझ पर दिल खोलकर हँसती. अचानक, पूरी तरह इत्तेफ़ाक से पता चला कि ये गहरी दुश्मनी एक
तरह का नकाब है जवाँ-मोहब्बत को छुपाने के लिये, जो अटूट है, छुपी हुई है और न जाने कितनी पुरानी है. मैंने भी उसकी
मोहब्बत का उसी तरह से जवाब दिया.
“सन् इकतालीस में, युद्ध के पहले साल में, उसके शुरू होने से ठीक पहले और उसकी घोषणा के फ़ौरन बाद
हमने ख़ूबसूरत गर्मियाँ बिताईं. कुछ नौजवान विद्यार्थी लड़के और लड़कियाँ, जिनमें वह भी थी, मॉस्को के पास वाले समर-कॉटेजेस में रहने लगे, जहाँ बाद में
मेरी यूनिट की पोस्टिंग हुई थी. हमारी दोस्ती उनकी युद्ध संबंधी ट्रेनिंग के बीच, उपनगरीय टुकड़ियों
के गठन के दौरान, क्रिस्तीना की पैराशूट की ट्रेनिंग के दौरान, मॉस्को की शहरी
छतों से आरंभिक जर्मन हमलों के रात के प्रतिबिम्बों के बीच फलती-फूलती रही. मैं
तुम्हें पहले ही बता चुका हूँ कि वहाँ हमने अपनी सगाई मनाई थी और मेरे
स्थानांतरणों के कारण हम शीघ्र ही जुदा हो गये थे. उसके बाद मैंने उसे फ़िर कभी
नहीं देखा.
जब हमारे हालात सुधरने लगे और जर्मन सैनिकों ने हज़ारों की संख्या में
आत्म-समर्पण करना शुरू कर दिया तो मुझे, दो बार लगी चोटों और दो बार अस्पताल में रखने के बाद
विमान-रोधी तोपखाने से मुख्यालय की सातवीं डिविजन में भेज दिया गया जहाँ ऐसे लोगों
की ज़रूरत थी जो विदेशी भाषाएँ जानते हों, और तुझे जैसे समुंदर के तल से ढूँढ़कर निकालने के बाद
मैंने इस बात पर ज़ोर दिया कि तुझे भी यहाँ भेज दिया जाए.’
“धोबन तान्या अर्लित्सोवा को अच्छी तरह जानती थी. उनकी मोर्चे पर मुलाकात
हुई थी और वे सहेलियाँ थीं. वह क्रिस्तीना के बारे में बहुत कुछ बताती है. क्या
तुमने ग़ौर किया कि जब यह तान्या मुस्कुराती है तो उसके पूरे चेहरे पर मुस्कुराहट
फ़ैल जाती है, जैसा यूरी के साथ होता था. एक मिनट के लिये नुकीली नाक, गालों की नुकीली
हड्डियाँ गायब हो जाती हैं, चेहरा आकर्षक, प्यारा हो जाता है. ये बिल्कुल वही ‘टाईप’ है, जो हमारे यहाँ
बहुतायत से देखी जाती है”.
“मैं जानता हूँ कि तू किस बारे में कह रहा है. काश, ऐसा ही हो. मैंने
ध्यान नहीं दिया”.
“कैसा जंगली, फूहड़ उपनाम है तान्का ‘बिज़ओचिरेदेवा (बे कतार – अनु.). यह किसी भी हालत में
उसका कुलनाम नहीं हो सकता, बल्कि कोई गढ़ा गया, बिगाड़ा गया नाम है. तुम्हारा क्या ख़याल है?”
“उसने समझाया तो था. वह अनजान माँ-बाप की ‘बेघर’ बेटी है. शायद कहीं रूस के भीतरी हिस्से में, जहाँ भाषा अभी तक
साफ़ और अनछुई है, उसे ‘बिज़ोत्चाया’ कहा जाता था, मतलब, बिना बाप की. उस सड़क पर, जहाँ इसका कुलनाम समझ में नहीं आया और जो सब कुछ कानों
से ग्रहण करती है और सब कुछ उलट-पुलट कर देती है, इसे अपने ढर्रे से बदल दिया, अपनी सड़क छाप
बोली की तर्ज़ पर.
3
यह हुआ था पूरी तरह से नष्ट कराचेव शहर में, गोर्दन और दूदरव की चेर्नी में गुज़ारी रात के और उनकी
वहाँ वाली बातचीत के कुछ ही दिनों बाद. यहाँ अपनी फ़ौज को आगे बढ़ाते हुए दोस्तों को
उसकी कुछ पार्श्व टुकड़ियाँ मिलीं, जो मुख्य फ़ौजों के पीछे-पीछे चल रही थीं.
महीने भर से ज़्यादा गर्म पतझड़ का साफ़, शांत मौसम चल रहा था. नीले, बादल-रहित आसमान की गर्मी में नहाई अर्योल और
ब्र्यान्स्क के बीच वाले ब्रीन्शिना प्रदेश की ख़ुशनुमा काली मिट्टी धूप में
चॉकलेटी-कॉफी रंग की हो गई थी.
शहर को एक प्रमुख सीधी सड़क काटती थी, जो आगे चलकर राजमार्ग में समा जाती थी. उसके एक ओर
ध्वस्त घर थे, जिन्हें बारूदी सुरंगों ने मलबे के ढेरों में बदल दिया
था, और ज़मीन दोस्त हो चुके फ़लों के बागों के उखड़े हुए, छिलके-छिलके हो
गये और जले हुए पेड़ थे. दूसरी ओर, सड़क के उस पार, खाली जगहें फ़ैली थीं, हो सकता है, शहर के नष्ट होने से पहले, थोड़े-से बने हुए घर थे, जो आग और
बारूदी विस्फोटों से काफ़ी बच गए थे, क्योंकि यहाँ नष्ट करने के लिये कुछ था ही नहीं.
पहले वाले निर्मित भाग में बेघर हो चुके निवासी अधजली राख के ढेरों में कुछ
ढूँढ रहे थे, कुछ खोद रहे थे और जले हुए ढेर के ओनों-कोनों से
कुछ-कूछ लाकर एक जगह इकट्ठा कर रहे थे. कुछ अन्य लोग जल्दी-जल्दी अपने लिये खाईयाँ
खोद रहे थे और ज़मीन से घास की परतें काट रहे थे जिससे आवास के ऊपरी भाग को ढाँक
सकें.
सामने वाले, अनिर्मित भाग पर सफ़ेद तम्बुओं की कतार थी और ट्रकों तथा
हर तरह की दूसरे दर्जे की सेवाओं की घोड़ागाड़ियों का जमघट था, अपने
डिविजन-हेडक्वार्टर से कट गये फील्ड हॉस्पिटल्स, भटक गये, बेहद घबराये हुए और एक दूसरे को ढूँढ रहे हर संभव सैनिक
केंद्रों के विभाग, क्वार्टरमास्टर्स के दफ़्तर और आपूर्ति विभाग. वहीं दुबले-पतले, हड्डियों के
ढाँचे जैसे आपूर्ति-बटालियनों के भूरी गैरिसन कैप और भूरे वज़नदार कोटों में अपने
सूजे-सूजे, मटमैले, डिसेट्री से रक्तहीन हो गये चेहरों वाले किशोर रंगरूट नित्य
कर्म से निवृत्त होते, खाने के लिये कुछ लपक लेते, कुछ देर सो लेते और फिर पश्चिम की ओर आगे बढ़ जाते.
विस्फ़ोटों से उड़ा दिया गया और राख बन चुका आधा शहर अभी भी दूरी पर, जहाँ-जहाँ
धीरे-धीरे विस्फ़ोट करने वाली सुरंगें बिछाई गई थीं, जल रहा था और उसमें विस्फोट हो रहे थे. बागों में
खुदाई करने वाले लोग बार-बार पैरों के नीचे धरती में प्रसारित होने वाली थरथराहट
के कारण अपना काम रोक देते, अपनी झुकी हुई कमर सीधी करते, अपने फ़ावडों के
हत्थों का सहारा लेते और, विस्फ़ोट की दिशा में सिर घुमाकर, देर तक उस ओर
देखते हुए विश्राम करते.
वहाँ पहले स्तम्भों और फ़व्वारों की तरह, और बाद में अलसाये, भारी उछाल के साथ ऊपर उठते हुए मलबे के भूरे, काले, ईंट की तरह लाल, धुँआधार-आग से
लपलपाते बादल आसमान की ओर उठते, फ़ैलते, गुबार बनकर नीचे गिरते, बिखर जाते और वापस धरती पर बैठ जाते. और काम करने वाले
फ़िर से अपना काम करने लगते.
अनिर्मित भाग का एक मैदान झाड़ियों से घिरा था और वहाँ खड़े पुराने पेड अपनी
घनी छाया से उसे ढाँक रहे थे. ये वनस्पतियाँ मैदान को बची हुई दुनिया से अलग कर
रही थीं, जैसे शाम की ठण्डक में दुबका कोई अलग-थलग कम्पाऊण्ड हो.
मैदान में धोबन तान्या अपनी रेजिमेंट के दो-तीन लोगों और कुछ बिन-बुलाए
मुसाफ़िरों, और गोर्दन तथा दूदरव के साथ सुबह से लॉरी का इंतज़ार कर रही थी, - जिसे तान्या और उसके अधिकार में सौंपी गई
रेजिमेंट की सम्पत्ति के लिये भेजा गया था. यह सब सामान मैदान में संदूकों के एक
ढेर में भरा था.
तात्याना उनकी हिफ़ाज़त कर रही थी और उनसे एक भी कदम दूर नहीं हट रही थी, मगर बाकी के लोग
भी संदूकों के पास ही थे, जिससे संभव होते ही यहाँ से जाने का मौका खो न दें.
इंतज़ार काफ़ी लम्बा खिंच रहा था, पाँच घण्टों से ऊपर. इंतज़ार करने वालों के पास करने के
लिये कुछ नहीं था. वे उस बातूनी लड़की
की निरंतर बकवास सुन रहे थे, जिसने ज़िंदगी में काफ़ी कुछ देखा था. अभी-अभी वह
मेजर-जनरल झिवागो से अपनी मुलाकात के बारे में बता रही थी:
“तो ऐसा हुआ. कल का दिन. मुझे ख़ुद को जनरल के पास ले गये. मेजर-जनरल झिवागो
के पास. वह क्रिस्ती के बारे में पूछते हुए सफ़र के दौरान आया था, सवाल कर रहा था.
ऐसे गवाहों को ढूँढ रहा था, जो उसे जानते थे. लोगों ने मेरी तरफ़ इशारा किया. बोले, - सहेली थी. मुझे
बुलवाया. तो, बुलवाया, उसके पास लाये. बिल्कुल डरावना नहीं है. कोई भी ख़ास
बात नहीं, औरों की ही तरह है. तिरछी आँखें, काला. ख़ैर, जो मैं जानती थी, सब बता दिया. सुनता रहा, बोला, शुक्रिया. और तू ख़ुद, पूछने लगा, कहाँ की है. मैं, सच में, इधर-उधर की, मना करने लगी. बताने जैसा है भी क्या? बेघर हूँ. और बस.
ख़ुद ही जानते हैं. सुधार-घरों में, आवारा घूमती थी. मगर वह कुछ सुनने को ही तैयार नहीं था, बोला, बिना झिझक बताओ, शरमाना कैसा. तो, मैंने झिझकते हुए
पहले दो-एक लब्ज़ कहे, आगे कुछ और, वह सिर हिलाता रहा, मुझमें हिम्मत आ गई. मेरे पास कहने के लिये बहुत कुछ
है. अगर आपने सुना होता, यकीन नहीं करते – कहते, गप मार रही है. तो, ऐसा ही उसके साथ भी हुआ. जब मैंने अपनी बात ख़त्म की, तो वह उठा, झोंपड़ी में एक
कोने से दूसरे कोने तक घूमता रहा. बता तो, वह बोला, मेहेरबानी से, कैसी अचरजभरी बातें हैं. तो, फिर, आगे बोला. अभी
मैं जल्दी में हूँ. मगर मैं तुझे ढूँढ़ लूँगा, परेशान न होना, ढूँढ़ूँगा और फ़िर से बुलाऊँगा. बस, मैंने सोचा ही
नहीं था, कि कभी सुन भी पाऊँगा. मैं तुझे ऐसे नहीं छोडूँगा. अभी बहुत कुछ समझना बाकी
है, कई तरह की तफ़सीलें. और सुन, मैं अपने आप को तेरा चाचा लिखूँगा, तेरा जनरल की
भतीजी कहकर परिचय दूँगा. और, तू जहाँ पढ़ना चाहेगी, उस युनिवर्सिटी में तुझे भेजूँगा. ऐ ख़ुदा, सच में. ऐसी
मज़ाकियाँ बातें कर रहा था.”
इसी समय मैदान में एक लम्बी, ऊँची किनारों वाली गाड़ी आई, जिनमें पोलैण्ड और पश्चिमी रूस में बण्डल और पूलियाँ
वगैरह ले जाते हैं. एक शैफ्ट में जुती घोड़ों की जोड़ी को एक फ़ौजी चला रहा था, जिसे पुराने
ज़माने में ‘फुर्लैत’ कहते थे, घुड़सवार दस्ते की गाड़ियों का सिपाही. तात्याना और कुछ
सैनिकों को छोड़कर बाकी सबने गाड़ीवाले को घेर लिया, उसे मनाने लगे कि वह घोड़े न खोले और उन्हें जहाँ वे
चाहें, पहुँचा दें, बेशक पैसे लेकर. सैनिक ने इनकार कर दिया, क्योंकि उसके पास
घोड़ों और गाड़ी को मनमाने ढंग से इस्तेमाल करने का अधिकार नहीं था और उसे हुक्म का
पालन करना था. वह घोड़ों को खोलकर कहीं ले गया और फिर दिखाई नहीं दिया. ज़मीन पर
बैठे हुए सब लोग उठ गये और ख़ाली गाड़ी में बैठ गये. तात्याना की कहानियाँ, जो गाड़ी के आने
से और गाड़ीवान के साथ बातचीत के कारण अधूरी रह गईं थीं, फिर से आगे बढ़ीं.
“तूने जनरल को क्या बताया,” गोर्दन ने पूछा. “अगर संभव है तो हमें भी बता.”
“उसमें क्या है, बताती हूँ.”
और उसने उन्हें अपनी दहशत भरी कहानी सुनाई.
4
“मेरे पास बताने
के लिये बहुत कुछ है. लोग कहा करते थे, जैसे मैं आम लोगों में से
नहीं हूँ. अनजान लोग मुझसे यही कहते, मैं ख़ुद भी अपने दिल
में यही संजोये बैठी थी, मैंने सिर्फ सुना था कि मेरी अम्मी,
रईसा कमारवा, व्हाईट-मंगोलिया में छुपे हुए
रूसी मिनिस्टर, कमारव की बीबी थी. आप समझ सकते हैं, ये कमारव न तो मेरा बाप था, ना ही कोई रिश्तेदार. तो,
बेशक, मैं अनपढ़ लड़की, बगैर
पापा के, बगैर अम्मी के अनाथ की तरह पली. आपको शायद मज़ाक लग
रहा हो, कि मैं क्या कह रही हूँ, मगर
मैं वही कह रही हूँ, जो जानती हूँ, अपने
आप को मेरी जगह पर रखकर देखना होगा.
“हाँ. मतलब, अब
जो आगे मैं बताऊँगी, वो क्रुशिन्त्सी (युक्रेन – अनु.) के
पार हुआ, साइबेरिया के दूसरे छोर पर, कज़ाक
मुल्क के उस पार, चीन की सरहद के पास. जब हम, मतलब, हमारी रेड-फ़ौजें उनके ख़ास श्वेत शहर की ओर
बढ़ने लगीं, तो इस मिनिस्टर कमारव ने अम्मी को पूरे ख़ानदान
समेत ख़ास रिज़र्व्ड रेल गाड़ी में बिठा दिया और उन्हें ले जाने का हुक्म दिया,
आख़िर, अम्मी तो बेहद डरी हुई थीं, और उनके बगैर एक कदम भी नहीं चल सकती थीं.
और मेरे बारे में
तो उसे,
कमारव को, मालूम ही नहीं था. नहीं जानता था,
कि मैं, ऐसी-ऐसी दुनिया में हूँ. अम्मी ने
मुझे लम्बे समय तक ग़ायब रहकर जनम दिया था, और मौत जैसे डर से
काँप जाती थी, कि कोई इस बारे में बक न दे. उसे ख़तरनाक हद तक
बच्चों से नफ़रत थी, और वह चीखता और पैर पटकता, कि वो सिर्फ घर में गंदगी और परेशानी होते हैं. मैं, वह चिल्लाता, उन्हें बर्दाश्त नहीं कर सकता.
“ तो, ख़ैर,
जैसे-जैसे रेड-फ़ौजें नज़दीक आने लगीं, अम्मी ने
सिग्नलमैन की बीबी मार्फा को नागोर्नी जंक्शन पर बुलवाया, ये
उस शहर से तीन स्टॉप दूर है. मैं अभी समझाती हूँ. पहले आता है स्टेशन नीज़वा,
फ़िर जंक्शन नागोर्नी, फिर सम्सोनव्स्की
क्रॉसिंग. मैं अब इस तरह समझी हूँ, कि अम्मी सिग्नलमैन की
बीबी को कैसे जानती थी? लगता है कि सिग्नलमैन की बीबी मार्फा
शहर में सब्ज़ी बेचती थी, दूध ले जाती थी. हाँ.
“और मैं ये भी
कहती हूँ,
कि शायद कुछ ऐसा है जो मैं नहीं जानती. लगता है, अम्मी को धोखा दिया गया, ग़लत बताया गया. ख़ुदा जाने
क्या लिख दिया, जैसे, फ़िलहाल, थोड़े समय के लिये, दो दिनों के लिये, जब तक ये गड़बड़ रुक नहीं जाती. वर्ना ऐसा तो हो नहीं सकता था कि अनजान
हाथों में हमेशा के लिये. हमेशा के लिये पालने के लिये. अम्मी अपने ख़ुद के बच्चे
को इस तरह नहीं दे सकती थीं.
“आख़िर, बात
बच्चे की थी. चची के पास जा, चची मिठाई देगी, चची अच्छी है, चची से डरना नहीं. आह, कितना अपने आँसुओं डूब जाती, कितना सिर पटकती थी मैं,
बच्चे का नन्हा दिल कितनी तकलीफ़ से गुज़र रहा था, इस बारे में याद न करना ही बेहतर है. अपने आप को फ़ाँसी लगा लेना चाहती थी,
बिल्कुल बचपन में बस पागल ही नहीं हो गई. छोटी ही तो थी मैं तब.
शायद चची मार्फूश्का को मुझे पालने के लिये पैसे दिये गये थे, ख़ूब सारे पैसे.
सिग्नल-पोस्ट के
पास वाला कम्पाऊण्ड बहुत बढ़िया था, गाय और घोड़ा, और आलग-अलग तरह के पंछी, रसोई-गार्डन के लिये जितनी
चाहो उतनी ज़मीन, और मुफ़्त का क्वार्टर, सिग्नलमैन का सरकारी घर, ठीक रेल्वे लाईन के पास.
हमारी जगह पर नीचे की तरफ़ से रेलगाड़ी धीरे-धीरे आती, मुश्किल
से चढ़ती थी, और आपके यहाँ से, रूस से
इतनी तेज़ी से लुढ़कती थी कि ब्रेक लगाना पड़ता था. नीचे की तरफ़ पतझड़ में, जब जंगल बिरल हो जाता, तो नागोर्नी स्टेशन ऐसा दिखाई
देता, जैसे तश्तरी में रखा हो.
चचा वसीली को मैं
किसानों की तरह अब्बू कहती थी. वह ख़ुशमिजाज़ और भला आदमी था, मगर
किसी पर भी फ़ौरन यकीन कर लेता था और जब नशे में धुत् होता तो इतना हंगामा करता,
जैसा कहते हैं – छोटे सूअर ने बड़े सूअर को बताया, और बड़े ने पूरे शहर को बता दिया. जो भी पहले मिलता उसीके सामने अपना दिल
खोलकर रख देता.
मगर मैं, उसकी
बीबी को मेरी ज़ुबान कभी भी अम्मी नहीं कह पाई. अपनी अम्मी को मैं भूल नहीं पाई और
इसलिये भी कि ये चची मार्फूश्का बहुत ख़ौफ़नाक थी. हाँ, मतलब,
संतरी की बीबी को मैं मार्फूशा चची कहकर बुलाती थी.
“ख़ैर, वकत
गुज़रता रहा. सालों बीत गये. कितने, याद नहीं. मैं हाथ में
झण्डा लेकर ट्रेन की तरफ़ भागने लगी. घोड़े को खोलना या गाय को घर वापस लाना मेरे
लिये अचरज की बात नहीं थी. मार्फूशा चची ने मुझे कातना सिखाया. कॉटेज के बारे में
तो कुछ कहना ही नहीं है. फ़र्श पर झाडू लगाना, ठीक ठाक करना,
या कुछ पकाना, आटा सानना, ये सब मेरे लिये बेहद आसान था, ये सब मैं कर लेती
थी. हाँ, बताना भूल गई. पेतेन्का को भी मैं संभालती थी,
हमारे पेतेन्का की टाँगें लकड़ी जैसी सूखी थीं, तीन साल का था, पड़ा रहता, चल
नहीं पाता, देखभाल करती थी मैं पेतेन्का की. और कितने साल हो
गये, मगर मेरे जिस्म में अभी भी चींटियाँ रेंगने लगतीं हैं,
जब याद करती हूँ, कि कैसे चची मार्फूश्का मेरी
तंदुरुस्त टाँगों को कनखियों से देखती, जैसे कह रही हो,
क्यों सूखी नहीं हैं इसकी टाँगें, बेहतर है
मेरी टाँगें सूखी होतीं न कि पेतेन्का की, जैसे नज़र लगा दी,
बिगाड़ दिया मैंने पेतेन्का को, आप सोचिये,
दुनिया में कितनी दुष्टता और अनजानियत (अज्ञान - अनु.) होती है.
अब सुनिये, अभी
तक तो ये, जैसा कहते हैं, फूल थे,
आगे क्या होगा आप सिर्फ “आह-आह” करने लगेंगे.
उन दिनों ‘नेप’
(न्यू एकॉनोमिक पॉलिसी- अनु.) का ज़माना
था, तब एक हज़ार रूबल्स एक कोपेक के बराबर थे. वसीली
अफ़ानास्येविच ने नीचे जाकर गाय बेच दी, दो बोरे भरके पैसे
लाया, - ‘केरेन्की’ (करेन्सी नोट –
अनु.) कहते थे, माफ़ कीजिये, नहीं – ‘लिमोन’ (यहाँ मिलियन से तात्पर्य है – अनु.) –
लिमोन कहते थे, - खूब पी ली और चला पूरे नागोर्नी
में अपनी अमीरी का डंका बजाने.
मुझे याद है, पतझड़
का दिन, तेज़ हवा चल रही थी, हवा ने छत उखाड़
दी, इन्सान के पैर उखाड़ रही थी, इंजिन
चढ़ाई पर नहीं चल पा रहे थे, उन्हें सामने से हवा रोक रही थी.
मैं देख रही थी कि ऊपर से एक बुढ़िया पैदल आ रही है, हवा उसकी
स्कर्ट और रूमाल को थपेड़े मार रही थी.
बुढ़िया चल रही थी, कराह
रही थी, पेट पकड़ रही थी, पूछ कर घर में
आई. हमने उसे बेंच पर लिटाया, - ओय, चिल्लाई,
बर्दाश्त नहीं कर सकती, पेट में मरोडें उठ रही
हैं, मेरी मौत आ गई है. और मिन्नत करने लगी: ईसा की ख़ातिर
मुझे अस्पताल ले चलो, मैं पैसे दूँगी, कंजूसी
नहीं करूँगी. अब्बू ने घोड़े, उदालोय को जोता, बुढ़िया को गाड़ी में लिटाया और ‘ज़ेम्स्त्वो’ के अस्पताल ले गया, जो हमारे यहाँ से, रेल्वे लाईन से दस मील दूर है.
शायद थोड़ी देर
बाद,
या काफ़ी देर के बाद मैं और चची मार्फूश्का सोने के लिये लेट गये,
सुना कि खिडकी के नीचे उदालोय हिनहिना रहा है, हमारी गाड़ी कम्पाऊण्ड में आ रही है. बड़ी जल्दी आ गये. ख़ैर. चची मार्फूश्का
ने लैम्प जलाया, जैकेट पहना, उसने
अब्बू के दरवाज़ा खटखटाने का इंतज़ार नहीं किया, ख़ुद ही कुण्डी
खोल दी.
कुण्डी तो खोल दी, मगर
देहलीज़ पर कोई अब्बू-वब्बू नहीं था, बल्कि एक अनजान मर्दुआ –
काला और ख़तरनाक, खड़ा था, बोला : “दिखा,
गाय वाले पैसे कहाँ रखे हैं. मैंने, बोला,
जंगल में तेरे मरद को काट डाला, मगर तुझ पर,
औरत पर रहम करूँगा, अगर बता दे कि पैसे कहाँ
हैं. और अगर नहीं बतायेगी, तो ख़ुद ही समझती है, फिर मुझ पर इल्ज़ाम न लगाना. बेहतर है कि मुझसे चालाकी न कर. तेरे साथ बहस
करने के लिये मेरे पास वक्त नहीं है”.
“ओय, ख़ुदा
पाक, प्यारे कॉम्रेडों, हमारे साथ क्या
हो रहा था, अपने आप को हमारी जगह पर रख के देखो! काँप रहे थे,
ना ज़िंदा, ना मुर्दा, ख़ौफ़
से ज़ुबान बंद हो गई, कितना ख़ौफ़नाक! पहली बात, वसीली अफ़ानासेविच को उसने मार डाला, ख़ुद ही कह रहा
है कि कुल्हाड़ी से मार डाला. और दूसरी बिपदा : संतरी के घर में हम अकेले थे,
हमारे घर में डाकू था, साफ़ बात, वह डाकू ही था.
“पल भर में, जैसे
चची मार्फूश्का का दिमाग़ सुन्न हो गया, मरद के लिये टूटने
लगा. मगर आपने आप पर काबू करना था, कुछ भी नहीं दिखाना था.
चची मार्फूश्का
पहले तो उसके पैरों में गिर पड़ी. मेहेरबानी करो, बोली, मत मारो, तेरे पैसों के बारे में ना तो मैं कुछ
जानती हूँ, ना मैंने कुछ देखा है, तू
क्या कह रहा है, पहली बार सुन रही हूँ. मगर वह क्या इतना
सीधा था, दुष्ट, कि उसे बातों में उलझा
लेते. और अचानक उसके दिमाग में एक ख़याल कौंध गया, कि कैसे
उसके साथ चालाकी की जा सकती है. “अच्छा, ठीक है, बोली, तेरी मर्ज़ी से ही सही. फ़र्श के नीचे, बोली, माल रखा है. मैं चोर-दरवाज़ा खोलती हूँ,
घुस जा, बोली, फर्श के
नीचे घुस जा”. मगर वो, बदनसीब, उसकी
चालाकी को समझ रहा था. “नहीं, बोला, तुझे,
मालकिन को, घुसना ज़्यादा आसान रहेगा. ख़ुद ही
घुस जा, चाहे फ़र्श के नीचे घुस, चाहे
छत के नीचे घुस जा, मगर मुझे पैसे चाहिये. सिर्फ, बोला, याद रख, मेरे साथ चालाकी
नहीं, मेरे साथ मज़ाक करना बुरा होगा”.
और वह उससे बोली:
“ या ख़ुदा,
इतना शक क्यों कर रहा है. मैं तो ख़ुद ही ख़ुशी-ख़ुशी चली जाती,
मगर मुझसे नहीं होगा. मैं तुझे, बोली, ऊपर की सीढ़ी से रोशनी दिखाऊँगी. तू डरना नहीं, तुझे
यकीन हो जाये इसलिये मैं अपनी बेटी को तेरे साथ नीचे भेज देती हूँ”, मतलब, मुझे.
“ओय, मालिक,
प्यारे कॉम्रेड्स, आप ख़ुद ही सोचिये कि जब
मैंने यह सुना तो मेरे साथ क्या हुआ होगा! तो, बस, हो गया मेरा ख़ात्मा. आँसुओं से मेरी आँखें धुँधला गईं, महसूस कर रही हूँ, गिर रही हूँ, टाँगें मुड़ रही हैं.
“मगर उस दुष्ट ने, वेवकूफ़
नहीं था, हम दोनों को तिरछी नज़र से देखा, आँखें सिकोड़ीं और अपने मुँह को टेढ़ा करके दाँत दिखा दिये, मतलब, शरारत कर रही है, इससे
कुछ नहीं होने वाला. देख रहा था कि चची को मुझ पर रहम नहीं आ रहा है, मतलब, सगी वाली नहीं है, पराया
खून है, और उसने पेतेन्का का हाथ पकड़ लिया, और दूसरे हाथ से तहखाना खोला – रोशनी दिखा, बोला,
और पेतेन्का के साथ सीढ़ी उतरकर तहखाने में गया.
और मैं सोचती हूँ, चची
मार्फूशा तभी पगला गई थी, कुछ भी समझ नहीं पा रही थी,
तभी उसका दिमाग़ ख़राब हो गया था. जैसे ही वह दुष्ट पेतेन्का के साथ
फ़र्श के नीचे गया, उसने इस तहख़ाने के ढक्कन को धड़ाम से बंद
कर दिया, और भण्डार से बड़ा-भारी संदूक उस पर खिसकाने लगी,
और मेरी तरफ़ देखकर सिर हिलाया, जैसे, मदद कर, ये भारी है, नहीं सरका
सकती. खिसका दिया, और ख़ुद संदूक पर बैठ गई, पगली, ख़ुश हो रही थी.
“जैसे ही वह
सन्दूक पर बैठी,
भीतर से डाकू उसे आवाज़ देने लगा और नीचे से फ़र्श पर टक्-टक् करने
लगा, मतलब, अच्छा होगा कि तुम पैसे दे
दो, वर्ना मैं अभी तुम्हारे पेतेन्का को ख़तम कर दूँगा. मोटे
तख़्ते के नीचे से लब्ज़ तो सुनाई नहीं दे रहे थे, मगर उन
लब्ज़ों में कोई मतलब भी था! वो तो जंगली जानवर से भी ज़्यादा ख़तरनाक आवाज़ में गरज
रहा था, डर का माहौल पैदा कर रहा था. हाँ, चिल्ला रहा था, अभी तेरे पेतेन्का का काम तमाम हुआ
जाता है. मगर वह कुछ भी समझ नहीं पा रही है. बैठी है, हँस
रही है, मुझे आँख मार रही है. चिल्ला ले,चिल्ला ले, जितना चाहे चिल्ला ले. मैं बैठी संदूक पे,
चाभी मेरी मुट्ठी में. मैं चची मर्फूशा को ज़ोर-ज़ोर से हिला रही थी.
कान में चीखती हूँ, संदूक से खींचती हूँ, संन्दूक से गिराना चाहती हूँ. तहख़ाना खोलना होगा, पेतेन्का
को बचाना होगा. मगर कहाँ! क्या मैं उसका कुछ कर पाऊँगी?
तो, वह
फ़र्श पर खटखटाता रहा, खटखटाता रहा, वक्त
तो गुज़र रहा है, मगर वह संन्दूक बैठी-बैठी आँख़ें गोल-गोल
घुमा रही है, कुछ भी नहीं सुन रही है.
समय गुज़र रहा था –
ओय मालिक,
ओय मालिक, दुनिया में मैंने बहुत कुछ देखा है –
बर्दाश्त किया है, मगर इस तरह का ख़ौफ़ मुझे याद नहीं, जब तक ज़िंदा रहूँगी, तब तक पेतेन्का की दर्दभरी आवाज़
सुनती रहूँगी – धरती के नीचे से नन्हे फ़रिश्ते जैसा पेतेन्का चिल्ला रहा था,
कराह रहा था - आख़िर वह पापी उसका गला जो दबा
रहा था.
तो अब मुझे, मुझे
क्या करना चाहिये, मैंने सोचा, इस
अधपगली बुढ़िया और कातिल डाकू का क्या करना चाहिये? और वक्त
तो गुज़रा जा रहा है. जैसे ही मैं यह सोच रही थी, सुना कि
खिड़की के नीचे उदालोय हिनहिनाया, वह पूरे समय गाड़ी से जुता
हुआ ही खड़ा था. हाँ, हिनहिनाया उदालोय, जैसे कहना चाहता हो, चल तान्यूशा, फ़ौरन भले लोगों के पास भाग चलें, मदद की गुहार
लगायें. और मैंने देखा, सुबह होने को थी. जैसा तू चाहे, सोचा, शुक्रिया, उदालोय, अच्छी सलाह
दी, - सच कह रहा है, चल उड़ चलें. और
जैसे ही मैने ये सोचा, आह, ऐसा महसूस
हुआ कि जैसे कोई जंगल से कह रहा हो : “रुक जा, तान्यूशा,
जल्दी न मचा, हम इस काम को दूसरी तरह से
करेंगे”. और फिर जंगल में मैं अकेली नहीं हूँ. जैसे मुर्गा प्यार से गाने लगा,
जाने-पहचाने इंजिन ने नीचे से मुझे आवाज़ दी, मैं
सीटी से इस इंजिन को पहचानती थी, वह नागोर्नी पर भाप छोड़ते
हुए खड़ा रहता था, उसे ‘धक्का देने वाला’
कहते थे, मालगाड़ियों को चढ़ाव पर धक्का देने का
काम करता था, मगर ये तो मिली-जुली ट्रेन थी, हर रात इसी समय वह पास से गुज़रती थी, - मैंने सुना,
शायद, जाना-पहचाना इंजिन नीचे से मुझे बुला
रहा है. सुना, और मेरा दिल उछलने लगा. कहीं चची मार्फूशा के
साथ मैं भी तो पागल नहीं हो गई हूँ, क्यों हर ज़िंदा चीज़,
हर बेज़ुबान मशीन मेरे साथ साफ़ रूसी में बात कर रही है?
“मगर सोचने के
लिये वक्त ही कहाँ था, रेल तो नज़दीक आ गई है, सोचने
का वक्त नहीं है/
मैंने लालटेन
उठाई,
क्योंकि अभी उजाला नहीं हुआ था, और पागल की
तरह पटरियों पर भागी, पटरी के बिल्कुल बीचॉबीच खड़ी हो गई,
लालटेन को आगे-पीछे हिलाने लगी.
तो, और
क्या कहना है. मैंने ट्रेन को रोक दिया, हवा के कारण वह
धीरे-धीरे, मतलब, हौले-हौले चल रही थी.
मैंने ट्रेन को
रोक दिया,
ड्राइवर पहचान का था, वह कैबिन की खिड़की से
झाँका, पूछने लगा, सुनाई नहीं दे रहा
था कि क्या पूछ रहा था, - हवा जो तेज़ थी. मैंने चिल्लाकर
ड्राइवर से कहा, रेल्वे-पोस्ट पर हमला हुआ है, हत्या हुई है और लूटपाट हुई है, डाकू घर में है,
मदद कीजिये कॉम्रेड्स चचा, फ़ौरन मदद की ज़रूरत
है. जब तक मैं ये सब कह रही थी, डिब्बों से रेड-आर्मी के
जवान एक के बाद एक उतर कर नीचे पटरियों के पास आये, फ़ौजी
ट्रेन थी, हाँ, रेड-आर्मी के जवान
पटरियों के पास, कहने लगे “क्या बात है?”, वे अचरज कर रहे थे कि जंगल में ऊँची चढ़ाई पर रात को ट्रेन क्यों रोकी गई
है, और वह खड़ी है.
उन्होंने हर बात
पूछी,
डाकू को तहख़ाने से बाहर खींचा, वह पेतेन्का से
भी ज़्यादा पतली आवाज़ में भिनभिनाया, रहम कीजिये, बोला, भले आदमियों, मुझे न
मारिये, फिर कभी ऐसा नहीं करूँगा. उसे खींच कर रेल्वे-लाईन पर
लाये, हाथ-पाँव पटरियों से बांध दिये और ज़िंदा आदमी के ऊपर
ट्रेन चला दी – मार डाला.
मैं कपड़े लेने भी
घर नहीं गई,
इतना ख़ौफ़नाक था. उनसे मिन्नत की: चाचा, मुझे
ट्रेन में ले चलो. उन्होंने मुझे ट्रेन में बिठाया, दूर ले
गये. बाद में मैं, झूठ नहीं बोलूंगी, आधी
दुनिया – अपनी और पराई – बेघर लोगों के साथ घूमी, कहाँ-कहाँ
नहीं गई. इतनी आज़ादी, इतनी ख़ुशी मिली मुझे बचपन के दुख के
बाद! मगर, ये भी सच है कि हर तरह की मुसीबतें भी खूब आईं और
गुनाह भी किये. मगर, ये सब बाद में हुआ, ये मैं फ़िर कभी बताऊँगी. और तब, रेल्वे का एक
कर्मचारी ट्रेन से सिग्नलमैन की कैबिन में गया, सरकारी
सम्पत्ति लेने और चची मार्फूशा के बारे में हुक्म देने, उसका
इंतज़ाम करने. कहते हैं कि वह बाद में पागलखाने में मर गई. और कुछ और कहते हैं कि
ठीक हो गई, उस सबसे बाहर आ गई.
यह सब सुनने के
बाद गोर्दन और दूदरव बड़ी देर तक ख़ामोशी से घास पर चक्कर लगाते रहे. फिर ट्रक आया, फूहड़पन
से और मुश्किल से रास्ते से मैदान में मुड़ा. ट्रक में बक्से लादने लगे. गोर्दन ने
कहा:
“तू समझा, कि
ये धोबन तान्या कौन है?”
“ओह, बेशक.”
“एव्ग्राफ़ उसकी
देखभाल करेगा”. – फ़िर कुछ देर चुप रहकर आगे बोला:
“इतिहास में ऐसा
पहले भी कई बार हो चुका है. आदर्श के रूप में, उदात्त स्वरूप में जिसकी
कल्पना की गई थी – फूहड़ हो गया, साधारण
वस्तु बन गया. इस तरह ग्रीस रोम बन गया, इस तरह रूसी प्रबोधन
रूसी क्रांति बन गया. ये ब्लॉक की पंक्ति देख: “हम, बच्चे
रूस के भयानक वर्षों के”, और फ़ौरन कालखण्डों की भिन्नता समझ
में आ जाती है. जब ब्लॉक यह कह रहा था, तो उसे मुहावरे की
तरह, लाक्षणिक रूप में समझना चाहिये. और बच्चे, बच्चे नहीं थे, बेटे, संतानें,
बुद्धिजीवी थे, और आतंक ख़ौफ़नाक नहीं थे, बल्कि दैवी
थे, सर्वनाश से संबंधित थे, और ये
अलग-अलग चीज़ें हैं. मगर अब सब कुछ जो अलंकारिक था, शाब्दिक
हो गया है, और बच्चे – बच्चे हैं, और
आतंक ख़ौफ़नाक हो गया है, ये है फ़र्क.
5
पाँच-दस साल गुज़र गये, और गर्मियों की एक ख़ामोश शाम को वे फिर से बैठे थे, गोर्दन और दूदरव, असीमित सायंकालीन
मॉस्को के ऊपर, एक खुली हुई खिड़की के पास. वे एव्ग्राफ़ द्वारा
संयोजित की गई यूरी की रचनाओं की पुस्तिका के पन्ने पलट रहे थे, जिसे वे कई बार
पढ़ चुके थे, जो आधे से ज़्यादा उन्हें मुँहज़बानी याद थी. पाठक टिप्पणियों का आदान-प्रदान
कर रहे थे और विचारों में खो जाते. पढ़ते हुए, बीच में ही अंधेरा हो गया, उन्हें अक्षरों को समझने में कठिनाई होने लगी, लैम्प जलाना पड़ा.
और नीचे तथा दूर तक फ़ैला हुआ मॉस्को, जो लेखक का जन्म-स्थान था और जहाँ आधे से ज़्यादा वह
घटित हुआ, जो उसने झेला था, वह मॉस्को अब उन्हें इन घटनाओं का केंद्र नहीं, बल्कि उस लम्बी
कहानी की नायिका प्रतीत हो रहा था, जिसके अंत की ओर वे हाथों में पुस्तिका लिये इस शाम को
पहुँचे थे.
हालांकि प्रबोधन और स्वतंत्रता, जिनकी युद्ध के बाद उम्मीद थी, विजय के साथ नहीं
आये, जैसा कि लोग सोचते थे, मगर फ़िर भी, स्वतंत्रता की अग्रिम सूचना युद्ध-पश्चात् के माहौल
में महसूस हो रही थी, जो उनका एकमात्र ऐतिहासिक विषय था.
खिड़की के पास बैठे, वृद्धावस्था की ओर झुकते हुए मित्रों को ऐसा लगा कि यह
आत्मा की स्वतंत्रता आ गई है, कि ख़ास इसी शाम को भविष्य स्पष्ट रूप से नीचे सड़कों पर
स्थिर हो गया है, कि वे स्वयम् इस भविष्य में प्रवेश कर चुके हैं और अब
से उसी में स्थित हैं. इस पवित्र शहर के प्रति और पूरी धरती के प्रति, इस शाम तक उसमें
रह चुके इस इतिहास के सभी पात्रों के प्रति और उनके बच्चों के प्रति एक ख़ुशनुमा, प्यारी-सी शांति की
भावना उनके भीतर समा गई और उसने ख़ुशी के ऐसे संगीत में उन्हें लपेट लिया है, जो सुनाई नहीं
देता और जो दूर तक चारों ओर फ़ैल रहा है. और उनके हाथों में पड़ी किताब जैसे यह सब
जानती थी और उनकी भावनाओं को सहारा और समर्थन दे रही थी.
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